अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों…

देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत फिल्मी गानों की एक लंबी श्रृंखला है। एक-एक गीत के निर्माण में हमारे गीतकारों, संगीतकारों, गायक-गायिकाओं और वादकों ने जितनी मेहनत की है उसी का यह सुपरिणाम है कि एक-एक गीत सोना उगलता जान पड़ता है।

हिंदी सिनेमा अपने उद्भवकाल से लेकर आज तक हमेशा ही अपने समय की विसंगतियों, सामाजिक अपेक्षाओं, उम्मीदों और निराशाओं को प्रकट करता चला आया है। प्रेम और रोमांस, रहस्य और रोमांच के परंपरागत फॉर्मूले के साथ-साथ इसने सामाजिक समस्याओं और देश-भक्ति को भी अपने कथानक में शामिल किया है। हर साल जब भी पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व आते हैं, देशभक्ति से परिपूर्ण सिनेमा की बरबस याद आ जाती है। दरअसल देशभक्ति का यह सिलसिला तभी शुरू हो गया था, जब देश की आजादी का आंदोलन अपने शीर्ष मुकाम पर था। हालांकि अंग्रेज यह मानने को तैयार नहीं थे कि यह देश उनकी मुट्ठी से फिसल रहा है, लेकिन हमारे फिल्मकारों ने आहट भांप ली थी। शायद इसीलिए अद्भुत प्रतिभा के धनी पं. प्रदीप ने बॉम्बे टॉकीज की 1942 में बनी फिल्म ‘किस्मत’ में यह महान गीत रच दिया था:

आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है
दूर हटो दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है

इस गीत ने जन-जन में राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और फिल्म को जबरदस्त कामयाबी मिली। हालांकि तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने इस गीत के प्रसारण पर बंदिशें लगाने की बहुत कोशिश की, लेकिन तब तक तीर कमान से छूट चुका था। देश आजाद होते ही सिनेमा आजादी के बाद की नई उम्मीदों और नई उमंगों के साथ आगे बढ़ने लगा। एक ओर इसने आजादी से जुड़े अफसानों को लेकर फिल्में बनाईं तो दूसरी ओर आजादी से जुड़े तत्कालीन सपनों को भी पंख लगाए। आजादी की ऐसी ही दास्तां लेकर महान फिल्मकार बिमल रॉय गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कृति पर अनुपम फिल्म ‘काबुलीवाला’ लेकर आए, जिसमें शैलेंद्र के लिखे और सलील चौधरी द्वारा स्वरबद्ध किए गीत ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुरबान’ को मीठे गलेवाले मन्ना डे ने बहुत गहराई से गाया था।

भले विषय एक हो, लेकिन आजादी के संघर्ष को बयां करने का फिल्मकारों का अपना-अपना तरीका रहा है। यहां तक कि भगत सिंह की शहादत पर भी कई फिल्में अलग-अलग तेवर के साथ बनीं। पहली फिल्म दिलीप कुमार को लेकर 1948 में बनी, जिसके निर्देशक थे रमेश सहगल। इस फिल्म को कामयाबी तो मिली लेकिन लोगों के दिलों तक पहुंच न सकी। लोगों के दिलों तक पहुंची 1965 में बनी मनोज कुमार अभिनीत ‘शहीद’ जिसके तराने गली-गली गूंज उठे। प्रेम धवन के लिखे और स्वरबद्ध गीत ‘ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम तेरी राहों में जाँ तक लूटा जाएंगे’ और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गीतों ने तत्कालीन कॉलेज परिसरों को देशभक्ति के केसरिया रंग से भर दिया।


इस गाने और फिल्म की सफलता का आलम यह है कि इक्कीसवीं सदी में इस विषय पर अजय देवगन और बॉबी देवल को लेकर दो-दो फिल्में बनीं। यहां तक कि 2006 में इस गीत पर ‘रंग दे बसंती’ नामक फिल्म भी बनी। लेकिन प्रस्तुतीकरण में मामूली होने के कारण दोनों शहीद पिट गईं। हां, ‘रंग दे बसंती’ चली जरूर, लेकिन उस फिल्म का शहीद भगत सिंह से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। अपने-आप को तथाकथित क्रांतिकारी समझने वाले युवा पल की राइलिंग पर बैठकर बीयर पीते और इसी टाइप के कुछ और भी अमर्यादित कार्य करते दिखाए गए थे।

