आत्मनिर्भर भारत का गंतव्य


अलग-अलग कुशल समूह यह सामाजिक पूंजी है। उसे कुशलता से उत्पादन क्षेत्र में उपयोग किया जाना चाहिए। फिर हमें ध्यान में आएगा कि हमारी उत्पादन क्षमता अपार है। हमारी बराबरी विश्व का कोई भी देश नहीं कर सकता। आत्मनिर्भर भारत का यह अंतिम गंतव्य स्थान है।

आत्मनिर्भरता का मंत्र श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में दिया है। भगवान कहते हैं,

उद्धारेदात्मनाऽत्मान नात्मानभवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥(6/5)

इसका अर्थ है, अपना उद्धार हमें स्वयं ही करना है। हम ही हमारे शत्रु एवं हम ही हमारे मित्र हैं। यहां उद्धार का आध्यात्मिक अर्थ आत्म कल्याण, संसार पाश से मुक्ति यह भी हो सकता है। लौकिक अर्थ से सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए अपना स्वयं का विकास स्वयं को ही करना है, अन्य कोई हमारा विकास नहीं कर सकता। इस संबंध में हम हमारे ही मित्र एवं शत्रु होते हैं। आलस्य यह प्रगति का प्रथम क्रमांक का शत्रु है। कुछ भी सीखने में आलस्य किया तो विकास असंभव है। दिन में 8 – 10 घंटे सोना और अन्य समय मौजमस्ती करना, क्षणिक सुख के पीछे भागना, इससे किसी का भी विकास नहीं होता। कष्ट किए बिना या अधिक अच्छा शब्द उपयोग करना हो तो साधना किए बिना विकास संभव नहीं है।

भगवान का यह श्लोक व्यक्ति को लक्ष्य करके है। आत्मनिर्भर भारत का विचार करते समय हमें समाज का विचार करना पड़ता है। समाज का वर्णन समाज पुरुष के रूप में किया जाता है। हजारों सिर, हजारों हाथ और हजारों पैर इस प्रकार समाज पुरुष का वर्णन संस्कृत में किया गया है। इस समाज पुरुष का विचार करते समय उसे यदि आत्मनिर्भर होना है, तो उसे स्वतः का विकास स्वतः करना होगा। नकल करके या अन्य किसी पर निर्भर रह कर विकास नहीं हो सकता।

स्वतंत्रता के बाद विकास करने हेतु हम नकल करने के लिए कुछ मॉडल्स लाए। उसमें से एक मॉडल समाजवाद का था। यह रशियन मॉडल था। उसका प्रयोग हमारे देश में हुआ परंतु वह पूर्णत:असफल रहा। वह असफल होने का कारण वैसा ही था जैसे हम सेब या अखरोट का झाड़ कोकण में लगाएं। इसे प्रकार के अनैसर्गिक प्रयोग हमेशा असफल होते हैं।

इसके बाद सन् 1990 से अमेरिकन पूंजीवाद का प्रयोग शुरू हुआ। समाजवाद में गरीब अधिक गरीब हो गया और नव पूंजीवाद में अमीर अधिक अमीर हो गया। देश की अधिकांश संपत्ति 10% परिवारों में सिमट गई। दोनों प्रयोगों में देश आत्मनिर्भर नहीं हो सका। आखिर नकल नकल ही होती है। लता मंगेशकर की आवाज उनकी स्वतः की होती है। उनकी आवाज की नकल करने वालों की आवाज उनकी स्वतः की होती हैं। नकल से असल का निर्माण नहीं होता। आत्मनिर्भर होने के लिए सर्वप्रथम हम कौन हैं, हमारा जन्म किस लिए हुआ, हमारी मंजिल कौन सी है, वहां हमें कैसे पहुंचना है, इसका चिंतन करना पड़ता है। व्यक्ति के संदर्भ में यही प्रश्न शंकराचार्य जी ने इस प्रकार निर्माण किए हैं- मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरे माता पिता कौन हैं, मुझे कहां जाना है, इन प्रश्नों के चिंतन मनन से मार्ग मिलता है। समाज पुरुष का भी वैसा ही है। हम कौन हैं, इसका प्रथम विचार करना पड़ता है। हम याने इंग्लैंड, अमेरिका के पोशाख, जीवन शैली, भाषा की नकल करने वाले नहीं। इंग्लैंड- अमेरिका का जब अस्तित्व भी नहीं था तब से हम हैं। संस्कृति के विकास में सारे पाश्चात्य देश हमारे सामने बच्चे हैं। उनके वैज्ञानिक विकास, संगठित समाज और राजनीतिक जीवन से प्रभावित होकर आंखें बंद कर लेने का कोई कारण नहीं है। हमें अपना मार्ग स्वयं खोजना है। समाज पुरुष को शरीर, मन और बुद्धि सब कुछ है। समाज का शरीर आज निरोगी नहीं है। कोरोनावायरस के कारण वह आज रोग ग्रस्त हो गया है। उसे रोग मुक्त करना होगा। रोग मुक्ति का मार्ग हमें ही खोजना है। हमारी जीवन शैली, हमारी परंपरागत आहार पद्धति हमें स्वीकार करनी ही होगी। रोगग्रस्त होने पर दवाई लेने की अपेक्षा, रोग हो ही ना इस प्रकार का शरीर निर्माण करना, इस पर हम सैकड़ों वर्षों से जोर देते आ रहे हैं। धर्म मार्ग का प्रमुख साधन हमारा शरीर है। वह स्वस्थ रहेगा तो ही बाकी सारे काम होंगे। इसीलिए भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें शारीरिक आरोग्य का नाश करने वाले विदेशी खाद्य पदार्थों का त्याग करना होगा।

