चीन एक सुरक्षा संकट

चीन भारत को हर दिशा से घेरने के प्रयास में लगा हुआ है और भारत के समक्ष सुरक्षा का संकट सदैव बना है। उसने न केवल 1962 के युध्द में भारत का बड़ा भूभाग हथिया लिया है, बल्कि ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाकर पानी का भारत की ओर बहाव भी रोक रहा है। इस पर पेश है अध्ययनपूर्ण इस लेख की पहली किश्त।

चीन आज भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व मानवता के लिए एक चुनौती बन कर उभर रहा है। भारत के सन्दर्भ में हमें सुविदित है कि 1962 में आक्रमण करके चीन ने देश की 38,000 वर्ग किलोमीटर भूमि अधिग्रहीत कर ली थी। इसके अतिरिक्त जो पाक अधिकृत कश्मीर है उसमें से 5,183 वर्ग किलोमीटर भूमि, पाकिस्तान ने 1963 में चीन को और दे दी थी। उस भूमि के अन्तरण के परिणामस्वरूप ही पाकिस्तान एवं चीन के बीच काराकोरम हाईवे निकालना सम्भव हुआ। भारत का इतना बड़ा भू-भाग उसके कब्जे में होने के उपरान्त भी, अभी 2007 में भारत में चीन के राजदूत ने यह वक्तव्य दे दिया कि भारत ने चीन की 90,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर रखा है। इस बात को हमारे तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी 28 फरवरी, 2008 को स्वीकार किया था कि चीन इस बात का दावा करता रहा है कि भारत ने उसकी 90,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर रखा है। वस्तुत: 1962 में आक्रमण करने के पूर्व भी चीन ने 1959 में यह आरोप लगाया था कि भारत ने चीन की 1 लाख, 4 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर रखा है। यह 2008 का आरोप भी लगभग वैसे ही आरोप की पुनरावृत्ति है। दुर्भाग्य से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता सीताराम येचुरी ने तो बढ़ चढ़कर यहां तक कह दिया कि हां यह तो एक ऐतिहासिक तथ्य है, और जो अपने बिना आबादी वाले निर्जन क्षेत्र हैं उनको चीन को देकर उसके साथ सीमा विवाद हल कर लेना चाहिए। यह भी एक विडम्बना है कि एक राष्ट्रीय दल का महामंत्री स्तर का व्यक्ति यह कह देता है कि भारत को अपने बिना आबादी वाले क्षेत्र चीन को देकर सीमा विवाद हल कर लेना चाहिये। यह देश-हित की अनदेखी राजनीति का ही परिणाम है।
दो देशों की सीमा पर भी एक बफर जोन होता है जिसमें कोई भी देश अपनी सीमा चौकियां स्थापित नहीं करता है। लेकिन भारत-चीन सीमा पर चीन बफर क्षेत्र में धीरे-धीरे अपनी सीमा चौकियों को क्रमश: आगे बढ़ाता चला आ रहा है। अरूणाचल प्रदेश में तो उसने भारतीय क्षेत्र में एक स्थान पर हैलीपैड भी बना लिया। अरूणाचल प्रदेश, सिक्किम व लेह-लद्दाख क्षेत्र में भारतीय चरवाहे व किसान तथा अन्य स्थानीय ग्रामीण भारतीय सीमा में, जहां तक जाते थे, उनका वहां तक जाना भी वह अवरूद्ध कर रहा है। उसके मोटर साइकिल सवार सैन्य अधिकारी आते हैं, और ग्रामीणों को धमका कर चले जाते हैं इसलिए ग्रामीण हमारी सीमा के अन्दर जहां तक जाते रहे हैं, वहां पर उनका जाना कम हो गया है। इसके साथ ही जैसा हम सबने समाचार पत्रों में पढ़ा है कि लेह लद्दाख क्षेत्र व अरूणाचल में, विभिन्न स्थानों पर जो हमारी सड़कों का काम चल रहा था, वहां भी उसने दबाव बना कर काम रूकवा दिया है। लेह-लद्दाख क्षेत्र में जो पेगांगत्से नामक झील है, जिसका 40 प्रतिशत भाग भारत का व 60 प्रतिशत भाग चीन का है। किन्तु आजकल उसने पूरी झील में अपनी पेट्रोलिंग शुरू कर दी है।

