प्राचीन विमान विद्या

विमान विद्या के क्षेत्र में आज भले हमने उड़ान भरी हो, लेकिन इसके तंत्र को महर्षि भारव्दाज ने हजारों साल पहले बता दिया था। पुराणों में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है। इससे यह संकेत मिलता है कि इस विद्या के जनक भारतीय ऋषि वैज्ञानिक थे। उनके ग्रंथ आज पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है। महर्षि भारव्दाज के ग्रंथ का कुछ भाग उपलब्ध है, जिसे राजा भोज ने सम्पादित किया था।

यह प्रश्न पाठकों को स्वाभाविक रूप से हो सकता है कि भारत में प्राचीन काल की वैज्ञानिक उपलब्धियां विलुप्त और विस्मृत क्यों हो गईं? ऐसा तो नहीं कि ये कपोल कल्पनाएं ही हो? प्रथम प्रश्न पर तर्क दिये जा सकते हैं किंतु वे विवाद्य भी होंगे। इस लेख में उनका कोई प्रयोजन नहीं है। इतना कहना है कि कालचक्र में हर आनेवाली चीज समाप्त होना ये अनहोनी बात नहीं है। किंतु ज्ञान पूर्णत: विलुप्त होता नहीं यदि उस ज्ञान की परंपरा संजोने वाली संस्कृतिरूपी धारा अविच्छिन्न रहे। वैदिक तो क्या उसके पूर्व अज्ञात काल से तो भारतवर्ष में सद्य: कथित हिंदू संस्कृति की धारा अखंड रूप में बह रही है। जो जानकारी टुकड़ों में भी बची है, अपूर्ण, कुछ अगम्य सी भी है तो भी उसका अर्थ लगाकर उसके आधार पर युगानुकूल विज्ञान, तकनालॉजी या नवगवेषण-प्रयोगों से उस धरोहर को साकार किया जा सकता है। महर्षि भारव्दाज की विमान विद्या इसी श्रेणी में आती है। उन्होंने विमान विद्या की जो बारीकियां विशद की हैं, वे आज भी चकित कर देती है।

राजा भोज द्वारा मूलत: संपादित किंतु सद्य: आधी-अधूरी प्राप्त पुस्तक भारद्वाज मुनि रचित ‘यंत्र सर्वस्व’ का वैमानिक प्रकरण (विमान निर्माण नहीं) में विमान की एक सरल सी संरचना की संक्षिप्त जानकारी संस्कृत-गद्य में इस प्रकार दी है:-

‘‘लघु दारुमयं विहगं दृढ़श्लिष्टतनुं विधाय तस्य उदरे रसयंत्रमादधीत ज्वलनाधार मधीस्य चाऽग्नि:। पूर्णं तत्रारुढ: पुरुषस्तस्य पक्ष द्वंद्वोच्चात् प्रोज्झितेननालिना सुप्तस्यान्त: पारदस्या। आदधीत विधिता चतुराऽन्तस्य पारदभृतान दृढ़कुंभननय:। कपालहित मन्दवन्हि प्रतप्तकुभं भुवागुणेन। वायवोग्नि इतित्याभरणत्वमेति। सप्तगजेन्द्र सरजाशक्तया।…’’ (81)

थोड़े में यही कि विमान विशिष्ट प्रकार की लकड़ी का बना होता है। इसके जोड़ बहुत मजबूत होते हैं। उसके उदर में तरल (ज्वालाग्राही) पदार्थ रहता है जिसे जलाने ज्वलनपात्र में अग्नि रखी जाती है। (घ्हूीहत् म्दस्ंल्ेूग्दह ाहुग्हा )। वैमानिक दोनों पंख उठाने के पश्चात् (यंत्र की) ऊपर उठी नलिका के दूसरे- अदृश्य छोर की ओर-चार बड़े, मजबूत घटों में पारा भरा रहता है, उसके नीचे के पात्र में विधि अनुसार मंद सी अग्नि जलाता है। (पारा प्रसरण पाएगा) इससे उस तरल पदार्थ से निर्मित गरम वायु पर दबाव आने से सात गजेन्द्र जितनी शक्ति निर्मित होगी।’’

विमान विद्या पर लिखे ग्रंथ अब अप्राप्य हैं। प्रस्तुत प्राप्त जानकारी विमान निर्माण की पूरी तकनीक नहीं है। वह तो आधा-अधूरा कहीं से प्राप्त महर्षि भारद्वाज का ग्रंथ है, जो राजा भोज ने (आठ सौ वर्ष पूर्व) महत्प्रयास से सम्पादित किया। मुनि भारद्वाज महान वैज्ञानिक थेे। उस भारद्वाज संहिता का एक भाग ‘यंत्र सर्वस्व’ के ‘विमान विद्या’ इस प्रकरण का अंश है। कहते हैं कि इस प्रकरण में आठ अध्याय, सौ अधिकार, पांच सौ सूक्त थे। यह ‘प्रकरण’ भी पूरा प्राप्य नहीं है। जो है वह कोई पुरानी कटी सी आधी-अधूरी पोथी बडोदरा के पुरातन वस्तु संग्रहालय में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। राजा भोज के पूर्व वैज्ञानिक वृत्तिकार बोधानंद मुनि भारद्वाज और उसके ‘यंत्र सर्वस्व’ ग्रंथ के बारे में लिखते हैं :-

