हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
जैनों के तीर्थस्थान – मंदिर शिल्पकला के सुंदर नमूने

जैनों के तीर्थस्थान – मंदिर शिल्पकला के सुंदर नमूने

by शांतिलाल भंडारी
in नवम्बर- २०१२, सामाजिक
0

जैन दर्शन निकीथकवादी है। उसके फलस्वरुप तीर्थस्थानों का इस दर्शन में अर्थ कुछ भिन्न है। शाश्वत तीर्थ, महातीर्थ दावं अतिशय तीर्थ इस प्रकार उनके तीर्थस्थानों का वर्गीकरण किया जाता है। गिरनार, पावापुरी, सम्मेत शिखर, अयोध्या, वाराणसी, हस्तिनापूर, मथुरा, राणकपूर, आबू ये कुछ प्रमुख तीर्थस्थान हैं। जैन मंदिरों की शिल्पकला, जैन गुफाएं ये सभी विश्वविख्यात शिल्पकला के मनोरम स्थान हैं।

‘तीर्थ’ इस शब्द का लौकिक अर्थ पवित्र स्थल अथवा पुण्य स्थल, जहां श्रद्धाळू लोग धार्मिक भाव से, परम भक्तिभाव से पूजन, अर्चन, यजन, स्नान, तर्पण आदि क्रियाएं करते हैं। भक्तगण तीर्थस्थानों में पापक्षालन होता है, पुण्य उपार्जन होता है ऐसी आंतरिक धारणा से इन स्थानों की यात्रा करते हैं। आम तौर पर वैदिक हिंदुओं की ऐसी मानसिकता है तथा सदियों से चलती आई परिपाटी भी है। इस पृष्ठभूमि पर वैदिक हिंदुओं ने तीर्थों के तीन प्रकारों की कल्पना की है तथा उन्हें उनकी मान्यता है। ऋषि, ब्राम्हणश्रेष्ठ आदि को वे ‘जंगम तीर्थ’ मानते हैं और उनके लिए आदरभाव धारण करते हैं। ऐसे ‘जंगम तीर्थ’, यह पहला प्रकार। दूसरे प्रकार में सत्य, दया, क्षमा, शांति, दान, ज्ञान, धैर्य आदि गुणविशेषों का समावेश होकर ऐसे तीर्थों की ‘मानस तीर्थ’ ऐसी संज्ञा है। अब तीर्थों का तीसरा प्रकार माने काशी, प्रयाग, गया, मथुरा, रामेश्वर आदि स्थान। ये तीसरे प्रकार के तीर्थ ‘स्थावर तीर्थ’ कहलाते हैं।

जैन विचार धारा में उनकी ‘बिरीश्वरबादी’ धारणा से समर्पण, तर्पण इस प्रकार के परमेश्वरसापेक्ष गौणत्व को कुछ स्थान न होने से, जैन दर्शन में तीर्थ का कुछ भिन्न अर्थ है। जैन दर्शन ने धर्मशील, गुणशील, चारित्र्यशील व्यक्तियों को तीर्थ माना है। इसमें केवल ऋषिमुनियों का तथा पंडित शिरोमणी व्यक्तियों का समावेश नहीं होता। जैन विचारधारा के अनुसार मानव समाज में घर-बारवाले गृहस्थ-गृहिणी तथा संन्यस्त साधु-साधी दोसे चार प्रकार के लोग होते हैं। इस विचारधारा में चातुर्वण्य व्यवस्था को कोई स्थान नहीं है। जो गृहस्थ घरगिरस्ती में रहते तीर्थंकर प्रणीत धर्माचरण करते हैं, वे ‘श्रावक’ और परिवार में से दोसी गृहिणियों के लिए ‘श्राविका’ ऐसी संज्ञा दी हैं। अब घरगिरस्ती से पूर्णत: मुक्त होकर जो निरंतर ध्यान धारणा एवं धर्म साधना करते हैं, वे ‘श्रमण’ माने साधू और ‘श्रमणी’ माने साधी। दोसे श्रमण-श्रमणी आत्मकल्याण हेतु संयम धारण कर साधना करते हैं और साथ ही गृहस्थधर्मियों का प्रबोधन भी करते हैं। तीर्थंकरों ने श्रावक, श्राविका, श्रमण, श्रमणी ऐसे चार प्रकारों में समाज की रचना कर ऐसे इस चतुर्विध समाज को वे ‘धर्मसंघ’ कहते हैं। विशेष रुपसे जिन तीर्थकारों ने चारित्र्यसंपन्न समाज की इस तरह चतुर्विध रचना की, उन तीर्थंकारों ने ऐसे चतुर्विध धर्मसंघ को ‘तीर्थ’ यह संज्ञा केवल दी नहीं, तो उस रुप में गौरवान्वित किया। चतुर्विध समाज की इस प्रकार रचना जो करते हैं, धर्मसंघ के रुप में संगठन बनाते हैं, ‘तीर्थ’ के रुप में खडा जो करते हैं, वे तो सहज ही ‘तीर्थंकर’ कहकर पहचाने जाते हैं।