चीन ने हमारे अन्य पड़ौसी देशों के साथ सैन्य सम्बन्ध बना कर बाहर से भी भारत की चारों और से घेरा बंदी जैसा अभियान चला रखा है। पाक अधिकृत कश्मीर की भूमि से 5183 वर्ग किलोमीटर भूमि जो पाकिस्तान ने चीन को 1963 में दे दी थी व जहां से काराकोरम हाईवे निकला था, उसी हाईवे पर पाकिस्तान ने चीन को अभी तीन लिंक सड़के दीं हैं। इससे चीन ने पाकिस्तान में, बलूचिस्तान, ग्वाडर बंदरगाह पर अपना नौ सैनिक अड्डा विकसित किया है। इसके परिणाम स्वरूप अब फारस की खाड़ी, जहां से सम्पूर्ण विश्व को तेल की आपूर्ति होती है, और अरब सागर में भी चीन की नौ सेना की उपस्थिति व गतिविधियां बढ़ गई हैं, जिससे हिन्द महासागर में भी उसकी नौ सैनिक गतिविधियों की पहुंच हो गई हैं। दूसरी ओर पूर्वी तट की ओर दृष्टिपात करें तो म्यांमार (बर्मा अर्थात् ब्रह्मदेश) में पूरे नदी परिवहन तंत्र को चीनी नौ सेना ने अधिगृहित कर रखा है और म्यांमार के कोको द्वीप पर चीन ने अपना राडार स्थापित कर लिया है। यहां से वह भारत के सम्पूर्ण पूर्वी तट और वहां के सैन्य प्रतिष्ठानों पर निगरानी कर सकेगा। इसके साथ ही उसने नेपाल में माओवाद के माध्यम से जिस प्रकार अपना वर्चस्व बढ़ाया है उससे, लगभग एक प्रकार से, वहां की सम्पूर्ण राजनीति का सूत्रधार ही चीन उभर कर आ रहा है। इसलिये चीन अब तिब्बत से नेपाल के बीच उसके द्वारा 1960 में बनाये कोदरी हाईवे के बाद अब नेपाल को जोड़ने के लिए दूसरा हाईवे और बना रहा है। नेपाल में उसने माओवाद पनपाने के लिए जो रणनीति अपनाई थी, लगभग वैसी ही रणनीति भारत में भी वह माओवाद को बढ़ावा देने के लिए अपना रहा है। यानि ग्रामीण क्षेत्र में सामान्य भोले-भोले लोगों को डराना कि तुम हमारे माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर या माओवादी आर्मी जैसे संगठनों में शामिल हो जाओगे तो यहां तुम्हारा परिवार सुरक्षित रहेगा। आगे यह भी कहते हैं कि तुम्हारे परिवार का कम से कम एक व्यक्ति माओवादी संगठन/ कम्युनिस्ट सेन्टर का सदस्य न बना तो तुम्हारे पूरे कुटुम्ब को उड़ा दिया जायेगा, निरीह व भोले-भाले गांव के लोग, जहां सुरक्षा व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं है, अपने परिवार का एक व्यक्ति उनकी बैठकों में भेजना शुरू कर देते हैं। धीरे-धीरे फिर उस पूरे कुटुम्ब व कबीले के साथ उनका सम्बन्ध बढ़ता जाता है। इसी प्रकार से उन्होंने नेपाल में माओवाद को बढ़ावा दिया था। आज हमारे देश की स्थिति वैसी ही हो रही है। लगभग 150 जिलों में वे इसी प्रकार का माओवादी जाल बिछा रहे हैं। मणिपुर में तो माओवादियों व अन्य अलगाववादियों को प्रशिक्षण देने के लिए चीन प्रशिक्षण केन्द्र भी चलाता रहा है। बांग्लादेश में भी भारत के कई अलगाववादी संगठनों के लोगों को वह सशस्त्र प्रशिक्षण दे रहा है। भूटान के साथ भी भारत की 2004 तक जो संधि थी उसमें से भूटान की सैन्य व्यवस्था, एवं उनका अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध आदि उसने भारत पर छोड़ रखे थे। इस संधि का समय पर नवीनीकरण न करने के कारण भूटान में भी आजकल चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। बांग्लादेश में भी उसने चटगांव बंदरगाह पर अपनी नौ सैनिक उपस्थिति बढ़ा ली है एवं वहां से भी वह हमारे सम्पूर्ण पूर्वी तट व उसके नौ सैनिक प्रतिष्ठानों पर निगरानी कर रहा है और नौ सैनिक दबाव बढ़ा रहा है। श्रीलंका में तमिलों के दमन हेतु सारे छोटे हथियार और सैन्य विशेषज्ञ चीन ने उपलब्ध कराये थे और आज भी बड़ी संख्या में चीनी सैन्य विशेषज्ञ श्रीलंका में विद्यमान हैं। एक प्रकार से पाकिस्तान से लेकर नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका तक भारत के चारों ओर उसने संरक्षक और संरक्षित यानि अभिभावक और संरक्षित जैसे सम्बन्ध सभी देशों के साथ बना रखे हैं।

