अमरीका पाकिस्तान के बनते बिगड़ते रिश्ते

अखंड भारत से दो अलग भागों में बंटा हुआ पाकिस्तान 14 अगस्त 1947 में स्वतंत्र देश बना। उस समय, दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात, अमरीका तथा सोवियत संघ राज्य इन दोनों महासत्ताओं से अलिप्तता रखने वाले कुछ राष्ट्रों का नेतृत्व करने वालों में भारत से पं. जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के अध्यक्ष गमाल अब्देल नासर तथा साम्यवादी एशिया की चंगुल से दूर रहने वाले युगोस्लाविया के जोसेफ टीटो ये त्रिमूर्ति थे। पहले तो पाकिस्तान इस गुट में सम्मिलित हुआ, किंतु तख्ता पलटने के बाद जब ंमार्शल अयूब खान ने सत्ता पर कब्जा किया तो पाकिस्तान में थोड़ी लोकतंत्र की उम्मीद बढ़ी, वह भी समाप्त हो गई। 1950 के दशक में अमरीका बड़ी तेजी से महासत्ता होकर उभरा। वैश्विक स्तर पर दो विचारधाराओं पूंजीवादी तथा साम्यवादी के ध्रुवीकरण में अनेक देश बंट गए। अमेरीका की प्रेरणा से दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व तथा युरोप के देशों को लेकर सीटो,सेंटो तथा नाटो इत्यादि गुट पर संगठित हुए। इन तीनों का लक्ष्य वैश्विक स्तर पर साम्यवाद का प्रभाव रोकना था। उभरने वाले सूर्य के सामने झुकते हुए पाकिस्तानी तानाशाह ने अमरीका से अपने संबंध स्थापित करना पसंद किया। उसके दो प्रमुख कारण थे। धार्मिक उन्मादपूर्ण भारत विरोधी वातावरण पाकिस्तान में जड़ पकड़ रहा था। ऐसी परिस्थिति में पंड़ित नेहरू, नासर, टीटो जैसे गैर धार्मिक नेताओं के नेतृत्व में रहना उन्हें पसंद नहीं था। अमरीका ने लोकतंत्र को बढ़ावा देने की नीति न अपनाकर इराक, अफगानिस्तान, मध्य-पूर्व के देश तथा अमरीका महाद्वीप के तानाशाहों से सांठगांठ बढ़ाना उचित समझा। सोवियत संघ तथा उभरते हुए चीनी साम्यवाद को काबू में रखने के लिए यह नीति अमरीका ने अपनायी। 1982 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तोे अमरीका के युद्ध नीतिज्ञ चौकन्ना हो गए। उस समय अमरीका ने तुरंत युद्ध सामग्री भारत में पहुंचाने की व्यवस्था की। साथ ही साथ पाकिस्तान भी चीनी आक्रमण से बच पाए, इसलिए पाकिस्तान को भी युद्व सामग्री, विमान, टैंक आदि पर्याप्त मात्रा में दिए। 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरू चल बसे, तब जॉन कैनेडी की भी हत्या हो गई। आधुनिक सोच- विचार रखने वालेे इन दोनों नेताओं जो परस्पर सामंजस्य था, उस तरह का सामांजस्य भारतीय प्रधानमंत्री और नेतागण तथा अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन और रीचर्ड निक्सन में नहीं बन पाया। पंडित नेहरू के बाद छोटे पद के लाल बहादुर शास्त्री जी क्षमता को कम आंकते हुए तानाशाह अयूब खान ने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया।

उस युद्ध में साम्यवाद से सामना करने के लिए प्रदान किए गए सेवर जेट, पैटर्न टैंक आदि हथियारों का उपयोग भारत विरोधी युद्ध में किया गया। शास्त्री जी के महान नेतृत्व में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना का डटकर मुकाबला कर विजय प्राप्त की। रूस की निगरानी में अयूूब खान को शास्त्री जी से सुलह करनी पड़ी, हालांकि शास्त्री जी की उस बैठक के दौरान मुत्यु हो गई , किंतु अमरीका के सामरिक विशेषज्ञों पर भूत सवार हो गया।

