धर्मधुरंधर महाराजा अग्रसेन

दिव्य ज्ञान का प्रकाश सारे विश्व में सर्वप्रथम धर्म-भूमि भारत से ही विस्तारित हुआ। भारत-भूमि सदैव ही अवतारों और महापुरुषों की जन्म और उनकी क्रीडा-स्थली के रुप में विख्यात रही है। इस पवित्र भूमि पर भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम राम, श्रीकृष्ण, महात्मा गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, संत कबीर जैसे महान पुरुषों ने जन्म लिया। राष्ट्रगौरव, आर्यकुल दिवाकर, ऋषियों की वैदिक परम्पराओं और समाजवाद के संस्थापक महाराजा अग्रसेन ने महाभारत के पश्चात् लुप्त होती संस्कृति, जर्जरित होती सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया। उन्होंने वेदों में वर्णित धर्माचरणों व राजधर्मों का निर्वाह करते हुए ‘‘ब्रह्म, अग्निस्टोम, राष्ट्र-भूमि इत्यादि 18 महायज्ञों का सम्पादन कर अनेक लोकोपकारक सिद्धियो को अर्जित किया और अपने राज्य को सर्व-सुख समृद्धियों से परिपूर्ण बनाया। महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य में ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’’ साकार कर धर्म के आचरण, समृद्धि और सु-राज्य की गंगा बहाई थी।

वेदानुयायी आदर्श पुरुष महाराज अग्रसेन ने अथर्व-वेद के मंत्र ‘‘शत-हस्त समाहर:, सहस्र-हस्त संकिर:,’’ अर्थात् ‘‘हे दो हाथों वाले, तू सौ हाथों वाला बनकर कृषि-व्यापार-उद्योगों, पशु-पालन इत्यादि से प्रचुर धन-ऐश्वर्यों को प्राप्त कर और हजारों हाथों वाला होकर समाज और राष्ट्र-उत्थान के लिए अभाव ग्रसित एवं पीडितों की सहायता कर’’- महाराजा ने इस भावना को आधार बनाकर समृद्ध और सुखी समाज की संरचना का बीडा-उठाया। इस हेतु ‘‘एक ईंट और एक रुपया’’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर अभाव ग्रसितों को सुखद जीवन जीने की सरल व सर्व हितकारी योजना से लाभान्वित किया। महाराजा का यह मूल मंत्र ‘‘एक ईंट एक रुपया’’ पूर्णरुप से स्नेह, सद्भाव, समता, सम्मान, समकक्षता, संगठन और पुनर्वास का अनूठा परिचायक है जो अध्यावधि ऐतिहासिक उदाहरण एवं चिर-भविष्य के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा।

ऐसे युग-सृष्टा, वैश्य समाज के आदि पुरुष और अग्रवाल जाति के परम पितामह प्रात: स्मरणीय महाराजा अग्रसेन का जन्म मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की चौंतीसवीं पीढ़ी में सूर्यवंशी-क्षत्रीय कुल के महाराजा बल्लभसेन के घर में द्वापर के अन्तिम चरण में महाकलियुग के प्रारंभ होने के लगभग 85 वर्ष पूर्व हुआ था।

काल गणना के अनुसार विक्रम संवत् आरम्भ होने से 3130 वर्ष पूर्व (अर्थात् 3130 संवत् 2067) यानी आज से 5197 वर्ष पूर्व आश्विन शुक्ल एकम् को महाराजा अग्रसेन का प्रादुर्भाव हुआ। विश्व विख्यात महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों को 12 वर्ष का वनवास हुआ। इससे पूर्व पांडव खाण्डीव राज्य के राजा रहे। साम्राज्य वृद्धि के लिए कौरवों ने कर्ण की सहायता से आस-पास के राजाओं पर आक्रमण किये, उसमें महाराजा अग्रसेन का नव-स्थापित अग्रोहा नगर भी था। महाराजा ने दूर-दर्शिता से कौरवों से संधि कर ली। नव स्थापित अग्रोहा नगर भी था। महाराजा ने दूर-दर्शिता से कौरवों से संधि कर ली। नव स्थापित अग्रोहा के निर्माण और बसाने में करीब 10 वर्ष लगे। नयी राजधानी अग्रोहा-नगर की स्थापना का निर्णय महाराजा ने 25 वर्ष की आयु में अपने पिता श्री बल्लभसेन के राज्याधिकारी बनने के समय लिया था। महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने करीब 38 वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात कलियुग आरम्भ के प्रथम दिन युधिष्ठिर ने अपना राज्य अपने पौत्र परीक्षित को सौंप कर वन-गमन किया। इस प्रकार समय-काल की गणना 85 वर्ष अनुमानित है।