वह पाक को शस्त्रास्त्रों से सज्जित कर रहा है। इसके साथ ही वह जहां कहीं भी मौका मिलता है भारत के विरुद्ध कूटनीतिक युद्ध छेड़ने का भी कोई अवसर नही गंवाता है। जैश-ए-मोहम्मद नामक आतंकवादी संगठन का संस्थापक व लश्कर का आंतककारा मौलाना मसूद अजहर, जिसे पांच आतंककारियों के साथ कंधार में जाकर छोड़ा गया था, उसको जब अन्तरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रस्ताव गया तो चीन ने उसका विरोध किया और वह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। मौलाना मसूद अजहर में उसकी कोई रूचि नहीं थी। लेकिन उसे भारत को आहत करना था, इसलिए उसने वहां, पर इस प्रकार का विरोध किया। इस प्रकार चीन आजकल विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को आहत करने की कूटनीति तथा सीमा पर दबाव बनाकर भारत-चीन सम्बन्धों में तनाव को बढ़ाता ही जा रहा है। हाल ही में चीन ने भारतीय सीमा पर परमाणु मिसाइलें तैनात कर दी हैं। इसके अतिरिक्त उसने अभी 2011 में ही हिन्द महासागर में अपनी नौ सैनिक उपस्थिति बढ़ाने हेतु हमारे आरक्षित आर्थिक क्षेत्र के बाहर समुद्र तल में खनन के लिये अन्तरराष्ट्रीय समुद्र तल प्राधिकरण से अनुमोदन ले लिया है।

देश के भीतर फैलता चीनी संजाल

चीन भारतीय सीमा पर दबाव नहीं बढ़ाये इस हेतु उससे अस्थायी शांति खरीदने के भ्रम में हमारे देश में आज बड़ी संख्या में सड़क परियोजनाएं, बांध निर्माण की परियोजनाएं, पावर प्लान्ट स्थापना, टेलिफोन ऐक्सचेंज स्थापना जैसे अधिकांश काम चीनी कम्पनियों को दिये जा रहे हैं। इसके कारण आज एक लाख से अधिक चीनी टैक्नोक्रेट्स और कर्मचारी हमारे देश में रह रहे हैं, जिनमें से अनेक बिना वर्क परमिट के अनाधिकृत हमारे देश में रह रहे हैं। हमारा श्रम मंत्रालय कई बार हुवाई और अन्य चीनी कम्पनियों को नोटिस दे चुका है कि वे अपने अनाधिकृत रूप से रह रहे कर्मचारियों और टैक्नोक्रेट्स को वापस बुलाये। वस्तुत: सरकार को उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर डीपोर्ट (निष्कासित) करना चाहिये। लेकिन टुरिस्ट वीजा पर ऐसे कर्मी आते, जब चाहा पाकिस्तान चले गये, जब चाहा बांग्लादेश चले गये, जब चाहा वापस चीन चले गये और जब चाहा वापस भारत आ गये। देश के अनेक क्षेत्रों में ये लोग अनाधिकृत रूप से फ्लैट किराये लेकर रह रहे हैं।

