कांग्रेस धराशायी, भाजपा अप्रासंगिक

पूरा देश दम साधे उत्तर प्रदेश चुनावों की ओर टकटकी लगाए देख रहा था। 6 मार्च को देश में अन्य चार राज्यों मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव नतीजे भी घोषित हुए लेकिन जो चुनावी जुनून उत्तर प्रदेश के नतीजों को लेकर देश में था, उसके आगे सारे समाचार फीके हो गए।
उत्तर प्रदेश की राजनीति ने हमेशा से देश की राजनीति को प्रभावित किया है। केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश की राजनीति ही तय करती है। सारी राजनीतिक पाटियां अच्छी तरह से इस बात को जानती और मानती भी हैं, इसलिए सारे राजनीतिक दलों ने अपनी सारी ताकत उत्तर प्रदेश के चुनावों में झोंक दी।

परिणाम भी आश्चर्यजनक रहा, सारे राजनीतिक पंडितों के गणित धरे के धरे रह गये। समाजवादी पार्टी की 224 सीटों की जीत ने सभी राजनीतिक विश्लेषकों को अचम्भित कर दिया। अन्य राजनीतिक दलों के कभी किंग तो कभी किंग मेकर बनने के सपने सब चूर-चूर हो गये। फागून के महीने में उत्तर प्रदेश में होली और दीपावली दोनों साथ मनती दिखी। सारे राजनीतिक दलों के सेना-नायकों की प्रतिष्ठा और कार्यकुशलता दांव पर लगी थी, लेकिन विजयी नायक अखिलेश यादव बने। उत्तर प्रदेश चुनावों का राजनीतिक दलों के अलावा कोई और नायक है तो वह चुनाव आयोग है। जिसके प्रयत्नों से ही रिकार्डतोड़ मतदान हुआ। औसतन 60 फीसदी मतदान हुआ, जो पिछले चुनाव के मुकाबले 14 फीसदी अधिक है। यूं तो आम तौर पर भारी मतदान से आशय यह होता है कि लोग मौजूदा सरकार से तंग आ चुके हैं और सत्ता में बदलाव चाहते हैं। वहीं निर्वाचन आयोग और मीडिया, खासकर सोशल मीडिया ने लोगों को मतदान के प्रति ज्यादा जागरुक किया। आज का मतदाता ज्यादा जागरुक हो गया है। विकास के दौर में पीछे रह गए प्रदेश के लोंगों ने अपने लिए कुछ निर्णायक फैसला लिया, इसलिए इस बार बड़ी संख्या में घरों से बाहर निकलकर मतदान किया।

हाईटेक प्रचार

इस बार चुनाव में बड़ी तादाद में नयें वोटरों ने मतदान सूची में अपना नाम दर्ज कराया और मत का प्रयोग भी किया। राजनीतिक दलों ने जागरूक युवाओं और शहरी मतदाताओं को रिझाने और अपनी बात उन तक पहुंचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट का जमकर इस्तेमाल किया। फेसबुक, ट्विटर, केबल टीवी और एस एम एस जैसे नए हथियार चुनावों में छाए हुए थे। अब सारे राजनीतिक दल सोशल नेटवर्किंग के रथ पर सवार ही चुनाव प्रचार को हाईटेक बना दिया। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने अन्य राजनीतिक दलों से एक कदम आगे बढकर, शहरी मतदाताओं को लुभाने के लिए एक अलग ही रास्ता अपनाया। पार्टी ने ‘बीजेपी एप्स’ लाँच किया जिस पर बीजेपी की रैलियों में होने वाले भाषणों को सीधे सुना और फीडबॅक भी दिया जा सकता है।

