पटकनी-पटखनी

दूसरे को पटकनी देने का अलग ही आनन्द है। पटकनी देनेवाला विजयोल्लास से फूलकर कुप्पा हो जाता है। उसका मनोबल बल्लियों ऊपर उछलने लगता है, सिर गर्वोन्नत होकर तन जाता है तथा चेहरे पर स्मित रेखाएं उमट आती हैं। वह अपने आप को तीसमार खां समझने लगता है और दायें हाथ की दो अंगुलियां ऊपर उठाकर अंग्रेजी का ‘वी’ (फार विकृती) बना कर दिखाता फिरता है। पटकनी देने पर कितनी और कैसी प्रसन्नता होती है तथा उसके परिणामस्वरूप व्यक्ति कैसी चेष्टाएं करता है, यह इस बात पर निर्भर है कि पटकनी किस प्रकार की है। जी हां! पटकनी के अनेक प्रकार होते हैं, जैसे धोबी पछाड़, दुलत्तीझाड़, धरती सुघाऊ, पानी पिलाऊ, धूल चटाऊ, दिन में तारे दिखाऊ, छठी का दूध याद दिलाऊ, दांत खट्टे कराऊ, हवा निकालू आदि आदि।

पटकनी को कुछ लोग पटखनी बोलते हैं, वैसे ही जैसे हैदराबादी आदमी कब्र को खब्र बोलता है। ‘ख’ के उच्चारण में जो खनक है, उसकी बात ही कुछ और है। पटकनी के ‘क’ में लता मंगेशकर के कंठ की कोमलता है तो पटखनी कहने पर आशा भोंसले की खनकदार आवाज याद आती है। पटखनी देने में जब तक खनक न हो तो मजा नहीं आता, ऐसा लगता है जैसे बिना मिर्च की चाट। इसलिए आगे की पंक्तियों में पटकनी के स्थान पर ‘पटखनी’ का ही प्रयोग कर रहा हूं, यद्यपि शब्दकोश में पटखनी शब्द नहीं मिलता। आशा है शुद्ध भाषा के आग्रही इस धृष्टता के लिए क्षमा करेंगे।

शास्त्रों में सम्पूर्ण जीवनजगत में व्याप्त भय, निद्रा, मैथुन, आहार यह चार मूलभूत प्राकृतिक प्रवृत्तियां बतायी गयी हैं। मेरे विचार से दूसरों को पटखनी देने की प्रवृत्ति भी उतनी ही प्राकृतिक है। जब इसकी इच्छा जाग्रत होती है तो हाथ सुरसुराने लगते हैं, मन किसी को पछाड़ने के लिए छटपटाने लगता है। पटखनी देने के उपरान्त जो संतोष, आत्मतुष्टि और सकून मिलता है वह वर्णनातीत है। किसी किसी को जिसे हिंदी में परपीड़क और अंग्रेजी में सेडिस्ट कहते हैं, दूसरों को पटखनी देने में परम आनन्द मिलता है। वह आदतन पटखनीवाज होता है।

पटखनी देने की प्रवृत्ति सृष्टि के आरम्भ से ही चली आ रही है। ‘‘जीव: जीवस्य भोजनम्’’ तथा ‘‘सरवाइवल आफ दि फिटेस्ट’’ का लब्बोलुवाब यही है कि इस सृष्टि में वही पनपता है जिसे दूसरों को पटखनी देना आता हो। उदरपूर्ति से आरम्भ होकर यह प्रवृत्ति स्वार्थसिद्धि, वर्चस्वस्थापना, यश अर्जन से होती हुई आमोद-प्रमोद, मनोरंजन और परिपीड़न सुख के नाना रूप धारण करती गयी। पटखनी की प्रवृत्ति युद्ध, दंगल, शास्त्रार्थ, प्रतिस्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता, बहस, छींटाकशी, टांग खिंचाई, लांछन, अनादर, अपमान, धक्कामुक्की, झूमाझटकी, गालीगलौज, मारपीट आदि विविध प्रकार से प्रकट होती है।
मुझे याद है कॉलेज के दिनों में जब मैं वादविवाद प्रतियोगिता (डिबेट) में भाग लेता था तो मन के किसी कोने में विरोधी वक्ता को पटखनी देने का भाव कुलांचें मारने लगता था। अदालत में वादी और प्रतिवादी के वकील एक दूसरे को पटखनी देने की कोशिश करते हैं। जो जीते सो मीर! पुराने जमाने में जब कोई राजा, महाराजा दिग्विजय को निकलता था तो उसका उद्देश्य तमाम देशों को पटखनी देने का होता था।