देश के अन्दर सभी संवेदनशील स्थलों पर अपना जाल फैलाने की दृष्टि से चीनी कम्पनियां हमारे अति संवेदनशील प्रतिष्ठानों के निकट अत्यन्त अल्प लागत पर परियोजनायें हथिया रहीं हैं। हमारे पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने तो अनेक ऐसी परियोजनाएं इंगित की थीं, जहां पर कोई अति संवेदनशील प्रतिष्ठान होने के कारण चीन ने वह ठेका बहुत अल्प लागत पर लेने के लिए टेण्डर भरे थे और दूसरी ओर उन्होंने बहुत सारी ऐसी पारियोजनाएं भी इंगित कीं जहां उन चीनी कम्पनियों को पर्याप्त लाभ होना था तथा जिस प्रकार की परियोजनाएं पूरी करने में वे दक्ष हैं, फिर भी, वहां पर टेण्डर नहीं भरे जहां हमारा कोई भी संवेदनशील प्रतिष्ठान नहीं था। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में वैतरणा बांध का टेण्डर बहुत सस्ते दर पर इसलिए भरा कि वहां पर पास में हमारा मिग लड़ाकू विमान एसेम्बली केन्द्र है, भाभा एटोमिक रिसर्च सेन्टर है, और पास में हमारा देवलाली का तोपखाना केन्द्र (आर्टिलियरी सेन्टर) भी है। इसी प्रकार कावेरी-गोदावरी बेसिन में सीजमिक सर्वे का टेण्डर उसने इतनी सस्ती दर पर इसलिए भरा ताकि वह वहां पर हमारे नौ सैनिक प्रतिष्ठानों की निगरानी कर सके।

भारत पर सीमा पार से जबरदस्त दबाव बनाने के साथ-साथ वह पाकिस्तान को भी एक प्रकार से उसकी ओर से प्रॉक्सी वार (छद्म युद्ध) लड़ने हेतु मिसाइल टेक्नोलॉजी, उन्नत नाभिकीय प्रौद्योगिकी, लड़ाकू वायुयान व अन्य उन्नत शस्त्र आदि प्रदान कर रहा है। इस प्रकार भारत पर दबाव का लक्ष्य बनाकर देश की अन्दर-बाहर से इस प्रकार की घेरा बन्दी करना, सीमा पर अपना दबाव बनाना, धीरे-धीरे अपनी सीमा चौकियों को भारतीय क्षेत्र के पास लाना और भारतीय भू भाग में किसी प्रकार की गतिविधि न होने देना और वहां बार बार घुसपैठ करना ये सभी उसकी सुविचारित रणनीति के अंग हैं। वर्ष 2007 में जब संसद में अरूणाचल के सांसदों ने प्रश्न उठाया तो उस समय सरकार ने स्वीकार किया था कि जनवरी से नवम्बर 2007 के बीच में चीनी सेना ने 146 बार घुसपैठ की है। घुसपैठ का यह क्रम आज भी निर्बाध रूप से चल रहा है और ऐसा अनुमान है कि तब से चीनी घुसपैठ की घटनाओं की संख्या करीब 1200 से 1500 के बीच पहुंच गयी है। यूपीए सरकार के अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम दौर में प्रधानमंत्री जब अरूणाचल प्रदेश में गए थे और उन्होंने वहां भाषण में कह दिया कि अरूणाचल प्रदेश भारत के उगते हुए सूरज का प्रदेश है। इस पर चीन ने बड़ी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कैसे कह दिया कि अरूणाचल प्रदेश भारत का है। चीन में हमारी महिला राजदूत को रात को 2 बजे उठाकर विरोध व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन रात को 2 बजे उठाकर विरोध व्यक्त करने के साथ ही कहा कि अपने प्रधानमंत्री से कहिए कि कल वे तवांग जिले में न जाएं। हमारे देश में हमारे प्रधानमंत्री के भी जाने के विरुद्ध ऐसी चेतावनी का दुस्साहस अप्रत्याशित था। तवांग जिला अत्यन्त संवेदनशील स्थान है जहां एक तरफ भूटान की सीमा लगती है, दूसरी तरफ तिब्बत की सीमा लगती है, जिसे चीन ने अधिगृहित कर रखा है, और तीसरी तरफ भारत की सीमा में वह स्थित है। तंवाग एक प्रमुख बौद्ध केन्द्र है और इसलिए तिब्बत पर अपना नियंत्रण सुदृढ़ करने के लिए चीन उसको लेना चाहता है। इसलिए उसने हमारी राजदूत को चेतावनी दी कि वह प्रधानमंत्री से कहें कि वह तवांग जिले में न जाएं।

