जनसंख्या वृद्धि पर सबके लिए समान नीति हो

समाज का एक तबका परिवार नियोजन अपनाए और दूसरा तबका न अपनाए तो विवेकहीन जनसंख्या वृद्धि हो जाती है। अतः सभी के लिए समान जनसंख्या नीति व उसके लिए कानून बनाने की आवश्यकता है। यह धर्म का मुद्दा नहीं है। कोई भी धर्म परिवार नियोजन के खिलाफ नहीं है; यहां तक कि इस्लाम भी।

आज पृथ्वी बढ़ती मानव आबादी के चलते अतिरिक्त बोझ का अनुभव कर रही है। यह संख्या इसी अनुपात में बढ़ती रही तो एक दिन आजीविका के संसाधन लुप्त होने के चरम पर पहुंच जाएंगे। नतीजतन इंसान, इंसान के ही अस्तित्व के लिए संकट बन जाएगा। यह स्थिति भारत समेत दुनिया के विभिन्न देशों में उत्पन्न न हो, इस हेतु कारगर उपायों की जरूरत है।

भारत में जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए परिवार नियोजन को तो आजादी के बाद से ही प्रोत्साहित किया जा रहा है, लेकिन ये उपाय धार्मिक वर्जनाओं को आधार बनाकर समान रूप से लागू नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए जनसंख्या वृद्धि दर पर अंकुश लगाने के लिए एक समान नीति को कानूनी रूप दिया जाना आवश्यक है। हालांकि यह कानून बनाया जाना आसान नहीं है। क्योंकि जब भी इस कानून के प्रारूप को संसद के पटल पर रखा जाएगा तब इसे कथित बुद्धिजीवी और उदारवादी धार्मिक रंग देने की पुरजोर कोशिश में लग जाएंगे। बावजूद देशहित में इस कानून को लाया जाना जरूरी है, जिससे प्रत्येक भारतीय नागरिक को आजीविका के उपाय हासिल करने में कठिनाई न हो।

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में आयोजित संघ के कार्यक्रम में सरसंघचालक मोहन भागवत ने दो टूक शब्दों में कहा था कि ‘जनसंख्या वृद्धि पर एक नीति बने, जिसमें दो बच्चों के कानून का प्रावधान हो। यह नीति सबके विचार व सहमति से बने। क्योंकि जनसंख्या एक समस्या भी है और एक साधन भी बन सकती है।‘ इस बयान को लेकर खूब हाय-तौबा मची थी, जबकि ऐसा नहीं है कि जनसंख्या नियंत्रण पर संघ ने अपनी मंशा पहली बार जताई हो। इसके पहले रांची में संघ की अखिल भारतीय कार्यकरिणी समिति में जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण किया गया था। जिसमें नीति को समान रूप से क्रियान्वित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट को लेकर चिंता जताई थी। इससे लगता है कि संघ और भाजपा सुनियोजित ढंग से अपने एजेंडे को अमल में लाने के लिए सक्रिय हैं।

भाजपा के घोषणा-पत्र में भी यह मुद्दा शामिल है। गोया, एक-एक कर मुद्दों का निराकरण करना पार्टी का दायित्व भी बनता है। अलबत्ता मुद्दाविहीन विपक्ष अब सरकार के उस हर फैसले का विरोध करने पर उतारू है, जो व्यापक देशहित में लिए जा रहे हैं। तीन तलाक, अनुच्छेद-370, 35-ए एवं सीएए का विरोध करके विपक्षी दल अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जब राम जन्म-भूमि का फैसला भगवान राम के पक्ष में दिया तब भी विपक्ष एवं वामपंथियों को यह फैसला अखरा था।

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ हिंदुओं की आबादी घटने पर कई बार चिंता जता चुका है। साथ ही हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह भी संघ के सहकार्यवाह देते रहे हैं। इन बयानों को अब तक हिंदू पक्षधरता के दायरे में समेटने की संकीर्ण मानसिकता जताई जाती रही है, जबकि इसे व्यापक दायरे में लेने की जरूरत है। कश्मीर, केरल समेत अन्य सीमांत प्रदेशों में बिगड़ते जनसंख्यात्मक अनुपात के दुष्परिणाम कुछ समय से प्रत्यक्ष रूप में देखने में आ रहे हैं। कश्मीर में पुश्तैनी धरती से 5 लाख हिंदुओं का विस्थापन, बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बदलते जनसंख्यात्मक घनत्व के चलते जब चाहे तब दंगे के हालात उत्पन्न हो जाते हैं। यही हालात पश्चिम बंगाल में देखने में आ रहे हैं। जबरिया धर्मांतरण के चलते पूर्वोत्तर और केरल राज्यों में बढ़ता ईसाई वर्चस्व ऐसी बड़ी वजह बन रही है, जो देश के मौजूदा नक्शे की शक्ल बदल सकती है? लिहाजा परिवार नियोजन के एकांगी उपायों को खारिज करते हुए आबादी नियंत्रण के उपायों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।

