…ताकि गंगा बहे, बहती रहे

गंगा भारत की जीवनधारा है। यह केवल नदी ही नहीं, भारत की आस्था, संस्कृति, परंपरा, सभ्यता का स्वर्णिम
इतिहास, प्रेरणा और पूजा है। विशाल जलराशि समेटे गंगा भारत की शाश्वत पहचान, आजीविका का उपक्रम और मर्यादा है। हिन्दू परंपरा में गंगा मां है, अति पूज्य है। गंगा के बारे में अनंत काल से न जाने कितनी जनश्रुतियां प्रचलित हैं। राजा भागीरथ गंगा को अपने अद्भुत तथा सफल तप से धरती पर लाए थे। इस तपस्या ने उनको अमर एवं वंदनीय बना दिया। उनका प्रयास भागीरथ प्रयास के रूप में एक लोकप्रिय जनश्रुति बन गया। अब वहीं जीवनदायिनी मां गंगा गंभीर संकट में हैं। सुदूर ऊंचे हिमनदों से ढंके हिमालय के गंगोत्री से निकल कर बंगाल की खाड़ी में समा जाने वाली गंगा की कथा एक दारूण गाथा है। २५१० कि.मी. की यात्रा में भारत के पांच राज्यों- उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से गुजरते हुए भारत की ४० प्रतिशत आबादी को जीवन देती है। हिन्दुओं के लिए विशेष रूप से वंदनीय गंगा जीवन के प्रत्येक प्रसंग से जुड़ी है। मृत्यु के ठीक पूर्व गंगा जल की कुछ बूंदें मुंह में डालना मोक्ष का पर्याय है। मृत्यु उपरांत गंगा में पंचतत्व शरीर का विलीन होना एक अंतिम अभिलाषा होती है। अब वही गंगा अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है।

देश के ग्यारह राज्य गंगा के कछारी क्षेत्र हैं। उत्तरांचल, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल का बड़ा भाग गंगा की सहायक, उपसहायक तथा उप-उपसहायक नदियों का चारों और फैला कछारी क्षेत्र है। गंगा का कछारी क्षेत्र विश्व के सर्वाधिक उपजाऊ तथा घनी आबादी वाला क्षेत्र है। यह दस लाख वर्ग कि.मी. तक फैला है। दर्जन भर प्रमुख सहायक नदियां और सैकड़ों छोटी बड़ी उपसहायक मौसमी, पठारी और मैदानी नदियों का जाल भारत के एक बड़े भूभाग को कृषि/आजीविका के साथ जीवन की उम्मीदें बांधे रखता है। जिस प्रकार हमारे शरीर की मुख्य रक्त वाहिनी सैकड़ों शिराओं और असंख्य कोशिकाओं को रक्त के जरिए पोषित करती है, गंगा भी ठीक उसी प्रकार भारत में जीवन और पोषण देती है। इसके बदले भारत के पांच राज्य, २९ नगर, ४० कस्बे, हजारों छोटे बड़े गांवों की ४० करोड़ आबादी गंगा में असीमित सीवेज तथा मल-मूत्र छोड़ती है।

आज गंगा विश्व की छठी सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। विश्व की दस अत्यधिक प्रदूषित नदियों में गंगा एक है। गंगा के कछारी क्षेत्र में कृषि के उपयोग में आनेवाले उर्वरकों की मात्रा सौ लाख टन है, जिसका पांच लाख टन बहकर गंगा में मिल जाता है। १५०० टन कीटकनाशक भी मिलता है। सैकड़ों टैनरीज, रसायन, कारखानों, कपड़ा मिलों, डिस्टलरियों, चमड़ा उद्योग, बूचड़खाने, अस्पताल और सैकड़ों अन्य फैक्टरियों का निकला उपद्रव्य गंगा में मिलता है। ४०० करोड़ लीटर अशोधित अपद्रव्य, ९०० करोड़ अशोधित गंदा पानी गंगा में मिल जाता है। नगरों और मानवीय क्रियाकलापों से निकली गंदगी नहाने-धोने, पूजा-पूजन सामग्री, मूर्ति विसर्जन और दाह संस्कार से निकला प्रदूषण गंगा में समा जाता है। भारत में गंगा तट पर बसे सैकड़ों नगरों का ११०० करोड़ लीटर अपशिष्ट प्रतिदिन गंगा में गिरता है। इसका कितना भाग शोधित होता होगा, प्रमाणित जानकारी नहीं है। लक्ष्य है कि २०२० तक गंगा प्रदूषण मुक्त हो। यह बहुत बड़ी चुनौती है। कृषि से निकलते, गंगा में घुलते रसायन तथा लाखों टन ठोस अपशिष्ट ने प्रदूषण की समस्या को जटिल बना दिया है। पर्याप्त बजट, परिस्थितिकी का संरक्षण तथा समुदाय की प्रभावी भागीदारी जैसे पक्षों पर भी ध्यान जरूरी है।

