जनजातियों के राम

आज भी वनवासियों के ह्रदय में राम बसते हैं और जब तक संसार का अस्तित्व ही मानवता का अस्तित्व ही बनवासी जन अपने राम को हृदय में बसाए रखेंगे। छत्तीसगढ़ में तो राम का अधिकांश समय बीता है, इसलिए राज्य के वनवासियों आदर्श और आराध्य राम ही हैं।

भगवान श्रीराम के प्रति आस्था तो पूरे भारतवर्ष में सब जगह है परंतु जनजाति समाज खासकर छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले जनजाति समाज में तो श्री राम के प्रति आस्था और विश्वास अतुलनीय है। मेरा इसका अनुभव पहली बार तब हुआ जब मेरा 1993 में धमतरी जिला (उस समय के रायपुर जिला हुआ करता था) के ग्राम सिरसिदा में एक पारिवारिक कार्यक्रम में जाना हुआ, रात में पहुंचे तो सो गए। सुबह उठकर स्नान किया तो सगा- संबंधियों ने कहा कहा कि जाओ सबसे पहले श्रृंगी ऋषि पर्वत में आश्रम और महानदी उद्गम स्थल के दर्शन करके आओ। उस समय मेरी किशोरावस्था थी, हर चीज जानने की इच्छा होती थी। महानदी के बारे में तो सुना था, पढ़ा था, देखा था परंतु श्रृंगी ऋषि यह नाम नया था तो रिश्तेदारों से पूछा कि ये श्रृंगी ऋषि कौन हैं? तब उन्होंने बताया कि हमारे आराध्य भगवान श्रीराम को धरती पर अवतरित करने के लिए हुए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाने वाले महात्मा हैं श्रृंगी ऋषि और यहीं नजदीक में ही ऊंचा पर्वत जिसे श्रृंगी ऋषि पर्वत कहते हैं वही उनका आश्रम है। श्रृंगी ऋषि पर्वत से ही महानदी निकलती हैं।

वास्तव में छत्तीसगढ़ के कण-कण में भगवान श्रीराम विराजमान हैं। इसका मुख्य कारण रामायणकालीन चार पात्रों का सीधा संबंध हमारे छत्तीसगढ़ से होना है। मान्यता है कि माता कौशल्या का जन्म रायपुर जिले में ही आरंग के नजदीक ग्राम चंदखुरी में हुआ था, इस नाते छत्तीसगढ़वासी श्री राम को अपना भांजा मानते हैं। श्रीराम के कारण ही पूरे छत्तीसगढ़ में भांजे का नाम नहीं लिया जाता, अपने भांजे को प्रणाम किया जाता है तथा जीवन के अंतिम चरण में भांजे का चरणामृत प्राप्त हो जाए तो इसे सद्गति का मार्ग माना जाता है।

एक और मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम को जब 14 वर्ष का वनवास हुआ तो इनमें से लगभग 10 वर्ष उन्होंने यहीं व्यतीत किए। त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कोशल और दंडकारण्य था। भगवान श्री राम अपने वनवास के समय भरतपुर कोरिया जिला के सीतामढ़ी-हरचौका से प्रवेश करते हुए सरगुजा के रामगढ़, फिर वहां से शिवरीनारायण पहुंचे। शिवरीनारायण में उन्होंने माता शबरी के झूठे बेर खाए। छत्तीसगढ़ में आज भी संवर-सांवरा जनजाति के लोग अपने आप को माता शबरी का वंशज मानते हैं और भगवान श्रीराम सहित माता शबरी का पूजन करते हैं।

छत्तीसगढ़ और जनजाति समाज में श्रीराम से जुड़ी बहुत सी मान्यताएं हैं। आज भी छत्तीसगढ़ के जनजाति ग्रामीण क्षेत्रों में अभिवादन ’राम-राम’ से होता है। जब भी कोई नई फसल आती है तो उसकी पहली पायली (एक नाप का नाम है) राम कोठी की होती है। फसल को नापते समय गिनती राम, दो, तीन, चार से चालू होती है। इसके अलावा आज भी जनजाति ग्रामीण क्षेत्रों में श्रीराम से जुड़ी रामचरितमानस का पठन-पाठन और रामचरितमानस गान प्रतियोगिता का आयोजन गांव-गांव में होता है। मनुष्य की अंतिम यात्रा भी राम नाम सत्य है पर समाप्त होती है अतः हम कर सकते हैं कि जनजाति समाज में श्रीराम का गहरा प्रभाव है।