1965 के युद्ध में अमरिका ने प्रदान की हुई अत्याधुनिक युद्ध सामग्री भारतीय वीरों के सामने नाकाम सिद्ध हुयी। सोवियत एशिया ने भारत का जमकर साथ दिया और भारत को साम्यवादी एशिया से राजनैतिक तथा व्यापारी संबंध (जो एकतरफा थे) स्थापित करने पड़े। यदि भारत प्रगति करता रहा तो, आने वाले दशकों में भारत वैश्विक राजनैतिक मंच पर एक महासत्ता होकर उभर सकता है। यह वस्तु स्थिति अमरिका के सामयिक विशेषज्ञों की समझ में आ गई थी।

उसके पश्चात भारत की सवार्ंगीण विकास में रुकावट डालने के उद्देश्य से अमरिका ने पाकिस्तान को अत्याधुनिक शस्त्रास्त्रों से सुसज्ज करने की नीति अपनायी। पाकिस्तान से हो सकने वाले दु:साहपूर्ण युद्ध के विरोध में तैयार रहने के लिए भारत को भी भारी मात्रा में रक्षा सामग्री जुटाने की आवश्यकता हुई।

पाकिस्तान में लोकतंत्र के अनुसार जब चुनाव हुए तो बंग बंधु शेख मुजिबुर रहमान को प्रधानमंत्री का पद मिलने की स्थिति बन गई, उस चुनावी परिणाम को ठुकराते हुए पाकिस्तानी तानाशाह टिकू खान तथा जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे नेताओं ने पूर्वी बंगाल के अपने ही देशबंधु तथा धर्मबंधुओं पर हमला बोल दिया। पूर्व बंगाल में हिंन्दु, मुस्लिम पर घिनौने-नृशंस अत्याचार किये। शत्रु का सामना करने के लिए मिले हथियार अपने ही देश के नागरिकों पर चलाने का काम पाकिस्तानी सेना ने किया। परिणामस्वरूप भारत में पूर्वी बंगाल से आये लाखों शरणार्थियों का तांता बढ़ने लगा। पूर्वी बंगाल से आये शरणार्थी हिंसा तथा अत्याचारों की कहानियां सुनाने ेलगे। पाकिस्तान की यह वास्तविकता तथा मानवाधिकारों का उल्लंघन दूसरे देशों के सामने रखने के लिये इंदिरा जी समेत कई भारतीय नेता दूसरे देशों में गये। इंदिरा जी ने राष्ट्रपति निक्सन से भेंट की। राष्ट्रपति निक्सन, जैसा बाद में सामने आया, मनोरूग्ण थे। वाटरगेट कांड में उन्हें राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देना पड़ा। ऐसे निक्सन इंदिरा जी के व्यक्तित्व के सामने सहम गये, किंतु प्रतिक्रिया देकर, सहयोगी हेनरी किसोजेंट के साथ भारत के विरोध में षडयंत्र रचने लगे। पाकिस्तानी सेना के अमानवीय तथा नृशंस अत्याचारी कारनामों पर अमरिका ने आना-कानी का रुख अपनाया। हाल ही में जारी हुए पुराने दस्तावेजों से जानकारी मिली है कि रीचर्ड निक्सन ने पाकिस्तानी सेना को शरण लेने से बचाने के लिए केवल सातवां आरमारी दस्ता भेजा था। किंतु भारतीय सेना पर हमला बोल देने की तैयारी रखी थी। भारत के सेनानियों ने अमरीका का लक्ष्य साध्य होने से पहले ही जनरल नियाजी को नि:शस्त्र कर अपने विल पर मुहर लगा दी। इससे अमरीका के सम्मान को बड़ी ठेस पहुंची।

