गंगा का पुनर्संवर्धन कैसा हो?

गंगा जी उत्तराखण्ड में स्थित गौमुख से उत्गमित होती हैं जो उत्तर काशी जिले में स्थित है। गंगा को पूरे विश्व में पवित्र एवं पूजनीय नदी के रूप में जाना जाता है। यह इसलिए कि कई सामाजिक, आध्यात्मिक, तार्किक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि गंगाजल जैसा दुनिया में कोई जल नहीं है।

गंगा जी लोगों के पाप धोते-धोते आज खुद इतनी मैली हो गई कि गंगा के स्वास्थ्य सुधार हेतु सरकारें, आई.आई.टी जैसी संस्थाएं, स्वयंसेवी समूह एवं धार्मिक संस्थाएं सभी विकल्प खोजने में लगे हैं। विकल्प मिलेंगे भी तो शायद आधे अधूरे ही; क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों से क्या हम समझौता कर सकते हैं? हरिद्वार से निकली गंगा नहर लगभग ९००० वर्ग कि.मी. कृषि भूमि को सिंचित करती है। ऐसे में क्या सिंचाई की कोई वैकल्पिक योजना बनाई जा सकती है? बढ़ती हुई विद्युत की मांग और यह माना जाना कि जल विद्युत उत्पादन पर्यावरण हितैषी है, उसे नाम दिया जाता है ‘रन आफ द रिवर’ परियोजनाएं; जबकि ये होती हैं ‘टनल’ आधारित परियोजनाएं। इन्हें ‘रन आफ द रिवर’ नहीं, बल्कि ‘ड्राई आफ द रिवर’ परियोजनाएं कहना ज्यादा उचित होगा। यदि हम नदी को एक परिस्थितिक तंत्र और जीवन मानते हैं तो यह कहां तक तर्कसंगत होगा कि किसी रक्तदाता के खून की एक-एक बूंद निचोड़ कर किसी ऑर को चढ़ा दें।

जल विद्युत परियोजनाओं, बैराजों एवं बांधों के निर्माण के दौरान पहाड़ों के कटान, टनल के निर्माण आदि से जितना मलबा मिट्टी, पत्थर आदि निकलते हैं सभी नदी में ही डाल दिया जाता है। जिससे पानी में निलम्बित कणों की मात्रा बढ़ जाती है तथा पानी गंदा हो जाता है। जिसके कारण सूर्य का प्रकाश भी नीचे नदी की गहराई एवं तल तक नहीं पहुंच पाता जिससे जलीय जीवों पर बुरा प्रभाव पड़़ता है। मलबे के एक जगह पर एकत्रित होने के कारण नदी अपना प्रवाह क्षेत्र तो बदलती ही है साथ ही धारा के वेग पर भी प्रभाव पड़ता है जो नदी के परिस्थितिक तंत्र के लिए खराब होता है।

नदी के प्रवाह में परिवर्तन के साथ जल गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ता है। बांधों/बैराजों के कारण जल भराव होता है वही टनल से पानी ले जाकर टरबाइनों में छोड़ा जाता है। नदी की मुख्य धारा कभी बिल्कुल जल विहीन, कभी नगण्य प्रवाह और कभी भारी प्रवाह जैसे परिवर्तनों को सहती रहती है। जिनके कारण जल की कई भौतिक दशाओं में धीमी गति, अत्याधिक गति टरब्यूलेन्स, वातन, अवसादन, थर्मल स्तरीकरण, निलम्बित कणों का मिलना, तलछट में जमाव, लम्बे समय तक पानी का जमाव आदि परिवर्तन होते रहते हैं। जो गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव तो डालते ही हैं साथ ही नदियों की स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा उत्तराखण्ड में ११ जल विद्युत परियोजनाओं में जैव अनुमापन आधारित मानीटरिंग की गई जिसमें उन्होंने पाया कि जलाशय, जलाशयों के बाद तथा पावर हाऊस के बाद सूक्ष्म नितलीय जीव समूहों (अकशेरुकीय जीवों अर्थात अंग्रेजी में बेनथास) कीसंवेदनशील प्रजातियों में संदर्भ स्टेशनों की तुलना में ५० से ९० फीसदी गिरावट पाई गई है। वही प्रदूषण प्रेमी प्रजातियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट में यह माना भी गया है कि यह परिवर्तन नदी में जल प्रवाह के भारी परिवर्तनों के दुष्प्रभाव से हुआ है।

सन् २००८ में भारत सरकार के विद्युत मंत्रालय द्वारा गंगा जी में बारहमासी प्रवाह सुनिश्चित करने एवं सुझाव देने के लिए एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह का गठन किया गया था। अध्ययन के अन्तर्गत इस समूह ने पाया कि लोहारीनागपाला के पहले संदर्भ नूमना स्थल पर सू़क्ष्म अकशेरुकीय जीवों की संख्या ९८ प्रति वर्ग फुट थी, वही मनेरीभाली-२ के बाद यह संख्या घट कर मात्र ९ जीव प्रति वर्ग फुट रह गई। इस दल ने अपने अध्ययन में यह भी पाया कि महाशीर एवं ट्राउट की कई प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं जिसका कारण १९८० से संचालित विद्युत गृह मनेरीभाली १ और मनेरीभाली २ के कारण नीचे सूखी भागीरथी धारा को कारण माना।

लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून द्वारा गंगा एवं उसकी सहायक नदियों भागीरथी, अलकनंदा एवं धौलीगंगा मे बनी विद्युत परियोजनाओं के नदी में पड़ने वाले प्रभावों के आंकलन हेतु १८ नमूना स्थलों पर अध्ययन किया गया जिसमें पाया गया कि परियोजनाओं के कारण जल के तापक्रम, विद्युत चालकता, जैव आक्सीजन मांग कुल घुलित कण एवं रासायनिक आक्सीजन मांग में बढ़ोतरी पाई गई है। साथ ही अकशेरुकीय प्राणियों (बैनथीक माइक्रो इर्ंवटीबरेट) की संवेदनशील प्रजातियों में कमी हुई है। यह जल खाद्य श्रृंखला के प्रमुख अंग होते हैं। इनके प्रभावित होने पर पूरा जलीय परिस्थितिक तंत्र प्रभावित हो जाता है।

हमेशा से यह माना जाता रहा है कि गंगा द्वारा बहा कर लाई गई मिट्टी, कण (निलम्बित कण) मैदानों के उपजाऊपन को बढ़ाते हैं, साथ ही नीरी ने भी यह माना है कि निलम्बित कणों में ही गंगा जी के पानी की विशेषता छिपी है। अध्ययन में यह पाया गया है कि बांधों/बैराजों के बाद पानी में इन निलम्बित कणों की मात्रा में भारी गिरावट देखी गई है।

गंगा जी की गौमुख से गंगासागर तक कुल लम्बाई २५२५ कि.मी. है परन्तु आज गंगा जी का वास्तविक एवं प्राकृतिक स्वरूप जहां वह बिना किसी गतिरोध के स्वच्छन्द बहती है वह भाग मात्र ९० कि.मी. मनेरीभाली-१ से गंगोत्री गौमुख तक का बचा है जहां गंगा जी अपने असली स्वरूप में देखी जा सकती है और यह भाग भी स्वामी ज्ञान स्वरूप सानन्द (पूर्व प्रो.जी.डी. अग्रवाल) जी की तपस्या एवं उनके अथक प्रयासों से बचा हुआ है। उसके पश्चात मनेरीभाली-१ से तिलोथ तक ११.९ किमी. तथा मनेरीभाली-२ से धरासू तक २५ किमी. गंगा जी से टनलो में पानी मोड़ने के कारण जहां जल विहीन है वही गंगा जी धरासू में टनल से निकलने के बाद सीधे टिहरी जलाशय में समा जाती है और फिर गंगा जी टिहरी बांध प्रबंधन के अधीन ही रहती है।
गंगा के पानी को हमेशा गंगा जल से सम्बोधित किया जाता रहा है, जिसे हिन्दू धर्म में अमृत के समान माना गया तथा इसके साथ यह भी विशेषता जुड़ी है कि गंगा जल को वर्षों तक बोतल में बंद करके रखने पर भी वह खराब नहीं होता, जिस पर देश-विदेश के वैज्ञानिकों के शोध भी गंगा जल की विशेषता को सिद्ध करते हैं। आई.आई.टी कानपुर के डॉ. डी.एस.भार्गव के १९७७ मेंं शोध के अनुसार गंगा जी में स्वंय शुद्धिकरण की क्षमता काफी अधिक पाई गई। इसी संस्थान के एम.टेक. के छात्र रहे काशी प्रसाद के शोध के अनुसार अन्य नदियों की तुलना में गंगा जी में जीवाणु नाशक (कोलीसाइडल प्रापर्टी) सबसे अधिक पाई गई। जब टिहरी बांध बन रहा था तब यह बात उठी थी कि इसके कारण जो गंगा जल में विशेष गुण है वह प्रभावित होंगे। इस आशंका को लेकर राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी शोध संस्थान (नीरी) द्वारा एक अध्ययन भी किया गया है जिसमें यह पाया गया है कि गंगा जल में कई रेडियो एक्टिव तत्व, भारी धातुएं तथा कोलियोफेज जैसे जीवाणु (जो रोगाणुओं को नष्ट करते हैं) उपस्थित हैं जो किसी और अन्य नदी में नहीं पाए गए। रिपोर्ट के आधार पर गंगा जल में जो विशेष गुणधर्म हैं, वे इन्हीं तत्वों के कारण है, साथ ही रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया है कि ये सभी तत्व जल के साथ बह कर आने वाले मिट्टी, पत्थरों एवं वनस्पतियों के सूक्ष्म कणों (निलम्बित पदार्थों) में विद्यमान है, यानी कि ये विशेष गुणधर्म युक्त तत्व गंगा जल के साथ बह कर आई सिल्ट (निलम्बित कणों) में पाए जधते हैं और नीरी की रिपोर्ट के ही अनुसार इन निलम्बित कणों की ९० प्रतिशत से अधिक मात्रा बांध के पीछे झील में रूक जाती है, यानी कि टिहरी बांध से निकले गंगा जल के विशेष गुणधर्म ९० प्रतिशत खत्म हो जाते हैं।

