स्त्री शक्ति: समाज में स्त्री की अवस्था


हाल ही में हम सभी ने दशहरे का त्यौहार मनाया है। असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक यह त्यौहार हर साल आता है। हम सभी भारतवासी अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप इसे मनाते हैं। कहीं रावण दहन तो कहीं दुर्गापूजा, कहीं जवारे तो कहीं रसगुल्ले,कहीं सोने के प्रतीक स्वरूप शमी वृक्ष की पत्तियां बांटना तो कहीं मां दुर्गा के सामने अपना सर्वस्व अर्पण कर नृत्य करना। दशहरे पर भारत के विभिन्न प्रांतों में ये दृश्य आम होते हैं। इसके पूर्व के नौ दिन देवी अर्थात शक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा होती है।

लेकिन उत्सव के बीत जाने के बाद यह सब कहने का क्या प्रयोजन है, यह सवाल जरूर आपके मन में उठ रहा होगा। इस सवाल का जवाब यह है कि हर साल अनेवाले त्यौहारों को हम मनाते तो बड़ी धूमधाम से हैं लेकिन उनके पीछे के अर्थों को अपने जीवन में कितना उतार पाते हैं? शक्ति अर्थात दुर्गा अर्थात स्त्री। वेदों में जिसे महिमांडित किया गया, समाज रचना में जिसे समाज का आधा हिस्सा कहा जाता है और जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके बिना संसार अधूरा है परंतु क्या यह वास्तविकता है? समाज के कितने प्रतिशत लोग यह स्वीकार करते हैं? अगर करते हैं तो क्यों हर तीसरे दिन समाचार चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज किसी स्त्री के साथ हुए दुर्व्यवहार की घटना होती है? क्यों समाचार पत्रों में कन्या भ्रूण हत्या आम खबर हो गयी है? क्यों नवरात्रि में देवी की फोटो को पूजते हैं और घर में लड़की का जन्म होने पर उसकी हत्या कर देते हैं? हमारी मान्यताओं और यथार्थ में इतना विरोधाभास क्यों हो गया है?

वास्तविकता तो यह है कि आज उत्सव ‘एंजॉय’ करने का तरीका बन गए हैं। दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलने का दिन, खाने-पीने के शौक पूरा करने का दिन और व्यस्त दिनचर्या के बीच आराम का एक दिन। हालांकि इसमें गलत कुछ भी नहीं है परंतु केवल इतना ही इन उत्सवों का उद्देश्य नहीं होना चाहिए।

नवरात्रि में पहले, दूसरे और तीसरे दिन देवी की क्रमश: बालिका, युवती और परिपक्व स्त्री के रूप में पूजा की जाती है। जो इस बात का द्योतक है कि स्त्री हर रूप में पूजनीय है। हम इसकी तुलना अपने जीवन से करके देखें। बेटी का सुख प्राप्त करनेवाले माता-पिता से पूछें कि उनके जीवन को बेटियों ने कितना समृद्ध किया। जीवन के अंतिम पड़ाव पर सहारा मिलने के उद्देश्य से बेटों की कामना करने वाले यह भी सोचें कि जब वे कठिनाई में होते हैं या जीवन के किसी मुश्किल दौर से गुजर रहे होते हैं तो बेटी के द्वारा दिया गया भावनात्मक आधार भी उन्हें कितनी मजबूती देता है।

अगर घर की बड़ी बेटी अपने पिता से आकर कहे कि मैं तब तक शादी नहीं करूंगी जब तक आपका हाथ बंटाने के लिए छोटा भाई सक्षम नहीं हो जाता तो पिता को कितनी खुशी होगी! परिवार के रथ को खींचने में पति के साथ जब पत्नी का भी सहयोग मिलने लगता है तो उनका जीवन सुखों से भर जाता है। स्त्री के मां स्वरूप के बारे में कुछ कहने के लिए तो शब्द भी कम पड़ जाएंगे। इतना सब कुछ होते हुए भी आज समाज में स्त्री की स्थिति दयनीय क्यों है? क्यों उसके उत्थान के लिए विभिन्न कार्यक्रमों और सरकारी योजनाओं के अमलीकरण का इंतजार करना होता है?

