सामंती सोच से विस्मृत एक महान शख्सियत

लाल बहादुर शास्त्री के बहाने हमें उस सामंती सोच का विश्लेषण करने की भी आवश्यकता है जिसने कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक पार्टी को एक परिवार का बंधक बनाकर भारतीय लोकतंत्र का भी गहरा नुकसान किया है। क्या आज कांग्रेस में उस कांग्रेस का अक्स हमें भूल से भी नजर आता है जो औपनिवेशिक मुक्ति का सबसे सशक्त मंच था?

बचपन में एक गीत स्कूलों में गुनगुनाते थे ताशकंद भारत का लाल ले गया..तब इसका आशय बहुत ही सीमित अर्थों में समझ आता था। आज जब इस विषय पर सोचते हैं तो पता चलता है कि भारतीय लोकतंत्र में संत मनीषा के शख्स के साथ हमारी संसदीय राजनीति औऱ शासन व्यवस्था ने कितना अन्याय किया। निष्पक्ष इतिहासकार जब स्वतंत्र भारत का विशद मूल्यांकन करेंगे तो लाल बहादुर शास्त्री का महानतम व्यक्तित्व और विभूतिकल्प कृतित्व उन्हें प्रचलित इतिहास औऱ मूल्यांकन का सामंती चरित्र उजागर करता दिखेगा। तथ्य यह है कि भारत के इस पूर्व प्रधानमंत्री को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज किया जाता रहा है ताकि इस देश के स्वाभाविक शासक नेहरू परिवार की प्रतिष्ठा का प्रायोजित फलक कमजोर न होने पाए। आखिर शास्त्री जी को कांग्रेस कैसे उनके मौलिक चरित्र औऱ प्रभाव के साथ स्वीकार कर सकती है, क्योंकि स्वयं जवाहर लाल नेहरू के विचार उनके लिए बेहद अप्रिय रहे हैं।

नेहरू के सहयोगी बतौर वित्त मंत्री काम कर चुके टीटीके ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में बताया था कि नेहरू जी ने उनसे कहा था कि यह देखने में छोटा लगने वाला आदमी (शास्त्री) बहुत ही धूर्त है और कभी भी पीठ में छुरा घोंप सकता है। पत्रकार और शास्त्री जी के सूचना अधिकारी रहे कुलदीप नैयर की किताब ‘एक जिंदगी काफी नहीं’ में भी इस बात का खुलासा है कि नेहरू जी अपने उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा जी को प्राथमिकता पर रखते थे।

जाहिर है बाद के वर्षों में जो कांग्रेस नेहरू परिवार के रहमोकरम केवल चुनाव लड़ने का प्लेटफार्म बनकर रह गई है, उसकी वैचारिकी या दर्शन में शास्त्री जैसे तपोनिष्ठ नेताओं को जगह मिल भी कैसे सकती है? आज इस पार्टी की पूरी सरंचना में केवल दस जनपथ ही दिखाई देता है। इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजरने के बाबजूद कांग्रेस अपने अस्तित्व से लड़ रही है तो इसका बुनियादी कारण अपनी विरासत के महानतम लोगों को भूला देने की परंपरा भी है। शास्त्री, सुभाषचंद्र, सरदार पटेल, कामराज, मोरारजी देसाई, जेपी, अतुल घोष जैसे चरित्र अगर कांग्रेस के संगठन और सत्ता में आज पूज्य नहीं हैं तो केवल नेहरू गांधी परिवार की स्वामी भक्ति पर टिकी कांग्रेसी संस्कृति ही इसके पीछे एकमात्र कारक है।

वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के साथ

शास्त्री जी सही मायनों में जनता के पीएम थे जिसे उन्होंने मात्र 18 महीने के कार्यकाल में साबित कर दिया था। जिस दौर में वह पीएम बने उस समय राष्ट्र अनाज के संकट से जूझ रहा था। उन्होंने हरित क्रांति औऱ श्वेत क्रांति की नींव रखी। लाहौर तक सेना के टैंक खड़े कर पाकिस्तान का गला दबाने का अद्भुत पराक्रम करने वाले शास्त्री जी को कांग्रेस कभी उनके राष्ट्रीय योगदान के अनुरूप अपनी विरासत में जगह नहीं देती है तो इसके पीछे एक सुनियोजित रणनीति भी है। जिस कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व आज नेशनल हेरॉल्ड जैसे केसों में फंसा है वहीं शास्त्री जी निजी शुचिता औऱ ईमानदारी के शिखर पर स्थापित नजर आते हैं। बहुत कम लोगों को ही यह पता है कि देश में पूर्व प्रधानमंत्री के परिजनों को पेंशन का प्रावधान शास्त्री जी की पत्नी की खराब आर्थिक स्थिति के कारण ही अस्तित्व में आया था। कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है कि शास्त्री जी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी से मिलने के बाद मैंने पाया कि परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। यह बात जब पीएम को बताई तो उन्होंने पेंशन का प्रावधान शुरू किया। जिस समय शास्त्री जी कामराज प्लान के बाद बतौर सांसद दिल्ली में रहते थे तब उनके घर मे अक्सर अंधेरा रहा करता था क्योंकि उनके पास बिजली बिल जमा करने के लिए पैसे नहीं होते थे। सांसद के रूप में मिलने वाला वेतन कम होता था कि उनके परिवार में भोजन के साथ एक दाल या सब्जी ही बनाई जाती थी। कुलदीप नैयर ने शास्त्री जी को आर्थिक मदद के लिए अखबारों में लेख लिखवाना आरंभ कराया। हिंदुस्तान टाइम्स, हिन्दू, अमृत बाजार पत्रिका में उनके लेख के बदले पांच सौ रुपए मिला करते थे। वे अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने 5 हजार का कर्ज लेकर एक कार खरीदी थी जिसकी किश्तें उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने चुकाई। बकौल अनिल शास्त्री जिस स्कूल में हम लोग पढ़ने जाते थे वहां गृह मंत्रालय के अफसरों के बच्चे भी आते थे लेकिन हम तांगे से औऱ वे कार से स्कूल आते थे जबकि अधिकांश गृह मंत्री के नाते उनके पिता के अधीनस्थ अफसर थे। शास्त्री जी की सादगी इतनी मौलिक थी की जब वे ताशकंद में पाकिस्तान से समझौते के लिए पहुंचे तो उनके पास गर्म कोट तक नहीं था। सोवियत संघ के तत्कालीन पीएम अलेक्सी कोशिगिन ने जब एक गर्म कोट शास्त्री जी को उपहार में दिया तो वह कोट उन्होंने अपने साथ गए एक कर्मचारी को दे दिया। ताशकन्द समझौता कराने वाले सोवियत पीएम कोशिगिन का कहना था कि हम घोषित कम्युनिस्ट हैं लेकिन शास्त्री सुपर कम्युनिस्ट हैं। जाहिर है शास्त्री जी संत परम्परा वाले राजनीतिक थे। वे सच्चे अर्थों में गांधी के उत्तराधिकारी थे। जबकि नेहरू जी के बारे में स्पष्ट है कि उनके कपड़े तक लन्दन से धुलकर आया करते थे।

आज के समग्र राजनीतिक नेतृत्व में सादगी का यह अक्स कहीं नजर नहीं आता है। सवाल यह है कि क्या देश को शास्त्री जी पर गर्व नहीं करना चाहिए? क्या कांग्रेस पार्टी का यह दायित्व नहीं था कि वह नेहरू परिवार के इतर शास्त्री जैसे महान नेताओं की निधि को एक प्रेरणादायक विरासत के रूप में देश की पीढ़ियों के सामने रखती। क्या जिस अखिल भारतीय स्वरूप में कांग्रेस ने 60 साल तक सत्ता का आनन्द लिया है वह राजेन्द्र बाबू, राधाकृष्णन, शास्त्री, सरदार, कामराज, जेपी, देसाई, औऱ इनसे पहले आजादी की लड़ाई में शरीक देशभक्त सेनानियों के पराक्रम ओैर त्याग से खड़ी नहीं हुई है?

