जल, जीवन और गंगा

हमने नदियों को माता कहा है। व्यक्ति के रूप में जो मां हमें मिलती है उसके प्रति अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हमें
वयस्क होने पर हो जाता है, लेकिन नदियों के रूप में जो ममता की जो धरोहर हमें मिली है उसके लिए हमें अभी भी अपनी जिम्मेदारियों का अहसास पूरी तरह से नहीं हो पाया है। नदियों का दम घुट रहा है। और हम समझ नहीं पा रहे हैं कि कहीं न कहीं हमारी संस्कृति का भी दम घुट रहा है। हमारा लालच मोटा हो रहा है और नदी की देह सूख रही है।

आज हम गंगा की बात कर रहे हैं। कुम्भ का समय आता है। कोई प्रचार नहीं होता। कोई आमंत्रण पत्र नहीं छपते। होर्डिंग्स नहीं लगते। लेकिन करोड़ों लोग गंगा के तट पर उमड़ पड़ते हैं्। संसार में दूसरा ऐसा कोई उदाहरण नहीं है। आज भी रफ़ी का गाया गीत अक्सर सुनने मिल जाता है – गंगा ! तेरा पानी अमृत। झर -झर बहता जाए। युग युग से इस देश की धरती, तुझसे जीवन पाए। इतनी आस्था देखकर कोई अनजान परदेसी यही समझेगा कि भारत में गंगा को जरूर बहुत सहेजा गया होगा; लेकिन ज़मीनी हालात और कुछ कहती है।

गंगा हिमालय के हिमनदों का तरल रूप है। गंगोत्री के अलावा नंदादेवी, त्रिशूल, केदारनाथ, नन्दकोट और कमेट श्रेणियां तथा सतोपंथ और खटलिंग हिमनद इसमें अपना ह्रदय उड़ेलते हैं। गोमुख से निकली भागीरथी की धारा अलकनंदा, खड़क, धवलगंगा, नंदाकिनी, मंदाकिनी का जल समेटते हुए उत्तराखंड से उतर कर उत्तर प्रदेश के मैदानों को सींचते हुए बिहार, झारखंड और बंगाल को सहलाकर गंगासागर में मिल जाती है। इस दौरान बहुत सी सहायक नदियां इसमें विलीन होती जाती हैं जैसे – रामगंगा, गोमती, घाघर, गण्डकी, बूढ़ी गण्डक, यमुना, तमसा, कोसी, महानदी, सोन, चम्बल, बेतवा, केन, हिण्डोन, सिंधा, शारदा, तोन, पुनपुन आदि। गंगा की इन सहायक नदियों में यमुना, घाघर या घघ्घर और कोसी सबसे विशाल नदियां हैं। असंख्य छोटी धाराओं की तो गिनती ही नहीं है।

ज़रा इस विशाल दृश्य पर दृष्टि डालिए। मंदाकिनी और अलकनंदा हिमालय से झरती हैं। कोसी की जड़ें नेपाल में हैं तो चम्बल मध्यप्रदेश के मालवा से निकलती है। महानदी हिमालय से उतरती है तो बेतवा ठीक विपरीत दिशा से भारत के मध्य विंध्याचल पर्वत श्रृंखला से चलती है। इसी तरह झारखण्ड से निकली दामोदर भी गंगा में गिरती है।

