अपनी क्षमताओं को पहचानें

हर मनुष्य के जीवन में अनेक बार कठिन क्षण आते हैं। यदि वह सूझबूझ से काम ले तो वह हर परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाकर अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।

मुनष्य महान् है। उसकी महत्ता उसमें स्वयं में ही छिपी हुई है। कोई दूसरा आदमी किसी को महान् नहीं बना सकता। वह स्वयं ही अपने अन्दर सोई हुई महत्ता को जगा सकता है। यह ठीक है दूसरे भी हमारा सहयोग कर सकते हैं, पर बीज में फलदान की अपनी ही क्षमता होती है। कोई भी बीज से अपनी महत्ता को नहीं छीन सकता। परिस्थितियों का निर्माता तो मनुष्य स्वयं ही होता है। जिस मनुष्य में पौरुष होता है वह कठिन से कठिन परिस्थिति को भी अपने अनुरूप ढाल लेता है।

फैनी हर्स्ट दुनिया की सफलतम लेखिका मानी जाती हैं। पर उसे यह सफलता यकायक नहीं मिली। अपनी पहली रचना छपवाने के लिए उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ा। आजीविका तथा प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए लेखन को अपना पेशा बनाकर जब वह न्यूयार्क में आई तो अपना पहला लेख छपवाने के लिए उसे उसको छतीस बार लिखना पड़ा। पर उसने हार नहीं मानी। जब भी रचना लौट कर आती तो वह उसे और अधिक संवारने में लग जातीं। आखिर सैंतीसवीं बार उसे सफलता मिली और वह सफलता ऐसी सफलता थी कि उसे फिर कभी लौट कर नहीं देखना पड़ा।

फैनी हर्स्ट की ही तरह दुनिया में हर आदमी में असंख्य संभावनाएं छिपी पड़ी हैं। पर उन संभावनाओं को समझ पाना और तद्नुरूप पुरुषार्थ करने वाला व्यक्ति ही अपना गौरव बढ़ा सकता है। कोई भी सफलता सामने चल कर नहीं आती। आदमी को ही चलकर उस तक पहुंचना पड़ता है। संभल कर चलने के कुछ सूत्र इस प्रकार हो सकते है-

सौहार्द

सबके प्रति मित्रता के भाव। वास्तव में तो सौहार्द दूसरे के प्रति नहीं अपितु अपने प्रति ही होता है। सुहृद् व्यक्ति हमेशा प्रसन्नचित्त रहता है। प्रसन्नचित्तता में ही अन्य गुणों का अवतरण होता है। जो आदमी दूसरों के प्रति अहित चिन्तन करता है, उससे दूसरों का अनिष्ट तो हो या न हो पर अपना अनिष्ट तो हो ही जाता है। सुहृद व्यक्ति स्वयं में संतुष्ट रहता है। ऐसे व्यक्ति ही वास्तव में समाज और राष्ट्र के शृंगार होते हैं। उनका निश्च्छल व्यवहार सबको अपने प्रति आकृष्ट कर लेता है।

सहिष्णुता

प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अविचल भाव। यह संभव नहीं है कि जीवन में मधुरता ही मधुरता हो। नहीं चाहते हुए भी बहुत बार आदमी का कटुता से पाला पड़ ही जाता है। ऐसे क्षणों में यदि आदमी की सहिष्णुता का बांध टूट जाता है तो बहुत बड़ा अनर्थ घटित हो जाता है। असहिष्णु आदमी बहुत बार प्रियता को भी आक्रमण मान लेता है। दूसरों को सहना सचमुच में बहुत बड़ी साधना है। थोड़ी-सी असहिष्णुता से भी कई बार बहुत बड़े साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं।

सन्तुलन

जीवन एक बहुत पतली डोर है। हर आदमी को उस पर से बहुत संभल कर गुजरना पड़ता है। थोडा-सा संतुलन बिगड़ते ही न केवल वह स्वयं ही धड़ाम से गिर पड़ता है अपितु दूसरों को भी नुकसान पहुंचा सकता है। कभी-कभी आविष्ट होकर आदमी अपनी सीमा को भूल जाता है। उसका एक असंतुलित नारा ही सारे वातावरण में इतना जहर घोल देता है कि उसका प्रतिफल पूरे समाज को भोगना पड़ता है।

