आत्मनिर्भरता में मातृशक्ति का योगदान

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के स्वप्न के साथ, अपने जीवन लक्ष्य को, कर्म को जोड़ दें। इसे सब में हमारे परिवार धुरी का केंद्रबिंदु हमारी मातृशक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण है। आत्मनिर्भरता का मानक सुख व आनंद की उपलब्धि है।
——–

स्वामी विवेकानंद ने कहा है, अगर किसी गरुड़ पक्षी को ऊंचे आसमान में उड़ान भरनी हो तो शरीर के साथ साथ, उसके दोनों पंख भी सामान रूप से बलशाली होने चाहिए। वैसे ही इस दुनिया में भारत को प्रगति करनी है, विकास करना है, तो उसके समाज के दोनों अंग स्त्री और पुरुष सामान रूप से विकसित होने चाहिए और भारत की विकास प्रक्रिया में दोनों का समान योगदान भी होना चाहिए।

हम सब जानते हैं कि परिवार राष्ट्र की प्रथम इकाई होती है। परिवार से ही समाज में अच्छे नागरिक आते हैं, जो भारत की प्रगति में अपने कर्म के आधार पर योगदान देते हैं। जितने योग्य, संवेदनशील और कर्म योगी नागरिक होंगे, उतना ज्यादा विकसित समाज होगा और जीवन संपन्न और सुखी होगा। यही देश की प्रगति में विकास का पैमाना होगा। परिवार की जड़ें जितनी संस्कारक्षम होंगी, उतनी अधिक राष्ट्रीय योगदान की पहल परिवार से होगी। परिवार जीना सिखाने वाली पाठशाला ही है।

आज की इक्कीसवीं सदी में केवल आर्थिक उन्नति को ही विकास का मानक माना जा रहा है। यह देखा जा रहा है कि समाज का कितना प्रतिशत देश के जी.डी.पी में योगदान दे रहा है। अगर यह प्रतिशत ज्यादा है, तो ही देश प्रगतिशील है अन्यथा पिछड़ा है। इस बात को ऊपरी तौर पर देखा जाए तो बात ठीक लगती है। ठीक तो है, आर्थिक आय होगी तो ही तो जीवन सुखी होगा और विकास हो रहा है ऐसा हम मान सकते है। याने केवल आर्थिक सम्पन्नता होगी तो लोगों की जिंदगी अच्छी चल रही है, नहीं तो वे बेहाल है ऐसी मान्यता को दर्शाने वाला यह विचार है। लेकिन जब हम बात की जड़ तक जाकर सोचें तो पता चलता है कि यह बात पूर्ण सत्य नहीं है। क्योंकि, आज जीवन का व्यवहार यह पैसों से होता है, तो जीवन की सभी संभावनाएं भी पैसे से ही नापी जाए, तो फिर यह तो गलत ही होगा। केवल जी.डी.पी ही विकास है यह आकलन ठीक नहीं है।

विश्व के अन्य देशों का विचार करें, तो वहां की भौगोलिक परिस्थिति, वहां का जनजीवन, लोक व्यवहार, लेनदेन की पद्धतियां सब अलग अलग हैं और भारत की बात भी अलग है। भारतीय जीवन पद्धति और जीवन व्यवहार में भिन्नता है। इस बता को हमें समझना पड़ेगा और स्वीकारना भी पड़ेगा। इसलिए सभी के लिए एक ही विकास का मानक काम नहीं आएगा। भारत में तो आर्थिक सम्पन्नता की अपेक्षा आत्म संतुष्टि, संतोष और श्री का अधिक महत्व है. क्योंकि भारत तो जीवन मूल्यों के आधार पर चलता है, उसकी कदर करता है, और इन मूल्यों के लिए अपने प्राण भी न्योछावर करने से नहीं डरता।