महाराजा अग्रसेन के पिता महाराजा बल्लभसेन अग्रोदक-राज्य (अगाच्च जनपद) के नृप (राजा) थे। यह राज्य उस वक्त में वर्तमान राजस्थान प्रान्त के मारवाड क्षेत्र से लेकर उत्तर में हिमालय की तलहटी में स्थित गंगा-यमुना के पश्चिमी मैदान तथा व्यास नदी के तट से लेकर दिल्ली व आगरा तक विस्तृत था। इस विशाल जनपद की तत्कालीन राजधानी वर्तमान राजस्थान प्रान्त के जोधपुर जिले के अन्तर्गत प्रतापनगर नामक स्थान थी जो कि राज्य के एक छोर पर स्थित थी। इस स्थान पर महाराजा श्री बल्लभसेन तथा उनके पूर्वज महाराज श्री धनपाल (कुबेर) तथा पितामह राव महीधर ने अनेकों वर्षों तक रहते हुए इस जनपद की शासन व्यवस्था का संचालन किया था। इनका राज्य शासन काल त्रेता-युग से लेकर द्वापर युग तक था।
महाराजा श्री अग्रसेन जी के एक अनुज श्री शूरसेन जी एवं एक बहिन कुमुद कंबर का जन्म भी द्वापर के अन्तिम चरण में ही हुआ था। इनकी माता का नाम मेद कुबेरी था जो मदसौर राज्य के राजा की पुत्री थी।

बाल्यकाल
महाराजा अग्रसेन का बाल्यकाल विविध अनूठी बाल क्रीडाओं, शिक्षा-दीक्षा, अस्र-शस्र विद्या, मानव मात्र की सेवा जैसे कार्यों में बीता। आपने वेद-पुराण, राजनीति, अर्थ-शास्र इत्यादि अनेक विद्याओं का समग्र ज्ञान अर्जित किया। गुरु-कुल में सभी सहपाठी राजकुमारों में आप हर क्षेत्र में अग्रणी रहे तथा अपने गुणों और योग्यता से अग्रसेन नाम को सार्थक किया। आप रण-कौशल में अद्वितीय योद्धा और राजनीति में कुशल प्रशासक बने।
महाराज अग्रसेन अपने वंशानुगत कुलदेवी नाग-कन्या (मन्शादेवी), इष्टदेवी महालक्ष्मी जी तथा इष्टदेव भगवान विष्णुनारायण के परम भक्त थे।

राज्य-भार संभाला
महाराज बल्लभसेन ने जब अपने ज्येष्ठ पुत्र अग्रसेन जी को राज्य भार संभालने में सभी प्रकार से सुयोग्य पाया तो उन्होंने अग्रसेन जी को उनकी 35 वर्ष की आयु में अग्रजनपद का राज्य-भार सौंपकर राजा बनाकर और स्वयं बान-प्रस्थ ग्रहण कर तप करने तले गए।

महाराजा अग्रसेन का प्राकट्य महाभारत युद्ध के समकालीन हुआ था। देश-देश के राजा महाराजा अपने पौरुष और वैभव के कारण अपना शौर्य बढ़ा रहे थे। आपस में युद्धों में तल्लीन थे। महाभारत युद्ध की विभीषिका का प्रभाव सर्वत्र फैला हुआ था। राष्ट्र की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक दशा दिशा-हीन व डांवाडोल हो गई थी। अपार जन-धन की हानि की त्रासदी का दुष्प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित था। भुखमरी, गरीबी, लूट-खसौट और अराजकता चारों ओर अपना प्रभाव दिखा रही थी। अत: उस काल में अग्रसेन ने ऐसे युगावतार की आवश्यकतोओं को समझा और सनातन वैदिक व्यवस्था के अनुसार समाज में एक ऐसा संगठन स्थापित किया जो राष्ट्र सुरक्षा ही नहीं बल्कि कृषि, उद्योग, वाणिज्य के विकास के साथ लोकतांत्रिक व समाजवादी व्यवस्था का निर्वाह करते हुए नैतिक मूल्यों व शान्ति स्थापना की पुर्नप्रतिष्ठा कर सके।