गंगा में उद्योगों से ८० प्रतिशत, नगरों से १५ प्रतिशत तथा आबादी, पर्यटन तथा धार्मिक कर्मकांड से ५ प्रतिशत प्रदूषण होता है। आबादी की बाढ़ के साथ, पर्यटन, नगरीकरण और उद्योगों के विकास ने प्रदूषण के स्तर को आठ गुना बढ़ाया है। ऐसा पिछले चालीस वर्षों में देखा गया। ॠषिकेश से गंगा पहाड़ों से उतर कर मैदानों में आती है, उसी के साथ गंगा में प्रदूषण की शुरूआत हो जाती है। धार्मिक, पर्यटन, पूजा-पाठ, मोक्ष और मुक्ति की धारणा ने गंगा को प्रदूषित करना शुरू किया। हरिद्वार के पहले ही गंगा का पानी निचली गंगा नहर में भेजकर उत्तर प्रदेश को सींचता है। नरौरा के परमाणु संयंत्र से गंगा के पानी का उपयोग और रेडियोधर्मिता के खतरे गम्भीर आयाम हैं। प्रदूषण की चरम स्थिति कानपुर में पहुंच जाती है। चमड़ा शोधन और उससे निकला प्रदूषण सबसे गम्भीर है। उस समूचे क्षेत्र में गंगा के पानी के साथ भूमिगत जल भी गम्भीर रूप से प्रदूषित है। इलाहाबाद में यमुना, गंगा से मिल जाती है। पवित्र संगम, यहां होने वाले स्नान और कुंभ मेले आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र होते हैं पर करोड़ों लोगों द्वारा स्नान, शवदाह और पिंडदान, अस्थि विसर्जन के कारण गंगा का प्रदूषण सभी मान्य सीमाएं पार कर खतरनाक हो जाता है। बनारस में प्रति वर्ष ३५००० तथा गंगातटों पर दो लाख से अधिक शवों का अंतिम संस्कार होता है। हजारों शवदाह आधे जले शवों को नदी में बहाना एक अन्य गम्भीर समस्या है। गंगातटों पर इस प्रदूषण से मुक्ति के लिए विद्युत शवदाह अच्छा तथा इकोफें्रडली विकल्प है। हमारी धार्मिक मान्यताएं, विश्वास, परम्परा और मृतक से भावनात्मक संबंध विद्युत शवदाह में असमंजस पैदा करते हैं। मोक्ष, मुक्ति और परम शांति के अर्थों को फिर से परिभाषित करना होगा।

गंगा का सम्पूर्ण कैचमैंट क्षेत्र नगरीकरण, बसावट, उद्योग धंधों और अंधाधुंध अतिक्रमण से पटा है। इस क्षेत्र का हजारों वर्षों से सुरक्षित मूल प्राकृतिक स्वरूप अब समाप्त है। जंगल कट गए हैं। वन्य जीवन विलुप्त हो गया है। बची है तो आबादी, भीड़, नगर, शहर, कस्बे, होटल, आश्रम, मठ, उद्योग धंधे और गंदगी के अंबार। सम्पन्न लोग आलीशान बंगले, आरामगाह, गंगा के कुदरती किनारों पर बनाते हैं। ऐसे बंगलों को वे अपना दूसरा और तीसरा घर कहते हैं और एैश करते हैं। जिस देश में करोड़ों के पास पहला घर तक नहीं है वहीं उनकी आरामतलबी के लिए दूसरा घर? कैचमैंट क्षेत्र में जंगलों के विनाश से बड़ी तादाद में भूमि क्षरण और कटाव बढ़ा है। गंगा का सम्पूर्ण प्रवाह मार्ग गाद से पट चुका है। ठोस कचरा, मलबा, मिट्टी से लेकर टाक्सिक अपद्रव्य, पालीथीन, प्लास्टिक कचरा जैसे अपघटित न होनेवाला कचरा तक उसमें फेंका जाता है। गर्मियों में जलराशि सिकुड़ जाती है। पानी की कमी से नदी के बीच टापू उभर आते हैं। गंगा अब पूरे प्रवास मार्ग में भारी गाद भरने से कई मीटर उथली हो चुकी है। अल्प वर्षा में बाढ़ अक्सर देखने में आती है। पानी गहराई में न समाकर सतह और किनारों पर फैलता है। किनारे पहले से ही बाजार, नगर और मठों, आश्रमों से पटे पड़े हैं। अतिक्रमण की छूट, लूट और मनमानी है। सो साल दर साल बाढ़ आनी ही है।

