समाचार, आशय तथा पथ्यपालन!

भाजपा के अांतरिक तनावोंं को लेकर समाचार सभी बड़े-बड़े समाचार पत्रों में अक्सर प्रकाशित होते रहते हैं। इन समाचारों का उद्गम कहाँ से हुआ, किसने कियो, उन्हें गढ़ने की मंशा क्या है?

इसका सही उत्तर किसी के पास नहीं होता। भाजपा के साथ- साथ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सहानुभूति का भाव रखने वाला बहुत बड़ा वर्ग वर्तमान में देश में है, वह ऐसे समाचारों को पड़ कर काफी बेचैन हो जाता है। 85 वर्ष के एक वृद्ध सज्जन ने फोन पर मुझ से बातें की। लगभग पंद्रह मिनट वे बोलते रहे, उनकी बातों का रुख यही था कि ये अपने सभी लोग नरेंद्र भाई मोदी के पीछे क्यों पड़े हैं? उन्हें बदनाम क्यों किया जा रहा है? अपने ही लोग उनके विरोध में खड़े क्यों रहे हैं? ऐसा करना कितना बुरा है, वह वे मुझे बता रहे थे।

भाजपा और साथ ही रा.स्व.संघ तथा संघ से संबंधित अन्य सभी संस्थाएँ, संगठन आदि के बारे में संचार माध्यमों का रुख कैसा बना हुआ है, यह तो सभी जानते ही हैं। जनतंत्र के अंतर्गत समाचार पत्रों का काम जनता को प्रशिक्षित करना है, लोगों को उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान कराना और लोगों की समस्याओं को मुखरित करना होता है। इन समाचार पत्रों के बारे में महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ नामक अपनी सुविख्यात पुस्तिका में कहते हैं, ‘‘जो (अंग्रेज) लोग वोटर (मतदाता) हैं, उनकी बाइबिल है, समाचार पत्र, वे समाचार पत्रों से अपनी धारणाएं बनाते हैं। समाचार पत्र अविश्वसनीय होते हैं, एक ही बात को विभिन्न समाचार पत्र अलग-अलग ढ़ंग से प्रस्तुत करते हैं। एक दल के समाचार पत्र जिस बात को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करेंगे, उसी को दूसरे दलों के समाचार पत्र फालतु बताएंगे। एक पत्रकार जिस अंग्रेज) नेता को ईमानदार कहेगा, उसी को कोई दूसरा झूठा बताएगा, ऐसे समाचार पत्र जिस देश में होंगे, उस देश की जनता की कैसी हालत होगी?’’

नितिन गडकरी की भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रुप में फिर से ताजपोशी की गई, इस मुद्दे पर समाचार पत्रों में जो समाचार प्रकाशित हुए, उनका सारांश था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने फिर से एक बार गडकरी जी को भाजपा के मत्थे मढ़ा है, यह बात लालकृष्ण अडवाणी और सुषमा स्वराज को नहीं भायी और ये दोनों नेता पार्टी की मुंबई में हुए अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहें, ये ही समाचार पत्र अब संघ की प्रचार यंत्रणा के बारे में लिखते हुए बड़ी आत्मीयता सेे बातें कर रहे हैं। मुंबई में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के समय एक घटना घटी। पार्टी के प्रधान सचिव संजय जोशी को त्यागपत्र देना पड़ा। उनके त्यागपत्र देने से ही नरेंद्र भाई मोदी कार्यकारिणी बैठक में पधारे, इसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि नरेंद्र भाई मोदी के कारण ही संजय जोशी का पद छोड़ना पड़ा।

समाचार पत्र अब लिख रहे हैं कि नरेंद्रभाई मोदी संघ के प्रचारक हैंं और संजय जोशी भी संघ के प्रचारक हैं। संघ ने उन दोनों को राजनीतिक क्षेत्र में भेजा है, उन दोनों की आपस मेंं पटती नहीं, यह अच्छी बात न तो भाजपा के लिए और न ही संघ के लिए। संचार माध्यम संघ की प्रचार तकनीक को लेकर ऐसे चिंतित हों, यह तो बड़ी आश्चर्य की बात है, इसके पीछे के पूतना मौसी के प्यार पर ध्यान देन् जरुरी है। विगत 6 जून के समाचार-पत्रों में नरेंद्र भाई मोदी और संजय जोशी के बारे में एक समाचार है। अहमदाबाद में एक पोस्टर लगाया गया है। इस पोस्टर पर नरेंद्र मोदी और संजय जोशी इन दोनों के छाया चित्र छपे हुए हैं और नीचे लिखा हुआ है, ‘‘छोटे मन से कोई

बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता’’ पोस्टर की छपाई किसने की, इसे लेकर कोई भी नाम पोस्टर के नीचे नहीं है। समाचार लिखने वाले ने उसका लेखन इस ढ़ंग से किया कि यह काम नरेंद्र र् मोदी के विरोधी गुट में से किसी का किया हो। नरेंद्र मोदी के विरोध में गुजरात भाजपा में असंतोष का कैसा बवाल उठा है? यह इस पोस्टर से दिखाई देता है, ऐसा इस समाचार में कहा गया है।

पिछले दस वर्षों से नरेंद्र मोदी के विरोध में प्रसार माध्यमों मुहिम छेड़ी है, उनके विरोध में बहुत सेे ‘मानवतावादी’(?) संगठन खड़े हुए हैं। कई बार ऐसे समाचार गढ़े जाते हैं कि नरेंद्र मोदी अब फँसने वाले हैं, गुजरात दंगे में से एक अभियुक्त वे बनेंगे, उनकी कड़ी जाँच की जाएगी, शायद उन्हें कारावास की सजा भी भुगतनी पड़ सकती है पर, पिछले दस बरसों में ऐसा कुछ भी हुआ नहीं। नरेंद्र मोदी का एक भी बाल बाँका हुआ नहीं, इसके विपरीत कुप्रचार जितना ज्यादा हो रहा है, उतने ही मोदी और ज्यादा बलशाली बनते जा रहे हैं, उनकी ख्याति बड़े पैमाने पर दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। बड़े अच्छे प्रशासक, भ्रष्टाचार मुक्त मुख्यमंत्री गुजरात का कमल का विकास कर दिखाने वाला मुख्यमंत्री, ऐसी उनकी छवि अच्छा बनती जा रही है। दंगोंं के फलस्वरूप मोदी बदनाम नहीं होते, उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं हो सकता, तो आखिर मोदी के ऊपर हमला करने का दूसरा मार्ग कौन सा, इसे लेकर मोदी जी के दुश्मनों ने सोचा है।