1971 के युद्धोपरांत जुल्फिकार अली भुट्टो खंडित पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने घोषणा की ‘पाकिस्तान के लोग घास खाकर रहेंगे किंतु अणु बम बनायेंगे’ और भारत से पूरे हजार साल युद्ध शुरू रखने की डींग मारी थी। उसी समय से अणुशास्त्रज्ञ ए. कू.ए. खान के नेतृत्व में पाकिस्तान ने बड़ी गोपनीयता रखकर अणु बम बनाने के कारनामे शुरू किया। न तो ये बात लंबे समय तक छुप सकती थी ना अमरीका तथा पश्चिमी देश और किसी एशियाई देश को अणु बम बनाने के कारनामे उजागर हुए तो अमरिका को सख्ती से काम लेना पड़ा। अमरीका का पाकिस्तान की ओर नीति का रुख बदला। पाकिस्तान को सैनिकी तथा आर्थिक सहायता मिलने में कठिनाईयां आनी शुरू हुई।

सोवियत आक्रमण – पाकिस्तान को लाटरी

1979 में अफगानिस्तान पर कब्जा करने के इरादे से सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। रुसी सेना काबुल में दाखिल हुई। अफगानिस्तान, सोवियत सैनिकी प्रशासन तथा उनके पक्ष में होने वाले अपने खुद के लोगों से पीड़ित होने लगी। जगह-जगह सोवियत आक्रमक और अफगान नागरिकों में झड़पें होने लगीं। अमरिका के सामने यह बड़ा आव्हान था तो पाकिस्तान को जैसे बड़ी लाटरी लग गयी। आयोतोला खोमेनी के सत्ता में होते हुए अमरिका इरान से किसी-भी प्रकार की सहायता अपेक्षित कर नहीं सकती थी। अब तो केवल पाकिस्तान पर ही भरोसा किया जा सकता था। इस आक्रमण के पश्चात साम्यवादी विस्तारवाद के विरोधी सामरिक नीति में पाकिस्तान को आंतरराष्ट्रीय स्तर पर असाधारण महत्व प्राप्त हुआ। सोवियत आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए अमरीका ने प्रथम मुजाहिद्दीन दलों की सहायता की। जब उनके अमानवीय कारनामे बढ़ने लगे और अफगानिस्तान में अपना वर्चस्व जमाने में अमरीका असफल रहा तो मुल्ला ओमर ने गठित किये तालिबानी गुटों की उसने सहायता करना शुरू किया। इसी कालखंड में ओसामा बिन लादेन का अफगानिस्तान में महत्व बढ़ गया। मुल्ला ओमर तथा ओसामा दोनों एक होकर अफगानिस्तान में तबाही मचाने लगे। मुजाहिद्दीन तथा तालिबानी दोनों गुट कट्टरपंथी आतंकी थे। इन दोनों को अमरीका तथा अफगानी शरणार्थियों के लिए मिलने वाली आंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता केवल पाकिस्तान से ही मिल सकती थी। इसका पाकिस्तान ने पूरा-पूरा फायदा उठाया। जो कट्टरपंथी गट अफगानिस्तान में भेजने के लिए गठित किये गये थे। उन्होंने पाकिस्तान के उकसाने पर कश्मीर में आतंकी गतिविधियां शुरू कर दी। इससे कश्मीर में आतंकवादी, बगावत को बढ़ावा देने वाली घटनायें बड़े पैमाने पर शुरू हुई। पाकिस्तान ने जब देखा कि अमरीका ने इन आतंकी गतिविधियों पर लापरवाही का रुख अपनाया तो पाकिस्तान की खुफिया संस्था आई.एस.