सर्वाधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि जो देश भारत पर इस सीमा तक दबाव बना रहा है, आज उसी देश को हम अपरिमित व्यापार सुविधाएं देते चले जा रहे हैं। आज देश में चाहे रिलायन्स का पावर प्लान्ट लग रहा हो, चाहे अन्य किसी का पावर प्लान्ट लग रहा हो, चाहे बीएसएनएल का, चाहे एयरटेल का टेलिफोन एक्सचेन्ज लग रहा हो, आज की तारीख में करीब 35 प्रतिशत पावर प्लांट व टेलिफोन एक्सचेन्ज चीनी ही लग रहे हैं। देश के टेलिफोन एक्सचेन्ज, अगर चीनी हैं तो हमारे महत्वपूर्ण व्यक्तियों की बातचीत जब चाहे टेप भी कर सकते हैं। यह एक अत्यन्त संवेदनशील मुद्दा है, उनका हमारे टेलीकॉम के क्षेत्र में आना, हमारे लिए एक बड़ी चुनौति है। इसके साथ ही ये टेलिफोन ऐक्सचेन्जेज और पावर प्लान्ट भी चीनी लेते चले जाने से देश में प्रौद्योगिकी विकास अवरूद्ध हो रहा है। हमने जो सी-डॉट में प्रथम जनरेशन टेक्नोलॉजी के, स्वीचिंग सिस्टम या टेलिफोन एक्सचेन्ज विकसित किये थे, वो बेकार हो गये क्योंकि वह टेक्नोलॉजी काल-बाह्य हो गई। क्योंकि वह टेलिफोन एक्सचेन्ज हमने खरीदे नहीं अत: दूसरी पीढ़ी की टेलीकाम टेक्नोलॉजी (2जी टेक्नोलॉजी) हम अपनी विकसित नहीं कर पाये। थर्ड जनरेशन (3जी) टेक्नोलॉजी हमने विकसित करने की बात ही नहीं सोची। चीन टेलिकम्यूनिकेशन में चौथी जनरेशन (4जी) टेक्नोलॉजी विकसित करने के लिए बड़ी मात्रा में निवेश कर रहा है। थर्ड जनरेशन टेक्नोलॉजी वह समय पर विकसित नही कर पाया। लेकिन, चौथी जनरेशन टेक्नोलॉजी में वह अमेरिका से आगे निकलने के लिये प्रयत्नरत् है। ऐसे में यदि हम चीन को बाजार देकर उसकी प्रौद्योगिकी को समुन्नत करके के लिए उनको पैसा और मुनाफा देते हैं तो यह आत्मघाती ही है। इसके स्थान पर अगर देश के बने हुए टेलिफोन एक्सचेन्ज, पावर प्लान्ट हम लगाते हैं तो हमारे देश में प्रौद्योगिकी का समुन्नयन होगा। अब तक हमने पावर प्लांट के क्षेत्र में, टेलिकम्यूनिकेशन के क्षेत्र में जो टेक्नोलॉजी विकसित की है, उसको अगर हम आगे नहीं बढ़ायेंगे तो वह एक प्रकार से अप्रासंगिक सी हो जायेगी और हम सदा के लिये चीन पर पराश्रित हो जायेंगे। दूरगामी दृष्टि से भी यह हमारे लिए अत्यन्त चुनौतीपूर्ण विषय है। दूरसंचार के क्षेत्र में चीनी उपकरणों के माध्यम से देश की जासूसी तो उसके लिये अत्यन्त सहज हो गयी है।