जैन दर्शन ईश्वर कर्तृत्व मानता नहीं। इसके माने यही कि विश्व का कोई ‘कर्ता’ होता है, ‘धर्ता’ होता है, ‘हर्ता’ होता है, इसे जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। विश्व एवं विश्वरचना स्वाभाविक होकर श्वि में से सभी गतिविधियां स्वाभाविक होती हैं, प्राकृतिक होती हैं। वे किसी तथाकथित ‘नियंता’ के नियंत्रण में तथा इच्छानुसार चल रहा है, इसे जैन दर्शन में मान्यता नहीं है। उसके फलस्वरुप विश्व का निर्माता, पालनकर्ता, हरणकर्ता इस प्रकार ‘ईश्वरी’ अथवा परमेश्वरी रुप तीर्थकारों की कल्पना में नहीं होते। चरित्र्यशील समाज का संघटन करना, ऐसे समाज का शील एवं गुणवर्धन करना, तथा ऐसा सत्पवृत्त समाज समस्त प्राणिमात्र का भला करने में निरंतर जागरुक एवं कार्यप्रवण रहे। इस उद्देश्य से उसका प्रबोधन करना, इस प्रकार की सामाजभिमुख विधायक भूमिकाएं तीर्थंकरों ने निभाई हैं। ईश्वरी कर्तृत्व तथा उसके फलस्वरुप मानवी परावलंबित्व से इन्कार करनेवाले तीर्थंकारों का ऐसा यह कर्तृत्व अनोखा ही। जनकल्याण में से आत्मकल्याण तथा आत्मकल्याण द्वारा जनकल्याण इस प्रकार का एक-दूसरे के लिए उपकारक स्वरुप तीर्थंकारों की कार्यप्रणाली एवं विचारप्रणाली में से प्रतीत होता है। उन्होंने स्वसामर्थ्य बल दिया, जिससे वे ‘ईश्वर’ या ‘परमेश्वर’ नहीं, परंतु ‘परमात्मा’ के रुप में गौरवान्वित हुए।

ऐसे लोककल्याणकारी तथा आत्मकल्याणी तीर्थंकारों के मंदिरों का स्थान-स्थान पर निर्माण किया गया। वह उनके अद्वितीय लोककल्याणकारी जीवनकार्य के कारण। ऐसे मंदिरों में तीर्थंकारों का पूजन होताहै और वैसा वह किया जाए, ऐसा माना जाता है। वह पूजन उनसे कुछ ‘सांसारिक लाभ’ हो इस हेतु नहीं किया जाता। इनसे मांगकर कुछ भी मिलता नहीं, तो जो कुछ भी हम चाहते हैं, वह अपने कर्तृत्व के बल प्राप्त करना होता है। तो उनका पूजन-अर्चन आखिर क्यों, उन्हें अभिषेक क्यों किया जाए, ऐसे प्रश्न उसी क्रम में सामने आते हैं और इन प्रश्नों के उत्तर ‘तव गुण लभ्ये’ इस सूत्रधारा मिलते हैं।

‘आपमें जो गुण हैं, वे मुझ में आ जाएं’ इस उद्देश्य से, इस श्रद्धा से और निष्ठा से तीर्थंकारों का पूजन-अर्चन होता है। किसी भक्त का अपना श्रद्धास्थान उसके अंतर्मन में हृदय में होताहै, तो किसी का मंदिर के गर्भागार में!