परन्तु नीरी की रिपोर्ट का यह मानना है कि ये विशेष गुणधर्म अलकनंदा एवं मंदाकिनी के जल में भी हैं जो देवप्रयाग में भागीरथी से मिलती है जिसके बाद यह विशेष गुणधर्म पुन: स्थापित हो जाते हैं, तो अब जो अलकनंदा पर देवप्रयाग के पहले श्रीनगर में बांध बन गया तो विशेष गुणधर्म युक्त निलम्बित कण वहां रूक गए यानि टिहरी और श्रीनगर के बाद अब गंगा जल विशेष गुणधर्म युक्त नहीं बल्कि एक सामान्य नदी जल जैसा ही नहीं रह गया। और यही जल फिर ॠषिकेश एवं हरिद्वार तक आता है, हरिद्वार से इस जल का अधिकांश भाग गंगा कैनाल में डाल दिया जाता है और गंगा की मुख्य धारा में छोड़े गए थोड़े से प्रवाह तथा हरिद्वार स्थित जगजीतपुर मल-जल शोधन यंत्र द्वारा छोड़े गए शोधित एवं अशोधित मलिन जल द्वारा एक नई गंगा का जन्म होता है और गंगा में कई सहायक नदियों अपने किनारे स्थित उद्योगों एवं नगरों का अवजल मलिन जल डालती रहती है और फिर नरोरा से पुन: सिंचाई कैनाल में पानी डाल दिया जाता है। सोचने की बात है कि इलाहाबाद एवं वाराणसी जैसी धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी में बहने वाली गंगा में हिमालय से आया गंगा जल नगण्य या कुछ भी नहीं होता है, सिवा बरसात के महीनों के।

इन कठिन एवं विषम परिस्थितियों में यदि हम गंगा जी का पुनर्संवर्धन करना चाहते हैं तो दो प्रमुख कार्य तो करने ही पड़ेंगे।

१. गंगा जी में निरंतर उचित प्रवाह (५० प्रतिशत से अधिक) बनाए रखना, इसमें जहां जल विद्युत गृह अवरोधक है वहां यह सुनिश्चित करना कि वह चाह कर भी ५० प्रतिशत से ज्यादा पानी का उपयोग न कर सकें एवं साथ ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित डॉ. रवि चोपड़ा कमेटी द्वारा जिन गंगा एवं उसकी सहायक नदियों में बनने वाले बांधों को निरस्त करने की अनुशंसा की गई है उन्हें निरस्त करना। हरिद्वार या नरोरा जहां से सिंचाई हेतु पानी गंगा जी से निकाल लिया जाता है, जिन क्षेत्रों में इस पानी से सिंचाई होती है उन क्षेत्रों में सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था बनाई जाए। इसके लिए ५ साल की योजना बने और प्रथम वर्ष १० प्रतिशत, दूसरे वर्ष २० प्रतिशत, तीसरे वर्ष ३० प्रतिशत, चौथे वर्ष ४० प्रतिशत तथा पांचवें वर्ष ५० प्रतिशत पानी कैनालों में कम छोड़ा जाए। इस कमी को पूरा करने के लिए स्थानीय वैकल्पिक सिंचाई के संसाधन निर्मित किए जाए, आगे की कार्य योजना फिर आवश्यकतानुसार बने।

२. उद्योगों एवं नगरों द्वारा उत्सर्जित अवजल एवं मलिन जल का पूर्ण शोधन पश्चात पुन: उपयोग हो, जो कई तरह से हो सकता है। एक अच्छा तरीका तो यही होगा कि जिन कैनालों में सिंचाई के पानी की कटोती की बात ऊपर की गई है उनमें यह शोधित जल डाला जाए जो सिंचाई में होने वाली कमी को भी पूरा करेगा साथ ही सिंचाई विभाग तथा किसानों का अवजल के सही शोधन हेतु दबाव भी होगा। बाकी अवजल बचता है उसे उद्योग एवं शहरों में शौचालयों, सफाई तथा सिंचाई में प्रयोग किया जाए। इसके बावजूद भी यदि गंगा जी में निस्तारित करने की मजबूरी हो तो गंगा में उपलब्ध पानी एवं उसकी गुणवत्ता के आधार पर निस्तारित जल की मात्रा एवं उसकी गुणवत्ता तय करने की आवश्यकता होगी, इसके लिए हो सकता है कि उद्योगों का जल का जहां केन्द्रीयकरण है वहां विकेन्द्रीयकरण की आवश्यकता भी हो सकती है।

निश्चित रूप से ये दोनों कार्य काफी कठिन हैं, परन्तु गंगा जी की समस्या भी हमने जटिल कर दी है। निश्चित रूप से यदि हम गंगा जी को गंगा जी के वास्तविक रूप में देखना चाहते हैं तो ये दो कठोर फैसले लेने ही होंगे।

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