आत्मनिर्भर भारत

एक हजार वर्ष पहले, वैश्विक बाजार में, हम जिस शिखर को छू रहे थे, उसकी ओर जाने का मार्ग अब दिखने लगा है। यह ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’, हमारे देश का चित्र और हमारा भविष्य बदलने की ताकत रखता है।

प्रोफेसर अंगस मेडिसन अर्थशास्त्र के प्रख्यात विशेषज्ञ जाने जाते हैं। मूलत: ब्रिटिश नागरिक मेडिसन ने अनेक वर्ष यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन (OEEC) में अधिकार पदों पर काम किया। बाद में वे हॉलैंड के गोनिंगन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विभाग प्रमुख बनें। मेडिसन ने वैश्विक अर्थशास्त्र पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। The World Economy Am¡a Contours of World Economy ये उनकी पुस्तकें पूरे विश्व में प्रमाण मानी जाती हैं। इन पुस्तकों में उन्होंने, तथ्यों के आधार पर दुनिया में पहली शताब्दी से कौन से देशों का, अर्थशास्त्रीय या व्यापारी स्वरूप में, प्रभाव रहा इसका विस्तृत वर्णन दिया हुआ है।

प्रो. मेडिसन के अनुसार दसवीं / ग्यारहवीं शताब्दी तक दुनिया के जीडीपी में भारत का हिस्सा लगभग 33% अर्थात एक तिहाई था। पूरे विश्व में व्यापार में हम प्रथम क्रमांक पर थे। अनेक वस्तुओं की, विश्व के लगभग सभी देशों को निर्यात करते थे। हमारे द्वारा किए गए व्यापार पर यूरोप के वेनिस और जिनोवा, ये दो शहर उन दिनों खूब फले-फूले।

किंतु बाद में मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के कारण वैश्विक व्यापार में हमारा स्थान जाता रहा। किंतु फिर भी भारतीय माल की साख दुनिया के बाजारों में इतनी जबरदस्त थी, कि अंग्रेजों के आने तक दुनिया के जीडीपी में हमारी हिस्सेदारी 22% से 23% तक थी। दुर्भाग्य से अंग्रेजों ने हमारे व्यापार पर कुठाराघात किया, उसे बंद करवाया, हमारे उद्योगों को समाप्त किया और 1947 में जब देश की बागडोर हमारे हाथों में सौंपी, तो वैश्विक जीडीपी में हमारी हिस्सेदारी मात्र 3.5% बची थी!

अर्थात किसी जमाने हम स्वंयपूर्ण थे। हमारा आयात नहीं के बराबर था, और बड़ी मात्र में निर्यात सारे विश्व में होता था। स्वाभाविक है, दुनिया का पैसा हमारे पास आता था, और हम और ज्यादा समृद्ध बनते जाते थे। लेकिन बाद में मुस्लिम आक्रांताओं ने, उनके दहशती वातावरण ने, उनके धार्मिक अत्याचारों ने, हमारा व्यापार चौपट कर दिया। बची खुची कसर अंग्रेजों नें निकाली। उन्होंने तो हमारी स्वयंपूर्ण अर्थव्यवस्था को पूर्णत: परावलंबी / आश्रित बना दिया। हमें दरिद्री अवस्था में छोड़कर वो चलते बने।

1950 में हमारी अर्थव्यवस्था मात्र 30.6 बिलियन अमेरिकन डॉलर की थी। सभी अर्थों में हमारा देश गरीब था, लेकिन आज? आज सामान्य जीडीपी के अनुसार हम विश्व की पांचवीं आर्थिक महासत्ता हैं, तथा परचेसिंग पावर पॅरेटी (PPP) के अनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारा स्थान तीसरा है।
1947 में, जब हम स्वतंत्र हुए, तब हमारी अर्थव्यवस्था संरक्षणवादी (Protectionist) थी। हमनें विदेशी कंपनियों को बहुत ज्यादा प्रोत्साहन नहीं दिया, किंतु साथ ही देश में भी स्पर्धात्मक वातावरण नहीं बनने दिया। अधिकांश उद्योग / व्यवसाय / सेवाएं सरकार ही चलाती थीं। जो इक्कादुक्का निजी उद्योग, कुछ क्षेत्रों में थे, उन्हें भी लाइसेंस दिया जाता था। उदाहरण के लिए चालीस हजार साबुन की टिकिया बनाने का लाइसेंस है, तो उससे एक भी ज्यादा बनाई तो जुर्माना भरना पडता था।

1960 में हमारा निर्यात था मात्र 1,040 करोड रुपयों का था, जो किसी भी दृष्टि से कम था। 1970 में वह थोड़ा सुधर कर 1,535 करोड हुआ। किंतु फिर भी हम घाटे का ही सौदा कर रहे थे। 1960 में हमारा आयात था – 1,795 करोड रुपयों का अर्थात तब हम लगभग 700 करोड़ से भी ज्यादा का नुकसान उठा रहे थे।