तीर्थंकर चतुर्विध समाज के मार्गदर्शक होते हैं, इसलिए उनका जीवन और उनकी जीवनकथाएं निरंतर चिरस्मरणीय, प्रात:स्मरणीय होती हैं। तीर्थंकारों के जीवन में से पांच प्रमुख घटनाएं इस प्रकार स्फूर्तिप्रद एवं प्रेरणादायी होती हैं, इसलिए वे कल्याणकारी होती हैं और ये पांच घटनाएं ‘पंच कल्याणक’ इस शीर्षक से पहचानी जाती हैं। ‘च्यवन’ माने उस जीवात्मा का माता के गर्भ-ग-ह में अवतरण-पदार्पण। तीर्थंकारों की माता की होनेवाली गर्भधारणा यह ‘च्यवन’ इस संज्ञा से पहचानी जाती है। उस पश्चात उनका ‘जन्म’। जन्म के उपरान्त संसार में से अनेक घटनाओं से व्यथित होकर ये जीवात्मा गृहस्थ जीवन से मुंह मोडते हैं तता सर्वस्व का त्याग कर ये ‘निर्ग्रंथ’ बनते हैं। इसके हेतु मुनिजीवन की दीक्षा स्वीकार की जाती है। मुनि-जीवन के क्रम में ध्यान-धारणा, तपस्या करते कितने ही ‘परिवह’ माने कष्ट यातनाएं सहने पर उन्हें सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। यह ज्ञान उच्चतम श्रेणी का, निर्विकल्प एवनं शुद्ध पवित्र होता है, जो ‘केवल-ज्ञान’ संज्ञा से पहचाना जाता है। सर्वज्ञान की ऐसी प्राप्ति से आत्मकल्याण साध्य होता है। इस कोटि के आत्मज्ञानी, सर्वज्ञानी अर्थात केवलज्ञानी महात्मा तब जाकर समाजाभिमुख होकर चारित्र्यवर्धन हेतु समाज की समुचित रचना करते हैं और ऐसे सुसंगठित समाज के, प्रबोधन के, जनकल्याण कार्य में वे निरंतर रत रहते हैं। जीवन का अंतिम समय निकट होने का अनुमान होने पर उनके चरण ऐसे स्थान की ओर मुडते हैं कि, जहां निरामय वायुमंडल में तथा प्रगाढ़ शांति में असीम तृप्ति की अनुभूति पाते वे अंतिम सांस लेते हैं। ऐसे समय उन्हें स्वशरीर का, उस शरीर का पोषण करनेवाले अन्न-जल का भान नहीं होता। अनशन करेत हुए, ये महात्मा ‘मोक्ष’ गमन करते हैं।

तो अब च्यवन, जन्म, दीक्षाग्रहणष केवलज्ञान संपादन एवं मोक्षगमन ये हुईं तीर्थंकारों के जीवन में से पांच प्रमुख घटनाएं। ये पांच घटनाएं उनके जीवन का कल्याण करती हैं तथा अन्य सभी को कल्याण का मार्ग दिखाते हैं, इसलिए ये घटनाएं ‘कल्याण’ इस संज्ञा से पहचानी जाती हैं। च्यवन कल्याणक, जन्म कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक ऐसे ये पांच कल्याणक ‘पंच कल्याणक’ कहलाते हैं।