वनवासी के राम

राम समस्त मानव जाति के आदर्श रहे हैं। उदारता, मृदुता, सौम्यता, शालीनता, सच्चरित्रता, मर्यादा, धैर्य और पराक्रम के प्रतीक प्रभु श्रीराम का व्यक्तित्व अत्यंत चित्ताकर्षक है। अतुल्य भावनाएं भव्य और विचार, विशेषता लिए हुए थे। प्रभु जहां-जहां गए वहां वहां उन्होंने सत्य और धर्म का प्रकाश फैलाया और समरसता की मिसाल कायम की। राम ने सिखाया कि कोई उच्च वर्ग या निम्न वर्ग का नहीं होता है। रामजी का अधिकांश समय जनजातियों, वनवासियों के मध्य व्यतीत हुआ और प्रभु उनसे इस तरह एकाकार हो गए जैसी नदियां सागर में एकाकार हो जाती हैं। प्रभु राम ने उन्हें जीवन जीने का तरीका और सलीका सिखाया। उन्हें अच्छाई व सच्चाई के मार्ग पर लगाया। उन्हें ज्ञान योग्य व भक्ति योग्य का गूढ़ रहस्य बताया। वनांचल के रहवासियों ने अपनी राम के समस्त आदर्शों को आत्मसात किया। प्रभु राम ने वनवासियों को सत्य का संदेश, न्याय का निर्देश, प्रेम का उपदेश और कर्म का आदेश दिया। रामायण में प्रसंग आता है। भगवान रामदेव श्रृंगवेरपुर नामक स्थान पर पहुंचकर निषादराज को कंठ से लगाया और उसे सत्य व कर्म का मार्ग दिखाया। इसके पश्चात शस्यमुख पर्वत पर पहुंचकर कपि श्रेष्ठ हनुमान, वनराज सुग्रीव और भयोवृद्ध जामवंत से मित्रता कर उन्हें भ्रातृत्व भाव से अपनाया। ये सब उदाहरण श्रीराम को महामानव, महापुरुष सिद्ध करते हैं।

विनाच्छदित क्षेत्रों, वनांचलों, सुदूर पहाड़ियों और दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों अपने आराध्य श्री राम को जानकी, मानती वह पूजती है। उनकी संस्कृति रीति रिवाज, तीज त्योहार वह व्यवहार ने श्री राम जी का ही अदृश्य दृष्टिगत होता है। यद्यपि कालांतर में कुछ और मर्यादित व अमानवीय शक्तियों द्वारा वनवासियों को श्रम से पृथक करने व राम को आदर्शों से वंचित करने की चेष्टा की गई किंतु सत्य, तथ्यों व शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि आज भी वनवासियों के ह्रदय में राम बसते हैं और जब तक संसार का अस्तित्व ही मानवता का अस्तित्व ही बनवासी जन अपने राम को हृदय में बसाए रखेंगे।