उदाहरण के लिए अगर ग्रामीण जीवन का हम विचार करें तो ध्यान मे आता है कि वहां का जीवन तो कर्तव्य और सहयोग से ही अधिक चलता है। पैसे का व्यवहार तो गौण है। जैसे कि एक जमींदार था और उसके यहां चार नौकर काम पर थे। मालिक ने उनकी रहने, ओढ़ने और खाने की जिम्मेदारी स्वयं ही सम्हाली थी। इसलिए काम के बदले जीवन में संतोष और सुख व्यवहार था। कमाई देखेंगे तो एक की ही आएगी और काम में योगदान की बात आएगी तो सब काम पर हैं। अतः जीवन में सुख सुविधा केवल पैसे से नहीं आकी जा सकती, बल्कि एक दूसरे के प्रति के कर्तव्यबोध से आकी जाएगी। श्रम का मूल्य औरों के लिए सुविधाओं की उपलब्धता करना भी होता है / या फिर अगले व्यक्ति की पूरी जिम्मेदारी लेना भी होता है। यह विचार/ यह चिंतन भारतीय है। ठीक इसी तरह गृहिणी और परिवार के बुजुर्ग, परिवार जन या अन्य रिश्तेदार, परिवार के अनेक कामों में हाथ बंटाते हैं। जी.डी.पी में उनका योगदान नहीं जोड़ा जा सकता, क्योकि वे परिवार में परिवार वालों से काम का मुआवजा नहीं लेते, कर्तव्यबोध से, अपनत्व की भावना से काम करते हैं। इसलिए पश्चिम का यह जो अर्थ आधारित विकास का मॉडल बना है और जिन बिंदुओं पर इस मॉडल के परिणाम आते हैं, वह भारतीय जीवन पद्धति से मेल नहीं खाता है। इसलिए हमें अपने मानक एवं अपना विकास का मॉडल तैयार करना होगा। हमारा मॉडल संतोष, आनंद और श्री को आंकने वाला होना चाहिए।

प्रधानमंत्री का देशवासियों को आवाहन

अभी अभी भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सब लोगों को आगे आने की घोषणा की है। ऐसे समय में हम सबकी जिम्मेदारी है, कि प्रधानमंत्री जी के इस आवाहन का हम सम्मान करें और भारत को आत्मनिर्भर बनाने के स्वप्न के साथ, अपने जीवन लक्ष्य को, कर्म को जोड़ दें। इसे सब में हमारे परिवार धुरी का केंद्रबिंदु हमारी मातृशक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण है।

ऐसे में इतिहास से सीख लेते हुए नई परिभाषाओं को ठीक से समझने की आवश्यकता है। इसलिए सबसे पहले आत्मनिर्भर इस शब्द को और उसके पीछे के भाव को ठीक से समझना पड़ेगा। अगर फिर से हम इसका अंग्रेजी में अनुवाद ‘सेल्फ रेलायंट इंडिया’ करेंगे तो इसका आकलन और प्रक्रिया संकुचत हो जाएगी।

आत्मनिर्भरता याने व्यक्ति को स्वयं की शक्ति के प्रकाश में अपनी पूरी क्षमता से अपने परिवार, समाज, राष्ट्र के विकास में अंत:मन से योगदान करना है। यह योगदान देने की प्रक्रिया का विचार करते समय निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करना होगा-

1. व्यक्ति को अपने अन्तर्निहित गुणों को जानकर उसका विकास करना होगा।

2. यह समाज मेरा है और मैं मेरे परिवार के साथ ही इस राष्ट्र की भी सम्पत्ति हूं ऐसी सोच रखनी होगी।

3. नवाचार और नवोन्मेष के लिए आवश्यक कला, कौशल और विद्याओं को ग्रहण करना होगा।

4. मेरे राष्ट्र की प्रगति के लिए, समाज के उत्थान के लिए सम्पादित गुणों का, कौशल का पूर्ण रूप से उपयोग करने की तैयारी।

ये सारी बातें भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल होंगी। जब यह आचार विचार व्यवहार ज्यादातर लोग अपनाएंगे और इस दिशा में अग्रसर होंगे तो आत्मनिर्भरता की कल्पना सपष्ट होती जाएगी और Vision in action हो जाएगा।

माता, पत्नी, भगिनी, सुता हम अलग अलग ये भाव भरकर

भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में, अपने परिवार के सभी सदस्यों को राष्ट्रीय भावों से जागृत करना, यह मातृशक्ति की अहम् भूमिका होंगी।

1ॠ इसके लिए अपने परिवार को, अपने बच्चों को गढ़ना, संस्कारित करना और अपने धर्म की, कर्तव्य की सूझबूझ रखने वाले अच्छे नागरिक समाज को देना यह दायित्व मां का होगा।

2. हम माताओं को अपने स्वयं के व्यवहार में भी राष्ट्र के प्रति अभिमान का भाव प्रगट करना होगा। स्वधर्म, स्व-संस्कृति, स्वभाषा, स्वाभिमान, स्वदेशी का आग्रह रखना होगा।

3. लड़कियां पढ़ाई में अपने सहपाठियों से तो महिलाएं अपने काम की जगह पर, मां परिवार में और हम सब बाहर समाज में जाते समय, जहां कहीं हम हो, हमारा काम, हमारी पढ़ाई, हमारा व्यवहार, हमारी सोच, ये सारी बातें, याने अपने स्तर हम अपने राष्ट्र की पूजा ही कर रही हैं, यह संस्कार दृढ़ करना होगा।