नब्बे के दशक में सारे गणित बदलते चले गए। अमेरिका और रूस के बीच का शीत युद्ध समाप्त हुआ था। यह दशक मात्र भारत के लिए ही नहीं, अपितु सारे विश्व के लिए क्रांतिकारी दशक था। सूचना क्रांति, इसी दशक में प्रारंभ हुई। विश्व के अन्य देश, अपनी अर्थव्यवस्था में खुलापन ला रहे थे। हमने भी वही किया। हमने तीन महत्वपूर्ण निर्णय लिए, जिनके कारण हमारा भविष्य बदलता गया-

1. हमनें सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था को, बाजार नियंत्रित अर्थव्यवस्था की ओर मोड़ा।
2. हमारा बाजार, सारे विश्व के लिए खोल दिया।
3. हमने उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था के स्थान पर सेवा आधारित अर्थव्यवस्था का रास्ता पकड़ा।

अर्थव्यवस्था में खुलापन लाना आवश्यक था। सारी दुनिया इस दिशा में चल रही थी। सूचना क्रांति के बाद तो सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था चलाना और भी कठिन था, तो अर्थव्यवस्था को खोलना यह अच्छा और आवश्यक कदम था।

लेकिन बाद के दो निर्णयों नें, प्रारंभिक समृद्धि की राह तो दिखाई, किंतु हमारी स्वयंपूर्णता हमसे छिन गई। नब्बे के दशक में, दुनिया की नजरों में हम एक बहुत बडा बाजार थे। 1991 में हम 90 करोड थे, जो अमेरिकी जनसंख्या से साढे तीन गुना ज्यादा संख्या थी। दुनिया का इतना बड़ा बाजार, जो विकसित हो रहा है, उस पर पूरे दुनिया की नजर होना स्वाभाविक था। इसीलिए, जब नब्बे के दशक के मध्य तक, हमारा बाजार विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया, तो सारी प्रमुख छोटी / बडी विदेशी कंपनियां, लपककर भारत पंहुचीं।

1991 में भारत का निर्यात था 17,900 मिलियन डॉलर और आयात था 19,509 मिलियन डॉलर।
2001 में हमारा निर्यात हुआ 43,878 मिलियन डॉलर और आयात हुआ 50,671 मिलियन डॉलर।

इसका अंतर बढा, अगले दस वर्षों में-
2011 में हमारा निर्यात हुआ 30,1483 मिलियन डॉलर तो आयात रहा 46,2403 मिलियन डॉलर।

हमारा आयात निर्यात में व्यापारिक घाटा तो बढ़ ही रहा था, साथ ही हमारा उत्पादन कम होता जा रहा था। भारत जैसे विशाल देश के लिए, जो साधन संपन्न है, उच्च बुद्धिमत्ता के लोगों से भरपूर है, और विश्व की जीडीपी में एक तिहाई से ज्यादा हिस्से का जिसका इतिहास है, उसके लिए तो स्वयंपूर्ण होना आवश्यक था। दुर्भाग्य से 2014 तक, अर्थात विश्व में आर्थिक परिदृश्य जब बदल रहा था, उन दिनों में भारत, छोटे टेलिफोन के तार से लेकर तो बड़े अर्थमूवर्स तक, अनेक उपकरण, वस्तुएं आदि आयात कर रहा था।

दुनिया में सेवा आधारित आईटी क्षेत्र में हमारा डंका बज रहा था, और हम उसी में खुश थे। बहुत पहले, जब हमने आईटी के क्षेत्र में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात का लक्ष्य रखा था, तब चेन्नई आईआईटी के कंप्यूटर विभाग के प्रमुख, प्रोफेसर अशोक झुनझुनवाला ने लिखा था,  whether for exporting 50 Billion USD software, we are importing 50 Billion USD hardware?

विशेषत: यूपीए- 1 और यूपीए- 2 के उन 10 वर्षों में भारत में विदेशी कंपनियों की तूती बोलती थी। आयात नीति ऐसी नाजुक बनी थी। दीपावली में खरीदी जाने वाली लक्ष्मी – गणेश की मूर्तियां भी चीन से आयात होने लगी थीं!

यह चित्र बदला केंद्र में 2014 में सत्ता परिवर्तन के पश्चात। विदेशी कंपनियों पर निर्भरता कम होने लगी थी। लेकिन इस क्षेत्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता थी। हमारा देश, जो किसी समय विश्व में सृजन का, नवोन्मेष का केंद्र था, उसमें नया कुछ करने की हिम्मत और धमक कम हो गई थी।
इसलिए मोदी सरकार ने एक लंबी योजना के अंतर्गत मूलभूत कदम उठाए। शासन के आने के छह महीनों के अंदर, मोदी सरकार ने 25 सितंबर 2014 को ‘मेक इन इंडिया’ अभियान प्रारंभ किया। यह एक घुमावदार मोड था। देश में ही उत्पादन बढ़ाने का ठोस प्रयास था। सेवा क्षेत्र के साथ उत्पादन क्षेत्र में भी बढत लेने का सीधा संकेत था। इसके एक वर्ष के अंदर, अर्थात 15 अगस्त 2015 को, लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी जी ने ‘स्टार्टअप इंडिया’ की घोषणा की। देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह पहला मजबूत कदम था। किंतु तब शायद लोगों को और राजनीतिक विश्लेषकों को इस योजना का महत्व समझ में नहीं आया।

