बाबा साहब और धम्म

भारतरत्न डॉ. बाबा साहब आंबेडकर का 6 दिसम्बर को महानिर्वाण दिवस होता है। सन् 1956 में 6 दिसम्बर को डॉ. बाबा साहब आंबेडकर ने बौद्ध मत अंगीकार किया था। बाबा साहब के सामाजिक कार्यों की शुरुआत वर्ष 1926 के आस-पास हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त बाबा साहब ने अपने लिए वकालत का पेशा न अपनाते हुए उपेक्षित, वंचित समाज के बंधुओं को संगठित और शिक्षित करने का निश्चय किया। उसी को केन्द्र में रखकर उन्होंने अपने सारे आंदोलन किये। महाड़ आन्दोलन, कालाराम मन्दिर में प्रवेश का आन्दोलन, धर्म परिवर्तन की घोषणा और वर्ष 1956 में दीक्षा भूमि पर तथागत के धम्म को स्वीकारना उनके जीवन के विशेष उल्लोखनीय क्षण हैं। उनका आन्दोलन इसी के अनुरूप आगे बढ़ा। अपने आन्दोलन के प्रत्येक मोड़ पर उन्होंने ‘धर्म’ की संकल्पना को केन्द्र में रखा। बाबा साहब कहते थे, ‘‘मनुष्य को रोटी की भांति धर्म की आवश्यकता है।’’ और इसे पूरा करने के लिए बाबा साहब दिन-रात लगे रहे।