भारत में समग्र आबादी की बढ़ती दर बेलगाम है। 15हवीं जनगणना के निष्कर्ष से साबित हुआ है कि आबादी का घनत्व दक्षिण भारत की बजाए, उत्तर भारत में ज्यादा है। लैंगिक अनुपात भी लगातार बिगड़ रहा है। देश में 62 करोड़ 37 लाख पुरुष और 58 करोड़ 65 लाख महिलाएं हैं। शिशु लिगांनुपात की दृष्टि से प्रति हजार बालकों की तुलना में महज 912 बलिकाएं हैं। हालांकि इस जनगणना के सुखद परिणाम ये रहे हैं कि जनगणना की वृद्धि दर में 3.96 प्रतिशत की गिरावट आई है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.7 प्रतिशत रही, जबकि 2001 की जनगणना में यह 19.92 फीसदी थी। वहीं 2011 की जनगणना में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि दर 19.5 प्रतिशत रही, वहीं 2001 की जनगणना में यह वृद्धि 24.6 प्रतिशत थी। साफ है, मुस्लिमों में आबादी की दर हिंदुओं से अधिक है। विसंगति यह भी है कि पारसियों व ईसाइयों में भी जन्मदर घटी है। जबकि उच्च शिक्षित व उच्च आय वर्ग के हिंदू एक संतान पैदा करने तक सिमट गए हैं, जबकि वे तीन बच्चों के भरण-पोषण व उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने में सक्षम हैं। भविष्य में वे ऐसा करें तो समुदाय आधारित आबादियों के बीच संतुलन की उम्मीद की जा सकती है?

इस बाबत यहां असम के डॉ. इलियास अली के जागरूकता अभियान का जिक्र करना जरूरी है। डॉ. अली गांव-गांव जाकर मुसलमानों में अलख जगा रहे हैं कि इस्लाम एक ऐसा अनूठा धर्म है, जिसमें आबादी पर काबू पाने के तौर-तरीकों का ब्यौरा है। इसे ‘अजाल‘ कहा जाता है। इसी बिना पर मुस्लिम देश ईरान में परिवार नियोजन अपनाया जा रहा है। यही नहीं इसकी जबावदेही धर्म गुरुओं को सौंपी गई है। ये ईरानी दंपत्तियों के बीच कुरान की आयतों की सही व्याख्या कर लोगों को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित कर रहे हैं। डॉ. इलियास चिकित्सा महाविद्यालय गुवाहाटी में प्राघ्यापक हैं। वे प्रकृति से धार्मिक हैं। उनसे प्रभावित होकर असम सरकार ने उन्हें खासतौर से मुस्लिम बहुल इलाकों में परिवार नियोजन के क्षेत्र में जागरूकता लाने की कमान सौंपी है। डॉ. इलियास के इन संदेशों को पूरे देश में फैलाने की जरूरत है। जिससे भिन्न धर्मावलंबियों के बीच जनसंखयात्मक घनत्व औसत अनुपात में रहे।

आबादी नियंत्रण के परिप्रेक्ष्य में हम केरल राज्य द्धारा बनाए गए कानून ‘वूमेन कोड बिल-2011‘ को भी एक आदर्श उदाहरण मान सकते हैं। इस कानून का प्रारूप न्यायाधीश वी. आर. कृष्ण अय्यर की अघ्यक्षता वाली 12 सदस्ीय समिति ने तैयार किया था। इस कानून में प्रावधान है कि देश के किसी भी नगरिक को धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर परिवार नियोजन से बचने की सुविधा नहीं है। हालांकि दक्षिण भारत के राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर संतुलित रही है, क्योंकि इन राज्यों ने परिवार नियोजन को सुखी जीवन का आधार मान लिया है। बावजूद आबादी पर नियंत्रण के उपाय तभी सफल हो सकते हैं, जब सभी धर्मावलंबियों, समाजों, जातियों और वर्गों की उसमें सहभागीता हो। हमारे यहां परिवार नियोजन अपनाने में सबसे पीछे मुसलमान हैं। मुस्लिमों की बहुसंख्यक आबादी में आज भी यह भ्रम फैला हुआ है कि परिवार नियोजन इस्लाम के विरुद्ध है। कुरान इसकी अनुमति नहीं देता। ज्यादातर रूढ़िवादी और दकियानूसी धर्मगुरू मुस्लिमों को कुरान की आयतों की गलत व्याख्या कर गुमराह करते रहते हैं।