भारत का बहुत बड़ा भाग वन क्षेत्र हैं। मध्य प्रदेश का पश्चिम क्षेत्र धार बड़वानी, झाबुआ, भलीराजपुर, रतलाम तथा गुजरात का दाहोद, बड़ौदा, सूरत महीसागर पंचममम, संतरामपुर, ममदाबाद व राजरथान का का बांसवाड़ा, डुंगरपुर, चित्तौड़गढ़, झालावाड़, भीलवाड़ा आदि जिले संपूर्ण वनवासी जिले हैं। इन जिलों में भील, भिलाला, पटलिया और बारेला जनजातियां निवास करती हैं। इनमें सबसे अधिक संख्या भीलों की है। इस क्षेत्र के वनवासियों का आपसी रिश्ता नाता, मेलजोल आना जाना होता रहता है। बोली भाषा एक समान, आचार विचार, रहन सहन, रीति रिवाज, परंपरा, गीत संस्कृति एक जैसी है। इस क्षेत्र के वनवासियों में राम के प्रति गहरी आस्था है। यह राम को अपना भगवान मानते हैं। राम हमारा है हम राम के हैं, राम के बिना कोई काम नहीं बनता, ऐसी मान्यता है। बेशक कई देवी-देवताओं की आराधना की जाती है पर उनमें राम को ही भगवान माना जाता है। राम वनवासियों के रोम रोम में बसा है इसके अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्रातःकाल उठते ही हाथ मुंह धोकर पूर्व दिशा में खड़े होकर राम का नाम लिया जाता है। हे भगवान राम मेरे से कोई गलती हुई तो माफ करना और मेरा आज का दिन भरापूरा निकले ऐसी कामना के साथ राम का नाम चाहे पुरुष हो या महिला दोनों की प्रतिदिन प्रात काल की यही प्रक्रिया रहती है। जब बच्चा पैदा होता है उस समय हल्दी, गुड़ व शहद या वह नहीं हो तो गाय का घी मिलाकर पांच बार राम का नाम लेकर नवजात शिशु की जीभ पर रखा जाता है और पांच बार राम का नाम लेकर कान में फूंक मारी जाती है। बच्चा पैदा होते ही राम को सौंप दिया जाता है।
वनवासी क्षेत्र में राम की अनेकों कथाए, कहानियां तथा वनवासी रामायण भी प्रचलित है जो की पीढ़ी दर पीढ़ी मुखाग्र है। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि समाज में राम के प्रति कितनी गहरी आस्था और विश्वास है। इन जनजातियों का पुरातन काल से ही राम से गहरा नाता है।
भगवान राम और वनवासी समाज का अटूट सम्बंध है, इसलिए वनवासी बंधु-भगिनी सोते उठते सीताराम बोलते हैं। नाम के आगे भी राम लिखते हैं और नाम के पीछे भी राम लिखते हैं। अपने उपनाम में भी भगत लिखते हैं। और कुछ जनजाति समाज के लोग तो शरीर के हर अंग में गोदना से राम लिखवाते हैं। ऐसे राम के परम् भक्त हैं वनवासी। भगवान राम अयोध्या से निकले थे राजा राम बनकर और वनवास से वापस हुए भगवान राम बनकर। यह उपाधि गिरी कंदराओं में रहने वाले हमारे वनवासी भाई-बहनों ने दी है।

गौड़ समाज में राम

गौंड़ समाज राम इस प्रकार व्याप्त हैं जैसे हनुमान जी के अंदर श्री राम बसे हैं। उसी प्रकार गौंड़ समाज श्रीराम को धारण करते हुए ही जीवन जीता हैं। वास्तव में वर्ण के अनुसार गौंड़ समाज क्षत्रीय वर्ण है। जिसे राजगौंड़ कहा जाता था। जिसकी जीवनचर्या क्षत्रीय गुणों से परिपूर्ण है एवं पारिवारिक और सामाजिक जीवन में श्रीराम को ही अपना आदर्श मानते हैं। उनके भजन भक्ति आराधना में श्रीराम चरित मानस पाठ रामायण आदि का पूरी श्रद्धा भाव से पठन पाठन करते हैं।

गौंड़ समाज के लोगों का जब से राजाओं के समय का राजपाट मुगलों और अंग्रेजों द्वारा छीना गया तब से धार्मिक एवं सामाजिक पतन हुआ। पर भारत देश के स्वतंत्र होने के बाद जब से उसको संवैधानिक द़ृष्टि से नामकरण कर अलग नाम दिए गए एवं बोलचाल में अन्य संबोधनों से परिचय दिया गया तब से गौंड़ जाति में अपने धार्मिक स्वभाव पर भ्रम होना प्रारंभ हुआ।

समय अनुसार समाज में सबसे अधिक धार्मिक व सामाजिक मान्यता त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अवतरण के युग की विद्यमान हैं। जिसमें गौंड़ समाज बड़ा देव-महादेव वह हर संकट के निवारण के लिए यदि पूजा करता तो वो संकट मोचक हनुमान जी एवं दुर्गा की पूजा करता है।