नरेंद्र मोदी संघ स्वयंसेवक हैं, इसमें उनकी शक्ति निहित है, वे संघ प्रचारक हैं इसमें है, वे जीवन मूल्यों का आदर करने वाले हैं, इसमें उनकी शक्ति निहित है, इसलिए इस शक्ति के ऊपर आक्रमण करने से मोदी को कमजोर बनाया जा सके, ऐसी यह रणनीति है। समाचार पत्र का संवाददाता या उन्हें प्रकाशित करने वाला सह संपादक ऐसी रणनीति तैयार नहीं कर सकता, उसकी उतनी बौद्धिक क्षमता नहीं होती। राजनीति करने वाले लोग ही ऐसी रणनीति का प्रयोग कर सकते हैं और ऐसी राजनीति में कांग्रेस बड़ी ही चालाक है। हाल ही का उसका उदाहरण माने बंगारू लक्ष्मण का, उनके द्वारा किया गया शिकार है। जैन हवाला कोड में लालकृष्ण अडवाणी को फंसाने के भी उन्होंने प्रयास किये, लेकिन वे उसमें विफल हुए। आज भी नरेंद्र मोदी और भाजपा के कट्टर विरोधियों ने नरेंद्र मोदी और संजय जोशी का पोस्टर छपवा कर गुजरात में प्रसारित किया न हो, इसका कहीं भरोसा नहीं हो सकता, इसलिए इस षड्यंत्र में हम फंसे या नहीं, इस पर हर एक को सोचना होगा, इसका दूसरा पक्ष यह होगा कि भाजपा नेताओं को चाहिए कि उन्हें लक्ष्य बनाने वे संचार माध्यमों को विषय उपलब्ध न करें। भाजपा के किसी मामूली से विषय को लेकर उसे काफी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने या लिखने के इरादे से अनगिनत लोग फिल्डिंग लगाकर बैठे हुए हैं। भाजपा में लालकृष्ण अडवाणी जैसे नेताओं को भी इस बात का ख्याल करना चाहिए। पार्टी में जो भी कुछ चल रहा है, उसके बारे में उन्होंने अपने ब्लॉग पर विगत 31 मई को नाराजगा भी व्यक्त की थी। उत्तर प्रदेश, झारखंड और कर्नाटक में जो कुछ हुआ, वह सही नहीं था, ऐसा उनका कहना था । बदनाम हो चुके बाबू सिंह कुशवाह और अंशुमन मिश्रा को पार्टी में शामिल करना अच्छा नहीं था, ऐसा भी उन्होंने कहा था। लालकृष्ण अडवाणी जी ने अपने ब्लॉक में जो उसमें जो लिखा, उसमें कुछ गलत नहीं था, उनके जैसे वरिष्ठ तथा पार्टी का सुचारू निर्माण करने वाले नेता का तो वह अधिकार होगा ही। केवल दो बातें गलत साबित हुई ऐसा लगता है। पहले यही कि वक्त सही न था और दूसरी ओर जिन बातों को लेकर पार्टी की बैठक में की जाए, उन्हें जाहिर तौर पर खुला क्या किया जाएं? एक कहावत तो हम जानते ही हैं- ‘घर

के कपड़े धोबी घाट पर धोये न जाएँ।’ नितिन गडकरी जी को अपने घर बुलाकर अडवाणी जी उन्हें, ये बातें ठोस भाषा में सुना सकते थे। वक्त सही न रहा के माने, 25-26 मई को पार्टी-कार्यकारिणी की बैठक हुई, 31 मई को भारत बंद था, पार्टी उसमें सम्मिलित हुई थी, ऐसे अवसर पर साधारण कार्यकर्ता के मन में कोई संभ्रम पैदा हो, ऐसा कुछ नेता को बोलना नहीं चाहिए। इस संकेत का पालन न होने से टाइम्स ऑफ इंडिया की इस पर की टिप्पणी कैसी उकसाने वाली है। देखिए तो-………संक्षेप में इसका आशय यही कि, नितिन गडकरी और नरेंद्र मोदी के बीच दिलजमाई होने से प्रधानमंत्री पद पर होने वाले अपने दावे को बेकार बनते देखना होगा, इससे अडवाणी जी दु:खी होकर वे अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को खुले आम प्रकट कर रहे हैं, केवल ऐसे काम के लिए नियुक्त पत्रकारिता ही लालकृष्ण अडवाणी जी पर ऐसा आरोप लगा सकती हैं। लालकृष्ण अडवाणी जी की मनोवृत्तियाँ ऐसा कहीं हीनकोटि की नहीं है। दुर्भाग्य से ‘आ बैल मुझे मार’ ऐसी अवस्था उन्हीं की पैदा हुई है।

नरेंद्र मोदी और संजय जोशी की आपस में बनती नहीं, यह तो दुनिया जानती है। मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के समय संजय जोशी को पार्टी का पद छोड़ने पर मजबूर करते हुए, हम खुद होकर विरोधियों के हाथ अपनी पिटाई के लिए हथियार सौंप रहे हैं, इसका भान सभी को रखना चाहिए था। बहुत सेे लोग जहाँ काम करते हैं, वहाँ मतभेद होना स्वाभाविक है। छोटे-छोटे परिवारों में भी पत्नी का एक मत होता है, तो पति का दूसरा होता है और लड़कों-बच्चों का कुछ तीसरा ही होता है। भाजपा जैसे बड़े संगठन में तो मतभेद येन- केन-प्रकारेण होते ही रहेंगे विभिन्न नेताओं की अलग-अलग महत्त्वाकांक्षाएँ होंगी। परिवार में जैसे परिवार के हितों को ध्यान में रखते निर्णय किया जाता है, वैसे ही संगठन में संगठन के हितों की प्राथमिकता, वैचारिक प्रतिबद्धता-निष्ठा सर्वोपरि, अन्य सभी विषयों को गौण मानना चाहिए। अब्राहाम लिंकन ने कहा था, ‘‘जिस घर में बेबनाव है, वह घर बना नहीं रह सकता।’’ भाजपा में बेबनाव है, ऐसा इसका कोई आशय नहीं। ‘बेबनाव है’ ऐसा जताने वाले समाचार प्रसारित किये जाते हैं, यह मामला अच्छा नहीं।

