विवेकानंद का कृतिरूप दर्शन

 

समाज में संन्यासी की स्थिति पहले से ही बहुत ऊंची मानी जाती रही है। मनु ने लिखा है कि जो मनुष्य तीनों ऋणों (देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण) से उऋण हो चुका हो, वही मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से संन्यास ग्रहण करे। तीनों ऋणों से उऋण हुए बिना यदि कोई मोक्ष में मन लगाता है, तो अच्छा नहीं माना जाता।

संन्यासी को राग-द्वेष तथा माया-मोह से सर्वथा पृथक रहना चाहिए। सबके प्रति उसके मन में समभाव हो। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं होता है। संन्यासी तो परिव्रजनशील होकर भ्रमण करता रहता है। कहीं भी भिक्षा मांगकर अपना जीवन निर्वाह कर लेता है। यह चौथा आश्रम संन्यासी के जीवन के अंत तक चलता रहता है।

प्रेरणादायी जीवन

मैं एक संन्यासी हूँ, मैं भारतीय मनीषा, भारतीय संस्कृति का संवाहक हूँ। मुझे क्रांतिकारियों से बहुत ऊर्जा मिलती है। मेरे जीवन पर स्वामी विवेकानंद का भी गहरा प्रभाव पड़ा है। वे भी संन्यासी थे और मैं भी संन्यासी हूँ। जहां तक मैंने स्वामी विवेकानंद को पढ़ा है, जाना है, समझा है और आत्मसात किया है उससे उनके समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व से मैं बेहद प्रभावित हूँ। महान भारतीय संत एवं चिन्तक रामकृष्ण परमहंस का आध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करके उनके चिंतन के बीज कणों को विश्व में वितरित करने और अपना कार्य सफलता पूर्वक संपादित करने वाले विवेकानंद का जीवन निश्चय ही अत्यन्त गौरवपूर्ण एवं प्रेरणादायक है। स्वामी विवेकानंद ने अपनी यात्राओं एवं रामकृष्ण मिशन की स्थापना द्वारा पूर्व और पश्चिम के बीच निश्चय ही एक आध्यात्मिक सेतु का निर्माण किया है।

एक युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेशों में बिखेरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के मूर्धन्य विद्वान, युगांतकारी आध्यात्मिक गुरु, स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यावहारिक बनाया। सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का प्रयास किया। युवावस्था में नरेन्द्र को पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद और ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वन्द्व से भी गुजरना पड़ा। गुरु ने शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए।

गरीबों का अनन्य भक्त

स्वामी विवेकानंद ने धर्म एवं तत्व ज्ञान के समान भारतीय स्वतंत्रता की प्रेरणा का भी नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानंद का कथन है, ‘मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ, न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो गरीब हूँ और गरीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे कहूँगा जिसका हृदय गरीबों के लिए तड़पता है। मैं उस प्रभु का सेवक हूँ जिसे अज्ञानी लोग (मनुष्य) कहते हैं।’

रामकृष्ण परमहंस का कहना था- ‘धर्म खाली पेट लोगों के लिए नहीं है। आत्मनिष्ठ धर्म के बौद्धिक कल्पना विलास से उबरकर उन्होंने धर्म का पहला कर्तव्य स्थिर किया, दरिद्रजन की सेवा और उनका उद्धार।’

स्वामी विवेकानंद ने एक स्थान पर कहा है-‘मैं समस्त भारत की प्रदक्षिणा कर चुका हूँ। मेरे बन्धु, अपनी आंखों से जनसमुदाय की भयंकर दरिद्रता और पीड़ा देखने की वेदना मैंने अनुभव की है, आंसू संभाल नहीं सका हूँ, अब मैं दृढ़ता से कह सकता हूँ कि उस जनसमुदाय का क्लेश, उनका काठिन्य दूर करने का यत्न किये बिना उसको धर्म शिक्षा देना सर्वथा व्यर्थ है। इसी कारण भारत के दरिद्रजनों की मुक्ति का साधन जुटाने मैं अब अमेरिका जा रहा हूँ।’