आर्थिक हितों पर गम्भीर आघात

विदेश व्यापार के क्षेत्र में भी भारत आज चीन को एकतरफा सुविधाएं देता चला जा रहा है। 2001 तक भारत-चीन व्यापार बहुत सीमित था। लेकिन 2010 में भारत-चीन व्यापार 62 अरब डॉलर हो गया और अब 2011 में भारत चीन वार्षिक व्यापार 84 अरब डॉलर होने का अनुमान है। इसमें चीन को होने वाले भारत के निर्यात एक तिहाई है, और चीन से भारत में निर्यात दो तिहाई है। यानि की 62 अरब डॉलर के व्यापार में 2010 में हमने जो चीन से आयात किया वह माल 41.5 अरब डॉलर का था, हमने चीन में केवल 20 अरब डॉलर का माल बेचा। हम चीन को अधिकतर कच्चा माल बेचते हैं, जो बहुत कीमती है, जैसे 60 प्रतिशत उसमें खनिज लोहा है जो, 50-60 साल में चुक जायेगा। इसी तरह से जैसे कपास, प्राकृतिक रबर आदि जो हमारे उद्योगों के लिये भी उपलब्ध होने आवश्यक हैं। आज भारत दुनिया के 3-4 बड़े रबर उत्पादक देशों में से है और हम अपना रबर अनुदान देकर निर्यात करते हैं। परिणामत: चीन हम से अनुदान पर सस्ता प्राकृतिक रबर खरीदता है। ट्रक और बस का टायर बनाने में 80 से 85 प्रतिशत कच्चा माल रबर के रूप में लगता है। उसे भारत से सस्ता कच्चा रबर मिलने के कारण वह अपने टायर भारतीय टायर निर्माताओं की तुलना में 2000 से 3000 रूपये कम में हमारे यहां बेचता है। इसलिए भारतीय बस और ट्रक ऑपरेटर चीनी टायर प्राथमिकता से खरीदते हैं। पूर्व में जो लोग रबर चढ़े हुए टायर लगाते थे वे भी बन्द कर दिए। इससे देशभर में रबर चढ़ाने का काम भी चौपट हुआ है। अब तो एम.आर.एफ. जैसी बड़ी-बड़ी भारतीय कम्पनियां भी यह कहने लगीं कि चीनी टायर सस्ता होने से हम भी अपना कारखाना चीन में लगा रहे हैं। यही स्थिति कपास की है। भारत का अधिकांश कपास चीन खरीद रहा है। इससे देश के सूती वस्त्र उद्योग को कपास नहीं मिल पा रही है। इससे हमारा सूती वस्त्र निर्यात प्रभावित हो रहा है क्योंकि भारत का निर्यात बाजार छीनने के लिये चीन अपने परिधान अत्यन्त सस्ते बेच रहा है।

अभी फैडरेशन ऑफ इण्डियन चैम्बर्स ऑफ कामर्स इण्डस्ट्री (फिक्की) ने लघु और मध्यम उद्योगों का एक सर्वे किया था। इस सर्वेक्षण में 74 प्रतिशत उद्यमियों ने यह कहा कि उनको चीन के उत्पादों से कड़ी स्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है और 62 प्रतिशत ने यह सम्भावना व्यक्त की कि चीन के सस्ते उत्पादों के कारण सम्भव है आने वाले 3-4 वर्षों में हमें किसी भी दिन अपना कारखाना बन्द करना पड़े, क्योंकि चीन के अत्यन्त सस्ते उत्पाद देश में आ रहे हैं। आज चाहे वे प्रिन्टिंग या अभियान्त्रिकी के उत्पाद हो या कोई रसायन हो, लगभग सभी प्रकार के चीनी उत्पाद इतने सस्ते आ रहे हैं कि एक-एक कर देश के कारखाने बन्द हो रहे हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश हम संभवत: चीन को यह सोच कर अधिकाधिक व्यापारिक सुविधाएं दे रहे हैं कि अगर हम उदार व्यापारिक सुविधाएं देते चलेंगे तो वह सीमा पर थोड़ा कम दबाव बनायेगा, जो कि एक दिवास्वप्न है।