निर्णायक संघर्ष होने के लिए अभीे दो बरस बाकी हैं। ये वर्ष तो जैसे-तैसे बीत जाएँगे। यूपीए के शासनकाल में चीथड़ेे हर रोज हर जगह लटकाये जा रहे हैं। अब तो प्रधानमंत्री पर भी भ्रष्टाचार के आरोप थोपे जा रहे हैं। देश में परिवर्तन की हवा बह रही है, ऐसा पिछले लेख में मैंने कहा था। मानसून की हवा बहने में विलंब हुआ, तो भी परिवर्तन की इन हवाओं को विलंब् नहीं हुआ है। भाजपा से सभी लोगों का बहुत सारी आशाएँ हैं। भाजपा के बहुत से नेताओं ने भी परिवर्तन होकर रहेगा, इस बात को स्वीकारा किया है, उससे प्रधानमंत्री पद की होड़ में कितने ही लगे हुए हैं, ऐसे दौर में लालकृष्ण अडवाणी जैसे शीर्ष नेताओं को चाहिए कि सभी तरह के वाद-विवादों से दूर कर वे भाजपा में एक परिवार की तरह एक कुशल निर्णय व्यक्ति की भूमिका निभाएं । सभी नेताओं को आपस में जोड़कर रखने, पार्टी संगठन को एक ही दिशा में आगे ले जाने का कार्य आडवाणी जैसे वयोवृद्ध नेता और ज्ञानवृद्ध एवं तपस्वी कार्यकतर्ताओं को ही करना होगा।

आखिर में पू. बालासाहब देवरसजी के जीवन में से एक घटना का निर्देश कर इस लेख का समापन करना चाहूँगा। सन् 1978 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। केंद्रीय मंत्रिमंडल में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने । एक संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों ने बालासाहब देवरस जी से प्रश्न पूछा, ‘‘अखंड भारत के संबंध में आपकी धारणा क्या है?’’ देवसर ने उत्तर दिया, ‘‘पाकिस्तान, बांग्लादेश, सिलोन आदि देशों को मिलाकर सार्क संगठन बना है। इन सभी देशों को आर्थिक, सुरक्षा संबंधित प्रश्नों के संदर्भ में एकत्रित होना चाहिए, ऐसा हमें लगता है।’’ देवरस कहना चाहते थे कि हर एक देश का अपना अलग व्यक्तित्व बना रहेगा, केवल समान समस्याओं को लेकर उन्हें एकत्रित होना चाहिए। कुछ कार्यकर्ता बालासाहब का मंतव्य समझ न पाए। ‘‘क्या हमने अखंड भारत की संकल्पना का कहीं त्याग किया है?’’ ऐसा उन्होंने देवरस से पूछा, इस पर उन्होंने कहा ‘‘अजी! अगर मैं पत्रकार को जवाब देता कि, पाकिस्तान, बांग्लादेश का भारत में विलय होना चाहिए, यह भू-भाग एक है, तो पत्रकार उठकर सीधे अटलबिहारी के पास पहुँचे और उनसे सवाल किया , ‘‘आपके सर संघचालक ऐसा कुछ कह रहे हैं, आप क्या कहना चाहते हैं?’’ क्या विदेश् मंत्री मुझ जैसा जवाब दे सकता है? अपने कार्यकर्ता के सामने जिससे उलझन पैदा हो, ऐसा कुछ वक्तव्य देना नहीं होना चाहिए।’’ बालासाहब के ऐसे व्यवहार का सभी को हमेशा ध्यान रखना जरूरी है।
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