महाराजा अग्रसेन ने शासन की बागडोर संभालते ही न्याय व समानता व समय की आवश्यकता को देखते हुए निर्णय लिया कि अपने अनुज भ्राता शूरसेन जी को पृथक राज्य का शासक बनाते हुए अग्रजनपद में एक पृथक राज्य स्थापित किया जाय। इस प्रकार शासन व्यवस्था के सुसंचालन एवं आपसी संबंधों को सुदृढ़ और मधुरतम बनाने के लिए राज्य को दो भागों में विभक्त कर श्रीशूरसेन को समान अधिकार प्रदान करते हुए राजा के पद से सुशोभित किया गया उसकी राजधानी वर्तमान आगरा (अग्रनगर) शहर को बनाया। इसके फलस्वरुप दोनों ही राज्यों की सीमाओं पर सुरक्षा व्यवस्था कायम होकर बाहर के खतरों से निश्चित हो गए।

दूरदृष्टा महाराजा
महाराजा ऐसे महान उदार हृदय के थे कि वे अपनी प्रजा को कभी युद्ध तथा अराजकता की शिकार बनते देखना नहीं चाहते थे। अत: आपने शासन व्यवस्था के सुदृढ़ सुसंचालन हेतु अपनी राजधानी को प्रतापनगर से कहीं अन्यत्र स्थानान्तरित कर, स्थापित करने का विचार किया। नई राजधानी के लिए अत्यन्त ही सुरक्षित एवं समुचित स्थान की खोज करने लगे।

इन्हीं दिनों महाराजा अग्रसेन जब अपने पिता बल्लभसेन के ब्रह्मलीन हो जाने के बाद उनकी आत्मिक शान्ति के लिए लोहागढ़ (पंजाब) तीर्थ से पिण्ड दान कर लौटते हुए एक जंगल में से गुजर रहे थे, उस दौरान उस जंगल में एक सिंहनी प्रसवावस्था में थी। महाराज अग्रसेन के लाव-लश्कर के आवागमन और भारी कोलाहल से सिंहनी को भय हुआ और प्रसव में बाधा पड़ी। इससे सिंहनी के अकाल प्रसव हो गया। सिंहनी के गर्भस्थ शिशु ने जन्म लेते ही अपने क्रुद्ध और वीर स्वभाव का प्रदर्शन करते हुए महाराजा के हाथी पर प्रहार किया। वह नवजात कोमल शावक टक्कर खाकर स्वयं धराशायी हो गया। सिंहनी ने नवजात कोमल शावक टक्कर खाकर स्वयं धराशायी हो गया। सिंहनी ने नवजात शिशु की इस आकस्मिक मृत्यु से दुखी होकर राजा अग्रसेन जी को शापित कर दिया कि मेरे पुत्र-विहीन हो जाने का कारण राजा है। अत: वह भी वंश-विहीन होगा।

इस प्रकार की विलक्षण घटना देखकर महाराज अत्यन्त विस्मित हुए और धर्माचार्यों व अन्वेषक विशेषज्ञों से परामर्श किया और उस स्थल को वीर-प्रसूता माना। जिस धरा पर जन्म लेते ही प्राणी अपने विपक्षी (शत्रु) को पहचानने तथा उससे प्रतिशोध लेने की उत्कण्ठा और क्षमता रखता हो उस धरती पर निवास करने वाला मनुष्य साहसी, वीर-पराक्रमी और उद्यमी अवश्य होगा और यही विचार कर अग्रसेन जी ने अपने राज्य की राजधानी उसी भूमि पर स्थापित करने का निश्चय कर लिया तथा मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की पंचमी को नये नगर की नींव रख दी। जिसका नाम अग्रोदक नगर (वर्तमान नाम अग्रोहा) रखा। यह स्थान हरियाणा प्रदेश में हिसार से 20 कि. मी. की दूरी पर स्थित है।

इस नगर का विस्तार 12 योजना था। नगर चार मुख्य सडकों द्वारा विभक्त था। प्रत्येक सडक के दोनों ओर राजमहल और अनेक राज-प्रासाद व ऊँचे-ऊँचे भवन थे। इस नगर में अग्रवालों की कुल देवी महालक्ष्मी एवं शिव-पार्वती का बडा विशालकाय भव्य मंदिर बनवाया। सवा लाख भवनों की सुव्यवस्थित बस्ती बसाई। बाहर से इस नगर में आबाद होने के लिए आने वाले प्रत्येक परिवाय को बिना किसी अमीर-गरीब के भेद-भाव के प्रत्येक घर से ‘‘एक रुपया एक ईट’’ का उपहार दिया जाता था ताकि नवागन्तुक अपना घर बसाकर उदर-पूर्ति हेतु व्यवस्था कर उपार्जन कर सके। इस प्रकार का साम्यवाद व विश्व-बन्धुत्व का सही तथा प्रत्यक्ष उदाहरण सर्वप्रथम महाराज श्री अग्रसेन जी ने ही प्रतिपादित किया। यह निर्विवाद रुप से कहा जा सकता है कि महाराज अग्रसेन विश्व में सहकारिता एवं समाजवाद के प्रथम प्रणेता एवं जनक थे।

