नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक ऑफिसर्स की उपलब्धियां

1955 में स्थापित किए गए भारतीय मजदूर संघ की कामगार क्षेत्र में शानदार सफलता अर्जित की थी। कामगारों को सभी क्षेत्रों में प्रवेश दिया जा रहा था। दत्तोपंत कामगारों के मार्गदर्शक थे। कार्यकर्ताओं के समक्ष उनके सादे जीवन तथा उच्च विचार का आदर्श रहता था। आपातकाल के बाद जनता ने कांग्रेस को भारी पराजय का स्वाद चखाया और जनता दल को सत्ता पर काबिज किया, इसके कारण देश में राजनीतिक वातावरण पूरी तरह से बदल गया था। राजनीतिक, सामाजिक तथा कामगार कार्यकताओं में एक नई चेतना का संचार हुआ था। इस वातावरण का परिणाम राष्ट्रीय चिंतन करने वाले कामगारों पर भी काफी हद तक पड़ा, इससे भारतीय मजदूर संघ भी अछूता नहीं रहा। जिस क्षेत्र में काम नहीं था, उस क्षेत्र के कार्यकर्ता स्वयं भारतीय मजदूर संघ के कार्यालय में जाकर अपने क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ का काम शुरु हो, इसके लिए आग्रह करते थे, इनमें आर्थिक क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारियों का भी एक वर्ग शामिल था। भारतीय मजदूर संघ के कार्यालय में जाने वाले कामगारों में से कुछ लोगों का तो संगठन था, पर उन संगठनों पर मालिकाना हक भी था। इस कारण कामगारों पर अन्याय होता था। कामगारों की ओर से की जाने वाली शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। दूसरे शब्दों में कहें तो कामगारों पर अन्याय का सिलसिला जारी रहा। कामगारों पर अन्याय जारी रहने के कारण उनमें असंतोष का ज्वाला भड़क रही थी।

विशेषतः बैंकों के अधिकारियों की ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं था। अलग- अलग बैंकों के राष्ट्रीय विचार रखने वाले अधिकारी एक मंच पर आए और उन्होंने इस मसले पर चर्चा शुरु की। इस चर्चा में एन.ओ.बी.डब्ल्यू. के महामंत्री आबाजी पुराणिक ने प्रमुखता से भाग लिया। इस चर्चा में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के डी.बी. देशमुख, यूको बैंक के बग्गा, दीक्षित तिवारी, सिंडीकेंट बैंक के दादा कामत, कैनरा बैंक के शानबाग, देना बैंक के गर्गे समेत कई अधिकारियों ने शिरकत की। चर्चा में बैंक के अधिकारियों की स्थिति तथा उससे उबरने के मसले पर गंभीरता से चिंतन किया गया। समस्याओं के बारे में हुई चर्चा में दत्तोपंत का मार्गदर्शन मिला। चर्चा के बाद अधिकारियों ने निर्णय लिया कि भारतीय मजदूर संघ से संलग्न एक अखिल भारतीय स्तर की अधिकारियों का एक संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया गया और इस संगठन का नामकरण नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक आफिसर्स के रूप में किया गया। इस संगठन की स्थापना 10 अक्टूबर, 1977 को की गई। इस संगठन में यूको बैंक के सहायक महाप्रबंधक श्री बग्गा को अध्यक्ष तथा कैनरा बैंक के शानबाग की महामंत्री के रूप में नियुक्ति की गई। इसी के साथ अलग- अलग बैंकों के 10 अधिकारियों को लेकर कार्यसमिति का गठन किया गया। कई बैंकों में नोबो की शाखाएं खुलनी शुरु हो गई, इनमें पहला स्थान युको बैंक को मिला, उसके बाद कैनरा बैंक, सिडीकेट बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र को कार्यसमिति में स्थान दिया गया। अक्टूबर, 1978में इस संगठन का पहला अधिवेशन बंगलूर में हुआ और इसको बाद अधिकृत तौर पर कार्यकारिणी का गठन किया गया। इस कार्यकारिणी में यूको बैंक के बग्गा को अध्यक्ष बनाया गया, जबकि बैंक ऑफ महाराष्ट्र के शंकर प्रधान को महामंत्री, सिंडीकेट बैंक के दादा कामत तथा कैनरा बैंक के शानबाग को उपाध्यक्ष बनाया गया। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के डी.बी. देशमुख की डिप्टी जनरल के रुप में ताजपोशी की गई।