आई. ने आक्रमीत कश्मीर में जगह-जगह आतंकियों के लिए प्रशिक्षण शिविर खोल दिये। इन शिविरों में न केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान से परंतु कई इस्लामी देशों से, अरब, आफ्रिका, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि पूर्वी देशों से आये हुए आतंकी प्रशिक्षित किये जा रहे थे। परिणामस्वरूप कई अन्य देशों में उन्होंने तबाही मचाना शुरू कर दिया। इसके उपरांत अमरिका ने पाकिस्तान को भरसक संरक्षण साहित्य तथा आर्थिक सहायता प्रदान करना शुरू रखा। 1989 में जब रशिया अफगानिस्तान से पीछे हट गया तो आतंकियों को जैसे खुला मैदान मिल गया। अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के वायव्य सरहद प्रांत में आतंकिया तथा तालिबानी धर्मांधों के गिरोह बन चुके थे। उन्हें काबू में रखने के बजाय उनकी रसद काटने के उपाय छोड़कर पाकिस्तान ने उनको कश्मीर घाटी में तबाही मचाने के लिए छो़ड़ दिया। 90 के दशक में कश्मीर में बड़े पैमाने पर हिंसाचार शुरु रहा।
इस दरम्यान पाकिस्तान का अणु बम बनाने का कार्यक्रम आगे बढ़ता रहा। बेनजीर भुट्टो ने प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद अपने फांसी पर लटकाये गये पिता को इच्छा पूर्ति करने के लिए उसे और बढ़ावा दिया, इतना ही नहीं तो ए. क्यू. खान ने गोपनीयता से अणु बम बनाने को तकनीक इरान, कोरिया जैसे अमरीका विरोधी देश को बेचने का षडयंत्र रचा। ये बातें सामने आने पर अमरीका को पाकिस्तान को सभी प्रकार की मदद-सहायता देने पर रोक लगानी पड़ी। बेनजीर भुट्टो के कार्यकाल में एक तरफ कश्मीर घाटी में आतंकी गतिविधियों तो दूसरी ओर अणुबम की जोरों से तैयारी और तस्करी ऐसा पाकिस्तान में माहौल था। अब अमरिकी जनमत जागृत होने लगा। मार्च 1995 में अमरिका में यह समाचार समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया। उसमें पाकिस्तान में खुले आम चलने वाले आतंकी प्रशिक्षण शिविरों का भंडाफोड़ कर दिया था। वरिष्ठ अमरिकी अधिकारी जेम्स बेकर ने अमरिकी प्रशासन को चेतावनी दी थी कि भारत के विरोध में आतंक मचाने वाले तालिबानी कभी-भी अमरीका पर पलटवार कर सकते हैं। दूसरे एक अमरीकी नेता एम.सी. कोल्लम ने साफ शब्दों में 1993 में चेतावनी दी थी कि बेनजीर भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात आतंकवादियों को बड़े 107 मि.मि. वाले रॉकेट, मॉटर्स, स्वयंचालित ग्रेनेड आदि आधुनिकतम हथियार कश्मीर में तस्करी कर ले जाने की सहूलियत मिल गयी। इसी दरम्यान पाकिस्तान चीन तथा शियाई इरान से साठ-गांठ बनाने में जुट गया। ये दोनों देश अमरिका के विरोधी थे। इस सब बातों से अमरिका और पाकिस्तान के बीच तनाव की परिस्थिति निर्माण हुई। उसका असर अमरिका पाकिस्तान संबंधों पर पड़ता रहा। पाकिस्तान को मदद मिलना कम हुआ तो पाकिस्तानी सेना ने अमरिका पर विश्वासघात के आरोप लगाये। इस दौरान पाकिस्तान में अमरीका विरोध में जनमत बड़े तेजी से बढ़ने लगा। जगह-जगह अमरिका विरोध में प्रदर्शन होने लगे।