महाड़ के आन्दोलन से ही बाबा साहब ने धर्म और समाज से वंचित बन्धुओं को मानवीय महत्व दिलाने का प्रयत्न किया। इसी तरह कालाराम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन के द्वारा धर्मसंहिता की मान्यता किनारे करते हुए समाज के हृदय में राम की स्थापना का प्रयत्न किया। यद्यपि इन दोनों आन्दोलनों में अपेक्षित सफलता नहीं मिली, फिर भी येवला में 13 अक्टूबर, 1935 में भीम गर्जना की, ‘‘मैंने हिन्दू के रूप में जन्म लिया है, परन्तु हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं।’’ बाबा साहब की यह घोषणा इक्कीस वर्षों पश्चात चरितार्थ हुई। इस इक्कीस वर्ष के कालखण्ड में बाबा साहब ने हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों पर ही ध्यान केन्द्रित किया था। कोई भी आये, चर्चा करे और उसे उत्तर मिले। किन्तु ऐसा हो नहीं सका, कोई भी चर्चा के लिए आगे नहीं आया। केवल मासुरकर महाराज अपवाद स्वरूप थे। ऐसी विपरीत परिस्थिति में बाबा साहब के पास धर्मान्तरण के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था। कौन सा धर्म स्वीकार करेंगे, इसको जानने की उत्सुकता सबको थी। ईसाई और मुसलमान धर्म प्रमुख बाबा साहब से भेंट करके अपने धर्म में शामिल कराने के लिए प्रयत्नशील थे। उस समय बाबा साहब बड़े शान्त भाव से चिन्तन कर रहे थे। सभी धर्मों का गहन अध्ययन कर रहे थे। अपने जीवन और कर्म में उन्होंने स्वतन्त्रता, समता और बन्धुत्व इन तीन तत्वों को प्रमुख स्थान दिया है। बाबा साहब कहते हैं, ‘मेरा जीवन विषयक तत्वज्ञान तीन शब्दों में साकार हुआ है- स्वतन्त्रता, समता और बन्धुभाव। फ्रेंच क्रान्ति से हमने अपने जीवन विषयक तत्वज्ञान को लिया है, ऐसा समझना भूल है। मैं निष्ठापूर्वक कहता हूं कि मैने वैसा नहीं किया। मेरे तत्वज्ञान का मूल राजनीति न होकर, धर्म है। अपने गुरु, भगवान बुद्ध द्वारा बताए गए तत्वज्ञान को मैंने स्वीकार किया है। ‘‘इसका तात्पर्य है कि मनुष्य के लिए आवश्यक स्वतन्त्रता, समता और बन्धुभाव की अनुभूति केवल धर्म के आधार पर ही हो सकती है। दूसरे शब्दों में इन्ही तीनों तत्वों के मूल में ही धर्म की संकल्पना निहित है। इस पर डॉ. बाबा साहब आंबेडकर का दृढ़ विश्वास था।
डॉ. बाबा साहब आंबेडकर ने जिस सामाजिक सच्चाई का अनुभव किया था, उसे बदलने की सामर्थ्य केवल धर्म में है, यह उनका दृढ़ मत था। 20 मई, 1951 को नई दिल्ली में अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘धर्म शुद्ध तत्व पर आधारित होना चाहिए। बुद्ध ने वर्णाश्रम पद्धति का कभी भी विश्वास नहीं किया। हम सब समान हैं, यह बात हमें नहीं भूलना चाहिए। अति पिछड़े व्यक्ति के साथ भी भेदभाव नहीं होना चाहिए। कोई भी जन्म से ऊंच या नीच नहीं हो सकता। उच्चता और निम्नता कर्म से प्राप्त होती है। महात्मा बुद्ध ने यही कहा है। यदि लोग पुन: बौद्ध धर्म को अंगीकृत करते हैं तो यह देश पुन: वैभवशाली होकर रहेगा।’’ बाबा साहब के इस कथन से स्पष्ट होता है कि मानव जीवन को आकार देने और उसको संचलित करने की ताकत धर्म में ही है। धर्म के बिना जीवन का अधिष्ठान प्राप्त नहीं हो सकता। और यदि यह अधिष्ठान प्राप्त करना है, तो सद्धम्म स्वीकार करना चाहिए।
येवला में बाबासाहब ने धर्मान्तरण की घोषणा की। उसके उपरान्त 11 मई, 1936 को बाबा साहब ने मुंबई में एक सभा में भाषण दिया, जो ‘‘मुक्ति का मार्ग क्या है’’ नाम से प्रसिद्ध है। उस भाषण में गौतम बुद्ध के जीवन के एक प्रसंग का उल्लेख उन्होंने किया था। उन्होंने कहा था, ‘‘भगवान बुद्ध कहते हैं कि आनन्द, भिक्षु संघ मुझसे क्या चाहता है? आनन्द, कुछ भी न छोड़ते हुए हमने धर्मोपदेश किया है। इसलिए आनन्द, इस धर्मोपदेश के अनुरूप सूर्य की भांति स्वयं प्रकाशित होइए। पृथ्वी की तरह दूसरे के प्रकाश पर निर्भर मत रहिए। अपने ऊपर विश्वास रखो। किसी अन्य से प्रभावित मत हो। सत्य को धारण करो। मैं बुद्ध के कथन के अनुरूप आपसे कहता हूं कि आप स्वयं अपना आधार बनो। अपने विवेक की शरण में रहो। अन्य किसी के उपदेश को मत सुनो। दूसरे किसी की अधीनता मत स्वीकारो। सत्य का आधार पकड़े रहो। सत्य की शरण में जाओ, अन्य किसी की शरण में मत जाओ। इस प्रसंग में भगवान बुद्ध के उपदेश को ध्यान में रखे रहो। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारा अपना निर्णय गलत नहीं होगा।’’ मनुष्य के रूप में अपना पूर्ण विकास करने का तत्वज्ञान तथागत के ‘अप्पदिप भवेत’ शब्द से स्पष्ट है। इसी में तथागत द्वारा दिखाया गया सम्पूर्ण जीवन दर्शन निहित है। बाबा साहब ने इसी जीवन मूल्य को धम्म के रूप में स्वीकार किया। 14 अक्टूबर, 1956 को तथागत के धम्म को बाबासाहब ने अंगीकार करके अपने समाज के बन्धुओं के लिए धम्म का मार्ग प्रशस्त किया।

मानव जीवन के लिए धर्म भोजन के समान आवश्यक है, बाबा साहब का यही मानना था। धर्म मनुष्य के जीवन दर्शन का विकास करता है, इसका उन्हें पूरा यकीन था। इसीलिए धम्म स्वीकार करते हुए उन्होंने ‘मनुष्य’ को ही केन्द्र में रखा। उन्होंने कर्मकाण्ड रहित धम्म को ही स्वीकार किया और देश बाह्य धर्मों को नकार दिया। तथागत द्वारा बताए गये मार्ग पर चलते हुए समाज और मनुष्य को जोड़ने का कार्य किया।
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