अपनी जाति, अपनी पार्टी

उत्तर प्रदेश का चुनाव ‘मनी’, ‘माइनॉरिटी’ और ‘मसलपावर’ के लिए जाना जाता है। देश के इस सब से प्रदेश की 90 फीसदी सीटों पर कुछ जातियां ही हार और जीत तय करती हैं। इसी जातिगत समीकरण को भुनाने के लिए राजनीतिक दल जातिगत गोटियां बिठाने में लग जाते हैं, और सभी राजनीतिक दलों ने यही किया। यहां तक कि प्रदेश की आबादी का एक फीसदी या उससे भी कम संख्या वाली जातियों ने भी अपनी खुद की पार्टी बना ली है। ‘अपना दल’ कुर्मियों की पार्टी है तो ‘भारतीय समाज पार्टी’ पिछड़े राजभरों की। यहां वोटर किसी नेता को नहीं, अपनी जाति को वोट देता है। राजनीति अंकगणित नहीं है और न ही इसकी गुत्थियों को सुलझाने के फार्मूले सरल हैं। समय बदल गया है। मतदाता जागरूक हो गया है। सरकारों का बनना और बिगड़ना अब विकास पर निर्भर कर रहा है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी, छत्तीसगढ़ मेें रमन सिंह, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, बिहार में नीतिश कुमार इसके उदाहरण हैं।

कांग्रेस की फजीहत

चुनाव नतीजों के आने से पहले अपनी सरकार बनाने का दंभ भरने वाले राजनीतिक दल अब अपनी हार के कारण गिनाने में लग गये हैं। उत्तर प्रदेश चुनावों में सबसे ज्यादा फजीहत कांग्रेस पार्टी की हुई। कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना सबसे बडा दांव युवराज राहुल गांधी को लगा दिया था। राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की बात करने वाले कांग्रेसी राहुल को उत्तर प्रदेश के रास्ते केंद्र के सिंहासन पर बिठाने का सपना देख रहे थे, लेकिन बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश भी राहुल के लिए ‘फ्लाप शो’ साबित हुआ। राहुल गांधी के साथ दिक्कत यह हो गई कि जब लोग उनसे नई राजनीति की उम्मीद कर रहे थे, तो वे पुरानी मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति में फंसे रहे। शुरू से अंत तक राहुल मायावती पर हमले करते गए और उन्हें दलित चेतना विरोधी साबित करने की कोशिश की। राहुल के साथ दिक्कत यह हुई कि वे अपने थके नेताओं की चकाचौध में आधुनिक राजनीति का दामन छोड़कर उसी परंपरागत राजनीति के साथ हो लिए, जिसका वे साल 2009 के संसदीय चुनाव तक जमकर विरोध करते थे।

राहुल ने यहां गलती की। उन्हें प्रदेश में कांग्रेस को पुन: संगठित करना था, लेकिन वे पिटी-पिटाई लीक पर कांग्रेस को लेकर आगे चलते रहे। उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए न तो कोई साइंटिफिक स्टडी कराई, न ठीक से चुनाव मैनेज किया। संगठन तो था ही नहीं, न ही यूथ कांग्रेस चुनावों में कहीं दिखी। राहुल मानकर चल रहे थे कि लोग उनके भाषणों से प्रभावित होकर कांग्रेस को अपना वोट दे देंगे। वे प्रदेश की जमीनी हालातों से वाकिफ ही नहीं थे। शायद ही कोई सभा हो जिसमें राहुल ने उत्तर प्रदेश को बदलने की बात न दोहराई हो। शुरुआत में यह तेवर लोगों ने पसंद भी किया, लेकिन वे समझाने में नाकाम रहे कि देश के सबसे बड़े राज्य को बदलने के लिए अलादीन का कौन-सा चिराग घिसने वाले हैं। गुस्से में आए, बाहें चढाईं, मंच से कागज फाड़े और जोर-जोर से चिल्लाये। आक्रामक तेवर सिर्फ तब अच्छे हैं, जब वे व्यावहारिक हो। अन्यथा आंखें तरेरना, बांहे, चढ़ाना और जोर-जोर से चिल्लाना मतदाता नापसंद करते हैं। माना कि भावनाओं में बह कर, भारत में जनता जुटती खूब है, खेल और तमाशे, नाटक नौटंकी देखने में अपना समय भी देती है। लेकिन जैसे ही जनता को पता चलता है कि मदारी अब खेल दिखा चुका है, जनता शाबाशी देकर ताली बजा कर अपना रास्ता पकड़ लेती है। यानि हर व्यक्ति के पास समय कम है। आपको देने के लिए तो और भी कम है। दूसरे के 22 साल के भ्रष्ट कुशासन के निबंध लोगों को ऊबाऊ लगने लगो। ‘मेरे लिए क्या है बस यह बता दीजिए’, जनता यही सुनना चाहती है। राहुल ने कहा कि यूपी में हाथी पैसा खा जाता है, लेकिन राहुल का पूरा ध्यान मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण पर लगा रहा। ऐन चुनाव के वक्त बाटला हाऊस का मुद्दा सामने आना और मुस्लिम आरक्षण का लॉलीपॉप इसी रणनीति का हिस्सा था। मुस्लिमों से जुड़े सवाल पर दिग्विजय और सलमान खुर्शीद के विरोधाभासी जवाब राहुल को माइनस मार्किंग की तरफ ले गए। कांग्रेस के लिए नाक की लड़ाई बन गए उत्तर प्रदेश चुनावों में कांग्रेस ने अपनी छठी पीढ़ी प्रियंका गांधी के दोनों बच्चों तक को रायबरेली के चुनावी समर में उतार दिया। फिर भी कांग्रेस अपना किला नहीं बचा सकी। रायबरेली जिले की पांचों सीटें कांग्रेस हार गयी। राहुल गांधी के विकास के मुद्दे, दिग्विजय सिंह के प्रहसन, बेनी प्रसाद वर्मा के प्रवचन और सलमान खुर्शीद के प्रकरण के बोझ तले दब गये। प्रकारांतर से कांग्रेस कहीं न कहीं दंभ में दिखाई देती रही।