4. राष्ट्र के प्रति आत्मीयता, एकात्मता का भाव, राष्ट्रीय सम्पति की सुरक्षा, राष्ट्रीय एवं नैसर्गिक संसाधनों की मितव्ययता और दुरुपयोग न करने की प्रेरणा जगाएगा। जो हमारे अंदर एक जिम्मेदारी का भाव भर देगा और हमारी प्रत्येक कृति को एक उदात्त आचरण में बदलता जाएगा। हमरे आचरण में शील का उदय होगा।

5. अपने धर्म के प्रति सजग रहते हुए, अपने सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत अपनी अगली पीढ़ी को सौंपने का महत्वपूर्ण काम भी हमारी मातृशक्ति को करना होगा, और आत्मग्लानि में फंसी इस नई पीढ़ी को, इस पीड़ा से बाहर लाना होगा।

यह काम अगर महिला ठान ले, तो बड़ी आसानी से कर सकती है, क्योंकि वह तो सप्तशक्ति धारिणी होती है। समाज का भी यह दायित्व है कि वह महिला को यह अवसर दें कि वह अपने शक्ति को जान सके और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए उस शक्ति का उपयोग कर सके।

समाज की प्रेरणा बनो- हे मंगला नारायणी!

आज शिक्षा क्षेत्र में भी महिलाएं अग्रसर हो रही हैं और लड़कियां अच्छी शिक्षा पाकर और नौकरियों में भी उच्च उच्च पदों को विभूषित कर रही हैं। कई स्थानों पर और देश के निर्णय प्रक्रिया में भी भागीदार बन रही हैं। लेकिन केवल नौकरी को सार्थक मानकर आगे बढ़ने के साथ साथ कुछ महिलाओं को व्यावसायिक क्षेत्र की और भी मुड़ना चाहिए। या तो स्वयं का नया व्यवसाय शुरू करें और युवाओं को / लोगों के लिए रोजगार / नौकरी के अवसर उपलब्ध कराएं, या फिर अन्य लोगों के साथ व्यवसाय में भागीदार बनें। इससे वह अपने साथ काम करने वालों को अच्छे संस्कार, अच्छे विचार और अच्छे काम की प्रेरणा दे सकती हैं और भारत को आत्मनिर्भर बनाने में सरलता से योगदान कर सकती हैं। आज शिक्षा का अभाव यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितना की आत्मविस्मृति में पड़े समाज की दुर्दशा का प्रश्न है। इस स्थिति से समाज को बाहर लाने में मातृ शक्ति का योगदान महत्वपूर्ण रहेगा।

Take risk in life,
If you win you will Lead
If you lose you will Guide
– Swami Vivekananda

तो मातृशक्ति को अपनी भूमिका को सुनिश्चित करनी होगी। या तो नेतृत्व करें या तो फिर मार्गदर्शन करें, दोनों ही परिस्थितियों में जीत तो उसकी ही है। जीवन को डर के नहीं, तो खुले आसमान की चुनौतियों का स्वीकार करते हुए आगे बढ़ाना पड़ेगा। इस स्वीकार्यता की स्थिति बनाने में माता, पत्नी, भगिनी, सुता की भूमिका को भी गंभीरता से निभाना होगा। मंगला नारायणी मां सप्त शक्ति धारिणी!

नवीन पर्व में नवीन प्राण भरने होंगे। सबके विकास में, सबका साथ तो चाहिए ही लेकिन हम सब आपस में विश्वास की डोरी से बंधे हुए भी होने चाहिए। हमारे बीच मतभेद होंगे, होने भी चाहिए लेकिन, मनभेद कतई नहीं होने चाहिए। हमरे राष्ट्र की /देश की बात आएगी तो ‘राष्ट्रधर्म सर्वोप्रथम’ यह विचार दृढ़ होता हुआ समाज ही आत्मनिर्भर समाज कहलाएगा। यह काम किसी एक व्यक्ति का नहीं है। इसके लिए सबका योगदान, सबकी साझा सोच और संकल्प आवश्यक है। नवीन परिभाषाओं में आर्थिक मानक जी डी पी के साथ साथ, आनंद व संतुष्टि के मानक को भी प्रस्थापित करना है।

एक बीज के दो दल (स्त्री-पुरुष), यह एक परिवार कहलाता है। आओ इस परिवार सदस्यों की मजबूती से भारत के दोनों पांखों को बलशाली बनाए और उची उड़ान का एक नए आनंद सूचकांक के साथ आनंद लें और आत्मनिर्भर बनते भारत के पथ को और प्रशस्त करें।
————–

 

Leave a Reply