समाज पुरुष का मन होता है। वहां मन निर्मल होना चाहिए। मन की निर्मलता पवित्र वातावरण में होती है। उसके लिए मन पर अच्छे संस्कार होना आवश्यक है। विश्व का संचालन करने वाली एक महाशक्ति है, जिसे ईश्वर, परमात्मा कुछ भी कह सकते हैं। उसके सामने नम्र होना आवश्यक है। इससे मन का भटकाव नहीं होता। मेरे कारण सब हो रहा है, ऐसा अहंकार निर्माण नहीं होता है। आत्मनिर्भर होने के लिए यह संस्कार परंपरा जागृत रखनी होगी एवं उसे बलशाली बनाना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं उनके सहयोगी यह काम उत्तम तरीके से कर रहे हैं। चित्त वृत्ति का निरोध करने वाले योग शास्त्र को मोदी जी पूरे विश्व में ले गए हैं। वाराणसी जाकर वे गंगा आरती करते हैं। केदारनाथ की गुफा में जाकर ध्यान धारणा करते हैं। उनकी यह कृति केवल स्वतः के लिए सीमित ना होकर देश का आत्माभिमान जागृत करने वाली होती है। राम मंदिर का शिलान्यास उनके हाथों संपन्न हुआ। अयोध्या का राम मंदिर केवल मंदिर ना होकर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है। आत्मनिर्भरता के लिए आत्माभिमान जागृत करने वाली यह कृति है।

समाज पुरुष को बुद्धि होती है। इस बुद्धि में जहर भरने का काम पहले इस्लामी आक्रमणकारियों और अंग्रेजों ने किया। अब वही काम भारत के वामपंथी कर रहे हैं। बुद्धिनाश के साथ सर्वनाश निश्चित है। आत्मनिर्भरता के लिए बुद्धि की शुद्धि आवश्यक है। हमारे इतिहास का पुन: लेखन करना पड़ेगा। हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों को उचित अर्थ देना पड़ेगा। हमारी विचार परंपरा श्रेष्ठ है। जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण एकात्मिक है। विश्व, परमात्मा की रचना है, यह हमारा मूलभूत सिद्धांत है। सृष्टि के साथ संतुलन रखते हुए जीवन व्यतीत करना, अपना विकास करना, प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं करना, प्रकृति के सामने सिर झुका कर प्रकृति का आशीर्वाद प्राप्त करना, यह हमारी जीवन दृष्टि है, बुद्धि है। इस बुद्धि से विचार न करना याने विनाश है।

इन सब का विचार कर समाज पुरुष को आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ना है। समाज पुरुष की आत्मनिर्भरता याने व्यक्ति और व्यक्ति समूहों की आत्मनिर्भरता। समाज जैसे व्यक्तियों से बनता है, वैसे ही वह व्यक्ति समूहों से भी बनता है। इन व्यक्ति समूहों को ’वर्ग’ कहा जाता है। हमारी समाज रचना में इतिहास के एक मोड़ पर ये ’वर्ग’, ’जाति’ में परिणित हो गए। जन्म आधारित ’जातियों’ का वर्गीकरण, हम नहीं रोक पाए। यह गलती हमसे हुई। अब पुनः हमें उस मार्ग से नहीं जाना है।

