बारहसिंगा

चरकसंहिता नामक आयुर्वेद ग्रंथ में आनूप (जलीय) वर्ग के प्राणियों की सूची दी गई है। उसमें न्यङ्क्तु अर्थात बारहसिंगों का उल्लेख है‡
न्यङ्क्तुर्वराश्चानूपा मृगा: सर्वे करुस्तथा॥(सूत्रस्थान 27.39)
न्यङ्क्तु अर्थात अंग्रेजी में एैस्ज् ्ाी। लेटिन नाम णल्े ्ल्ल्मत्ग्

हंसदेव के मृगपक्षीशास्त्र में न्यङ्क्तु का वर्णन दिया गया है‡

न्यंक वस्ते समाख्याता जितरां दिर्घशृंगिण:॥
र्‍हस्व काया मंदपदा: पीतकृष्ण समुज्वल:॥
भृशं मृदुस्पर्शमान्या बालातपविहरिण॥
सायंतनो ल्लासभाज: मध्यान्हे निद्रया न्विता:॥

अर्थात‡ बहुत बड़े सींगों वाले न्यंकू होते हैं। शरीर से छोटे, पैर भारी और पीले‡काले रंगों से चमकते हैं। स्पर्श मुलायम होता है। कोमल धूप में भटकते हैं। शाम को उत्साहभरे और मध्याह्न को विश्राम करने वाले होते हैं।

इस मृग के मूल सिंगों की बारह छोटी शाखाएं होती हैं। इसी कारण उसे बारहसिंगा कहते हैं।
बारहसिंगा अनेक नामों से जाना जाता है। कहीं उसे माहा और गोंद कहते हैं। नेपाल की तराई में गोन्दा अथवा घोरा कहते हैं। वह ज्यादातर दलदली इलाकों में रहता है। इसी कारण संस्कृत में उसे ‘पंक मृग’ कहा जाता है। मध्यप्रदेश में नर बारहसिंगा को गोइन्जक और मादा को गजोनी कहते हैं।
बारहसिंगा मध्य, उत्तर व पूर्व भारत में कान्हा दुधवा, काजीरंगा और मनास राष्ट्रीय उद्यानों में व दक्षिण नेपाल में दिखाई देता है।

बारहसिंगा की दो प्रजातियां हैं। एक प्रजाति तराई, उत्तर प्रदेश और असम के दलदली इलाकों में होती है। उसका वैज्ञानिक नाम णल्े ्ल्मत्ग् है। दूसरी प्रजाति मध्य प्रदेश के पठारी इलाकों में मिलती है। उसका वैज्ञानिक नाम णल्े ्ल्मत्ग् ंह्ीग् है।

उसकी चमड़ी पर ऊन जैसे रोएं होते हैं। शीत के दिनों में उनकी चमड़ी का रंग गहरा नसवारी व गर्मी के दिनों में मादा जैसा हल्का राखी होता है।
बारहसिंगा झुंड में रहते हैं। शीतकाल उनका प्रणय का काल होता है। ऐसे समय में वे 30 से 50 अथवा सैकड़ों की संख्या में एकत्रित होते हैं।

फरवरी‡मार्च माह में नायक बारहसिंगा छोटी‡छोटी टोलियों में रहते हैं अथवा अकेले आहर‡विहार करते हैं। उस समय उनके मूल सिंगों पर मखमली आवरण होता है अथवा वे पूरी तरह बढ़ चुके होते हैं। निश्चित अवधि के बाद उनके मूल सिंग (हूात्द) गिर जाते हैं। नर, मादा व शावकों के झुंड अलग‡ अलग होते हैं। वयस्क और प्रजोत्पादन में सक्षम मादा झुंड का नेतृत्व करती है। मादा का गर्भकाल छह माह का होता है। वह एक बच्चे को जन्म देती है।

वे सुबह तथा शाम को चरते हुए दिखाई देते हैं। दिन में वे विश्राम करते हैं। उनके कर्णेंद्रियों की शाक्ति मध्यम है, लेकिन घाणेंद्रिय तीव्र होते हैं। खतरे की सूचना मिलते ही बारहसिंगा गाय जैसा रंभाते हैं।

एक शतक पहले बारहसिंगा हिमालय की तराई, पूर्व में सुंदरबन से पश्चिम में सिंध (अब पाकिस्तान में) तथा गंगा नदी व गोदावरी नदी की घाटी में बड़े पैमाने पर दिखाई देते थे। वर्तमान में उनकी व्याप्ति के साथ संख्या भी कम होती जा रही है। उनके प्राकृतिक आवास का ध्वंस हो रहा है। अवैध शिकार के कारण उनकी संख्या कम हो रही है।

कैलाश सांखला नामक वन्यप्राणी वैज्ञानिक ने बारहसिंगा की गणना की थी। तब 1977 में कान्हा में उनकी संख्या 130‡140 थी। 1930 में यह संख्या 3 हजार थी। काजीरंगा में लगभग 250 व दुधवा में 3 हजार बारहसिंगा थे।
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