‘सर्वजन’ पराजय

‘‘जो हराये हाथी को वही हमारा साथी’’ यह नारा उन राजनीतिक दलों ने ईजाद किया, जिन्होंने मायावती के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। 2007 के विधान सभा चुनावों में ‘बहुजन’ की जगह ‘सर्वजन’ का नारा बसपा ने दिया और सोशल इंजीनियरिंग के सहारे 30.5 प्रतिशत वोट पाकर 206 सीटें जीत कर मायावती ने स्पष्ट बहुमत जीता था। लेकिन पिछले पांच सालों में सोशल इंजीनियरिंग केवल चुनावों तक ही सीमित रही। विकास के नाम पर मूर्तियां- पार्कों का बनवा दिया। विद्युत व्यवस्था के नाम पर आम्बेडकर पार्क ही चमकते दिखे। सडकों की मरम्मत के नाम पर राजधानी की गिनी-चुनी सडकों का चिकना होना दिखा। रोजगार और व्यवस्था के नाम पर मंत्रियों-विधायकों के खजाने भरते दिखे। पांच साल तक बसपा अध्यक्षा मायावती मुख्यमंत्री आवास से निकल कर जनता के बीच नहीं गईं। उन्होंने मिर्जापुर में बिजली गृह का या सहारनपुर में पुल का उद्घाटन अपने आवास से ही रिमोट का बटन दबा कर किया। उनका भरोसा प्रदेश की जनता से कहीं ज्यादा जातीय समीकरणों और नौकरशाहों पर था। इसी तरह पांच साल तक वे मीडिया से एकदम कटी रहीं। एक भी इंटरव्यू नहीं, प्रेस कांफ्रेस में भी सवालों की इजाजत तक नहीं। उनका नया वोट बैंक अखबार पढ़ता है और उस पर बहस भी करता है। इस बार वह उनसे बिदक गया। खुद को सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ठगा महसूस करने लगा। मायावती दलितों की नेता हैं, लेकिन अधिकतर जातियां उनके साथ नहीं हैं, क्योंकि सोने के गहनों से लदी मायावती भले ही रंक से राजा बन गई हो, दलितों की हालत में आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में सपा की जीत के पीछे सबसे बड़ा कारण मायावती के नेतृत्व की बसपा सरकार का असंवेदनशील होना है। मायावती अपने पूरे कार्यकाल के दौरान जनता के सरोकारों से दूर रहीं और असंवेदनशील सरकार चलाती रहीं। सरकार और उनके लोग एकतरफा फैसले लेते रहे। जनता की नाराजगी बसपा को भारी पड़ी। जनता ने यह बता दिया की वह सबक सिखाना जानती है। जनता ने कुछ ऐसा ही 2007 में सपा के साथ किया था। भ्रष्टाचार पर मायावती लगाम लगाने के बजाए, अन्य पार्टियों के भ्रष्टाचार को गिनाने लग जातीं और अपने विरुद्ध आरोपों को ‘मनुवादी निराशा’ करार देतीं। पांच साल के अपने भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए मायावती ने चुनावों के ठीक पहले अपने 19 मंत्रियों, विधायकों को पद से हटाकर अपनी पार्टी की साफ छवि दिखाने की कोशिश भी की, लेकिन काम नहीं बना। जहां-जहां सत्ता विरोधी वोट हैं, जो वास्तव में मायावती के दंभ के विरोध मत हैं। सत्ता विरोधी वोट के मायने भी बदले हैं इन चुनावों ने कि आप खूब काम कीजिए, तो आपके बाकी गुनाह माफ।