विकास का विचार करते समय आर्थिक पक्ष का विचार करना प्रमुख होता है। आर्थिक विकास याने राष्ट्रीय आय में कितनी बढ़ोतरी हुई, प्रति व्यक्ति आर्थिक आय कितनी बढी, यह नहीं है। संख्या शास्त्र यह बहुत भुलावा देने वाला शास्त्र है। 9 व्यक्तियों की आय प्रति व्यक्ति 1000 है और दसवें व्यक्ति की आय एक करोड़ है, इन सब को मिलाकर एवं 10 का भाग देने से एक व्यक्ति की औसत आय आती है जो लाखों में होती है। परंतु वस्तु:स्थिति वैसी नहीं होती। इसीलिए कहते हैं कि संख्या शास्त्र भुलावा है। आर्थिक विकास का अर्थ प्रत्येक हाथ को काम और प्रत्येक काम का योग्य भुगतान। जब ऐसी परिस्थिति निर्माण हो जाए तब समझना चाहिए कि आर्थिक विकास का एक चरण पूरा हो गया। आर्थिक दृष्टि से निर्माण के तीन प्रकार हैं। पहला, वस्तुओं का उत्पादन; दूसरा, उत्पादन का वितरण और तीसरा सेवा उद्योग। उत्पादन क्षेत्र के दो प्रकार हैं। कृषि उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन। कृषि उत्पादन अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्य के लिए आवश्यक अन्न, कपड़ा एवं निवास की व्यवस्था कृषि उत्पादन से ही होती है। अनाज से भोजन, कपास से वस्त्र एवं वृक्षों से लकड़ी प्राप्त होती है।

आत्मनिर्भर भारत याने अन्न, वस्त्र एवं निवास के विषय में आत्मनिर्भरता। इसमें से यदि वृक्षों का विचार करें तो यदि भारत के 130 करोड़ लोगों में से आधे भी प्रत्येक वर्ष एक पौधा लगाएं एवं उसको जिंदा रखें तो प्रतिवर्ष कितने ही लाख रुपयों की पूंजी का विनियोग होगा। समाज का आत्माभिमान जागृत होने से यह संभव होगा। हम निसर्ग पूजक हैं। हम वृक्षों की पूजा करते हैं। यह संस्कार यदि समाज में जागृत रहता है तो यह काम होगा। औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में भी दो प्रकार हैं। पहला, ऐसे उद्योग जहां कारखानों में लगने वाली मशीनें तैयार की जाती है, मशीनों के लिए लगने वाली धातु मोल्ड की जाती है। इन्हें भारी उद्योग कहते हैं। इन उद्योगों में बहुत अधिक पूंजी लगती है। इस प्रकार के उद्योगों की स्थापना शासन ही कर सकता है। उद्योग का दूसरा प्रकार याने कारखानों का है। कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, जिसके लिए कुशलता आवश्यक है एवं वह केवल पुस्तकों से प्राप्त नहीं होती। हमारे शिक्षा प्रदान करने वाले जो कारखाने (स्कूल – महाविद्यालय) हैं, कौशल विकास को सिखाने के मामले में शून्य हैं। यह शिक्षा पद्धति बदलकर कौशल विकास पर जोर देने वाली शिक्षा देना आवश्यक है। आत्मनिर्भर भारत हेतु लाखों की संख्या में कुशल कर्मचारियों की आवश्यकता होगी। सरकार उस दिशा में प्रयत्नशील है, यह अच्छी बात है।

समाज को अलग-अलग प्रकार की असंख्य सेवाओं की आवश्यकता होती है। इनमें कोरियर सेवा से लेकर अलग-अलग उपकरणों को सुधारने की अनेक सेवाएं शामिल हैं। पोस्ट, बैंकिंग, बीमा, मोबाइल, इत्यादि सारी सेवाएं इन में समाविष्ट हैं। प्रत्येक हाथ को काम देने में इस क्षेत्र का हिस्सा बहुत बड़ा है। समाज रचना में अर्थ उत्पादन के विषयों का समावेश करना पड़ता है। जिनमें अलग-अलग प्रकार की कुशलता है, ऐसे लोगों के अलग-अलग वर्ग तैयार हो जाते हैं। इन वर्गों के हित संबंध परस्पर पूरक, परस्पर अवलंबित एवं परस्पर अनुकूल किस प्रकार होंगे, यह देखना है। कारखाना लगाना सरल है, वस्तुओं का उत्पादन करना भी सरल है, परंतु उपरोक्त तीनों तत्वों के साथ समाज रचना करना सरल काम नहीं है। उसके लिए केवल समाज हित का विचार करने वाले लोग ही समाज में खड़े करने पड़ेंगे। आज प्रत्येक क्षेत्र में स्वार्थ का विचार हावी है। मुझे इस से क्या मिलेगा, व्यक्ति इसका विचार प्राथमिकता से करता है। सामान्य मनुष्य की यह प्रवृत्ति कल भी थी, आज भी है, और कल भी रहेगी। उसमें आमूलाग्र बदलाव संभव नहीं। समाज देवदूतों से ना बना होकर व्यक्तियों से बना है। यह ध्यान में रखकर समाज में एक वर्ग ऐसा निर्माण करना पड़ता है जो केवल सामाजिक हितों का ही विचार करेगा। पहले की समाज रचना में यह काम ब्राह्मणों द्वारा किया जाए, ऐसी व्यवस्था थी। वह गरीब हो, विद्या संपन्न हो, विद्या का व्यापार ना करता हो, सरकारी नौकरी ना करें, ऐसे असंख्य बंधन उस पर थे। उसके बदले उसे राजा से भी बड़ा सम्मान मिलता था एवं उसके योगक्षेम की चिंता समाज करता था। आज वैसा ब्राह्मण भी नहीं रहा न ही वैसा समाज रहा। परंतु समाज की निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले समाज के मार्गदर्शक आज भी हैं। अण्णा हजारे, बाबा आमटे, विलासराव सालुंखे और पोपटराव पवार (हिरवे बाजार) सरीखे असंख्य नाम हम ले सकते हैं।