महान राजनीतिज्ञ
महाराज अग्रसेन बडे दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे, वह भली-भांति जानते थे कि ज्यों ज्यों किसी की प्रसिद्धि व समृद्धी बढ़ती है, त्यों त्यों उसके शत्रु भी बढ़ने लगते है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने नीति से कार्य करते हुए बड़े-बड़े शक्तिशाली राजाओं से मित्रता स्थापित की तथा उनके राज्यों से व्यापार व्यवसाय संबंध स्थापित किये। प्रबल एवं अधिक बलशाली राजाओं से वैवाहिक गठबन्धन जोडे। उन्हें महाभारत कालीना राष्ट्र की परिस्थितियों व विभिषिकाओं का पूर्ण ज्ञान था। राज्यों में आपसी मनमुटाव, वैर-भाव पनप रहे थे।

माधवी से विवाह
महाराजा अग्रसेन तत्कालीन परिस्थितियों को भली प्रकार समझते थे। अत: अपना विवाह 40 वर्ष की अवस्था तक नहीं किया। उस समय दक्षिण में नागवंश के राजा सबसे शक्तिशाली माने जाते थे। नागलोक के वैभवशाली नगर कोल्हापुर के प्रतापी शासक राजा कुमद ने अपनी सुलक्षणा, विदूषी कन्या माधवी के विवाह के लिए स्वयंवर रचाया। भू-लोक-देवलोक से भी अनेक राजा और इन्द्रलोक के देवराज इन्द्र तथा महाराजा अग्रसेन स्वयंवर में आये। नागकन्या सुन्दरी माधवी ने महाराज अग्रसेन को वरण कर लिया और महाराज अग्रसेन का विवाह माधवी से हो गया। यह विवाह दो संस्कृतियों का मिलन था। अग्रसेन सूर्यवंशी थे और राजा कुमूद नागवंशी।

देवराज इन्द्र माधवी की सुन्दरता पर मोहित था और माधवी के साथ विवाह रचाकर नागवंश के साथ मैत्री करना चाहता था, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। इससे राजा इन्द्र के मन में अग्रसेन के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया और ईर्ष्याभाव के वशीभूत होकर बदला लेने की भावना के कारण इन्द्र ने महाराज अग्रसेन के राज्य में वर्षा बरसाना बन्द कर दिया, फलस्वरुप खेती-बाडी नष्ट हो गई, भयंकर अकाल पड गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। महाराजा अग्रसेन इससे विचलित नहीं हुए और अपने इष्ट भगवान शिव की आराधना करने लगे और इस कष्ट से मुक्ति हेतु शक्ति और उपाय की प्रार्थना की। भगवान शिव ने इस कष्ट के निवारण के लिए कुलदेवी महालक्ष्मी को प्रसन्न करने का निर्देश दिया।

महालक्ष्मी की तपस्या
महाराज अग्रसेन ने शिवजी की आज्ञानुसार कुलदेवी महालक्ष्मी की तपस्या कर उसे प्रसन्न किया और राज्य में धन-धान्य का वरदान प्राप्त किया। उन्होंने अपने राज्य में नदियों से नहरे निकालीं, कूओं-बावडियों का निर्माण करवाया। सूखी धरती की प्यास बुझाई। अन्न-जल की समस्या दूर की। अकाल और अनावृष्टि पर विजय पाई। इस प्रकार से महाराज के नैतिक बल और महालक्ष्मी जी की कृपा के फलस्वरुप राजा इन्द्र महाराजा की शक्ति के समक्ष टिक नही सका और उसे पराजय माननी पडी। वह पराजय से घबराकर ब्रह्माजी के पास गया। ब्रह्माजी ने उसे युगपुरुष अग्रसेन से वैर-भाव छोडकर मित्रता करने का परामर्श दिया। इन्द्र ने देवर्षि नारद के सहयोग से महाराज से संधि कर मित्रता कर ली। फलत: महाराजा का राज्य व प्रजा पूर्ण सुखी और समृद्धिशाली होने लगा।

अन्य रानियां
महाराज अग्रसेन जी ने दूसरा विवाह केत-मालखंड क्षेत्र के नृपति सुन्दर सेन की पुत्री सुन्द्रावती से और तीसरा विवाह दक्षिण में ही चम्पावती नगर के राजा धनपाल की पुत्री धनपाला से किया। तथा अन्य विवाह नागराज के अवतारधारी कोलपुर के राजा महीधर की कन्याओं से करके महाराज अग्रसेन जी ने अपने राज्य को सुदृढ़ और वैभवशाली बनाया।