यह विस्तृत चित्र बतलाता है कि गंगा का परिदृश्य हिमालय के विशाल हिमभंडार से लेकर विंध्याचल के सघन वनों तक फैला है। झारखण्ड से नेपाल और बिहार से बंगाल तक सारी धरती इसमें समाहित है। और यदि इस पर निर्भर करोड़ों मानवों को जोड़ लिया जाए तो यह परिदृश्य अखिल भारतीय हो जाता है। हिमालम में हज़ारों हिमनद या ग्लेशियर हैं जो उत्तर भारत की अधिकांश नदियों के जल स्रोत हैं्। प्रायः ये सभी नदियां गंगा की सहायक नदियां हैं। ब़ढ़ते प्रदूषण के चलते ये ग्लेशियर सिमट रहे हैं। हिमनदों की सिकुड़ने की रफ़्तार चिंताजनक है। गंगोत्री ग्लेशियर सर्वाधिक तेज़ गति से पीछे हट रहा है। गंगोत्री प्रति वर्ष ३४ मीटर की दर से सिकुड़ रहा है। हिमालय से निकलने वाली धाराओं में जल के दो स्रोत हैं्। एक, गर्मियों में बर्फ का पिघलना और वर्षा जल्। दो स्रोत जहां एक ओर इस तंत्र को अत्यंत समृद्ध बनाते हैं वहीं दूसरी ओर अत्यंत संवेदनशील भी बनाते हैं। इसकी चेतावनी हमें केदारनाथ जलप्रलय के रूप में मिल चुकी है।

बांधों ने गंगा और मानव के रहवासी क्षेत्र दोनों के लिए संकट पैदा कर दिया है। गंगोत्री से हरिद्वार तक चलें तो गंगा के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। गंगनानी के बाद तो गंगा के जल भराव ही दिखते हैं, मुक्त प्रवाह नहीं। नदी के साथ बह कर आने वाली मिट्टी को बांध रोक लेते हैं। वह किसान तक नहीं पहुंच पाती। फिर गंगा के जल को भूमिगत नहरों (टनल) में मोड़ दिया जाता है। पहाड़ पोले हो रहे हैं। नदी के साथ इतना खिलवाड़ करके हम कुछ समय का सुख ले रहे हैं लेकिन क्या कभी हमने सोचा है कि भूकम्प संवेदनशील इस क्षेत्र में हम पानी को ही बारूद में बदल रहे हैं। टिहरी बांध पर ही कोई संकट आया तो हरिद्वार से लेकर दिल्ली तक कितनी तबाही हो सकती है? नदी विकास की जो बातें हम कर रहे हैं कि तटों का विकास करना है, पर्यटन को बढ़ावा देना है, लाइट एंड साउंड, मछली पालन, परिवहन वगैरह सब कुछ करना है; लेकिन मूलभूत सवाल यह है कि नदी में पानी कहां से आएगा?