देश में पकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और बांग्लादेशी मुस्लिमों की अवैध घुसपैठ, अलगावादी हिंसा के साथ जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ने का काम भी कर रही है। कश्मीर से 1988 में आतंकी दहशत के चलते मूल कश्मीरियों के विस्थापन का सिलसिला जारी हुआ था। इन विस्थापितों में हिंदू, डोगरा, जैन, बौद्ध और सिख हैंं। उनके साथ धर्म व संप्रदाय के आधार पर ज्यादती हुई और निदान आज तक नहीं हुआ। हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा धारा-370 हटाए जाने के बाद घाटी में हालात तेजी से बदल रहे हैं। लिहाजा उम्मीद की जा रही है कि विस्थापितों के अपने पुराने रहवासों में जल्द पुनर्वास की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। जबकि इन्हें न्याय दिलाने की बात तो दूर, इनकी वापसी में जम्मू-कश्मीर की फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और गुलाम नबी आजाद सरकारों ने कभी रुचि ही नहीं ली थी। बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने कश्मीर स्थित इनकी जायदाद पर कब्जा कर लिया है। कश्मीर में यह स्थिति बिगड़ने के कारणों में एक कारण जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ना है। जिसका दृष्परिणाम लोग अपने ही देश के एक हिस्से से खदेड़े गए शरणार्थी के रूप में भोग रहे हैं।

इधर असम क्षेत्र में 4 करोड़ से भी ज्यादा बांग्लादेशियों ने नाजायज घुसपैठ कर यहां का जनसंख्यात्मक घनत्व बिग़ाड दिया है। नतीजतन यहां नगा, बोडो और असमिया उपराष्ट्रवाद विकसित हुआ। इसकी हिंसक अभिव्यक्ति अलगाववादी आंदोलनों के रूप में देखने में आती रहती है। 1991 की जनगणना के अनुसार कोकराझार जिले में 39.5 फीसदी बोडो आदिवासी थे और 10.5 फीसदी मुसलमान। किंतु 2011 की जनगणना के मुताबिक आज इस जिले में 30 फीसदी बोडो रह गए हैं, जबकि मुसलमानों की संख्या बढ़कर 25 फीसदी हो गई है। कोकराझार से ही सटा है, धुबरी शहर। धुबरी जिले में 12 फीसदी मुसलमान थे, लेकिन 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 98.25 फीसदी हो गई है। धुबरी अब भारत का सबसे घनी मुस्लिम आबादी वाला जिला बन गया है। 2001 की जनगणना के मुताबिक असम के नौगांव, बरपेटा, धुबरी, बोंगईगांव और करीमनगर जैसे नौ जिलों में मुस्लिम आबादी हिंदू आबादी से ज्यादा है। तय है घुसपैठ ने भी आबादी का घनत्व बिगाड़ने का काम किया है।
यहां गौरतलब है कि असम समेत समूचा पूर्वोत्तर क्षेत्र भारत से केवल 20 किलोमीटर चौड़े एक भूखण्ड से जुड़ा है। इन सात राज्यों को सात बहनें कहा जाता है। यह भूखण्ड भूटान, तिब्बत, म्यांमार और बांग्लादेश से घिरा है। इस पूरे क्षेत्र में ईसाई मिशनरियां सक्रिय हैंं, जो शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं के बहाने धर्मांतरण का काम भी कर रही हैं। इसी वजह से इस क्षेत्र का नगालैंड ऐसा राज्य है, जहां ईसाई आबादी बढ़कर 98 प्रतिशत के आंकड़े को छू गई है। बावजूद भारतीय ईसाई धर्मगुरू कह रहे हैं कि ईसाइयों की आबादी बीते ड़ेढ़ दशक में घटी है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। चर्चों में होने वाली प्रार्थना सभाओं में इस संदेश को प्रचारित किया जा रहा है। इस पर कोई हंगामा खड़ा नहीं होता है। जबकि संघ या भाजपा से जुड़ा कोई व्यक्ति आबादी नियंत्रण की वकालात करता है तो तत्काल हो-हल्ला शुरू हो जाता है। जबकि इस संवेदनशील मुद्दों को संजीदगी से लेने की जरूरत है।

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