धरोहर- रुक्मिणी-श्रीकृष्ण से जुड़ा मालिनी थान

अरुणांचल में रुक्मिणी-कृष्ण से संबंधित एक अद्भूत मालिनी थान है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पहाड़ी रास्ते पर एक पहाड़ी टीले पर छोटा सा रुक्मिणी मंदिर है। रुक्मिणी- हरण कर द्वारका जाते समय वे दोनों यहां रुके थे। पौराणिक आख्यानों को अगर कोई किंवदंती कहकर बातों में उड़ाता है, तो उसका क्या किया जाए? क्या सैकड़ों वर्षों से लोगों के मन में पलते आ रहे लोक विश्वास को भी नकार दिया जाए? भौगोलिक दृष्टि से भी यदि विचार किया जाए तो तब भी भीष्मक नगर से द्वारका तक का रास्ता ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे से ही जाता है। इस तरह श्रीकृष्ण ने पूर्व और पश्चिम के संबंध उसी तरह स्थापित किए जिस तरह भगवान राम ने उत्तर को दक्षिण से जोड़ा था।

मालिनी थान मंदिर में देवी की श्याम पाषाण की प्रतिमा है। मूर्ति की आंखें सोने से बनी हैं। कृष्ण-पाषाण की बनी यह मूर्ति बहुत पुरानी है। लोगों के मन में इस मंदिर के प्रति बहुत आस्था है। भगवान श्रीकृष्ण जब रुक्मिणी को लेकर यहां आए थे, तब देवी मालिन के रूप में उन्हें दर्शन दिए थे तथा पुष्प मालाएं लेकर दोनों का गंधर्व विवाह करवाया गया। असम में आठवीं शताब्दी के करीब रचे गए कालिका पुराण में कामरूप के कामाख्या धाम और इससे पूर्व में स्थित तीर्थक्षेत्रों की चर्चा की गई है, इसमें वर्णित कथा के अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर लेकर भगवान शंकर विक्षिप्तितावस्था में धूम रहे थे और विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंगों को काटकर गिरा रहे थे। इसी क्रम में सती का सिर इसी मालिनी थान से थोड़ी ही दूर स्थित आकाशीगंगा में गिरा था। यहां झरते झरने में स्नान करने अनके श्रद्धालु आते हैं। तांत्रिक विद्या में विश्वास रखने वालों के लिए मालिनी थान भी अन्य शक्तिपीठों की तरह एक साधना पीठ है।

इस जगह का पता लगाने सर्वप्रथम बींसवीं शताब्दी में पासीघाट के सहायक राजनीतिक अधिकारी डब्ल्यू. एच. कालवर्ट यहां आए। यहां एक साधु रहते थे। कालवर्ट ने रास्ता बनाने के नाम पर यहां की कई मूर्तियों को तुड़वाया। साधु की एक नहीं चली। कालवर्ट को डर था कि यहां की जनजातियों में इन मूर्तियों के प्रति रही प्राचीन आस्था फिर न जाग जाए। वह समय था सन् 1920-21 का जब देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। यह आंदोलन मालिनी थान के सीमांत पर असम के गांवों तक भी फैला था। उसे यह भी भय सता रहा था कि इन मूर्तियों को देखने के बहाने आने वाली जनजातियों के माध्यम से असहयोग आंदोलन की हवा पहाड़ों पर भी न पहुंच जाए।