समन्वय

सत्य एक और अखण्ड है, पर उस तक पहुंचने के मार्ग अनेक हो सकते हैं। प्रस्थान का भेद ही पंथ भेद है। ऐसी स्थिति में उनकी सापेक्षता को समझना बहुत जरूरी है। यही समन्वय है। समन्वय का अर्थ यह नहीं है कि आदमी अपनी मौलिकता को खो दे। अपनी मौलिकता को समझते हुए दूसरों की मौलिकता का आदर ही समन्वय है। सापेक्षता की समझ ही सत्य की सही समझ है। इससे आग्रह अपने आप क्षीण पड़ जाते हैं। जिस व्यक्ति के विचार में सापेक्षता का सूरज उग जाता है उसका स्वयं का अंधकार तो नष्ट हो ही जाता है पर वह जहां भी जाता है वहां प्रकाश-रश्मियां बिखेर देता है।

सहयोग

आदमी एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए दूसरों का सहयोग नितान्त अपेक्षित है। जब वह दूसरों से सहयोग चाहता है तो उसे दूसरों का सहयोग भी करना आवश्यक है। परस्परता का यह सूत्र ही आदमी को आगे बढ़ाता है। जो आदमी स्वार्थ से ऊपर उठता है वही परमार्थ की ओर प्रयाण कर सकता है। परमार्थ एक चरम बिन्दु है। वहां तक पहुंचने के लिए परस्परार्थता को एक साधन बनाया जा सकता है।
परिस्थितियां तो हर आदमी के सामने होती हैं। पर जो विकट परिस्थितियों में भी अपना संतुलन नहीं खोता वह आदमी अपने जीवन में सफल हो जाता है।

कलेक्टर अपने कार्यालय में बैठे हुए थे। इतने में वायरलेस बुदबुदाया। एक पुलिस अधिकारी बोल रहा था- सर! बाजार से एक जुलूस गुजर रहा है। बड़ी भारी भीड़ है। वह कलेक्ट्रीएट की ओर बढ़ रही है। लोगों में भारी आक्रोश-उत्तेजना है। जोर-जोर से नारे लगाये जा रहे हैं। इस बात का अंदेशा है कि वे हिंसा पर उतारू हो जाए। अत: आप आदेश दें कि क्या हम इनको यहीं रोक लें?

यों कलेक्टर के लिए ऐसी घटनाएं नई नहीं होतीं। आये दिन ऐसा होता रहता है। पर पुलिस अधिकारी इतनी व्यग्रता से बोल रहा था कि कलेक्टर को थोड़ा सोचना पड़ा। फिर उत्तर दिया- मैं जब तक नया आदेश न दूं तब तक जुलूस को रोको मत आने दो।

पुलिस अधिकारी हैरान था, पर कर भी क्या सकता था। जुलूस धीरे-धीरे आगे सरकता गया। कुछ नये लोग और उसके साथ जुड़ते गए। आक्रोश-उत्तेजना भी बढ़ती जा रही थी।

उसी समय कलेक्टर ने अपने एक विश्वस्त आदमी को बुलाया और स्थिति का जायजा लेने के लिए उसे मौके पर भेजा। वह तत्काल वहां पहुंचा और सारी स्थिति का अध्ययन कर लौटा। वह शांत भाव से बोला-पुलिस अफसर ने जो बात कही है वह सही है। भीड़ बड़ी उग्र है। जोर-जोर से नारे लगा रही है तथा कलेक्ट्रीएट की ओर बढ़ रही है।

और कोई विशेष बात? कलेक्टर ने खोद कर पूछा। उसने कहा- और तो कोई बात नहीं है, पर गर्मी बहुत बढ़ रही है। लोग पसीने से लथपथ हो रहे हैं। जोर-जोर से चिल्लाने के कारण सब के गले सूख रहे हैं।

इस नई बात ने कलेक्टर को एक नया सूत्र थमा दिया। उसने तत्काल अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि फटाफट कलेक्ट्रीएट के पास ठंडे पानी का बन्दोबस्त किया जाए, ऐसा ही हुआ। थोड़ी देर में उफनती हुई भीड़ आई। ठंडे पानी को देख कर लोग उस पर पिल पड़े। ठंडे पानी ने उनके विरोध को शांत कर दिया और विरोध करने आया जुलूस कलेक्टर को धन्यवाद करता हुआ लौट गया।

इसी जगह यदि कलेक्टर सख्ती से काम लेता तो शायद भीड़ बेकाबू हो जाती। पर उसकी सूझबूझपूर्ण शांत वृत्ति ने तत्काल विरोध को खत्म कर दिया।
हर मनुष्य के जीवन में अनेक बार ऐसे क्षण आते हैं। यदि वह सूझबूझ से काम ले तो वह हर परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाकर अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
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