भगवान ऋषभ देवों से भगवान महावीर तथा जो चोबीस तीर्थंकर हुए, उनके कल्याणक स्थान स्थान पर बने हैं। भगवान ऋशभदेव का महानिर्वाण हिमालय के परिसर में से ‘अष्टापद पर्वत’ पर हुआ। बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी का महानिर्वाण प्राचीन काल के मगध देश में से याने वर्तमान बिहार राज्य के भागलपूर जिले में ‘चम्पापुरी’ इस नगरी में हुआ था। बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ (अरिष्टनेमी) इनका महानिर्वाण सौराष्ट्र-गुजरात में से गिरनार पर्वत पर हुआ था तथा चोबीसवें चरम तीर्थंकर, भगवान महावीर का महानिर्वाण प्राचीन काल के मगध देश में से याने वर्तमान बिहार राज्य के नालंदा जिले में ‘पावापुरी’ नगरी में हुआ था। श्री अजितनाथ, श्री संभवनाथ, श्री अभिवंदन, श्री सुमतिनाथ, श्री पद्मप्रभ, श्री सुपार्श्वनाथ, श्री चंद्रप्पभ, श्री सुविधिनाथ, श्री शीतलनाथ, श्री श्रेयासनाथ, श्री विमलनाथ, श्री अनंतनाथ, श्री धर्मनाथ, श्री शांतीनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री गरनाथ, श्री मल्लिनाथ, श्री मुनिसुक्रतस्वामी, श्री नमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ इन बीस तीर्थंकारों का महानिर्वाण बिहार राज्य में से गिरडिह जिले में ‘श्री सम्मेत शिखरजी’ इस गिरि पर याने ‘श्री पारसनाथ’ इस पहाड पर हुआ था। ये सभी स्थान तीर्थस्थान के रुप में मान्यतापाप्त हैं।

जिन तीर्थंकारों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष इन पांच कल्याणकों में से एक या एक से अधिक ‘कल्याणक’ जिस स्थान पर हुए होते हैं, ऐसे तीर्थस्थान ‘शाश्वत तीर्थस्थान’ नाम से पहचाने जाते हैं। अधिक तीर्थंकारों का ‘चरणस्पर्श’ हुआ होता है, ऐसे स्थान केवल तीर्थस्थान नहीं तो, ‘शाश्वत तीर्थस्थान’ माने जाते हैं। तीर्थंकारों के कल्याणक अथवा चरणस्पर्श इनमें से किसीका भी लाभ न होते हुए भी कुछ तीर्थस्थान ऐसे हैं, जो ‘महातीर्थ’ नाम से परिचित हैं। कुछ तीर्थ ‘अतिशय तीर्थ’ इस संज्ञा से परिचित हैं। जिस स्थान पर मुनियों का साधुओं का निर्वाण होता है, ऐसे स्थान ‘अतिशय तीर्थों’ में गिने गए हैं। सौ साल पुराने तीर्थों की गणना भी ‘अतिशय तीर्थों’ में की जाती है। ऐसे विभिन्न तीर्थों के परिसर में से चारों र के गांवों में होनेवाले मंदिरों को ‘पंचतीर्थी’ कहा जाता है। शाश्वत तीर्थ, महातीर्थ, अतिशय तीर्थ आदि स्थानों की यात्रा जब की जाती है, तब ऐसे ‘पंचतीर्थी’ के माने कमसे कम पांच स्थानों के मंदिरों में से तीर्थंकर प्रतिमाओं के दर्शण किये जाएं ऐसी पुरानी परिपारी है।