कालवर्ट के बाद दूसरे अधिकारी डी.बरुवा यहां आए। फिर तीसरे व्यक्ति अबोर हिल्स के राजनीतिक अधिकारी बी. भुईयां पहुंचे। उन्हें यहां टूटा हुआ शिवलिंग, तीन टुकड़ों में भग्न दसभूजा देवी की मूर्ति के अतिरिक्त पत्थरों पर की गई कारीगरी के अदभुत नमूने मिले। इसके साथ ही मिश्मियों द्वारा प्रयुक्त की जानी वाली अफीम पीने की पाईप, चांदी के कर्णफूल आदि भी मिले। इसका यह निष्कर्ष निकाला गया कि कभी यहां तीर्थस्थान रहा है. यहां मिश्मी जनजाति के लोग तीर्थयात्रा करने आते थे। इसके बाद सन् 1965-1966 में अरुणाचंल अनुसंधान विभाग के उपनिदेशक एल.एन.चक्रवर्ती ने शिवलिंग तथा मंदिर का पता लगाया। सन् 1970में चक्रवर्ती ने यहां चार महीने रहकर उत्खनन कराया तो नीचे दबा मंदिर साफ दिखने लगा। इसी क्रम में अनेक देवी-देवताओं, नृत्य-मुद्रा में यक्षिणियां, वृषभ, सिंह, हाथी जैसे जानवरों की मूर्तियों के साथ अन्याय आकृतियां और पाषाण मिले, उन पाषाणों पर रकम-रकम की सजावटी कलात्मक कृतियां उकेरी हुई मिली हैं। पुरातत्व विभाग को जैसे जमीन में दबा अनमोल खजाना ही हाथ लग गया। फिर सन् 1971 में 12 मार्च से 14 जून तक मंदिर के दक्षिण-पूर्व में स्थित एक टीले की खुदाई करने पर गणेश मंदिर मिला। इसके साथ ही पाषाण-प्रतिमाओं में ऐरावत पर बैठे, चूहे के साथ गणेश, मयूर पर सवार कार्तिकेय, सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ सूर्य तथा दो हाथियों पर चार सिंहों की आकृतियां मिलीं। इनके अलावा दुर्गा, वीणाधारिणी सरस्वती, नंदी आदि की अनेक मूर्तियां मिलीं। इन सभी मूर्तियों में मां दुर्गा की मूर्ति विशिष्ट है, इसीलिए इसे देवी पीठ मानकर उसी प्रकार पूजा होती है, जैसे कामाख्या पीठ में होती है। इसी परिसर में तराशे हुए पत्थरों से बड़े ही कलात्मक रूप में सजा आठ फीट ऊंचा मंदिर है यहां और उत्खनन किया जाए तो अन्य मंदिरों के मिलने की पूरी संभावना है। इन भग्नावशेषों से यह स्पष्ट होता है कि भारत विभिन्न संस्कृतियों का संगम स्थल है। यहां कोई शिलालेख न मिलने के कारण इसका काल निर्धारण करने में कठिनाई हो रही है। फिर भी इस निर्माण को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के आस-पास का माना गया है। उस काल में इस क्षेत्र के सुतिया वंश का राज्य होने के कारण उन्हीं के द्वारा इनका निर्माण हुआ होगा, ऐसा अनुमान लगाया गया है। मालिनी थान में हर वर्ष अकाल बोधन, दुर्गा-पूजा होती है, जो आश्विन में होने वाले शारदीय पूजा से अलग है। इस मंदिर को देखकर कोई भी मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता। काले पत्थरों से बने इस मंदिर के स्थापत्य की उत्तरी भारत के स्थापत्य से समानता लगती है।

बारहवीं शताब्दी के इस मंदिर एवं राजा भीष्मक के राजप्रासाद के अवशेष सन् 1971 में जंगल काटकर मिट्टी की खुदाई करके निकाले गए। यहां ग्रेनाइट पत्थरों से निर्मित सप्त अश्वरथ आरूढ़ सूर्य का मंदिर, शिवलिंग, ऐरावत पर बैठे इंद्र, मयूरासन पर आसीन कार्तिकेय के अतिरिक्त भी शतादिक देवी- देवताओं की मूर्तियां, नृत्यरत यक्षिणी, मिथुन मूर्तियां समेत अन्य कई प्रकार की मूर्तियां मिली हैं। वैसे मूल मंदिर के नीचे का भाग सही- सलामत है किन्तु यहां मिली मूर्तियां टूटी हुई हैं।

अति प्राचीन सुतिया जाति सदिया के आस-पास और उत्तर लखमीपुर जिले के अलावा ब्रह्पुत्र के दक्षिण पार शिवसागर तक फैली हुई थी। सुतिया जाति अपने को भीष्मक वंशज मानती है। ये लोग प्रारंभ से ही हिंदू धर्मावलंबी रहे हैं। ज्यादातर शाक्तधर्मी हैं और अपनी कुलदेवी ताम्रेश्वरी देवी को ‘केंचाई खाती गोसानी’ कहते हैं। भीष्मक के पश्चात इनकी राजसत्ता सैकड़ों साल छिन्न-भिन्न रही। सुतिया लोग अपने छोटे राज्य से कटे हुए थे। सर्वप्रथम तेरहवीं शताब्दी में इनके शक्तिशाली राजा वीरपाल का नाम प्रकाश में आता है, जिसका राज्य सुवणशिरी नदी से लेकर सोनागिरी पर्वत तक था।

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