आत्मनिर्भर भारत के लिए ऐसे असंख्य लोग समाज में निर्माण करने होंगे। पश्चिमी चिंतन के अर्थशास्त्र में ’नीति’ को कोई स्थान नहीं है। नीति के सिवाय कोई भी व्यवस्था अनीति का निर्माण करती है। बिना नीति अर्थशास्त्र दानवी अर्थशास्त्र है। आर्थिक विकास परस्पर पूरक होना चाहिए। आर्थिक विकास में जो वर्ग तैयार होते हैं, उनके हित संबंध परस्पर पूरक हों ऐसी व्यवस्था करनी होगी। शासन का काम उस प्रकार के कानून बनाने का है। मजदूर एवं मालिक इस प्रकार का द्वैत नहीं होना चाहिए। अर्थ उत्पादन की व्यवस्था के ये दो घटक हैं।

आत्मनिर्भर भारत का विचार करते समय 100% स्वयं पूर्णता का निर्माण कठिन है, यह ध्यान में रखना होगा। हमें तेल आवश्यक है, वह विदेशों से आयात करना पड़ता है। तांबा, सोना भी आयात करना पड़ता है। नए-नए आधुनिक शस्त्र भी विदेशों से खरीदने पड़ते हैं। विश्व के सभी देशों की लगभग यही अवस्था है। कुछ चीजें कहीं बहुत अधिक प्रमाण में होती है तो कहीं कम होती हैं। इसलिए पूर्णत: आत्मनिर्भर होना, 100% स्वावलंबन, यह संभव नहीं है। इसलिए, क्या संभव है, इसका विचार आवश्यक है।

हमारी आवश्यकताएं हम निश्चित करें, यह संभव है। उनकी पूर्ति किस प्रकार से हो, यह हम निश्चित कर सकते हैं। किस वस्तु का कितना उत्पादन करना, बाहर से कितना आयात करना, यह भी हम निश्चित कर सकते हैं। देश की उत्पादन क्षमता का विचार करते हुए, भारत के कौन से राज्य किन वस्तुओं का उत्पादन करेंगे, यह भी हम निश्चित करेंगे। उसके लिए आवश्यक आधारभूत सुविधाएं किस प्रकार खड़ी करना यह भी हम तय करें, यह आत्मनिर्भरता है

अंत में मानव का, मानव समूह का अर्थात वर्ग का विचार किस प्रकार करना चाहिए? आध्यात्मिक दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य ईश्वर है, यह एक विचार है। आर्थिक दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य, उनके वर्ग समूह, ये ’सामाजिक पूंजी’ हैं। पूंजी निष्क्रिय हो तो उससे उत्पादन नहीं होता। व्यक्ति को हम जितना निष्क्रिय रखेंगे उतनी हम सामाजिक पूंजी व्यर्थ जाने देंगे। सामाजिक पूंजी का विनियोग करना पड़ता है। अलग-अलग कुशल समूह यह सामाजिक पूंजी है। उसे कुशलता से उत्पादन क्षेत्र में उपयोग किया जाना चाहिए। फिर हमें ध्यान में आएगा कि हमारी उत्पादन क्षमता अपार है। हमारी बराबरी विश्व का कोई भी देश नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि आत्मनिर्भर भारत का यह अंतिम गंतव्य स्थान है।

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