ये हिमालयी नदियां जब मैदान में उतरती हैं तो इनके पानी की मानो लूटखसोट ही मच जाती है। दिल्ली में सड़ांध मारती यमुना हो या कानपुर का मल समेटती गंगा, सब जगह कहानी एक सी है। क्या दिल्ली में यमुना का जल हाथ डालने योग्य बचा है? क्या कानपुर में गंगा जल मुंह में डालने लायक रह जाता है? ज़रा सोचिए। हमारे शहर को पाल पोस रही नदी के साथ हम क्या सलूक कर रहे हैंं। हम नदी का पानी सोख रहे हैं पीने के लिए, उद्योगों के लिए। हम उसकी धाराओं को तोड़मरोड़ रहे हैं। हम उसमें से अंधाधुंध रेत निकाल रहे हैं। फिर हम प्रति दिन उसमें अपने शहरों का करोड़ों लीटर गंदा पानी, जिसमे २० प्रतिशत जहरीला औद्योगिक अपशिष्ट है, उ़ंडेल रहे हैं। अकेले दिल्ली में ही ममुना नदी की २२ किलोमीटर लम्बी धारा में २२ बड़े नाले गिरते हैं। जिसमें सबसे भयंकर है, नज़फगढ़, शाहदरा, और तुगलकाबाद नाला। दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के इक्कीस शहरों में अब तक यमुना स्वच्छता के लिए बीते दशकों में २७६ योजनाएं चलाई गई हैं। सरकारी दावा है कि इन योजनाओं के परिणामस्वरूप ७५ हज़ार लाख लीटर नालों के पानी की सफाई हो रही है, लेकिन यमुना को देखकर ये सारे दावे खोखले नज़र आते हैं। ३ हज़ार टन कीटनाशक प्रति वर्ष गंगा में घुल रहा है। शोषण की सारी कहानियां इसके सामने फीकी हैं।
हरिद्वार के बाद ही गंगा का आधा जल दिल्ली की जरूरतें पूरी करने के लिए निकाल कर मोड़ दिया जाता है। फिर सिंचाई के लिए पानी निकाला जाता है। कानपुर के पहले पानी को रोक कर फिर शहर के लिए पानी निकाला जाता है। इलाहाबाद में जो जल हमें मिलता है उसमें गंगा जल तो बहुत थोड़ा होता है। वह जल तो गंगा की सहायक नदियों का जल है। फिर इलाज क्या है? पानी तो चाहिए। उत्तर है तालाब। दिल्ली जब राजधानी बनी तब वहां सैकड़ों तालाब थे। आज कितने बचे हैं? वर्षा जल को सहेजने के लिए इतने दशकों में हमने क्या किया है? आज से एक सदी पहले रहवासी इलाकों के बीच से जो छोटी बरसाती नदियां बहा करती थीं वे अब नालों में बदल चुकी हैं्। हमें ख़याल ही नहीं है कि उनमें कभी साफ़ पानी बहा करता था। ये बरसाती पानी के प्राकृतिक निकास स्वाभाविकतः निकटवर्ती नदियों में गिरते थे। अब वे गंदगी और दुर्गन्ध से भरे हैं। इसे फिर से पलटना होगा। शहरों के सीवेज तंत्र को पूरी तरह बदलना होगा। इसके लिए दीर्घकालीन योजना और हज़ारों करोड़ की राशि के साथ मज़बूत राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा सीवेज जल शोधन की गुणवत्ता का है। भ्रष्टाचार और ढर्राशाही के चलते प्रायः सभी सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्रों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न लगे हैं। एक मिसाल्। वाराणसी के पास सारनाथ के निकट कोटवा गांव का मामला है। यहां शहर के नाले के पानी के लिए ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया। इससे जो पानी मिला उससे खेतों की सिंचाई शुरू की गई। लेकिन बाद में पता चला कि इन सब्जियों में जहरीली धातुओं की बड़ी मात्रा उपस्थित थी। पैदा होने वाला अनाज और सब्जियां जल्दी ही सड़ जाते थे। उनमें कीड़े पैदा हो जाते थे। कुल मिलाकर पूरी योजना पर पानी फिर गया।

गंगा समेत प्रायः सभी नदियों की जैव विविधता भी खतरे में है। अकेले गंगा में ही जल जीवों और वनस्पतियों की २ हजार प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमे से कुछ तो ऐसी हैं जो सिर्फ गंगा में ही पाई जाती हैं जैसे – गांगेय डॉल्फ़िन, गांगेय घड़ियाल और नरम कवच वाले कछुए। गांगेय डॉल्फ़िन तो मीठे जल की मात्र तीन डॉल्फिनों में से एक है। शहरों का जहरीला पानी इनका दम घोंट रहा है। रेत निकासी के कारण मछलियों, घड़ियालों और कछुओं के अंडे नहीं पनप पा रहे हैं। दानों में कीटनाशक मिलाकर पक्षियों का शिकार किया जा रहा है। पानी में करंट फैलाकर मछलियां मारी जा रही हैं। अब करंट मछली और दूसरे जल जीवों में अंतर तो करता नहीं। सो, सारे के सारे मानव की लालच की भेंट चढ़ रहे हैं। बांध इन जल जीवों के जीवन चक्र को भी बांध रहे हैं।

भारत की राष्ट्रीय जल जंतु दुर्लभ गंगा डॉल्फ़िन विलुप्त होने की कगार पर है। गंगा और उसकी सहायक नदियों में इनकी संख्या चौबीस सौ रह गई है। ये बची -खुची गंगा संतानें जीने के लिए संघर्ष कर रही हैं और नांवों से टकराकर मर रही हैं। जंगलों की कटाई से नदी के तल में गाद भर रही है। जिससे नदी का तल उथला होने से जल जीवों का घर सिकुड़ रहा है। नदी की घाटियों के नम क्षेत्र खत्म हो रहे हैं। इनके घटने से भूजल रिचार्ज होने की क्षमता तेज़ी से घट रही है।