इसी के साथ योजना आयोग का पुनर्गठन कर नीति आयोग बनाया गया। नवाचार संबंधी सारी योजनाएं, इस नीति आयोग के अंतर्गत लायी गईं। ‘अटल इनोवेशन मिशन’ गठित हुआ। इसके अंतर्गत शालाओं में ‘अटल टिंकरिंग लैब’ और महाविद्यालयों के लिए ‘अटल इंक्युबेशन सेंटर’ खोले गए। इसके अच्छे परिणाम आने लगे। अनेक युवा, जो कुछ नया करना चाहते थे, उन्हें मजबूत अवसर मिला। सरकार ने शुरुआत में 10 हजार करोड़ रुपये का ‘स्टार्टअप फंड’ बनाया। युवाओं को पेटंट फाइल करने के लिए प्रोत्साहन दिया। पेटंट की फीस कम की।

इस सब के कारण उत्पादन क्षेत्र की विकास दर बढ़ी। अनेक कंपनियों ने भारत में उत्पादन करना प्रारंभ किया। सन् 2020 की पहली तिमाही में, जब कोरोना भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था, भारत में भी समस्याएं प्रारंभ हो रही थीं। 2020 की दूसरी तिमाही तो विश्व के लिए अत्यंत खराब रही, लेकिन इस तिमाही में भारत ने औद्योगिक क्रांति का बीड़ा उठाया।

12 मई 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ की घोषणा की गई। और भारत को स्वयंपूर्ण बनाने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में एक ताकतवर कड़ी और जुड़ गई। यह अभियान भारत के लिए ‘गेम चेंजर’ सिद्ध हो रहा है। इसका महत्व अगले एक डेढ़ वर्ष में सबके सामने आएगा। लेकिन इसकी बानगी दिखना प्रारंभ हो गया है।

इसी चीनी महामारी, कोरोना के कारण, पूरे विश्व में पीपीई किट की अत्यधिक मांग थी। मार्च 2020 तक भारत में पीपीई किट का उत्पादन नहीं होता था। किंतु इस चुनौती को स्वीकार किया गया। हमारे उद्यमियों के अथक मेहनत के कारण मई के दूसरे सप्ताह में डेढ़ लाख पीपीई किट प्रतिदिन बनना प्रारंभ हो गया था। इन चार महीनों में, भारत में पीपीई किट का उद्योग 7 हजार करोड़ का हो गया है, जो विश्व में चीन के बाद, दूसरे क्रमांक पर है।अर्थात हम कर सकते हैं। हमने करके दिखाया है।

अभी पिछले महीने ‘एपल’ ने घोषणा की है कि उनके आईफोन का सबसे बडा उत्पादन केंद्र भारत बनेगा। बाजार के इस झुकाव को देखकर भारत में विदेशों से बड़ी मात्रा में निवेश हो रहा है। इस चीनी महामारी के कठिन काल में भी भारत का विदेशी मुद्रा भंडार, ऐतिहासिक ऊंचाई को छू रहा है। अभी वह 517.63 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो एक कीर्तिमान है।

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के अनेक पहलू हैं। चांद्रयान और मंगल यान मुहीम से लेकर तो रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का उद्घोष करने वाला भारत, वैश्विक मंच पर अपनी साख बढ़ा रहा है।

9 अगस्त को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने रक्षा के क्षेत्र में 101 अस्त्र शस्त्रों की आयात पर पाबंदी की घोषणा की। सारे विश्व को चौंकाने वाला समाचार था यह। राडार, मिसाइल्स से लेकर तो गोलाबारूद तक…अनेक वस्तुओं पर प्रतिबंध घोषित किया गया। इस के दूरगामी परिणाम होंगे। सात हजार से ज्यादा एम एस एम ई सेक्टर में काम करने वाले उद्योग, जो रक्षा क्षेत्र को उपकरण बनाने में सहयोग कराते हैं, उन्हें अच्छा खासा व्यवसाय, अगले पांच वर्षों तक मिलता रहेगा। बड़े हद तक, हम स्वयंपूर्ण तो होंगे ही, साथ में 3 से 4 वर्षों में, हम रक्षा उत्पादन बड़ी संख्या में निर्यात कर सकेंगे।
एक हजार वर्ष पहले, वैश्विक बाजार में, हम जिस शिखर को छू रहे थे, उसकी ओर जाने का मार्ग अब दिखने लगा है। यह ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’, हमारे देश का चित्र और हमारा भविष्य बदलने की ताकत रखता है। यदि भारतीय उद्योग जगत ने इस समय अपना पुरुषार्थ दिखाया, तो आने वाला कल, निश्चित रूप से हमारा हैं…!
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