गंगा के बारे में आदिकाल से ही बहुत कुछ कहा, सुना और लिखा गया है। इसके प्रवाह मार्ग में हजारों वर्ष से सभ्यताएं पनपती रहीं। संरक्षित सदानीरा गंगा का महत्व बहुत बड़ा है। यह जलराशि के साथ जीवन का पर्याय और सुरक्षा का विश्वास है। मरती नदी के साथ सुरक्षित जीवन की सभी संभावनाएं समाप्त होने लगती हैं। भारत में आजीविका, कृषि, वन, वन्यप्राणी, पशु, परंपराएं, रीतिरिवाज, सांस्कृतिक विरासत और पहचान, लोकजीवन, संस्कार, हर्ष, विषाद जीवन और मृत्यु के साथ जीवन के समग्र ताने-बाने का केंद्र गंगा है। बच्चों की अलमस्ती और हुल्लड़, युवाओं की शक्ति और क्रियाशीलता, किसानों का भरोसा, बुजुर्गों का विश्वास, स्त्रियों का सौभाग्य और आबाद बस्तियों का भविष्य गंगा से ही है। मवेशियों का जीवन, अमराई की बहार और खेतों की रौनक गंगा से ही है। यह समझ से परे है कि हम इस जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी और पापनाशिनी कल्याणकारी गंगा के साथ इतने क्रूर और निर्दयी क्यों हो गए? बहती नदी चलती श्वास के समान होती है। रक्त शिराओं में बहता रक्त जिस तरह जीवन का भरोसा दिलाता है, ठीक उसी तरह गंगा और उसकी सहायक नदियों का जाल भारत की समृध्दि, प्रगति और जीवन की गतिशीलता का प्रमाण है। आज गंगा के अस्तित्व और भविष्य पर बेशुमार संकट है। हमारी गलत नीतियों और करतूतों ने हालात को और भी बदतर बना दिया। १९७९ में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने गंगा में प्रदूषण की विकरालता को समझते हुए एक समीक्षा की थी। १९८५ में गंगा एक्शन प्लान का प्रारम्भ हुआ, पर गंगा की हालत नहीं बदली। गंगा बेसिन अथॉरिटी की स्थापना २००९ में हुई पर नतीजे नहीं मिले। २०१४ में नमामि गंगे परियोजना की घोषणा हुई है। इसके अंतर्गत २०३७ करोड़ खर्च होंगे। किनारों के बड़े नगरों में घाटों के विकास हेतु १०० करोड़ रूपये खर्च होंगे। एन.आर.आय. को भी सहयोग हेतु कहा गया है। शहरी विकास मंत्रालय ने निर्मल धारा योजना के अंतर्गत गंगा तट पर बसे ११८ नगरों में जल-मल शुध्दिकरण के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की योजना बनाई है। जिस पर ५१००० करोड रुपये खर्च होंगे। गंगा के प्रवाह को जल परिवहन के लिए भी उपयोग करने की योजना है। इलाहाबाद से हल्दिया तक जलमार्ग विकास परियोजना ४२००० करोड़ रुपये की लागत से २०२० तक पूरी होगी। हालांकि इस जलमार्ग योजना पर अनेक प्रश्न उठाए गए हैं। जैवविविधता की क्षति से लेकर नदी की सम्पूर्ण परिस्थिति के बिगाड़ जाने तक के खतरों की आशंका जैसे प्रश्न हैं।