११ सितम्बर, १८९३ में स्वामी विवेकानंद ने अपने अलौकिक तत्वज्ञान से पाश्चात्य जगत को चौंका दिया। अमेरिका ने स्वीकार कर लिया कि भारत ही जगत गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानंद ने वहां भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित कर जबरदस्त प्रभाव छोड़ा। विवेकानंद ने वहां एकत्र लोगों को सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदान्तिक संदेशों और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। सन् १८९६ तक वे अमेरिका में रहे।

एक जगह पर विवेकानन्द सदानन्द से बोले, ‘देशवासियों का दु:ख, दारिद्र्य देखकर मेरा अन्तर कचोट रहा है। कुछ न करो तो तुम कम से कम एक सहायता केन्द्र तो स्थापित करो।’ गिरीश से उन्होंने कहा, ‘आह गिरीश, मेरा मन कह रहा है कि जगत के दु:ख निवारण के लिए, किसी का रंचमात्र क्लेश मिटाने के लिए यदि सहस्र बार जन्म लेने का दण्ड भोगना पड़े, तो मैं सहर्ष भोगूँगा।’

विचारों का प्रसार

विवेकानन्द संघर्ष से नहीं भागे थे, विजय के क्षण से भी नहीं विमुख हुए। उनका कहना था कि यह मेरा नहीं, यह मेरे लक्ष्य का सम्मान है और ईश्वर ही जिसका एकमात्र सम्बल था, ऐसे एक अपरिग्रही, अनाम, अनिकेतन संन्यासी के राष्ट्रव्यापी सम्मान के असाधारण वैशिष्ट्य को उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया। उन्होंने अपने पुनीत अभियान की प्रगति के लिए अपने साधन संगठित किये। वह स्वयं रुग्ण थे और उन्हें विश्राम हितकर होता, परन्तु उन्होंने अतिमानवीय परिश्रम किया। वह जिस पथ से गये अपने विलक्षण व्याख्यानों द्वारा अपनी ज्योति चारों ओर प्रसारित करते गये।

एक बार किसी एक गृहस्थ शिष्य ने भारत में एकता एवं समता की स्थापना में बाधाओं का उल्लेख किया। विवेकानंद खिन्न होकर बोले, ‘‘किसी कार्य को दुस्साध्य मानते हो, तो यहां मत आया करो। प्रभु की अनुकम्पा से सब कुछ सुगम हो जाया करता है। तुम्हारा कर्तव्य है बस, जात-पात न देखकर दीन-दुखियों की सेवा करते जाओ। तुम्हें अपने कर्म के फल की चिन्ता का क्या अधिकार? तुम केवल अपना काम किये जाओ सब बाधाएँ मिट जायेंगी, सब कार्य सिद्ध होंगे।’’

शुद्ध अपरिच्छन्न सत्य है इन शब्दों में। मानो अस्तप्राय सूर्य, देदीप्यमान वर्णवैचित्र्य में विलीन हो जाने के पहले मेघों के पीछे से पूâट निकला हो। सब प्राणी एक समान हैं। सब उसी एक परब्रह्म के अंश, सब उसी एक परमात्मा को धारण करते हैं और वह परमात्मा अनन्य है, जो उसकी सेवा का इच्छुक है, वह मनुष्य की-और प्रथमत: दीनतम, तुच्छतम, हीनतम मनुष्य की सेवा करें। सीमाएँ तोड़ गिराओ। ऐसा स्वामी विवेकानंदजी का मानना थ

मैं तो स्वामीजी के सेवा विचार का हिमायती हूँ क्योंकि बिना सेवा के चित्त शुद्धि नहीं होती और चित्त शुद्धि के बिना परमात्म तत्व की अनुभूति नहीं होती। अत: सेवा के अवसर ढूंढते रहना चाहिए। मनुष्य स्वयं से अधिक दूसरों के प्रति सजग रहता है; जितनी सजगता दूसरों के लिए रखते हैं उतने ही यदि हम स्वयं के प्रति सजग हो जायें, अपने मन, विचार, भाव, स्वभाव व कार्यों के प्रति जागरूक हो जाएं, तो हमारा कल्याण हो जाए। अत: जगत् कल्याण के लिए सुधारक बनने से पहले एक अच्छे साधक बनना। पहले साधक बनो, सुधारक तो फिर तुम स्वयं बन जाओगे। जैसे छाया वृक्ष का परिणाम होता है, वृक्ष होगा तो छाया मिलेगी ही। साधक बन जाओगे तो सुधार स्वत: ही घटित होगा।