पाकिस्तान को दूसरी लॉटरी

जिस ओसामा बिन लादेन को अफगानिस्तान युद्ध के दरम्यान अमरिका ने महानायक बनाया था। उसी ने अमरीका को शैतानी सत्ता कहकर उसके विरोध में जिहाद छेड़ दिया। 9/11 के न्यूयार्क हमले का मुख्य सूत्रधार ओसामा था। उस हमले से अमरीका की संरक्षण व्यवस्था, खुफिया संस्थायें, राजनैतिक बल इन सभी को जैसे धज्जियां उड़ गयी। आतंकियों ने अमरिका के मानो हृदय पर ही हमला बोल दिया। सामान्य अमरिकी नागरिक की मानसिकता इस 9/11 हमले से आहत हुई। तब अमरिका ने सहयोगी नाटो देशों से सांठ-गांठ कर अफगानिस्तान तथा पूरे विश्व से आतंकियों को नष्ट करने का निष्पक्ष कर अफगानिस्तान में सैनिक भेजे। इस समय भी पाकिस्तान को अपनी ओर रखने के सिवाय अमरिका को चारा नहीं था। अमरीकी तथा नाटो सेना को जाने वाली रसद, पेट्रोल, डीजल था संरक्षण सामग्री पाकिस्तान के दक्षिण के ग्वादार बंदरगाह से निकलकर, पूरा पाकिस्तान पार करते हुए वायव्य सरहद तथा अफगानिस्तान पहुंचती थी। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान को खुश रखने के लिए अमरीका ने अपना खजाना खुला छोड़ दिया। हर वर्ष अरबों डॉलर की हर प्रकार की सहायता और विविध प्रकार की मदद पाकिस्तान को मिलती रही।

पाकिस्तान – दो मुंह वाला सांप

अब तो पाकिस्तान ने दोहरी चाल चलना शुरू किया। एक तरफ अमरिकी राष्ट्रपति पहले जॉर्ज बुश और बाद में ओबामा की हां में हां मिलाकर आतंकियों पर तथा धर्मांध गुटों पर सैनिकी कार्रवाई करने का नाटक करना और दूसरी ओर उन्हीं आतंकियों की मदद करने की कूटनीति अपनायी। 1998 में जब भारत ने अणु बम का विस्फोट किया तो उसके तुरंत (तत्काल) पश्चात पाकिस्तान ने भी बलुचिस्तान के छगाई पहाड़ियों में अणु विस्फोट करवाये। तब तक अमरीकी जनमत पाकिस्तान विरोधी बन चुका था। अमरिका से ए.क्यू. खान की गतिविधियों पर पाबंदी लगाने के लिए दबाव आने लगा। अंतत: पाकिस्तान में ए.क्यू.खान को स्थानबद्ध कर दिया। अमरीका का पाकिस्तानी सेना पर से भरोसा उड़ गया। आतंकियों के विरोध में जब अमरिकी और पाकिस्तानी पलटने साझा कार्रवाई करती तो आतंकियों पहले ही जानकारी मिल जाती। इसका अर्थ सैनिकी कार्रवाई की। अति गोपनीय जानकारी पाकिस्तानी सेना से आतंकियों तक रिसाव हो जाती। परिणामत: आतंकी या तो भाग जाते या अच्छी खासी लड़ाई करते। जब पाकिस्तानी सेना से पूरा और योग्य सहयोग मिलने की अमरीकी सैनिक प्रशासन को उम्मीदें धूल में मिल गयां तो पाकिस्तान की भौगोलिक प्रभुसत्ता को ठुकराकर वायव्य सरहद प्रांत सीमाओं के अंदर खुसकर अमरीका ने ड्रोन विमानों से हमले करना शुरू किया। पाकिस्तान कुछ नहीं कर पाया।