पटखनी को मोटे रूप से तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है- हिंसक, अर्धहिंसक तथा अहिंसक। हिंसक पटखनी प्राणान्तक होती है, क्षत, विक्षत कर देती है। प्राचीन रोम में आदमी और शेर के बीच पटखनी की प्रतियोगिता इसी प्रकार की होती थी। आजकल आतंकवादी निरीह जनता को ऐसी ही पटखनी देकर प्रसन्न होते हैं। द्वंद्व युद्ध, तलवारबाजी इसके अन्य उदाहरण थे। आधुनिक मुक्केबाजी भी लहू-लुहान कर देती है। सोहराब रुस्तम का किस्सा इसका बहुत करुणामय उदाहरण है। अर्धहिंसक पटखनी में हारनेवाला शारीरिक रूप से तो हताहत नहीं होता किन्तु उसे मानसिक कष्ट होता है, दिल दुखता है, आत्मग्लानि होती है। किसी का दिल दुखाना भी तो एक प्रकार की हिंसा ही है। अहिंसक पटखनी मुख्यत: क्रीड़ा के क्षेत्र में होती है, बशर्ते उसे सही खेल भावना से लिया जाए। हारनेवाला दु:खी न हो। मैंच फिक्सिंग और नूरा कुश्ती पूर्णत: अहिंसक होती है।

उपरोक्त के अतिरिक्त एक पटखनी आर्थिक किस्म की भी होती है जिसे चूना लगाना कहते हैं। चोर, डूक, लुटेरे, ठग, नकबजन, जेबकतरे, उठाईगीरे, घूसखोर, दहेज दानव, छपलेबाज इस प्रकार की पटखनी देने में तन मन से जुटा हुआ है। वह नये नये दावपेंच ईजाद कर रहा है। सम्य समाज के लोग जब देश की अर्थव्यवस्था को ऐसी पटखनी देते हैं तो उसे भ्रष्टाचार कहा जाता है। पटखनी के अनेक रूप हैं- हरि अनंत, हरिकथा अनंता की भांति।
एक राजनैतिक पटखनी भी होती है। गांधी जी ने अहिंसात्मक प्रकार की ऐसी पटखनी अंग्रेजों को दी तो वह भारत छोड़ कर भाग गये। जब से हमारे यहां प्रजातंत्र आया है, चुनाव के दौरान एक पार्टी दूसरी पार्टी को ऐसी पटखनी देने के लिए जी जान से जुट जाती है। संसद में विश्वास मत/ अविश्वास मत पारित होने के समय भी पटखनी देने की जी तोड़ कोशिश होती है।

पटखनी देना एक कला है जो कमी स्वांत: सुखाय होती है तो कभी प्रदर्शनकारी कला (परफोर्मिंग आर्ट)। वैसे इसका वैज्ञानिक पक्ष भी है जिसमें पटखनी देने के गुर, दावपेंच और रणनीतियों का अध्ययन होता है इन्हें सीखने के लिए योग्य तजुर्बेकार गुरु की आवश्यकता होती है। इस प्रदर्शन कला का आनन्द आजकल हम दूरदर्शन पर संसद की कार्यवाही देखकर उठाते हैं।

पिछले कुछ दिनों में इस कला में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। बड़ा उलटफेर हुआ है। अब छात्र अध्यापक को, शातिर अपराधी पुलिस को, बहू सास को, बेटा मां-बाप को और कर्मचारी अफसर को पटखनी देना सीख गये हैं। पहले यह क्रम उलटा था। परीक्षण में लड़कियां लड़कों को पटखनी देने लगी हैं। आतंकवादी मानवता को पटखनी दे रहे हैं। इंसानी दिमाग की फितरत देखिए, उसने पटखनी देने के नये-नये क्षेत्र ईजाद कर लिये हैं। इसके ज्वलंत उदाहरण हैं मुन्ना भाई, घोटालेबाज आदि। वैज्ञानिक उन्नति की अंधाधुंध दौड़ में आदमी प्रकृति को भी पटखनी देने की चुनौती दे रहा है। लेकिन प्रकृति भी कोई कम नहीं। कभी ज्वालामुखी, भूकंप, सुनामी तो कमी आंधी तूफान, बाढ़, सूखा, भयंकर गरमी और ठंड के जरिए आदमी जाति को पलटकर पटखनी देती है। इसलिए प्रकृति से पंगा नहीं लेने का। क्या?
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