आज गंगा और यमुना विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित ५ नदियों में शामिल हैं। इस दुखद स्थिति को बदला जा सकता है। लंदन, ऑक्सफ़ोर्ड, ईटन और विंडसर जैसे शहरों से होकर बहने वाली ब्रिटेन की टेम्स नदी आज दुनिया की सबसे स्वच्छ नदी कहलाती है। लेकिन कभी वह दुनिया की सबसे गंदी नदियों में शुमार होती थी। महत्वपूर्ण तथ्य है कि लंदन की आबादी लगभग ८० लाख है। दस साल पहले जर्मनी की अल्बे नदी दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी थी। दशक भर के अंदर ही एल्बे की गिनती थी दुनिया की साफ़ नदियों में होने लगी। इसमें जर्मनों और जर्मन सरकार, दोनों का योगदान है। जर्मन जागरूक हुए और सरकार ने इच्छाशक्ति दिखाई। एल्बे को गंदा करने वाली फैक्ट्रियों को या तो बंद किया गया या स्थानांतरित किया गया। सीवेज वाटर ट्रीटमेंट को कड़े मानकों पर तैयार किया गया। परिश्रम और सही नीयत रंग लाई्। अब लोग फिर इसमें तैरने लगे हैं। जल जंतु लौट रहे हैं।

लेकिन जर्मन यहीं पर नहीं रुके। उनका कहना है कि अभी तो केवल प्रदूषण को नियंत्रित किया गया है। नदी की प्राकृतिक क्षमताओं को लौटाना अभी शेष है। टेम्स नदी यदि साफ़ है तो उसका बड़ा श्रेय लंदन के डेढ़ सौ साल पुराने और आज की जनसंख्या के भार को अच्छी तरह से झेल रहे सीवेज तंत्र को है। लेकिन जनभागीदारी यहां भी महत्वपूर्ण कारक है। साल २००० से प्रति वर्ष एक बार टेम्स के किनारों पर रहने वाले ब्रिटिश टेम्स नदी की सफाई के लिए जुटते हैं। सफाई के लिए जरूरी सारे साधन आम लोग स्वयं ही लेकर आते हैं। ऐसी इच्छाशक्ति भारत में संभव नहीं है क्या? कुंभ के लिए बिना न्यौते के करोड़ों लोग पहुंच सकते हैं। मौनी अमावस्या, नरक चौदस, गंगा दशहरा, ग्रहण आदि के समय करोड़ों लोग नदियों में डुबकी लगाने पहुंच सकते हैं तो यदि इस आस्था को आधार बनाकर जनजागरण किया जाए तो करोड़ों हाथ नदियों की स्वच्छता के लिए क्यों नहीं बढ़ सकते?

जनआस्था को जानकारों और पर्यावरण सेवियों का मार्गदर्शन मिले तो नदियों को उनका पुराना चेहरा क्यों नहीं लौटाया जा सकता? फिर शासन प्रशासन भी साथ आ खड़ा होगा। सरकार ने गंगा के पुनरोद्धार का संकल्प लिया है, लेकिन ये काम बहुत कठिन है, और जनभागीदारी के बिना असंभव है। सशक्त पर्यावरण और स्वच्छ ऊर्जा जन -जन का नारा बनना जरूरी है। कोशिश हिमनदों से लेकर जंगलों और खेतों तक करनी पड़ेगी। लड़ाई गलियों से लेकर मुहानों तक लड़नी पड़ेगी। बहुत कुछ दांव पर लगा है यह समझना होगा।समझाना होगा। कवि नरेंद्र शर्मा ने गंगा को सम्बोधित कर हमारी चेतना को झकझोरने का प्रयास किया है-

ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों,
श्रुतस्विनी क्यों न रहीं,
तुम निश्चय चेतन नहीं
प्राणों में प्रेरणा देती न क्यों,
उन्मत्त अवनि कुरुक्षेत्र बनी,
गंगे जननी नव भारत में,
भीष्मरूप सूत समरजयी जानती नहीं हो क्यों,
विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार,
करे हाहाकार निःशब्द सदा,
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों।

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