नैतिक जिम्मेदारी
जहाँ व्यक्ति में ‘मैं,’ और ‘मेरा’ जुड़ जाता है वहाँ ममता, प्रेम, करुणा एवं समर्पण पैदा होते हैं, वहां सेवा एवं सद्भाव स्वत: स्पुâटित होने लगते हैं। सांसारिक सम्बन्धों में जहां ‘मैं’ और ‘मेरा’ जुड़ा होता है, उन सगे सम्बन्धियों के लिए हम सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर रहते हैं। जब देश के साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’ जुड़ता है अर्थात् यह देश मेरा है और मैं आज जो कुछ भी हूँ, देश की बदौलत हूँ। तब व्यक्ति में देश के लिए सर्वस्व आहूत करने की भावना जागती है। मुझमें जो प्राण हैं, वे इस देश की माटी से पैदा हुए अन्न-जल से मैं जीवित हूँ। देश से मुझे धन, सत्ता, सम्पत्ति व सम्मान मिला है। इस देश की माँ, बहन, बेटियों, बच्चों व इन्सानों की आँखों के आँसू मेरी पीड़ा है व देश की खुशहाली मेरी प्रसन्नता है। देश का एक भी व्यक्ति बेसहारा न रहे। इसी भावना के वशीभूत होकर ‘हमने’ दिव्य योग मंदिर (ट्रस्ट), पतंजलि योगपीठ (ट्रस्ट), भारत स्वाभिमान (ट्रस्ट) तथा अन्य प्रकल्पों का आविर्भाव किया।

जो सावैभौमिक व वैज्ञानिक मूल्यों, आदर्शों एवं परम्पराओं को धर्म मानता हो, जो आस्तिक और धार्मिक तो हो, परन्तु धर्मान्ध न हो, जो मनुष्य सहित समस्त प्राणियों एवं जड़-चेतन समस्त स्वरूपों में ईश्वर का मूर्तरूप देखता हो और अपने सम्पूर्ण जीवन को जीव व जगत् की सेवा के लिए समर्पित कर जगत की पीड़ा हरता है, वह अध्यात्मवादी है। जो समस्त संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव-मात्र से प्यार करके व पूरे विश्व को परिवार की तरह देखे, सदैव अपने हृदय में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का भाव रखे, वह अध्यात्मवादी है। यह अध्यात्मवाद व राष्ट्रवाद परस्पर विरोधाभासी विचारधारा नहीं है, अपितु प्रत्येक देश एवं उस देश के नागरिकों की पूर्ण स्वतंत्रता व आत्मसुरक्षा के साथ जीने के लिए दोनों विचारधाराएँ समान रूप से आवश्यक हैं। सांसारिक व राष्ट्रीय व्यवस्था के अनुसार हम एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं और अपने देश की आजादी, एकता-अखण्डता व सम्प्रभुता की रक्षा, यह हमारा राष्ट्रीय नैतिक दायित्व है। यह हमारा राष्ट्रधर्म है, साथ ही यदि हम विश्व-बन्धुत्व, वैश्विक शान्ति व सामाजिक समरसता की दृष्टि से देखें, तो हम सब एक हैं एवं एक ईश्वर की संतान हैं। अंत: ईश्वर पुत्र होने की दृष्टि से परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार हम सब भाई-बहन हैं। यह हमारा आध्यात्मिक दर्शन व अध्यात्मवाद है।