बहुत प्रयत्नों के पश्चात अमरीका को जब पता चला कि ओसामा बिन लादेन अबोटाबाद के लश्करी कस्बे में बड़ी आराम से अपने बाल बच्चे बिवियों के साथ दिन काट रहा है। तब तो अमरिका के छक्के छूट गये। बड़ी गोपनीयता से अमरीका ने ओसामा की हवेली पर धावा बोल दिया और उसे उस हवेली में ही खत्म कर दिया। इस घटना के बाद तो पाकिस्तान का दो मुंह वाले सांप जैसा बर्ताव पूरे विश्व के सामने आया। मई, 2011 के बाद अब अमरीका और पाकिस्तान के बीच बड़ी दरार पड़ गयी है। अमरीका पाकिस्तान पर किसी तरह से भरोसा नहीं कर सकता है। इन संबंधों का फिर से अच्छा करने के लिए पाकिस्तानी आई.एस.आई. आला अफसर अहमद शुजा पाशा ने अमरिका को भेट दी तो उन्हें सभी प्रकार से खरी-खोटी सुनाई गयी। उस भेंट का कुछ असर नहीं रहा।

पाकिस्तान के प्रति अमरीकी जनमत पूरा विरोधी हो गया है। अमरीकी सिनेट के कई सदस्य किसी भी प्रकार से पाकिस्तान को मदद करने के विरोध में खड़े हो गये। ओबामा को पाकिस्तान को सहायता करने में बड़ी कठिनाइयां आना शुरू हुई हैं और 2012 यह वर्ष राष्ट्रपति चुनाव का है। एक तरफ अमरीकी तथा नाटो सैन्य की सुरक्षा का ध्यान रखना और दूसरी ओर पाकिस्तान से नफरत करने वाली अमरीकी जनता इन दोनों के बीच ओबामा को सैंडवीच हो गया है।

कुछ दहकते प्रश्न

गत दो दशकों से अमरीका और पाकिस्तान के बीच कई प्रश्न खड़ेे हुए दिखाई देते हैं। उन पर दृष्टि डालने से अमरीका-पाकिस्तान के बीच जो दहकते प्रश्न उभर आये हैं उन्हें समझना आसान होगा।

पीड़ित अल्पसंख्यक

पाकिस्तान में अल्पसंख्य समुदाय के लोगों को कई सामाजिक आपत्तियों का सामना करना पड़ता है। हिन्दू, सिख, ईसाई 20 लाख आबादी वाले शिया पंथियों को सुन्नी धर्मांध मूलतत्ववादी लोगों से बड़ी भारी मात्रा में दहशतपूर्ण वातावरण में रहना पड़ा है। उनके पूजा स्थानों पर, धार्मिक जुलूसों पर हमले किये जाते हैं। रीडर्स डायजेस्ट मर्ई 2000 के अंक में ईसाई नागरिक गुलाम मसीह तथा उसकी बेटी पर हुए अत्याचारों का तथा ईसाई समुदाय पर होनेवाले धार्मिक आक्रमणों का ब्यौरा दिया है। उनका कोही त्राता नहीं है। ख्रिश्चन समुदाय को पछाड़ने के हेतु से धार्मिक श्रद्धा ध्वंसन कानून बनाने का प्रावधान कई मूलतत्ववादी पक्षों ने किया। उसका विरोध करने वाले और सैनिकी प्रशासन में मंत्री सलमान तासीर की हत्या उनके अंगरक्षक मुमताज काद्री ने ही कर दी। उसके उपरांत काद्री को पाकिस्तानी आतंकी संगठनों ने जिस तरह से खुलेआम नवाजा, उसके कुकृत्य की सराहना की उससे तो पूरा विश्व समुदाय भौचक्का रह गया। हाल ही में अरबी-वहाबी विचारधारा के मूलतत्व आतंकियों ने पाकिस्तानी तथा कश्मीरी प्रदेशों की स्वीय सूफी संप्रदाय विचारधारा तथा संतों के दरगाहों को जलाने की, उन्हें नष्ट करने की जैसे मुहिम हाथ में ली है। यह पाकिस्तान की सांस्कृतिक जड़ों का नष्ट करने की घिनौनी चेष्टा है। इन सब की प्रतिक्रिया अमरीका-पाकिस्तान के संबंधों पर छायी है।

पाकिस्तानी अणुबम आतंकियों के हाथ?