भाजपा अप्रासंगिक

उत्तर प्रदेश में मुकाबला सीधा था, कांग्रेस और भाजपा जैसी अन्य पार्टियां लगभग अप्रासंगिक मानी जा रही थीं। भाजपा ने चुनाव से 6 माह पूर्व अपनी तैयारी शुरू कर चुनावी संग्राम को त्रिकोणी मुकाबला बना दिया। पार्टी अध्यक्ष नितीन गडकरी ने चुनावों की सारी कमान संजय जोशी को दे, गुटबाजी की सारी अटकलों पर विराम लगा दिया। उत्तर प्रदेश के नजरिये से देखें तो पार्टी विभाजित दिखी, लेकिन जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं में नया उत्साह दिखाई दे रहा था। बीस साल पहले राम मंदिर आंदोलन ने भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग पहचान दिलाई। तब भाजपा को उत्तर प्रदेश चुनावों में बहुमत भी मिला। बसपा और सपा के समर्थन से तीन बार सरकार बनाने का मौका भी मिला। राम मंदिर आंदोलन के बाद प्रदेश में जातिगत समीकरण हावी हो गये। भाजपा उच्च वर्ग की पार्टी बनकर रह गयी। जिसका जनाधार चुनाव- दर-चुनाव गिरता गया। 2014 लोकसभा चुनावों को ध्यान में रख भाजपा ने इस चुनाव में अपनी सारी ताकत झोंक दी। चुनावी कार्यक्रमों की तैयारी से लेकर टिकट बंटवारे तक पार्टी अध्यक्ष नितीन गडकरी बारीकी से नजर रखे हुए थे, लेकिन कुशवाहा प्रकरण की वजह से पार्टी बैक फुट पर चली गयी। प्रदेश में खुद को विकल्प की तरह प्रोजेक्ट करने में पार्टी नाकामयाब रही। उमा भारती के सहारे भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता के सपने सजायें हुए थी, लेकिन राज्य में आपसी अंतर्द्वंद्व ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया। पार्टी को अब सही मायनों में समझना होगा कि अगर सत्ता पाना है तो जमीन तक उतरना होगा। समीकरणों और रणनीतियों से अब सत्ता नहीं हासिल होती।

इन परिणामों ने भाजपा नेतृत्व के सामने कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं। प्रदेश में उसके कमजोर होने से कट्टरवादी ताकतों को बल मिला। 2014 का लोकसभा का सपना यदि भाजपा वास्तविक रूप में साकार करना चाहती है तो केंद्रीय नेतृत्व को समय रहते सावधान होना होगा। इस बात पर सोचना होगा कि वरिष्ठ कार्यकर्ताओं और सुदृढ़ संगठन ढांचे के बावजूद मतदाताओं को अपनी ओर वह क्यों आकर्षित नहीं कर पाई। कार्यकर्ताओं की अपेक्षा नेताओं की फौज होना भी उसके लिए घाटे का सौदा रहा। भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का समय है।