लाल बहादुर शास्त्री के बहाने हमें उस सामंती सोच का विश्लेषण करने की भी आवश्यकता है जिसने इस ऐतिहासिक पार्टी को एक परिवार का बंधक बनाकर भारतीय लोकतंत्र का भी गहरा नुकसान किया है। क्या आज कांग्रेस में उस कांग्रेस का अक्स हमें भूल से भी नजर आता है जो औपनिवेशिक मुक्ति का सबसे सशक्त मंच था। 60 साल तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने एक परिवार को स्वाभाविक शासक परिवार बनाकर क्या महान सेनानियों का अपमान नहीं किया है? आज वैचारिकी के किस पायदान पर कांग्रेस कैडर शास्त्री जी जैसे महान संतों को याद करना चाहता है? क्या सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि शास्त्री जी के परिजन कांग्रेस टिकट बांटने की सांगठनिक हैसियत में नहीं है। इस हैसियत में तो 1966 के बाद से कोई आया भी नहीं है। जाहिर है शास्त्री जी के महानतम तत्व मौजूदा कांग्रेस में इसलिए स्वीकार ही नहीं हो सकते हैं क्योंकि वे एक परिवार की नकली महानता की आभा को फीका कर सकते हैं। तथ्य तो यह है कि नेहरू जी ने अपने जीवित रहते ही कांग्रेस और सत्ता को फैमिली प्राइवेट लिमिटेड बना दिया था। नेहरू हर उस शख्स को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठित नहीं होना देना चाहते थे जो भविष्य में उन्हें या उनकी बेटी को खतरा बने। राजेन्द्र बाबू जैसे तपोनिष्ठ शख्स की अंतिम यात्रा में जाने से राधाकृष्णन औऱ राज्यपाल सम्पूर्णानंद को रोकने की प्रामाणिक घटनाओं से नेहरू जी के इरादों की झलक मिलती थी। इस परम्परा को प्रणव मुखर्जी, नरसिंहराव, केसरी के साथ घटित घटनाओं के आलोक में समझने की कोशिश आसानी से सामंती मानसिकता को खोलकर रखती है।

एक अहम प्रश्न आज शास्त्री जी के बहाने विमर्श के केंद्र में आना चाहिए- वह यह कि राष्ट्र के कुछ बिरले नेताओं की रहस्यमयी मौतों पर 60 साल तक सत्ता की चुप्पी क्या षड्यंत्र की ओर इशारा करती है। मसलन कांग्रेस में बागी राह अखितयार करने वाले सुभाष चन्द्र बोस, इंदिरा जी की दावेदारी को दरकिनार कर पीएम बनने वाले शास्त्री जी, सत्ता को लोकतांत्रिक चुनौती की जमीन निर्मित करने वाले दीनदयाल उपाध्याय औऱ डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं की असमय मौतें आज भी रहस्यमयी क्यों बनी हुई हैं?

क्या एक अभिनेता की मौत पर देश का सुप्रीम कोर्ट और तीन शीर्ष जांच एजेंसी दिन रात एक कर सकती है तो शास्त्री जी की रहस्यमयी मौत पर देश को सच जानने का हक क्यों नहीं होना चाहिए? जैसा कि उनके पुत्र और पूर्व सांसद सुनील शास्त्री कहते हैं कि उनके पिता की मौत एक षड्यंत्र थी। सवाल यह है कि क्या शास्त्री जी तत्समय घरेलू राजनीति में किसी के वर्चस्व को खतरा थे? या उनकी मौत में सोवियत संघ पाकिस्तान की भी कोई भूमिका थी? क्या कांग्रेस अपने इस महान नेता की रहस्यमयी मौत पर जांच की मांग का साहस दिखा सकती है?
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