टीम अण्णा इतिहास से सबक ले

संसद द्वारा लोकपाल बिल पारित कराने के लिए टीम अण्णा ने देश भर में लंबा आंदोलन चलाया। अण्णा हजारे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन किया तो, ‘मैं अण्णा हजारे हूँ’ की टोपी सिर पर रखकर देश भर में उनके समर्थन में धरना, प्रदर्शन, सभा और रैली का आयोजन किया गया। छोटे-छोटे शहरों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके संघर्ष को भारी समर्थन मिला। देश की जनता इस समय भ्रष्टाचार से त्रस्त है। मंहगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है। आम जनता की आवाज को सुनने वाला कोई नहीं है। इसलिए जब अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंका, तो सबको लगने लगा कि आम जनता को मुखर करने वाला नेतृत्व मिल गया। पूरा देश उनके आंदोलन के समर्थन में उठ खड़ा हुआ। जनता का रोष और भारी दबाव देखकर कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने आनन-फानन में संसद में लोकपाल बिल पेश कर दिया। दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में लंबी बहस के पश्चात यह संकल्प व्यक्त किया गया कि सभी दल मिलकर एक मजबूत लोकपाल लाएंगे, इसके पश्चात अण्णा हजारे ने अपना अनशन खत्म कर दिया और उनके सहयोगी, जिन्हें ‘टीम अण्णा’ कहा जाता है, विजयी मुद्रा में दिल्ली से वापस लौटे। किन्तु कुछ समय के उपरान्त ही टीम अण्णा को यह लगने लगा कि उसके साथ कांग्रेस ने छल किया है, तो एक बार फिर वे भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गये। इस बार टीम अण्णा ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि कोई भी राजनीतिक दल उनके आंदोलन से न जुड़े। इसका यह परिणाम हुआ कि वे कांग्रेस के बुने जाल में फंसकर सभी गैर कांग्रेसी दलों की सहानुभूति खो बैठे। इस बार एक भी राजनीतिक दल उनके समर्थन में नहीं आया। परिणाम नहां हुआ, जो कांग्रेस चाहती थी। टीम अण्णा का भ्रष्टाचार के विरुद्ध देशव्यापी जनांदोलन असमय कालकवलित हो गया। टीम अण्णा के प्रमुख सदस्यों-प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास, सिसौदिया ने संपूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के उद्देश्य को लेकर राजनीतिक पार्टी बनाने और चुनाव के जरिये सत्ता परिवर्तन करने की घोषणा कर दी। टीम अण्णा की प्रमुख सदस्या किरण बेदी ने नयी पार्टी को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाया, वहीं अण्णा हजारे ने किसी राजनीतिक दल में शामिल होने से साफ मना कर दिया।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। स्वतंत्रता के उपरांत हमने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया, जिसमें गुप्त मतदान के द्वारा अपने प्रतिनिधि को चुनकर हम संसद में भेजते हैं। देश के सभी नागरिकों को वयस्क मताधिकार संविधान द्वारा प्रदान किया गया है। यदि देश की जनता को लगता है कि उनके द्वारा चुनी गयी सरकार उनकी अपेक्षा के अनुरूप शासन नहीं चला रही है, तो अगले चुनाव में वे उसे बदल देते हैं। ऐसा देश में कई बार हो चुका है। व्यवस्था परिवर्तन के लिए टीम अण्णा ने जो नया मार्ग चुना है, लोकतांत्रिक देश में वही सबसे उत्तम और सही रास्ता है, इसके लिए टीम अण्णा को राजनीतिक दल का गठन करना होगा। देश भर में कार्यकर्ता खड़ा करना होगा। एक सुदृढ़ संगठनात्मक ढ़ांचा बनाना होगा। लोक जागरण के लिए देश भर का दौरा करके अपनी बात जनता को बताना होगा। साथ ही देश को यह भी समझाना होगा कि उनकी पार्टी का गठन क्यों किया गया और यह पार्टी ‘देश की अन्य राजनीतिक पार्टियों से किस तरह से अलग है। देश में ऐसे प्रयोग पहले भी कई लोगों द्वारा किये जा चुके हैं। जनता के आक्रोश को हवा देने के कई प्रयास क्षेत्रीय स्तर पर भी हुए हैं। व्यवस्था परिवर्तन के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश में सुविख्यात दार्शनिक-संयासी स्वामी करपात्री जी ने ‘रामराज्य परिषद’ का गठन किया था, वे और उनके अनुयायियों ने प्रदेश भर में भ्रमण किया। जनता को प्रवचन-भाषण के माध्यम से अपनी बात से अवगत कराया। वे जहाँ भी जाते, उनका स्वागत करने के लिये बहुत लोग इकट्ठा होते। रामराज्य परिषद ने वहाँ के विधानसभा चुनाव में पूरे राज्य में उम्मीदवार उतारा। किंतु दुर्भाग्य से उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। उनका अभियान असफल हो गया। स्वामी करपात्री जी की तरह एक और संयांसी बाबा जयगुरुदेव ने भी ‘सतयुग आयेगा’ के घोष के साथ सात्विक प्रवृत्तियों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए चुनाव का सहारा लिया। उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह- ‘उगता सूरज’ देश के नये भविष्य की ओर संकेत करता था। बाबा जयगुरुदेव को भी राजनीति में वह स्थान नहीं मिल सका, जो उन्हें अध्यात्म और धार्मिक क्षेत्र में मिला था।

ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों की पैंतरेबाजी और छल-छद्म भरी राजनीति से साधु-संन्यासी ही दु:खी होकर व्यवस्था परिवर्तन की बागडौर सम्हालने के लिए आगे आये हों, बल्कि फिल्मी कलाकारों ने भी अपनी ओर से काफी प्रयत्न किया है। हालांकि राजनेताओं और फिल्मी कलाकारों की हमेशा से मित्रता रही है, किन्तु आज की तरह पहले फिल्मी कलाकार न तो राजनीतिक पार्टियों का प्रचार करते थे और न उनके प्रत्याशी के रूप में चुनाव ही लड़ते थे। यद्यपि दक्षिण भारत के कुछ नेता, जैसे-आंध्र प्रदेश में एन. टी. रामाराव, तमिलनाडु में एम. जी. रामचंद्रन, करुणानिधि और जयललिता इत्यादि सक्रिय राजनीति में आये और मुख्यमंत्री भी बने।

हिन्दी फिल्म के कलाकारों के राजनीति से जुड़ाव की शुरूआत आपातकाल के पश्चात अस्सी के दशक से मानी जाती है। कुछ फिल्मी कलाकारों ने आपातकाल का जबरदस्त विरोध किया। देव आनन्द उनमें सबसे आगे थे। आपातकाल समाप्त होने पर उन्होंने संजीव कुमार सहित फिल्म उद्योग से कुछ और दिग्गज लोगों के साथ राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी। ‘नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया’ (एनपीआई) नाम से बनी उस पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष देव आनन्द चुने गये। 1977 में जब उस नयी राजनीतिक पार्टी की पहली सभा मुंबई के शिवाजी पार्क में हुयी तो आम लोगों के साथ उस समय की प्रमुख पार्टियां भी वहां जुटी भीड़ को देखकर हैरान थीं। उस रैली में देव आनन्द, संजीव कुमार, निर्माता एफ. सी. मेहरा, जी. पी. सिप्पी शामिल थे। वह पहला मौका था जब फिल्मी हस्तियां राजनीति की बात कर रही थीं और उन्हें सुनने के लिए भारी भीड़ जमा हुयी थी। वे सभी राजनीति के अनुभवी नहीं थे, इसलिए जब लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार तय करने की बात आयी, तो वे कुछ नहीं कर सके। उसके कुछ महीनों बाद ही देव आनन्द ने वह पार्टी भंग कर दी। और फिर एनपीआई से जुड़े लोगों ने कभी राजनीति में कदम नहीं रखा।

टीम अण्णा एक मजबूत इरादे और स्पष्ट उद्देश्य के साथ राजनीति में उतर रही है। अभी उसे बहुत सारे आधारभूत कार्य करने हैं। 2014 के चुनाव तक सारी तैयारी करनी है। चुनाव की जो वर्तमान स्थिति बनी है, उसमें अकूत धनबल और बाहुबल चलता है। ये दोनों ही टीम अण्णा के लिए जुटाना कठिन होगा। यह सर्व ज्ञात है कि चुनाव में भ्रष्टाचार से उत्पन्न धन का खूब उपयोग होता है। चुनावी भ्रष्टाचार को रोकने की उनकी क्या रणनीति होगी, यह भी तय करना होगा। रा. स्व. संघ के पूर्व सरसंघचालक पू. के. एस. सुदर्शनजी ने कहा था, कि राजनीति वारांगता के समान होती है। टीम अण्णा वारांगनाओं से बचते हुये किस तरह से व्यवस्था परिवर्तन करते हैं, यह भी देखने की बात होगी।

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