साठ के दशक में देशभक्ति की फिल्मों और गानों के दौर में कुछ गाने ऐसे भी आए जिनमें लोगों से कुछ कर गुजरने और आजादी के संघर्ष को सुस्मृत बनाए रखने का आह्रवान किया गया। ‘लीडर’ में शकील बदायुंनी के लिखे और नौशाद साहब द्वारा स्वरबद्ध गीत ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं’ में कमोबेश ऐसा ही आह्रवान था। दूसरी ओर भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी ‘हकीकत’ में गीतकार कैफी आजमी और संगीतकार मदन मोहन ने युद्ध में शहीद हुए जवानों की ओर से उनकी बात कुछ यूं पेश की थी:

कर चले हम फिदा जानो-तन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

इस गीत के दौरान सेना के त्याग, बलिदान, संघर्ष को अभिव्यक्त करने के लिए मदन मोहन ने इतनी करुण धुन और संगीत अंशों का प्रयोग किया कि सुनने वाले की आंख से बरबस आंसू निकल जाएं। इसके अंतरे भी श्रोताओं को झकझोर देते हैं, खास तौर पर ये पंक्तियां तो बहुत ही मर्मस्पर्शी थीं:

खींच दो अपने खूँ से ज़मीं पे लकीर
इस तरफ आने पाए न रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छूने पाए न सीता का दामन कोई
राम भी तुम, तुम्ही लक्ष्मण साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

जनता से इस प्रकार किए गए आह्वान ने लोगों में देशभक्ति का जज्बा भर दिया था। उन्हीं दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरू की फरमाइश पर देशभक्ति के एक कार्यक्रम के लिए महान संगीतकार सी. रामचंद्र ने गीतकार प्रदीप के साथ एक अलौकिक देशभक्तिपूर्ण गैर-फिल्मी गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी’ तैयार किया। आजादी के बाद के दौर की इस देश की महानतम गायिका लता मंगेशकर ने इसे इतनी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया कि इसे सुनते ही नेहरूजी की आखों से अश्रुधारा बह निकली और उन्हें कहना पड़ा, ‘बेटी आज तूने मुझे रुला दिया’।

प्रदीप के लिखे इस गीत ने ही नहीं, बल्कि उनके द्वारा लिखे व गए एक और गीत ने भी लोगों को बहुत प्रभावित किया। 1954 में बनी ‘जागृति’ के ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ गीत भी हर स्कूल से निकलने वाली प्रभात फेरियों का अभिन्न अंग बन गया। देश की इस महिमा को भारतीय संस्कृति से जोड़कर एक बिरले अंदाज में पेश किया गया एक निहायत ही मामूली फिल्म ‘सिकंदर-ए-आजम’ में। पृथ्वीराज कपूर और दारा सिंह अभिनीत 1965 में बनी इस फिल्म में राजेंद्र कृष्ण के लिखे और हंसराज बहल द्वारा स्वरबद्ध किए इस गीत को सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो गए:

जहां डाल-डाल पर सोने की                                                   
चिड़ियां करती हैं बसेरा
वो भारत देश है मेरा
जहां सत्य, अहिंसा और धर्म का
पग-पग लगता डेरा
वो भारत देश है मेरा
ये धरती वो जहां ऋषि मुनि
जपते प्रभु नाम की माला
जहां हर बालक इक मोहन है
और राधा इक-इक बाला
जहां सूरज सबसे पहले आ कर
डाले अपना डेरा
वो भारत देश है मेरा..

देश की महिमा का बखान करने वाले इन गीतों की परंपरा में राज कपूर भी पीछे नहीं रहे। बरसों पहले ‘श्री 420’ में शैलेंद्र से ‘मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ जैसा गीत लिखवाकर उन्होंने अपना देशप्रेम तो प्रकट कर दिया था, लेकिन इसे कहीं ज्यादा गहराई से उन्होंने प्रकट किया साठ के दशक की अपनी महत्वपूर्ण फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के जरिए। इस फिल्म में शैलेंद्र के लिखे व शंकर-जयकिशन द्वारा स्वरबद्ध किए गीत ‘होठों पे सच्चाई रहती है, जहां दिल में सफाई रहती है, हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है’ ने भारतीय समाज को एक नए तरीके से व्याख्यायीत किया। खास तौर पर ये पंक्तियां विशेष उल्लेखनीय थीं:

कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं
इन्सान को कम पहचानते हैं
ये पूरब है पूरबवाले
हर जान की कीमत जानते हैं
मिल जुल के रहो और प्यार करो
एक चीज़ यही जो रहती है
हम उस देश के…

देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत गानों की एक लंबी श्रृंखला है। एक-एक गीत के निर्माण में हमारे गीतकारों, संगीतकारों, गायक-गायिकाओं और वादकों ने जितनी मेहनत की है उसी का यह सुपरिणाम है कि एक-एक गीत सोना उगलता जान पड़ता है।
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