धर्मधुरंधर महाराजा
महाराजा अग्रसेन अग्रोहा नगर का निर्माण कर अपना विवाह आदि कर चुके थे। प्रजा पूर्ण समृद्धशाली व सुखी थी। परन्तु महाराजा के संतान का अभाव बना रहा। क्योंकि नगर बसाने के पूर्व जिस गर्भिणी सिंहनी का गर्भस्थ शिशु गिरकर मर गया था उसने महाराजा को संतान-हीन होने का श्राप दिया था। महाराज इस श्राप से अत्यंत विचलित थे और श्राप से मुक्ति चाहते थे। उन्होंने क्षात्र-धर्म के अतिरिक्त वैष्णव धर्म को राज-धर्म घोषित किया और वैष्णव धर्माचरण से रहने लगे। फलस्वरुप महाराज का वंश अग्रवाल समाज वैष्णव अर्थात वैश्य कहलाने लगा।
महाराजा के समय तथा सतयुग, त्रेता व द्वापर युग में पशु-पक्षी आदि मानवीय भाषा बोलने की क्षमता रखते थे। मनुष्य भी उनकी वाणी को भली-भांति समझते थे। महाराजा को सिंहनी का श्राप स्पष्ट स्मरण था। उन्होंने अपनी वंशवृद्धि एवं शासन संचालन हेतु कुलदेवी महालक्ष्मी की शरण में पुन:तपस्या करने का निश्चय किया।

महाराज ने यमुना तट पर अपनी नव विवाहिता रानियों के साथ महालक्ष्मी जी की पूजा-अर्चना आरम्भ कर दी। महालक्ष्मी ने प्रसन्न होकर महाराज को तपस्या बंद कर गृहस्थाश्रम का पालन करने की आज्ञा दी क्योंकि यही चारों आश्रमों का आधार और भूलवश हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित करने का सुगम साधन है। महालक्ष्मी जी ने वरदान दिया कि तुम्हारी वंशवृद्धि का समय आ गया है, तुम्हारा कुल तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होकर अग्रवंशी कहलायेगा। तुम्हारे कुल में मेरी सदैव पूजा होती रहेगी और यह कुल वैभवशाली रहेगा। कुलदेवी वरदान देकर अन्तर्धान हो गई। महाराज अग्रसेन अपनी रानियों सहित राजधानी पुन: लौट आये।

महाराजा के 54 पुत्र और 18 पुत्रियाँ तथा 52 पौत्र और 52 पौत्रियाँ हुई। महाराज अग्रसेन ने जब अपने वंशवृद्धि का इतना विस्तार देखा तो अपने समूचे साम्राज्य को गणराज्यों के रुप में अपने पुत्रों में बांटने का निर्णय लिया। महाराज की धर्म और न्याय के प्रति अगाध श्रद्धा थी। धर्माचार द्वारा वे प्रजा में नैतिक अभ्युदय और आदर्श स्थापित करना चाहिते थे। उस समय धर्म सिद्धी, सुख-समृद्धि और कार्य-सिद्धि के लिए विशाल यज्ञों और अश्वमेघ यज्ञों के आयोजन करने की परम्परा थी। ये यज्ञ राजा-महाराजाओं की प्रतिष्ठि के मापडण्डों के साथ-साथ राष्ट्र की भावनात्मक एकता एवं जन-जन के विश्वास से जुडने के लिए सशक्त माध्यम भी थी। सम्पूर्ण राज्य उसमें भाग लेता था और पवित्र द्रव्यों की आहूति द्वारा अपने तथा मानव मात्र के कल्याण की कामना करता था। इससे राजा और प्रजा दोनों की चित्तवृत्तियाँ शुद्ध और सात्विक होकर समाज में सदाचार की वृद्धि होती थी।
अत: महाराजा अग्रसेन ने अपने गणराज्य को 18 विभिन्न गणराज्यों में विभक्त कर 18 अश्वमेघ यज्ञ करने का निर्णय किया। यज्ञों की व्यवस्थाओं का सम्पूर्ण प्रबंध अपने कनिष्ठ भ्राता श्री शूरसेन जी को सौंपा। यज्ञ के बृम्हा का आसन महर्षि गर्ग मुनि को दिया। दूर-दूरस्थ स्थानों एवं राज्यों को यज्ञ में सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा। यज्ञ में बड़े-बड़े मुनि, विद्वान, राजा-महाराज सम्मिलित हुए। आतिथ्य सत्कार का कार्य राजा शूरसेन जी ने सम्हाला।