सप्त्ााह में या शाम अथवा सुबह श्रावण मास अथवा धार्मिक मास रामनवमी नवरात्रि आदि के समय रामायण पाठ रामलीला, खेल आदि का ग्रामों में प्रदर्शन कर समाज के लोग लोककला का प्रदर्शन करते हैं।

गौंड़ समाज के गायन गीत भजन आदि में 75 से 80: गीत भजन भगवान श्रीराम के पर गाए जाते हैं। महिलाएं भी शादी गीत से लेेकर श्रावण मास कार्तिक मास शिवरात्रि फाल्गुन चैत्र मास आदि सभी वार्षिक धार्मिक गीतों को भगवान राम और माता सीता के भक्ति गुणों में गाती हैं। दशहरा, दीपावली आदि त्यौहारों भगवान राम के रामलीला चरित्र कार्यक्रमों के माध्यम से समाज धर्म के मार्ग पर चलने के शिक्षा समाज में फैलाता असत्य रूप रावण पर रामरूपी सत्य की जीत गौंड़ समाज हमेशा स्मरण रखता है। गौंड़ समाज में श्रीराम व्यावहारिक रूप से कैसे समाये हुए हैं। यह इस प्रकार समझा जा सकता है। गौंड़ समाज में पुरूष एवं नारी शक्ति आपस का राम-राम, जय राम, सीताराम करके अभिवादन पूर्व से करते आ रहे हैं। सत्य बोलना पूरी समाज का वास्तविक व्यवहार है, जो असत्य बोलता है, समाज में सबसे बुरा माना जाता है। समाज राजा रामचन्द्र की तरह राज्य की मान्यता है जो सत्य और ईमानदारी शक्ति के साथ अत्याचारों का निवारण करेगा वह शासक मान्य होगा। छल, कपट, झूठ, फरेब, और राक्षसी कृत्य समाज मान्य नहीं करता। धर्म के प्रति श्रद्धा वचन का पालन करना गौंड़ समाज आज भी कायम है, जो कि इस वाक्य से संबंध रखता है कि ‘रघ्ाुकुल रीत सदा चली आई प्राण जायें पर वचन न जाई।’ इस प्रकार गौंड़ समाज भी भगवान श्रीराम के इस गुण पर चलता आ रहा है, जिसका वचन भी खाली नहीं जाता है।

भगवान श्रीराम के वनवास के समय जो वनफल कंद मूल भगवान ने खाए थे एवं अपना चौदह वर्ष का वनवास वनों में बिताया था उसी प्रकार उन्हीं वनफलों को कंदमूल आदि को गौंड़ समाज आज भी भोजन के रूप में खा रहा है। जिस प्रकार कष्ट प्रद जीवन भगवान ने जिया उससे शिक्षा लेकर गौंड़ समाज आज अपना सम्पूर्ण जीवन श्रीराम को आदर्श मानते हुए वनों में पहाड़ों में जीता जा रहा है।

भगवान श्री राम को वनवासी समाज ने वीर हनुमान दिया, वीर वानर राज सुग्रीव को खिलाया, माता शबरी आदि सभी गौंड़ समाज के मजबूत रक्षक आदर्श हैं। गौंड़ समाज बोलता नहीं पर आचरण व्यवहार से अपने तथ्य प्रकट करता है देव संस्कृति सनातन धर्म संस्कृति, वैदिक संस्कृति गौंड़ समाज की मूल संस्कृति है, जो कि भगवान श्रीराम को समाज में आदर्श ईश्वर मानने से वर्षों से संरक्षित चली आ रही है। परिवार जिस प्रकार भगवान श्रीराम के भाई आपस में एक रहकर समाज और परिवार में एक रूप रहे उसी प्रकार गौंड़ समाज भी संयुक्त परिवार समाज और रिस्तों में आज भी अन्य समाज से अधिक ज्यादा बंधा हुआ है। यदि देखा जाए तो आज के आधुनिक युग में यदि सत्य धर्म संस्कृति भगवान श्रीराम के प्रति यदि कोई सच्ची श्रद्धा भक्ति देखने की मिलती है तो वो गौंड़ (राजगौंड़) समाज में देखने में मिलती है।
जय राम जी!

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