गंगा के अस्तित्व से भारत का भविष्य जुड़ा है, पर ऐसा लगा कि यह सीवेज ढ़ोने के लिए एक राष्ट्रीय नाला है। गंगा की छोटी बड़ी सहायक नदियों के प्रवाह थम रहे हैं। लगभग ६० प्रतिशत पानी, जो सहायक नदियां अपने कैचमैंट क्षेत्र से निचोड़ कर जोड़ती थीं, अब उनमें पानी जुटाने की क्षमता समाप्त हो गई। गंगा की सहायक नदियों के कैचमैंट क्षेत्र भी गम्भीर उथल-पुथल के शिकार हैं। इन क्षेत्रों का भूगोल और पर्यावरण पूरी तरह बदल चुका है। इनमें भी जंगलों की कटाई, बेतरबीत बसावट, अतिक्रमण और अनेक अवांछित गतिविधियों से क्षेत्रीय नदियां भी लगभग समाप्त ही हैं। गर्मियों में गंगा का प्रवाह ४० प्रतिशत शेष रहता है और यह पानी पिघलते हिमनंदों से आता है। एक दिन जब सहायक नदियां विलीन हो जाएंगी, हिमनद भी पिघल कर पर्याप्त पानी न दे पाएंगे तब भी क्या गंगा बहती रहेगी? लगातार पिघलते हिमनद तो यही कहते हैं कि शायद गंगा को वर्तमान रूप में भारत की भावी पीढ़ियां देख ही न पाए।

गंगा सिंचाई हेतु अतिदोहन के साथ भीषण प्रदूषण की शिकार है, वहीं दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के खतरे बढ़ रहे हैं। अब गंगा के साथ सिंधु सर्वाधिक खतरे में पड़ी दस नदियों में शामिल है। नदियों के किनारे बसी आबादी पर आजीविका के संकट बढ़ रहे हैं। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गंगा के सम्पूर्ण प्रवाह मार्ग में कृषि के अलावा आजीविका के लिए अनेक कामों के जरिए लाखों लोग केवल गंगा पर आश्रित हैं। गंगा का ६० प्रतिशत जल व्यापक स्तर पर सिंचाई इत्यादि के लिए डाइवर्ट हो रहा है। सतही जल तेजी से घट रहा है। भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ी है। इसका सीधा असर कृषि, पशुओं और मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। जलजनित बीमारियों से होने वाली एक लाख से अधिक मौतें इसका प्रमाण है। गंगा में मौजूद जलीय जीवन नष्ट होने की कगार पर है। गंगा में जलीय जीव अपने विनाश की कगार पर है। हिल्सा, पंधास, बाछा, धारी और सोल जैसी मछली की अनेक प्रजातियां खतरे में हैं। गंगा में बढ़ता प्रदूषण और घटता पानी इसका मुख्य कारण है। सुंदरवन डेल्टा में प्रवेश करने के बाद गंगा का ९० प्रतिशत पानी निकाल लिया जाता है।

नदियों की दुर्दशा के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। यह आधुनिक विकास के जरिए समूची प्राकृतिक प्रणालियों के तहस-नहस का ही परिणाम है कि गंगा सहित भारत की सभी नदियां खतरे में हैं। गंगा का उद्गम पिछले दस वर्षों में २००० मीटर पिघलकर सिकुड़ चुका है। समूची धरती पर ग्लोबल वार्मिंग और मौसम बदलाव के असर तो ग्लोबल हैं किन्तु स्थानीय क्रियाकलाप भी हालात को बिगाड़ रहे हैं। गंगोत्री के पास ढाबों की गहमागहमी और मौजमस्ती के लिए जमा होती भीड़ ठीक नहीं। उद्गम से ४०० मीटर के दायरे में जलती भटि्टयों, हजारों लीटर ईंधन का फूंका जाना, धुंआ, गरमी, हिमखंडों को तेज गति से पिघलाने के लिए काफी हैं। गोमुख वास्तव में इन सभी क्रियाकलापों से मुक्त होना चाहिए।