18 यज्ञों के अधिष्ठिता-कर्ता मुख्य ऋषिवर सर्वश्री गर्ग, गोभिल, गौत्तम, मैत्रेय, जैमिनी, शेगल (शाण्डिल्य), वत्स उरु (ओर्व), कौशिक, वशिष्ठि, कश्यप, ताण्डप, माण्य मांडव्य, धौम्य, मुद्ग, अंगिरा, भृगु, तैतरिय, नागेन्द्र, आस्तिक, भंदल आदि ऋषि मुनि बने।

महाराज अग्रसेन ने प्रत्येक यज्ञ में गण के एक-एक प्रतिनिधि यजमान के रूप में अपने अठारह पुत्रों को नियुक्त किया और एक-एक ऋषि को उसका पुरोहित बनाया। उन्हीं ऋषियों के नाम पर अठारह कुलों यानी गौत्रों की संज्ञा दी गई, जिससे वंश परम्परा पृथक जानी जा सके। जैसे गर्ग मुनि के नाम पर गर्ग, भंदल ऋषि के नाम पर भंदल गौत्र आदि निर्धारित किये गये। यह निश्चय किया गया कि भविष्य में वैवाहिक संबंध इन्हीं गौत्र-कुलों में एका गौत्र को छोडकर किये जा सकेंगे। इस प्रकार महाराजा अग्रसेन जी ने 18 कुलों की संरचना कर उन्हें एक झण्डे के नीचे एकत्र कर उसे वैश्य वंशी समाज संगठन की एक स्वतंत्र जाति ‘आग्रेय’ जो अब अग्रवाल नाम से जानी जाती है, का स्वरूप दिया।

अग्रवाल समाज के गोत्राधिपतियों और ऋषियों (पुरोहितों) के आधार पर गौत्रों का निर्धारण निम्न प्रकार किया गया:-
क्रम नाम नामऋषि नाम गोत्र
गोत्राधिपति (पुरोहित)

1 पुष्पदेव गर्ग गर्ग
2 गेंदूमल गोभिल गोयल
3 करणचन्द्र कश्यप कुच्छल
4 मणिपाल कौशिक कंसल
5 वृंददेव वशिष्ठ बिंदल
6 ढावणदेव धौम्य धारण
7 सिंधुदेव शान्डिल्य सिंहल
8 जैत्रसंध जैमिनी जिंदल
9 मंत्रपति मैत्रेय मित्तल
10 तम्बोलकर्ण तांडव तिंगल
11 ताराचन्द्र तैतिरेय तायल
12 वीरभान वत्स बंसल
13 वासुदेव धन्यास (भंदल) भंदल
14 नारसेन नागेन्द्र नांगल
15 अमृतसेन मांडव्य मंगल
16 इन्दरमल और्व ऐरण
17 माधवसेन मुद्गल मधुकुल
18 गौधर गौत्तम गोयन

महाराजा अग्रसेनजी ने गौत्रों की व्यवस्था ऋषियों के नाम से इसलिए बनाई कि उनके पुत्रादि जो एक ही पिता की सन्तान होने से आपस में भाई-बहिन थे, उन मेें परस्पर विवाह संबंध नहीं हो सकते थे अत: इस प्रकार की अलग गौत्र व्यवस्था प्रचलित कर उनमें विभाजन कर विवाह व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया और भविष्य में किसी विवाद के होने को समाप्त कर दिया।

अनादिकाल से भारत में गौत्र परम्परा रक्त-शुद्धि पर आधारित और विज्ञान सम्मत पद्धति है। एक ही रक्त संबंध में शादी-विवाह करने से वंश-वृद्धि को आघात मिलता है और समाज में नई प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाना माना गया है। व्यक्ति में नये गुणों की वृद्धि के लिए भिन्न-भिन्न रक्तांशो (जींस) अपेक्षित होते हैं, एक ही गौत्र परिवार में शादी-विवाह होने से वे ही रक्तांश पीढ़ी-दर-पीढ़ी घूमते रहते हैं। और प्रतिभा-विकास की सम्भावनाऐं क्षीण हो जाती है। अत: भारतीय शास्त्रों में स्वगौत्र विवाह का निषेध करते हुए कहा गया है कि ‘‘दुहिता-दूर-हिता अर्थात कन्या का विवाह दूर यानी दूसरे गौत्र में होना हितकर है। उसका विवाह समगोत्र में नही करना चाहिए।