प्राचीन ‘विनीता नगरी’ अर्थात ‘अयोध्या’ यह जैसे इश्वाकु कुल के मुलपुरुष एवं प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव इनकी च्यवन तथा जन्मकल्याणक भूमि, वैसे ही वह दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ, चौथे तीर्थंकर श्री अभिनंदन, पांचवे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ, चौदहवे तीर्थंकर श्री अनंतनाथ इन इश्वाकु कुल में से तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान इन पहले चार कल्याणकों की पावनभूमि। उत्तर कोशल की राजधानी ‘श्रावस्ती’ यह तीसरे तीर्थंकर श्री संभवनाथ इनके पहले चार कल्याणकों की मंगलभूमि। मगध देश में से वत्स देश की राजधानी ‘कौशाम्बी’ यह छठे तीर्थंकर श्री पद्प्रभ इनके ऐसे ही चार कल्याणकों की पवित्र भूमि। इस कौशाम्बी राजनगरी में भगवान सहावीर के एक सौ पचहत्तर दिनों के परिदीर्घ अनशन का पारणा अंग देश की राजकन्या चंदनबाला इसके हांथों संपन्न हुआ था। ‘भदैनी’ (वाराणसी) यह सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ इनके च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान इन कल्याणकों की शुभभूमि। श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ इन सोलहवे, सत्रहवे और अठारहवें तीर्थकारों के चारो कल्याण कों की भूमि ‘हस्तिनापुर’ नगरी। उत्तर प्रदेश की इस हस्तिनापुर नगरी में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के ‘वर्षी’ तयका उद्यापन उनका पोता राजा श्रेयांसकुमार के हांथों हुआ था। ‘मिथिला’ नगरी यह उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ के चार कल्याणकों की भूमि। ‘राजगृही’ (बिहार) यह रामायण कालीन बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी, इनके चार कल्याणकों की भूमि यही ‘मिथिला’ नगरी। वारणसी जिले में ‘चंद्रपुरी’। यह आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभ की, मुंगेर जिले में काकंदी यह नौवें तीर्थंकर, श्री सुविधिनाथ की, ‘भद्दिलपुर’ यह दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ की, सिंहपुरी (जिला वारणसी) यह ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ की, भागलपूर जिले में से ‘चम्पापुरी’ यह बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य की। उत्तर प्रदेश के फरिदाबाद जिले में से ‘कम्पिलाजी’ यह तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ की, फैजाबाद जिले में से ‘रत्नपुरी’ यह पंद्रह वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ की इस प्रकार तीर्थंकरों की ये सभी कल्याणभूमि। बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ की च्यवन, जन्म ऐसी दीक्षा कल्याणक भूमि सौरीपुर (शौर्यपुर) तो केवलज्ञान और दीक्षाभूमि गिरनार।थ तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ की च्यवन, जन्म दीक्षा और केवल ज्ञानभूमि वाराणसी नगरी में से भेलपुर। इनका महानिर्वाण ‘शिखरजी’ पर हुआ। चोबीस तीर्थकारों में से श्री वासुपूज्य स्वामी इन एक ही तीर्थंकर के पांचों कल्याणक एक ही स्थान में माने ‘चम्पापुरी’ नगरी में हुए।
चोबीस वें तीर्थंकर भगवान महावाीर इनका च्यवन, जन्म एवं दीक्षा कल्याणक स्थान ‘क्षत्रियकुंड 2 कुंडग्राम’ (वैशाली) उनका केवलज्ञान कल्याणक स्थान-बिहार राज्य के गिरडिह जिले में ऋतुवालुका नदी तटपर रहा जृंभियग्राम तथा उनका मोक्षश्र कल्याणक स्थान बिहार राज्य के नालंदा जिले में से ‘पावापुरी’।

ऐसी इन घटनाओं के माध्यम से विनीता नगरी माने अयोध्या, श्रावस्ती, कौशाम्बी, भदैनी (वाराणसी), चंद्रपुरी, काकंदी, भद्दिलपुर, सिंहपुरी, चम्पापुरी, कम्पिलाजी, रत्नपुरी, हस्तिनापुर, मिथिला, राजगृही सौरीपुर, भेळुपुर (वाराणसी), क्षत्रियकुंड (वैशाली), गिरनार, जृंभियग्राम सम्मेत शिखरजी, पावापुरी, शत्रुंजय, पाटलीपुत्र, गुणयाजी, मथुरा आदि सभी नगरियां शाश्वत तीर्थों में गिनी जाती हैं।

राज कपूर, आबू (देलवाडा), धूलदेव केशरियाजी (राजस्थान) श्री शंखेश्वर, कुंभारियाजी, पाटण, तारंगा (गुजरात), भद्रेश्वर (कच्छ) आदि राजस्थान-गुजरात में से तीर्थस्थान माने ‘महातीर्थ’। अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, भद्रावती (भांदकजी), कुंभोजगिरी (बाहुबली) आदि महाराष्ट्र के, कुलपाक जी यह आंध्रप्रदेश का आदि सभी तीर्थ ‘अतिशय तीर्थ’ हैं। पांडवों का मोक्षगमन कुंभोजगिरि से (बाहुबली) हुआ, इसलिए वह ‘अतिशय तीर्थ’ माना गया।