इस कार्यकारिणी के गठन के बाद कार्यकर्ता नई ताकत से काम में जुट गए। नई- नई बैंकों में यूनिट की स्थापना करने की दिशा में प्रयत्न शुरु किए गए। इन यूनिटों में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ मिरज, सेंट्रल बैंक, युनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया यो सभी बैकों एक वर्ष में यूनिट की स्थापना का लक्ष्य रखा गया। 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इसके बाद प्रत्येक बैंक में वेतन अलग- अलग था। इस वेतन को सभी बैंकों में एक स्केल में लाने की दिशा में प्रयत्न शुरु किए गए। वेतन में एकरुपता लाने के लिए पिल्लई समिति की स्थापना की गई। इस समिति की रिपोर्ट भी इसी वक्त आ गई थी। इसका अध्ययन करके उसमें की अच्छी बातों पर तुरंत अमल हो, इसके लिए नोबो ने एक अध्ययन दल का श्री बग्गा की अध्यक्षता में गठन किया। इस दल ने रिपोर्ट का अध्ययन कर अपनी समीक्षा तैयार की और उसे सभी यूनिटों में भेजा। पिल्लई समिति की सिफारिशों को अमल में लाने से पहले बैकिंग क्षेत्र में काम करने वाले तथा राष्ट्रीय स्तर के संगठनों से चर्चा करके उन्हें अमल में लाने की तैयारी की जा चुकी थी, पर चर्चा न करके उसे अमल में लाना संभव नहीं था। संगठनों को विश्वास में न लेकर अगर एक- तरफा तौर पर सिफारिशें अमल में लाई गई तो बैंकिंग क्षेत्र में क्षोभ पैदा होता और इसके बाद आंदोलन शुरु हो जाता, इसलिए आईबीए ने चर्चा के लिए बुलाया, इस चर्चा में नोब भी शामिल हुआ। स्थापना होकर एक साल बीतने से पहले ही बातचीत के लिए नोबो को बुलाना एक महत्वपूर्ण घटना कही जा रही थी। आई बी ए के साथ 3-4 बार चर्चा हुई और कुछ सिफारिशों के साथ पिल्लई आयोग की सिफारिशों को मान्यता प्रदान कर दी गई। उपरोक्त सभी बैंकों की यूनिटें अपनी-अपनी पद्धति से काम बढ़ा रहे थे। प्रत्येक जगह पुरानी मान्यता प्राप्त संगठन होने के कारण तथा व्यवस्थापन की हर बार के नियमोें के आधार पर नए संगठन से मुकाबले पुराना सूचना संगठन ही अच्छा है, इस कारण काम बढ़ाने के मद्देनजर अस्तित्व में आए संगठन की ओर से विरोध का स्वर मुखर किया जा रहा था तथा मान्यता प्राप्त संगठन के दबाव के कारण व्यवस्थापन का भी तीखा विरोध किया जा रहा था। इसमें सिर्फ बैंक ऑफ महाराष्ट्र का एकमात्र संगठन अपवाद रहा। 21 दिसंबर, 1977 में स्थापित किए गए संगठन ने 1979 ने व्यवस्थापन को बताया कि हम लोग बहुमत में हैैं और हमें मान्यता मिल गई है। इस वक्त जो संगठन अस्तित्व में था, उसके दबाव के कारण व्यवस्थापन मंडल भी कोई निर्णय नहीं ले रहा था, संगठन ने इस मामले में भारत सरकार के वित्त विभाग तथा इंडियन बैंक एसोसियेशन के व्यवस्थापन मंडल से काफी लंबा पत्र- व्यवहार किया। बैंक ऑफ महाराष्ट्र ऑफिसर्स आर्गनाइजेशन ने सभी को जानकारी दी कि किसी भी पद्धति से आप बहुमत की जांच करें, हम इसके लिए तैयार हैं।