हिंसा रूपी पाप का बोध
महाराजा श्री अग्रसेन के द्वारा आयोजित सत्रह यज्ञ निर्विघ्न पूरे हो गये। जब 18 वें यज्ञ में दी जाने वाली पशु (घोडे) बली में हिंसा रूपी पाप का बोध हुआ, उन्हें ऐसे कृत्य से गम्भीर घृणा हुई। उन्होंने अनुभव किया कि वैश्यों-क्षत्रियों का परमधर्म तो पशु-पालना, उनकी रक्षा करना है। वध करना नही। उन मूक प्राणियों के वध करने से कोई धर्म नहीं बल्कि पाप ही लगेगा। पशुवध तो महापाप कर्म है, यदि धर्म सम्मत यज्ञ द्वारा, किसी लक्ष्य की प्राप्ति कतई सम्भव नहीं है। जीवों पर दया करनी चाहिए, उनकी रक्षाकर पालना करती चाहिए। यह विचार कर महाराज ने अपने भ्राता राजा शूरसेनजी को और अपने पुत्रादिक वंशजों को इस प्रकार के हिंसामय यज्ञ को करने से मना कर दिया। आदेश दिया कि इस शेष अठारवें यज्ञ को बिना पशुबलि दिये पूर्ण किया जाय और यज्ञ को पूर्ण कराया तथा अपने वंशजों को यज्ञादि कार्यों में हिंसा जैसे कार्यों से दूर रहने की प्रतिज्ञा कराई। क्षत्रीय महाराजा अग्रसेन जी के इस महत्वपूर्ण विचार परिवर्तन कराई। क्षत्रीय महाराजा अग्रसेन जी के इस महत्वपूर्ण विचार परिवर्तन का उनके द्वारा प्रतिपादित वैश्य जाति के जीवन पर भारी प्रभाव पडा और वैश्य समाज के लोग अहिंसा, निरामिष भोजन, दया, धर्म और सदाचार का सदैव पालन करते आ रहे हैं और यह परम्पराग धरोहर बन गयी है।

अग्रवंश की स्थापना
महाराजा अग्रसेन ने अपनी प्रजा को युद्धों के अवसर पर अस्त्र-शस्त्र धारण कर अपनी रक्षा स्वयं करने के लिए तैयार किया था लेकिन साथ ही युद्धोत्तर समय में राष्ट्र को सुखी-समृद्धशाली और आत्म-निर्भर बनाये रखने के लिए वैश्य कर्म-कृषि, गौरक्षा, व्यापार, व्यवसाय करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने इस दृष्टि से सारी प्रजा को वैश्य-वंशी-अग्रवाल घोषित कर दिया। लेकिन अपने पूर्व-स्वरुप क्षत्रियोचित आचरण-व्यवहार को कायम रखा। इसके लिए सामाजिक व्यवस्था का अधिकार प्रदान किया कि प्रत्येक वैश्यवंशी-अग्रवाल एक दिन के लिए अवश्य राजा होगा और राज्योचित छत्र-चंबर धारण कर, घोडी पर पगडी, कलंगी व कटार बांध कर बैठेगा। यह गौरव उसे उसके विवाह के अवसर पर प्राप्त रहेगा। यह क्षत्रियोचित अधिकार अग्रवालों को आज भी प्राप्त है। विवाह के समय वर को कटार, छत्र-चंबर धारण कर घोडे पर सवार कराया जाता है।

महाराजा अग्रसेन ने 108 वर्षों तक निर्विघ्न शासन किया। इनके राज्य में सिंह और गाय एक घाट पर पानी पीते थे। उन्होंने जनहित एवं जन कल्याण के लिए अत्यन्त दूरदर्शिता, प्रजावत्सल समाजसेवी व कूटनीतिज्ञ शासक के रुप में शासन किया। जन, जाति या धन के आधार पर ऊँच-नीच के भेद को मिटाकर सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार किया। सब को समान अधिकार दिये। राज्य में सुख-शान्ति और समृद्धि की स्थापना के लिए अपने पड़ौसी राजाओं से संधि और मित्रता स्थापित की और युद्धों से होने वाले विनाश के भय को समाप्त किया। युद्धों से मुक्ति पाकर, क्षात्र-धर्म को छोडकर, समाज को सुख और समृद्धशाली बनाये रखने के लिए वैश्य कर्म को बढ़ावा दिया। कृषि उत्पादन, व्यापार, देशाटन, पशुपालन आदि को प्रोत्साहित कर वैश्य वर्ण को प्रतिष्ठित कर प्रसिद्धि दिलाई।