‘‘निमथ्य तद्वेदांबुधिं भारद्वाज महामुनि:।
‘नवनीतं’ समुद्धृत्य ‘यंत्रसर्वस्व’ रूपकम्॥’’
नाना विमान वैवित्र्य रचना क्रमबोधकम्।
अष्टाध्यायैर्विभाजितं शताधिकरणैर्मुतम्॥
सूत्रै: पंचशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्।
वैमानिकाधिकरणयुक्तं भगवता स्वयम्॥’’

अर्थात- महामुनि भारद्वाज ने उस वेदरूपी समुद्र को मथकर ‘यंत्र सर्वस्व’ के रूप में हमें मक्खन (नवजीत) दिया है। इस ग्रंथ में अनेक प्रकार के विमानों की विशेषताएं एवं उनके निर्माण के क्रम का विवरण आठ अध्याय, सौ करण में है। पांच सौ सूत्रों से युक्त व्योमयान संबंधी है।
भारद्वाज मुनि ने अपने ‘यंत्र सर्वस्व’ ग्रंथ में विमान विद्या के बारे में बताते समय भारतीय पद्धति के अनुसार मंगलाचरण में ईश्वर का स्मरण कर कहा है कि उसी की अनुकंपा और प्रेरणा से ग्रंथ लिख रहा हूं जिससे कि सज्जनों का भला हो, और वे इच्छानुसार विमान निर्माण कर सकें। इसीके साथ विमान विद्या से संबंधित वैज्ञानिक, विद्वान तथा मनीषी आचार्य गणों का स्मरण कर उनके मार्गदर्शन के प्रति विनम्र हो आभार व्यक्त किये हैं। पूर्वाचार्यों के कुछ नाम इस प्रकार है :- नारायण, शौनक, गर्ग, वाचस्पति, चक्रपाणी और धुंड़िनाथ इत्यादि और उनके ग्रंथ हैं,‘विमान चन्द्रिका’, ‘व्योमयानतंत्र’, ‘यंत्रकल्प’, ‘यान बिन्दु’, ‘खेटयान प्रदीपिका’, ‘व्योमयानार्क तंत्र’ इत्यादि। ये ग्रंथ अब विलुप्त ही हैं।

मुनिवर ने विमान की सरल परिभाषा की है :-
‘‘पृथिण्वप्स्वन्तरिक्षेषु खगवद्वेगत: स्वयम्।
य: समर्थो भवेद्गतुं स विमान इति स्मृत:॥

अर्थात् ‘‘पक्षी समान गति से पृथ्वी (वायुमण्डल में), समुद्र तथा अंतरिक्ष में उड़ने में जो स्वयं समर्थ हो उसे विमान जानिये॥’’
और कहा है – ‘‘देश-देशांतों, द्वीप-द्वीपांतों तथा लोक-लोकांतों चापि यो अम्बरे गंतुमर्हति स विमान इति खेटक शास्त्रम्।’’ (79) अर्थात् ‘‘देश विदेश में, क्षिपव्दीपों में, अन्य लोक (पृथ्वी के परे ग्रहादि) में जो आकाश में (उड़कर) जा सकता है वह विमान होता है। इसका शास्त्र ‘खेटक शास्त्र’ कहलाता है।’’

इस विमान विद्या के रहस्यों को महर्षि भारव्दाज ने उजागर किया है। यह श्लोक पढ़िए‡

वैमानिकरहस्यानि यानि प्रोक्तानि शास्त्रत:।
व्दात्रिंशदिति तान्यव यानसंत्रृत्वकर्मणि:॥

अर्थात उस विमान को उड़ाने का अधिकारी वही है जो विमान के रहस्यों को जानने वाला हो। शास्त्रों में जो 32 वैमातिक रहस्य बताए गए हैं विमान चालक को उनका भलीभांति ज्ञान रखना चाहिए।

उन्होंने ‘वैमानिक प्रकरण’ में लिखा है कि वैमानिक को विमान निर्माण की संरचना और उद्देश्य, उसे जमीन पर से आकाश में ले जाना, उसे आगे वांछित गति से बढ़ाना, आकाश में स्थिर रखना, दाएं बाएं मोड़ना, गति कम ज्यादा करना, पलटी लेना, विमान का रखरखाव करना, ईंधनादि के संबंध में पूर्ण जानकारी रखना और अभ्यास से तज्ञ बनना चाहिए।

ग्रंथ में वर्णित 32 रहस्यों में से तृतीय ‘कृतक’ नामक रहस्य में कहा गया है कि विश्वकर्मा, छाया पुरुष, मनु, मयदानव आदि विमान शास्त्रकारों के ग्रंथों का अध्ययन करने से, अनुभव होने से, धातु और अन्य वस्तुओं की शक्ति क्या है यह जान सकेंगे। इससे विमान रचना का रहस्य ज्ञात होगा।
भारव्दाज मुनि ने विमान सर्पाकृति चाल से उड़ाने का रहस्य भी बताया है। ‘सर्पगमन’ अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। आधुनिक विमान सर्पगति से नहीं उड़ते। हो सकता है कि उनकी गति और बनावट इसके योग्य न हो।