आजादी का आंदोलन

आजादी के आंदोलन में स्वामी विवेकानन्द की भी अहम भूमिका रही है। आजादी के आंदोलन में तिलकजी हों या गांधीजी, राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ स्वदेशी भावना का प्रचार भी विदेशी शक्तियों की आर्थिक नीतियों की कमर तोड़ना ही एक उद्देश्य था। गांधीजी ने अनेक अवसरों पर कहा था, ‘आजादी के पश्चात आजादी को सुरक्षित रखने में अनेक खतरे हैं। उन्होंने कहा था कि- ‘विदेशी शक्तियों की कवीन टेक्नोलाजी हो या वस्तु व्यापार, जो भी देश के हित में हो, उसे स्वीकार करो।’

स्वामी विवेकानन्द ने भारत की आध्यात्मिक विजय पताका अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा यूरोप में कई जगह लहरायी थी, लेकिन इस समय देश का विकास भ्रष्टाचार की आंधी में औंधे मुंह गिर गया है। इसके लिए जरूरी है स्वदेशी व स्वावलम्बी भारत का निर्माण। यह भी संभव है जब हम राष्ट्रीय सोच के साथ आगे आयें।
इस समय भारत में शिक्षा, चिकित्सा, कृषि सहित तमाम व्यवस्थाएं अपने मार्ग से भटक गयी हैं। इन्हें रास्ते पर ही लाकर नये भारत का निर्माण किया जा सकता है। इसमें आम आदमी की भूमिका प्रमुख है। सोने की चिड़िया कहा जाने वाला देश आज दुनिया के सामने हाथ पसारे खड़ा है। यह देश का दुर्भाग्य है कि यहां का पैसा विदेश बैंकों में जमा है और उससे वहां का विकास हो रहा है। यह धन वापस लाया जाना आवश्यक है।

भ्रष्टाचार से सम्पूर्ण भारतवासी अब ऊब चुके हैं। देश में पैâले इसके संजाल के विरुद्ध कड़े कानून बनाने के लिए, भ्रष्टाचार से मुक्ति तथा काले धन को वापस लाने के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ। मैं अंग्रजों द्वारा बनाये गये कानून तथा व्यवस्थाओं में परिवर्तन का पक्षधर हूँ।
हम प्रत्येक व्यक्ति को योग धर्म से जोड़कर उसके भीतर राष्ट्रधर्म की अलख जगाना चाहते हैं। हम योग-शक्ति से जन-जन में राष्ट्रभक्ति का जज्बा भरना चाहते हैं। हम हर सुबह योग द्वारा आत्मोन्नति कर अपनी संपूर्ण ऊर्जा को राष्ट्रोन्नति में लगाना चाहते हैं। बहुत से लोगों के मन में प्रश्न उत्पन्न होता है कि योग एवं देश का विकास इनका क्या सम्बन्ध है? तो हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि बिना आत्मविकास किये राष्ट्र का विकास एक सपना है। अत: प्रत्येक प्रभात में हम योग द्वारा आत्मविकास कर, पूरे दिन राष्ट्र के विकास या समृद्धि के लिए समर्पित होंगे। योग धर्म एवं राष्ट्र धर्म विरोधाभासी विचारधाराएं नहीं, अपितु एक दूसरे की पूरक हैं।

जनजागरण

देश को आर्थिक गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराके विश्व को आर्थिक और आध्यात्मिक गुरु बनाने के लिए मैं कृत संकल्पित हूँ। देश में राजनीतिक शुचिता लाने, भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने और काला धन को वापस लाने के लिए मैं अहर्निश संघर्ष और जनजागरण कर रहा हूँ।

देश के धन को देश में वापस लाने के लिए मैंने शंखनाद कर दिया है। भारत से भ्रष्टाचार दूर होने, काला धन वापस आने तथा व्यवस्था परिवर्तन से भारत पुन: आर्थिक और आध्यात्मिक रूप से जगतगुरु हो जायेगा। भारत की पताका पुन: वैश्विक स्तर पर फहरेगा जैसे पताका स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म सम्मेलन शिकागो में फहरायी थी। मैं स्वामीजी के विचारों से आविर्भूत और प्रभावित भी हूँ।

Leave a Reply