छोटे दलों को नकारा

माया सरकार के भ्रष्टाचार और तानाशाही से तंग आ चुकी जनता से छोटे दलों ने बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। सूबे की रियासत में जदयू, पीस पार्टी, अपना दल, कौमी एकता दल, बुंदेलखंड कांग्रेस और महान दल जैसी वोट‡ कटुआ पार्टियों ने बड़े-बड़े सपने देख रखे थे। लेकिन जनता ने इन छोटे-छोटे दलों के सपनों को चकनाचूर कर दिया सियासत के कई दिग्गज अस्तित्व बचाने को तरस गये। कल्याण सिंह और अमर सिंह जैसे दिग्गजों ने चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन कड़ी मशक्कत के बाद भी पार्टी एक भी सीट नहीं पाई।

सपा का समीकरण

इस बार के चुनावों में भी सपा को उसके पारंपारिक वोट बैंक मुस्लिम- यादव समीकरण ने जीत की राह आसान की। कल्याण सिंह के कारण अलग हुए मुस्लिम वर्ग ने इस बार कांग्रेस की बजाए मुलायम में अपना विश्वास जताया। 2007 में सत्ता से बाहर होने के लिए सबसे बड़ी वजह बनी थी पार्टी की गुंडा छवि। सपा की पिछली सरकार पिछड़ी जातियों के बीच यादवों की पार्टी बन गयी थी। बदलते भारत में अंग्रेजी और कम्प्यूटर के विरोध की वजह से लोगों ने समाजवादी पार्टी को जड़ पार्टी मान लिया था। मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने इस चुनाव का सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला। बजाय खुद के अपने बेटे अखिलेश को आगे किया। जनता की नजर में मुलायम की गंवार राजनीति को अखिलेश के शहरी आधुनिक चेहरे से ढंक दिया। अखिलेश ने सपा के आधुनिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

पिछले पांच साल विधानसभा से लेकर सड़कों तक सत्तारूढ़ बसपा का विरोध सिर्फ सपा ने किया और प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने खुद लाठियां खाईं। अखिलेश ने सितम्बर से विधानसभा चुनावों तक दस हजार किलोमीटर तक यात्रायें कीं, लोगों से सीधा संवाद किया, और सबसे मजबूत विकल्प बनकर उभरे। बाहुबली डी. पी. यादव की एंट्री बंद करवा के अखिलेश ने चाल, चरित्र और चेहरा बदलने की कोशिश की और भरोसा दिलाना चाहा कि सपा में अब गुंडों की जगह नहीं है। अखिलेश ने पुराने समाजवादियों और उभरते भारत के बीच सामंजस्य बनाए रखा। सपा की अप्रत्याशित जीत का आकलन खुद मुलायम ने भी नहीं किया था। जनता ने इस बार मुलायम सिंह की सपा को नहीं बल्कि नये बदले अखिलेश यादव के समाजवाद को वोट दिया है।

मुलायम सिंह ने भी जनता की भावनाओं का आकलन करते हुए सूबे की सत्ता का दारोमदार अब अखिलेश यादव को सौंप दिया है। अखिलेश सूबे के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री हैं। जनता बदलाव की अपेक्षा लगाए हुए है। हालांकि सत्ता हस्तांस्तरण के दो मायने हैं। एक जनादेश को लोकसभा चुनावों तक बनाए रखना, जो अखिलेश के रूप में ही हो सकता है। दूसरा मुलायम सिंह, अब राष्ट्रीय राजनीति में तीसरे फ्रंट को खड़ा कर के मजबूत करना चाहते हैं।

अखिलेश ने अपना मंत्रिमंडल घोषित किया है, जो फिर साबित करता है कि गुंडा पार्टी का उसका स्वरूप नहीं बदलने वाला है। मंत्रिमंडल के 47 चेहरों में राजा भैया समेत 28 चेहरे ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 224 सीटों के भारी भरकम बहुमत का किस प्रकार दुरुपयोग होगा इसका यह संकेत है। अखिलेश के सामने चुनावी वायदें पूरे करने का दबाव भी बना रहेगा, जिसके लिए हजारों करोड़ रुपयों की जरूरत होगी।

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