चौखंभा का पच्चीस कि.मी. लंबा क्षेत्र है। हिमालय की चौखंभा समूह की चोटियों से सटे हिमनंद, विश्व के सबसे बड़े हिमनंद हैं। ७१४३.१ मीटर अल्टीट्यूड से ये हिमनंद शुरू होते हैं और चौखंभा से गोमुख के नुकीले छोर पर समाप्त होते हैं। ये छोर ४००० मीटर अल्टीट्यूड पर हैं। यही भागीरथी नदी हिमनद के नथुने से निकलती है और देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर गंगा का निर्माण करती है। भगीरथी गंगा का प्रमुख स्रोत हैं किन्तु जलभराव की दृष्टि से अलकनंदा की हिस्सेदारी अधिक है। उद्गम से लेकर समुद्र तक पहुंचने की नदी यात्राएं गम्भीर निगरानी और सुधार चाहती हैं। अलकनंदा के साथ पिंडर, घोलीगंगा, रामगंगा और मंदाकिनी जैसी धाराएं भी मिलती हैं। कर्णप्रयाग में ही अलकनंदा पिंडर से मिलती हैं। अब पिंडर पर अनेक पनबिजली परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में वनों की कटाई, निर्माण और भारी भरकम परियोजनाओं से पूरा परिस्थितिक ढांचा बदला और बिगड़ा है। इसका परिणाम २०१३ में केदारनाथ त्रासदी के रूप में हम देख चुके हैं।

पर्यटन, बेतरतीब निर्माण, पनबिजली योजनाओं और बांधों के निर्माण से समूचा हिमालय क्षेत्र अति संवेदनशील हो चुका है। नदियों के मार्ग, नदी के तट में अवरोध पहाड़ियों पर बारूदी विस्फोट और सड़कों, सुरंगों के निर्माण से स्थितियां बद से बदतर हुई हैं। ५५७ बांध परियोजनाएं जो प्रस्तावित हैं यदि क्रियान्वित हुईं तो हिमाचल, गंगा, उत्तराखंड का पर्यावरणीय विनाश तय है। गंगा बहती है, इसलिए नदी है। अविरल है। नदी का बहना बंद होने का अर्थ नदी की मृत्यु है। फिर गंगा की मृत्यु का अर्थ कितना भयावह हो सकता है? बांधों का निर्माण जैव विविधता की क्षति के साथ वनों का विनाश लाता है। भूकंप, भूस्खलन, भूक्षरण के साथ पूरे क्षेत्र को आपदाओं में झोंक देते हैं। इन परिस्थितियों में सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का पुनरावलोकन आवश्यक है। इकोफ्रेंडली विकास के मॉडल, छोटी परियोजनाएं, गैर पारंपरिक ऊर्जा का दोहन, जनभागीदारी के साथ सटीक पर्यावरणीय प्रभाव पर अध्ययन होने चाहिए।

गंगा के जल में उपस्थित बैक्टिरिया, मौजूदा बैक्टीरिया को नष्ट करते हैं किंतु एक सीमा तक ही। गंगा के पानी में १२ वर्ष की सतत् मानीटरिंग चल रही हैं। देखने में आया है कि बैक्टीरिया की आबादी लगातार बढ़ रही है। प्रति १०० मि.ली. पानी में फीकल कोलीफार्म बढ़ रहे हैं। बी.ओ.डी. ४० मि.ग्राम लीटर है जलजनित बीमारियों जैसे गेस्ट्रोइनवाइटिस, कॉलरा, डिसन्ट्री, हैपेटाइटिस तथा टाइफाइड जैसी बीमारियों की दर ६६ प्रतिशत दर्ज की गई। कोलीफार्म बैक्टीरिया का स्तर ६००० के आसपास है जो किसी भी मानक में या किसी भी तरह के उपयोग के लिए ठीक नहीं पाया गया। कानपुर के चमड़ा उद्योग से निकला जहरीला क्रोमियम, मान्य सीमाओं से ७० गुना अधिक पाया गया। मछलियों के शरीर में पारे की मात्रा बहुत अधिक है। इस कार्बनिक मरकरी का संबंध मछलियों के खान-पान और लंबाई में पड़ता है। गंगा में मौजूद डालफिन विश्व की फ्रैश वाटर डाल्फिन श्रेणी में आती हैं। वे भी लोप होने के खतरे से जूझ रहीं हैं। सिंचाई बांधों तथा पनबिजली परियोजनाओं के कारण डाल्फिन्स का नदी में स्वतंत्र भ्रमण बाधित हुआ है। उनकी संख्या घट कर २००० तक पहुंच चुकी है। बांधों से जंगल बर्बाद होंगे। देवप्रयाग का कोटली भेल बांध १२०० हैक्टेयर जंगल को डुबा देगा, जिसमे महाशीर जैसी मछली की प्रजाति लुप्त हो जाएगी।