महाराजा अग्रसेन 133 वर्ष की आयु होने पर, अपनी वृद्धावस्था समीप जानकर परम आराध्या कुल देवी महालक्ष्मीजी के आदेश से धर्म का अनुसरण करते हुए अपने राज्य की बागडोर अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु को सौंपकर उसे राजगद्दी पर बिठाया और अपनी रानियों और भ्राता श्री शूरसेन के साथ बन में तपस्या करने प्रस्थान कर गये। दक्षिण में गोदावरी के तट पर ब्रह्मसर नामक तीर्थ पर तप करते हुए 193 वर्ष की आयु में बृह्मलीन हो गये।
महाराजा अग्रसेन एक पौराणिक महापुरुष थे और अपने द्वारा प्रतिस्थपित ऐतिहासिक कार्यों से समूचे विश्व के लिए प्रेरणा के स्रोत है। उन्होंने सभी प्रकार से एक महत्वपूर्ण समाजवादी साम्राज्य की स्थापना करके विश्व के समक्ष अनूठे आदर्श और पद्धतियाँ प्रस्तुत किये हैं। ऐसे महान अवतारी पुरुष को शतश: प्रणाम और कोटिश: अभिनन्दन!

महाराजा अग्रसेन का महत्व राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय जगत में विस्तार से फैला हुआ प्रसिद्धि को प्राप्त है। भारत सरकार ने उनकी स्मृति, यश और सम्मान में दिनांक 24 सितम्बर 1976 को विशेष समारोह आयोजित कर 25 पैसे मूल्य का एक विशेष डाक-टिकिट प्रसारित किया, जिसकी संख्या 80 लाख थी। उनके जीवन परिचय एवं उनके द्वारा स्थापित समाजवादी सिद्धान्तों के फोल्डर और अग्रोहा के खण्डहरों के चित्र से अंकित लिफाफे भी जारी किये। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ने डाक टिकट जारी किया।

भारत सरकार के परिवहन मंत्रालय ने 350 करोड की लागत से 1, 40,000 टन क्षमता वाले जहाज का नाम ‘‘महाराज अग्रसेन जलपोत’’ रखा है, इस विशाल जहाज का जलावतरण मुंबई में अप्रैल 1995 को किया गया।

महाराजा अग्रसेन की राजधानी अग्रोहा का पुनर्निमाण करते हुए, उसे हिन्दुओं के पांचवे धर्म-धाम के रुप में विकसित किया जा चुका है। महाराजा अग्रसेन के नाम से भारत ही नहीं, भारत से बाहर विदेशों में भी अनेक विद्यालय, धर्मशालाऐं, अस्पताल, मार्ग और नगर स्थापित हो चुके हैं। हजारों की संख्या में उनकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गई हैं। हजारों संस्थाऐं समाज के विकास और समृद्धि के लिए बन चुकी है। महाराजा की प्रतिवर्ष जयंतियाँ बडी धूम-धाम से मनाई जा रही है। आप अनंत प्रेरणा के स्त्रोत और धर्म व एकता के प्रतीक है। आप के ध्वज के नीचे सम्पूर्ण राष्ट्र का वैश्य समाज यश और समृद्धि से परिपूर्ण है। आपका आशीर्वाद पुष्पित-पल्लवित हो रहा है।

जय अग्रसेन-जय भारत!
अग्रवाल सेवा योजना राजस्थान (जयपुर) द्वारा प्रकाशित
‘महान अग्रविभूतियां’ से साभार.
(प्रधान सम्पादक-श्री कन्हैयालाल मित्तल)

श्री अग्रसेन महाराज वन्दनम्
श्री अग्रसेन महाराज वन्दनम्, मनुज राजन् राजनम्।
हे चक्रवर्ती द्दृढ़ प्रतिज्ञं, अतुल रुपम् शोभितम्॥
अखिल विश्वं सुखकरं तुम, प्रजा जीवन जीवनम्।
हे विराट राज विराजनं, महाधीषम् गौरवम्॥
करुणा निधानं विवेकशीलम्, निश्छल प्रतीत हे शुभम्।
हे अग्र वंश जन्मदानं, वीर पुरुष महानतम्॥
राष्ट्रनायकं चरित्रं नायकं, नायक प्रजापालकम्।
है युग पुरुष लक्ष्मी वरं, अमर अग्रकुल भूषणम्॥
जन प्राणधारम् मानवम्, कल्याणकारक कारणम्।
हे अभिनन्दीयं वन्दनीयं, श्रेष्ठ भूषण भूषणम्॥
शरद् अगणित दिव्य दीपक तुम अलौकिक पौरुषिम्।
है प्रकाश पुंजम गुण निधानं पूज्य दैवम् देवनम्॥

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