अमरिका के दबाव में आकर ए.क्यू. खान को तो पाकिस्तान ने स्थानबद्ध कर रखा है किन्तु क्या पाकिस्तानी अणु ऊर्जा प्रकल्प तथा अणु बम बनाने वाले और अणु बम के पूर्जे जोड़ने वाले पाकिस्तानी आस्थापन आतंकियों के चंगुल से बहार है? पेशावर से रहिमतुला युसुफभाई लिखते हैं कि जिस तरह से आतंकी पाकिस्तानी सैनिकी की पाकिस्तान के अणु ऊर्जा आस्थापन भी उनसे सुरक्षित नहीं है (टाईम्स ऑफ इंडिया मई 29,2011 का समाचार)। ऐसे में क्या अमरिका पाकिस्तान से अणु बम साहित्य बल पूर्वक उठा ले जाने की योजना बना रहा है? (टाईम्स ऑफ इंडिया, अगस्त 7, 2011 का समाचार)।

अणु बम तथा अणु ऊर्जा आस्थापनाओं को अधिक कड़ी सुरक्षा देने के हेतु से पाकिस्तान ने 8000 विशेष प्रशिक्षित लोगों का दल गठित करने की घोषणा की। यदि इन विशेष प्रशिक्षित लोगों में मुमताज काद्री के समान मानसिकता रखने वाले कट्टरपंथी लोग होते हैं तो उनकी साझेदारी से किरणोत्सरी सामान चुराने की साजिश की जा सकती है। अमरीका ने ही आना-कानी कर बढ़ाया हुआ यह भस्मासुर अब अमरिका इंग्लैंड पर ही पलटवार करने की आशंका इन देशों के सामने मुंह खोलकर खड़ी है।

आतंकियों का शहजादा हाफीज सईद

पाकिस्तान में हक्कानी आतंकी गुटों का जाल सर्वत्र फैला हुआ है, जिसको लेकर अमरिका को बड़ी नाराजी है। दूसरा महत्वपूर्ण आतंकी हाफीज सईद पाकिस्तान में आतंकियों का जैसे शहजादा बनकर खुलेआम घूम रहा है, उसके आवागमन पर पाबंदी तो नहीं लगी किंतु जैसे फसे पाकिस्तानी सेना तथा आई. एस. आई. से पूरा संरक्षण मिलता है, ऐसे दिखता है। उसके सिर पर अमरीका ने लाखों डॉलर का इनाम रखा है। फिर भी हाफीज सईद अमरिका को धमकाते रहता है और अमरिका सरकार हाथ मलते बैठी है, ऐसा विहारक दृश्य विश्व भर के लोग देख रहे हैं।

अमरीका ने घुटने टेके

नाटो विमान के एक हमले में 24 पाकिस्तानी सैनिक मारे जाने के बाद पाकिस्तान में रसद ले जाने वाले वाहनों पर हमले हुए और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान जानेवाले रसद के टकर तथा वाहनों के आवागमन पर रोक लगा दिया। कुछ महीनों तक अमरिका ने पर्यायी मार्ग से, कझाकस्थान पर अफगानिस्तान तक रसद पहुंचाने की चेष्टा की। लेकिन हर टैंकर के पीछे कम से कम 15000 डॉ. का खर्चा बढ़ गया। वह बड़ा भारी आर्थिक बोझ बन गया। पाकिस्तान ने अमरिका से बिना शर्त माफी मांगने की शर्त रखी। कुल महीनों तक अमरीकी राजनीतिज्ञ बातों में सुलह करने की चेष्टा में प्रयत्नशील रहे। किंतु पाकिस्तान ने कुछ भी माना नहीं। आखिरकार अमरिका को पाकिस्तान से माफी मांगनी पड़ी। जुलाई 2012 के पहले हफ्ते में अमरीका ने पाकिस्तान के सामने घुटने टेक दिये और माफी मांगने का प्रदर्शन किया। बलशाली अमरीका का यह बुरा हाल विश्व में सभी ने देखा।