इस प्रकार के इन पांच सौ से अधिक तीर्थों में बहुसंख्य तीर्थंकरों के चरणस्पर्श से पुनीत हुआ तथा ‘मंदिरों’ की नगरी के रुप में स्थातिप्राप्त श्री शत्रंजय गिरी, चोबूीस में से बीस तीर्थकरों का जहां महानिर्वाण हुआ, वह भी सम्मेत शिखरजी, नेमिनाथ पर्वत के रुप में परिचित ‘गिरनार’, भगवान महावीर की महानिर्वाणभूमि ‘श्रीपावापुरी’, भगवान श्रीकृष्ण ने अपने चचेरे भाई अष्टिनेमी (नेमिनाथ) की सहायतासे जिस जगह जरासंध के ऊपर विजय प्राप्त की और इस विजय के उपलक्ष्य में उसने जहां पांच जन्य शंखनाद किया वह गुजरात का ‘श्री शंखेश्वर’ आदि सभी तीर्थों को सभी जैनियों के सोते-जागते और मन में सम्मान का तथा अतीव श्रद्धा का स्थान है। ‘राणकपूर की वास्तुकला और आबू की शिल्पकला’ इस प्रवाद द्वारा राणकपूर तथा आबू-देलवाडा इन तीर्थोंको भी महता प्राप्त हुई है। यहां के जैन मंदिर ये सभी शिल्पकला के अजर-अमर आभूषण ही तो हैं।

भारत में से कई जगहों की जैन गुफाएं अपनी विशेषताओं के कारण अमर बनी हुई हैं। ऐसी लगभग बारह सौ गुफाओं में से मराठवाडा में उस्मानाबाद जिले में से तरेगाव की धारा शिव गुफाएं और साथ ही उस्मानाबाद जिले में से अणदूर, परभणी जिले में जिंतूर के पास की निमगिरि, औरंगाबाद जिले में से अजंठा, वेरुल की गुफाएं विश्वविख्यात हैं। मराठवाडा में से राणी सावरगाव यह भी विख्यात है। मुंबई-आग्रा महामार्ग पर नाशिक परिसर में ‘पांडव लेणी’, लोणावला के नजदीक काली की गुफाएं, मनमाड के नजदीक अंकाई-टंकाई की गुफाएं ख्यातनाम हैं। सातपुडा की बगल में नर्मदा तट पर तोरणमाल यह तो गुफाओं में से (तोरण) बन्दनवार ही मानो तथा कर्नाटक में श्रवण बेलगोल की महाकाय गोरटेश्वर बाहुबली की मूर्ति तो आसमान के तारे तोड लाने वाला शिल्प है। कितने सारे नाम गिने जा सकते हैं। ये गुफाएं जैसी नयनमनोहर हैं, वैसे ही तीर्थस्थानों में होनेवाले मनभावन मंदिर भी दृष्टिसुख दिलाने वाले।

कुछ इनेगिने तीर्थस्थानों का ही यहां संक्षेप में निर्देश किया है। श्वेतांबर एवं दिगंबर जैनों के कितने ही तीर्थ भारत में हैं, जिनमें से गुजरात और राजस्थान राज्यो में उनकी संख्या बड़ी है। इनमें से हर एक तीर्थस्थान का अपना-अपना इतिहास होकर ऐसे लक्षणीय तीर्थ केवल दर्शनीय न होकर वंदनीय होने से, इन स्थानों की यात्रा कमसे कम एक बार बिना भूले की जाए ऐसी जैनों की सरळ-मडिग श्रद्धा होती है। बहुत से बिगर जैन श्रद्धाळू भी ऐसे तीर्थस्थानों की। श्रद्धापूर्वक यात्रा करते हैं, यह तथ्य और करने योग्य है।

 

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: basadiheritagehindi vivekhindi vivek magazinejainjain templestemple architecture

शांतिलाल भंडारी

Next Post
पौराणकिता से गूंथा पूर्वोत्तर भारत

पौराणकिता से गूंथा पूर्वोत्तर भारत

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0