ऐतिहासिक गलतियां

यह लगभग वैसी ही स्थिति है जैसी भारत ने स्वाधीनता के बाद चीन से शान्ति खरीदने हेतु अपनाई थी। तब भी हमारा भ्रम था कि हम अगर पड़ौसी चीन को नई-नई सुविधाएं देंगे तो उससे हमारे सम्बन्ध अच्छे होंगे। इसलिए 1950 में जब तिब्बतियों ने भारत के साथ रहने और भारत का प्रोटेक्टोरेट बनने की इच्छा व्यक्त की थी, तब उसके विपरीत हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल जी ने उनको परामर्श दिया कि नहीं आप चीन के प्रोटेक्टोरेट बनिये और 1951 में एक सन्धि करवाई जिसमें जवाहरलाल जी ने आश्वासन दिया कि आपकी (तिब्बत की) आंतरिक स्वायत्तता व संस्कृति और आंतरिक स्वशासन काय रहेगा आप चीन के साथ सन्धि कर उसकी सम्प्रभुता स्वीकार कर लीजिये। तब जाकर तिब्बतियों के नेतृत्व ने, नेहरू जी के भरोसे वह संधि की थी। इसके पूर्व तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था। उसके बाद 1955 से चीन ने वहां अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ानी शुरू कर दी। वर्ष 1959 में तो चीन ने तिब्बत पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया, और पूज्य दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी थी। इससे पहले 1951 से 1955 तक चाऊ एन लाई, जवाहरलाल जी को बराबर कहते थे कि चीन व भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं है। हमारी सीमाएं बिल्कुल स्पष्ट हैं। लेकिन, तिब्बत पर पूर्ण अधिकार करते ही 1955 से चीन ने कुछ ऐसे नक्शे जारी करने शुरू किये, जिनमें भारतीय भू-भाग को चीन का बताना आरम्भ किया और 1959 में तिब्बत पर पूर्ण नियन्त्रण होते की उन्होंने कह दिया कि हमारे (भारत व चीन के) बीच गम्भीर सीमा विवाद है और चीन की एक लाख, चार हजार वर्ग किलोमीटर जमीन आपने (भारत ने) दबा रखी है। इस प्रकार जब तक तिब्बत को हड़पने के लिये भारत का सहयोग चीन को चाहिये था, तब तक कहा कि हमारे (चीन-भारत के) बीच कोई सीमा विवाद नहीं है। जैसे ही उसने तिब्बत को पूरी तरह से अधिगृहित कर लिया एकदम कह दिया कि भारत ने चीन की एक लाख, चार हजार वर्ग किलोमीटर जमीन दबा रखी है। स्मरण रहे उसके पूर्व, जब चीन संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं था, तब कम्युनिस्ट देशों को छोड़ कर भारत ही एकमात्र देश था, जिसने चीन की सदस्यता के लिये सर्वाधिक प्रबल समर्थन दिया था।