और कई ऐसे मसले हैं जिनको लेकर अमरीका पाकिस्तान एक दूसरे से नजरे मिला नहीं पा रहे हैं। जब तक अमरीकी-नाटो सेना का आखिरी सैनिक सुरक्षितता से अफगानिस्तान के भुल-भुलैये से सुरक्षित बाहर नहीं निकलता तब तक अमरीका-पाकिस्तान से पूरी तरह पंगा ले नहीं सकता। 2014 तक नाटो तथा अमरीकी सेना अफगानिस्तान से बाहर निकलने की योजना बनी है। उसके बाद अमरीका को पाकिस्तान को मदद करने की आवश्यकता नहीं होगी, उसके बाद अमरीका का पाकिस्तान के प्रति क्या रवैया होगा?

जिस तरह से पाकिस्तान अमेरिका से पेश आ रहा है वह दुर्व्यवहार क्या अमरिका भूल पायेंगे? आज तक अमरिका ने पाकिस्तान को अरबों डॉलर की मदद की है। इससे पाकिस्तानी जनता को कुछ भी राहत तो मिली नहीं किंतु कुछ राजनैतिक हस्तियां, बहुत सारे सेना के अधिकारी आई.एस.आई. के कई नुमाइंदों ने बहुत सारा धन हड़प लिया। यह सब अमरीकी प्रशासन जानता है। बड़े जॉर्ज बुश काम नहीं कर पाये तो छोटे बुश ने किसी बहाने पर इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन को पकड़ कर उसे फांसी पर लटका दिया। न्यूयार्क के टावर्स पर 9/11 के हमले के हमले बाद बदला लेने के लिए अमरीका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर ओसामा की हत्या कर दी।

पंजाब तथा वायव्य सरहद प्रांत जहां पर आतंकियों का जमावड़ा है और जहां से पूरा आतंकी जाल बिछाया जाता है, उनको विभक्त करने का पर्याय अमरीका के सामने है। वैसे ही ब्ल्ुचिस्तानी नेता तथा हजारों की तादात में कत्ल किये गए बलुचियों की समस्याओं को लेकर अमरिका ने मानवीय अधिकार उल्लंघन का शोर मचाया है, वहां के असंतोष को बढ़ावा देकर अमरीका स्वतंत्र बृहत बलुचिस्तान में इरान में जो ब्लुचिस्तान है उसे सम्मिलित करने से इरान को भी झटका लग सकता है।

पाकिस्तान ने पहले से ही खात तथा गिलगिट हुजा ने चीनियों को प्रवेश दे रखा है। अमरीका पाकिस्तान के विभाजन को मूर्तता देते समय उसका छह भागों में बंटवारा कर सकता है, ताकि ये भू-भाग आपसी आपस में लड़ते रहे और उनकी शक्ति का आतंरिक हस होता रहे। उसके साथ ही अफगानिस्तान का भी कम से कम तीन भागों में विभाजन होकर बृहत पख्खुनिस्तान निर्माण होता है तो पंख्खुन-पंजाबी एक दूसरे से लड़ते रहेंगे। सिर्फ प्रश्न रहेगा तो वह अणु बमों का। छोटे प्रदेश बनने पर जैसे रूस की अणु बम क्षमता खत्म नहीं हुयी, ठीक उसी तरह की योजना बन सकती है। क्या चीन पाकिस्तान को भरसक आर्थिक मदद दे पायेगा? क्या पाकिस्तान का विभाजन रोकने के लिये आज पाकिस्तान से गहरी दोस्ती का प्रदर्शन करने वाला चीन सामने आयेगा? क्या चीन उछ्यूर प्रांत में उठ रहे आतंकियों से निपट पायेगा? ऐसे बहुत से प्रश्न अमरिका पाकिस्तान रिश्ते से भविष्य में जुड़ सकते हैं।

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