अब गंगा की सफाई को इसे अविरल निर्मल और पूरी तरह प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए भारत सरकार युध्द स्तर पर सामने आई है। जल संसाधनों के साथ ‘‘गंगा’’ अभियान उच्च प्राथमिकता पर लिया गया है। पृथक मंत्रालय का बनाना सरकार की गंगा के प्रति गम्भीरता का परिचायक है। कई स्तरों पर प्रयास शुरू किए जा रहे हैं। नए एक्शन प्लान में २०२२ तक गंगा के किनारे बसे सभी गावों को ‘‘खुले में शौच’’ से पूरी तरह मुक्त किए जाने का संकल्प है। राष्ट्रीय गंगा निगरानी केन्द्र का गठन एक अन्य पहल है। नदी के किनारों पर नदी नियामक नियमों को सख्ती से लागू करवाना, गंगा ज्ञान केन्द्र की स्थापना जो नदी विज्ञान पर गंगा विश्वविद्यालय जैसे संस्था बनाएगा। जलीय जीवन की सुरक्षा की जा रही है जिसमें डाल्फिन, घड़ियाल और कछुए शामिल हैं। बालू खनन पर नए नियम बनाने की बात की गई हैं। नगरों में नदी और तटों का विकास हो जिससे नदी सुंदर स्वच्छ लगे। इस प्रबंधन पर भी ध्यान दिया जाएगा।

एक नया पक्ष जो गंगा सफाई अभियान से जुड़ना है – हिन्दू परंपराओं और मान्यताओं के अनुसार धर्माचार्यों को विश्वास में लेकर उनकी स्वीकृति / सहमति से गंगा मित्र गतिविधियों के संचालन / शवों की अंत्येष्टि, पूजा सामग्री का विसर्जन और मूर्तियों का विसर्जन कुछ ऐसे ही पक्ष हैं। इन सभी कर्मकांडों के लिए ऐसी सुविधाएं देना और व्यवस्थाएं बनाना जरूरी है जो गंगा को प्रदूषण से बचा सके। छोटे-छोटे प्रयासों से बड़े परिणाम मिलते हैं- यह समझाना होगा। इकोफ्रेंडली शवदाहगृह, पूजा स्थानों, मूर्ति विसर्जन स्थानों के लिए उचित स्थान, अधजले शवों को गंगा में फेंकने के स्थान पर उनके उचित प्रबंधन की व्यवस्था भी शामिल है। गंगा की सफाई-शुध्दि के लिए साधु संतों का सहयोग और सहमति ली जा रही है। उन्हें समझाया जा रहा है कि ऐसी तकनीकें ही ठीक हैं जो गंगा में प्रदूषण को रोक सकें।

गंगा प्रदूषण मुक्त, शुध्द रहे, बाधाओं से मुक्त होकर अविरल बहे और बहती रहे इसी में भारत का हित है। इस हेतु भारत सरकार की पहल और प्रयास सराहनीय है। इसके साथ ही गंगा किनारे के पांच राज्यों, सैकड़ों नगरों और उद्योगों को भी जुटना होगा। वैज्ञानिक, जल विज्ञानी, भूगर्भशास्त्री, सलाहाकार, नीतिनिर्माता, पर्यावरणविद, गैरसरकारी संगठन, विशेषज्ञ, धार्मिक प्रमुख, साधु संत, गंगा के किनारे आजीविका चलाने वाले मछली पालक मल्लाह, नाविक, कृषक, मजदूर से लेकर देश का प्रत्येक नागरिक अपनी सम्पूर्ण चेतना से इस समस्या को समझे और अपने हिस्से का योगदान दें, तभी हम स्वच्छ, निर्मल, प्रदूषणमुक्त अविरल गंगा की कल्पना साकार कर सकते हैं। हमारा दृढ़ निश्चय, राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य बोध और मां गंगा की रक्षा का संकल्प अनिवार्य है। यह अपरिहार्य भी है ताकि गंगा बहे, बहती रहे।
मो. : ९८६९२०६१०१

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