इन सारे उपकारों को भुलाकर अन्तत: 1962 में तो भारत पर आक्रमण कर के हमारी 38,000 वर्ग किमी भूमि चीन ने बलात् अधिग्रहीत कर ली। इस प्रकार चीन से शान्ति खरीदने की भ्रान्तिवश तिब्बत को चीन को सौंपने की जो बहुत बड़ी भूल तब भारत ने की थी, उसके कारण एक ओर तो चीन सीधे हमारा पड़ौसी बन कर आज सीमा पर अनुचित दबाव बना रहा है। (यदि वहां स्वतंत्र तिब्बत होता तो उत्तर से हम पूरी तरह सुरक्षित होते) दूसरी ओर, आज चीन ब्रह्मपुत्र नदी का पानी मोड़ने की कोशिश कर रहा है। ब्रह्मपुत्र सहित तिब्बत से 10 बड़ी नदियां निकलती हैं और जिनसे 11 देशों को जलापूर्ति होती है, चीन उन नदियों के जल को मनचाहे ढंग से मोड़ रहा है। यदि तिब्बत पर चीन का आधित्य नहीं होता तो यह जल संकट नहीं उपजता। चूंकि, उत्तर पूर्वी चीन सूखा इलाका है, उसका तीन घाटियों वाला बांध सूख रहा है और इसलिए वह बड़ी मात्रा में जल तिब्बत से उधर दे रहा है और उसी क्रम में ब्रह्मपुत्र नदी को भी अवरूद्ध करने के लिए उसने बांध बनाने शुरू कर दिये हैं। उन बांधों से उसने सुरंगों (टनल) पाइप लाइनों और नहरों का निर्माण शुरू कर दिया है। भारत सरकार कह रही है कि ऐसा कुछ नहीं हैं, हमें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, और चीन ब्रह्मपुत्र नदी को मोड़ने का कोई विशेष प्रयत्न नहीं कर रहा है। लेकिन उपग्रहों के चित्रों, अन्तरराष्ट्रीय प्रेक्षकों, अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं व चीनी समाचार पत्रों के अनुसार वहां व्यापक स्तर पर निर्माण कार्य चल रहे हैं। स्मरण रहे कि मेकॉन्ग (मां गंगा) नामक नदी भी वहीं तिब्बत से निकलती है जिससे लाओस, कम्बोडिया, वियतनाम और थाइलैण्ड इन चार देशों को जलापूर्ति होती रही है। उसके प्रवाह को चीन ने अवरूद्ध किया है। वहां उन देशों में बड़ी मात्रा में भू भाग सूखे में बदल रहा है क्योंकि चीन ने मेकॉन्ग नदी का पानी रोक दिया है।

इसी विवाद के चलते पांच देशों का मेकान्ग नदी आयोग बना हुआ है, चीन या तो उसकी बैठकों में जाता नहीं है और जाता है तो कहता है कि हमने तो आपका कोई पानी नहीं रोका है, कोई डाईवर्जन नहीं किया है। चीन इस बात को स्वीकारने को तैयार नहीं है कि उसने इन देशों का जल प्रवाह रोका है, जबकि ये शेष चार देश बहुत परेशान हैं। आज जब अपने देश के 10 करोड़ लोगों का जीवन ब्रह्मपुत्र नदी पर निर्भर है, हमको इस विवाद को अन्तरराष्ट्रीय नदी जल विवाद के रूप में उठाना चाहिये। ब्रह्मपुत्र का जल अवरूद्ध होने से बांग्ला देश भी प्रभावित होगा। इसलिये हमें उसे भी साथ लेना चाहिये। चीन को इस बात के लिए बाध्य करना चाहिये तथा उसकी प्रतिबद्धता लेनी चाहिये कि वह ब्रह्मपुत्र के जल को मोड़े नहीं (डाइवर्ट नहीं करे)। अन्यथा अरूणाचल प्रदेश और असम सूखे में बदल जायेंगे। ब्रह्मपुत्र नदी में सवा लाख क्यूबिक फीट पानी प्रति सैकण्ड बहता है, ग्लेशियरों का एकदम विशुद्ध जल। बाढ़ के समय तो 10 लाख क्यूबिक फीट पानी उसमें प्रति सेकण्ड बहता है। ब्रह्मपुत्र को मोड़ देने से जारी जल राशि हमको मिलनी बन्द हो जायेगी और स्थिति यह हो जायेगी कि ब्रह्मपुत्र नदी मौसमी नाले में बदल सकती है। (क्रमश:)
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