1- गुप्त मतदान, रजिस्ट्रार ऑफ ट्रेड यूनियन को हर वर्ष सदस्य संख्या तथा आर्थिक विवरण प्रेषित करने वाले। 3- चेक ऑफनी, अगर आप को पसंद जो मार्ग पसंद हो, उस मार्ग से बहुमत की जांच करें तथा जो बहुमत में आए, उसे उसका मान दिया जाए? इसके लिए सन् 1979 से 1989 की कालावधि में संघर्ष हुआ, इसके बाद केंद्र सरकार के निर्देश पर गुप्त मतदान पद्धति बहुमत के बारे में जानकारी लेने का निर्णय लिया गया, लेकिन इसको पुराने संगठन के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन बोमो संगठन के रेटा तथा केंद्र सरकार के निर्देश के बाद अंततः मई, 1981 को गुप्त मतदान पद्धति से जांच करनी पड़ी।

बैंक ऑफ महाराष्ट्र में नोबो का बहुमत सिद्ध हुआ और इसके संगठन को मान्यता प्राप्त हुई। इसके बाद भी इस संगठन का वनवास खत्म नहीं हुआ। 1981 में की गई जांच का नतीजा 1985 में आाया। राष्ट्रीयकरण कानून के तहत प्रत्येक बैंक के बोर्ड पर एक सामान्य कर्मचारी अर्थात् कार्कुन सिपाही का प्रतिनिधि डायरेक्टर के तौर पर नियुक्त रहता है। लेकिन इसके लिए बहुमत प्राप्त संगठन को तीन नाम सरकार के पास भेजने पड़ते हैं। इनमें से एक की नियुक्ति सरकार रिजर्व बैंक की सलाह पर करती है। इस मामले में बैंक के ऑफिसर्स संगठन ने नाम तो भेजे, पर उसमें भी जांच 1981के अनुरुप ही की गई है, इस वजह से जांच पुरानी है, ऐसा आरोप लगा। केंद्र सरकार के सचिवालय में वित्त विभाग का वर्चस्व उस वक्त था, जो आज भी है। यहां के संगठन ने फिर से जांच के आदेश दिए, जिसे आदेश को पूरा- पूरा करते- करते सन् 1990 आ गया। इसके बाद फिर जांच, फिर कोर्ट- कचेहरी हुई, उसके बाद 2002 में एक बार फिर बोमो संगठन बहुमत में है, इसका खुलासा हो गया, इसके परिणामस्वरुप व्यवस्थापन के सामने कोई विकल्प शेष नहीं बचा। अततः सरकार के नियमों के अनुरुप बोमो संगठन के पदाधिकारियों के नाम डॉक्टरेट के लिए भेजने पड़े और केंद्र सरकार को उसे स्वीकार करना पड़ा। 1981 से 2002 के कालखंड यह इस संगठन के लिए संघर्ष का काल साबित हुआ, इसके बाद सन् 2002 से बैंक ऑफ महाराष्ट्र के बोर्ड पर बैंक ऑफ महाराष्ट्र ऑफिसर्स आर्गनाइजेशन के प्रतिनिधि बोर्ड मैम्बर के रूप में भारत सरकार को नियुक्त करना पड़ा था। वर्तमान में डॉ. सुनील देशपांडे अधिकारियों के प्रतिनिधि के रूप वहां कार्यरत हैं। 27 राष्ट्रीयकृत बैंकों में से सिर्फ बैंक ऑफ महाराष्ट्र का ही व्यक्ति बोमो के डायरेक्टर बोर्ड पर आसीन है। वर्तमान में नोंबो का कार्य 10 बैंकों में जारी है। आई. बी. ए. के टेबल पर बैकिंग क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए अन्य आफिसर्स यूनियनों की तरह ही बोमो भी विचार- विमर्श के लिए सदैव तत्पर रहती है, उसका काम लगातार बढ़ता ही जा रहा है, लेकिन वर्तमान में कामगार क्षेत्र में जो निराशा आई हुई है, उसका भी परिणाम बैकों से संबंद्ध यूनियनों पर हुआ है। राष्ट्रीय विचारधारा को ध्यान में रखते हुए नोबो नामक कामगार संगठन सभी समस्याओं का निराकरण कर आज काफी मजबूती के साथ बैंकिंग क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है। नोबो की इस सफलता का राज उसके समर्पित कार्यकर्ता हैं, यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
डॉ. एस. यू. देशपांडे
महासचिव, नोबो

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