अन्य विमान की बातें सुनने के लिए उपकरण का भी भारव्दाज ने जिक्र किया है। इस अध्याय का नाम है ‘परशब्दग्राहक रहस्य’। इसके लिए इसी नाम के यंत्र का इस्तेमाल किया जाता था। ग्रंथ में कहा गया है कि इस यंत्र से दूसरे विमान के लोगों के संभाषणादि सारे शब्दों को आकर्षित कर उन्हें सुना जा सकता है। जहाज में कौन बैठा है? कोई आतंकवादी या तस्कर भाग तो नहीं रहा है? विमान में कौन से अस्त्र रखे गए हैं? इन्हें ‘रुपाकर्षण रहस्यम्’ नामक यंत्र से जाना जा सकता है। इसे चाहे तो आप टीवी का प्राचीन रूप कह सकते हैं। अभी इस तरह का काम राडार करते हैं, लेकिन उस जमाने में विमान में ही ये सुविधाएं हुआ करती थीं। शायद ऐसे ही यंत्र का प्रयोग कर संजय ने नेत्रहीन धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र की सूचनाएं दी थीं।

महामुनि भारव्दाज ने ‘अपरोक्ष’ नामक नौवें रहस्य में बिजली के उपयोग का वर्णन किया है। उन्होंने ‘शक्तितंत्र’ में वर्णित ‘रोहिणी’ विद्युत का प्रयोग करने की वैज्ञानिकों को सूचना दी है। ‘शक्तितंत्र’ ग्रंथ अगस्त्य ऋषि ने लिखा हैा वे विद्युत वैज्ञानिक थे। प्रथमत: विद्युत निर्मिति के जो प्रयोग हुए वे स्थिर विद्युत निर्मिति के थे। इस छोटे से पावर हाउस को ‘सेल’ या ‘घट’ कहा जाता था। उन्होंने विद्युत निर्मिति का रहस्य निम्न सूत्र में बताया है‡

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्र पत्र सुसंस्कृतम्।
व्दादयेत शिखिग्रीवेण चान्द्रभि: काष्ठाासुभि॥
त्रपुंच लावोनिधातव्य पारदच्छिदस्तत:।
संयोगाज्जायते तेनो ‘मित्र वरुण’ संज्ञितम्।

अर्थात मिट्टी के पात्र (घट) में शुध्द‡ परिष्कृत‡ की गई तांबे की पट्टी रखें, उसे नीलातूता और लकड़ी के बुरादे को गीला कर वेष्टित करें। इस पर पारा फैला दें और (मुंहाना) बंद कर दें। इस संयोग के कारण प्राप्त (विद्युत या ऊर्जा) ‘मित्र‡वरुण’ नाम से जानी जाती है।

भारव्दाज ने विभिन्न अस्त्रों का भी उल्लेख किया है जो विमान के अंदर होते थे। ‘स्तब्धकरहस्यप्रयोग’ में इसका जिक्र है। इसके अनुसार विमान के बायीं ओर पर लगी नलिका में संज्ञाहीन करने वाली अपस्मार वायु भरी रहती है। उस वायु को स्तंभनयंत्र व्दारा दूसरे विमान में छोड़ने से वहां बैठे सभी लोग स्तब्ध या संज्ञाहीन हो जाएंगे। ‘गूढ़’ नामक पंचम रहस्य में कहा गया है कि वातस्तंभ की आठवीं परिधिरेखा में ‘यासा, वियासा, प्रयासा’ आदि वायु शक्ति का प्रयोग करके सूर्यकिरणों में स्थित अंध:कार शक्ति का आकर्षण कर उसे विमान पर आच्छादित करना गूढ़ रहस्य का प्रयोग है। इससे विमान दूसरों को दिखाई नहीं देगा।

महर्षि भारव्दाज विमान विद्या के प्रवर्तक, यंत्र निर्मिति सिध्दांतों के जनक रहे हैं। वे कब हुए इस बारे में जानकारी देना संभव नहीं है। लेकिन पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि वे सृष्टि निर्माता ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। वे ऋग्वेद के षष्ठं मंडल के रचियता, मंत्रदृष्टा ऋषि हैं। ‘भारव्दाज श्रौत सूत्र’ तथा गृहस्थ जीवन के संबंध में उनका ‘भारव्दाज गृह्य सूत्र’ है। ये दोनों सूत्र कृष्ण यजुर्वेद में समाहित हैं। वे गृहस्थ ऋषि थे। उनकी दोनों पुत्रियों का विवाह याज्ञवल्क और विश्रवा से हुआ था। ये दोनों अति प्राचीन ऋषि हैं।

महर्षि भारव्दाज ने विमान विद्या के अलावा ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में जो थाती हमें दी है उसका कोई सानी नहीं है।
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