इस समस्या को दो तरह से देखा और सुलझाया जा सकता है। पहला, पुरुषों का महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण और दूसरा महिलाओं का स्वयं के प्रति दृष्टिकोण। इतिहास साक्षी है कि हमारे समाज में महिलाएं हमेशा से सक्षम और पूजनीय रहीं हैं, परंतु आज उनकी ओर देखने का दृष्टिकोण भोगवादी हो गया है। समाज में ऐसे विचार और तत्व पनप रहे हैं जो स्त्रियों को वस्तु के रूप में देखते हैं। किसी फिल्म के रिलीज होने के पूर्व उसका प्रचार और उसके तथाकथित हिट होने की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए आज ‘आइटम सांग्स’ का चलन जोरों पर हैं। इनके गीतों के बोल, फिल्मांकन और नृत्य करनेवाली स्त्रियों की भूमिका क्या होती है यह बताना आवश्यक नहीं है। जरा सोचें, क्या इनके बिना फिल्में हिट नहीं हो सकती। क्या फिल्मों के हिट होने के लिए ‘आयटम सांग’ सचमुच आवश्यक हैं? नहीं। सशक्त पटकथा, उत्तम संवाद और बेहतरीन अभिनय हो तो फिल्म ‘आयटम सांग’ क्या बिना ‘सांग’ के भी हिट हो सकती है।

फिल्मों की तरह ही हम विज्ञापनों की बात करें। पुरुषों के लिए बनाए गए उत्पादों के विज्ञापनों में महिलाओं का क्या काम? इनके माध्यम से उत्पादक और विज्ञापनकर्ता क्या दिखाना चाहते हैं? फलां शेविंग क्रीम या परफ्यूम लगाने से महिलाएं आकर्षित होती है। इसका अर्थ क्या है? हमारे यहां आकर्षण, प्रेम और प्रेम विवाह के कई उदाहरण हैं लेकिन कहीं भी उनका आधार इतना सतही नहीं था। वह आकर्षण या प्रेम केवल शारीरिक नहीं था। पुरुषों ने अपने व्यक्तित्व, शौर्य और पराक्रम के आधार पर महिलाओं को आकर्षित किया और सही मायनों में प्राप्त किया। इन आधारों पर बने संबंध सदैव प्रगाढ़ भी रहे। परंतु क्या आज के पुरुषों में ये सब गुण नहीं रहे जो स्त्रियों को आकर्षित करने के लिए उन्हें बाहरी साधनों का सहारा लेना पड़ रहा है? या आज महिलाओं की सोच-विचार करने की शक्ति इतनी कमजोर हो गईे है कि वह किसी पुरुष के प्रति केवल इसलिए आकर्षित होगी क्योंकि वह अच्छा परफ्यूम लगाता है, अच्छे कपड़े पहनता है या महंगी गाड़ी में घूमता है। मजबूरन इन सवालों का जवाब ‘हां’ देना पड़ता है; क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो ‘लव जिहाद’ जैसी घटनाएं ही नहीं होतीं। अंतरजातीय या अंतरधर्मीय विवाह तब तक अनुचित नहीं हैं, जब तक उनका उद्देश्य गलत न हो। ‘लव जिहाद’ जैसी घटनाओं में तो उद्देश्य ही गलत है तो आगे कुछ भी सही होने की गुंजाइश ही नहीं बचती।

अब फिर समय आ गया है जब प्रत्येक स्त्री को अपने अंदर की देवी अर्थात शक्ति को जगाना होगा। यहां शक्ति का अर्थ केवल शारीरिक शक्ति से नहीं है। अपितु मानसिक और भावनात्मक शक्ति से भी है। अगर अभिनेत्रियां यह तय कर लें कि वे इस तरह की फिल्में, आयटम सांग या विज्ञापन नहीं करेंगी तो क्या कोई उन्हें बाध्य कर सकता है? प्रकृति ने नैसर्गिक रूप से स्त्री को शक्ति प्रदान की है। वह इंसान को उसकी नजरों से पहचान सकती है। वह जान जाती है कि सामने उठने वाला हाथ उसे आशीर्वाद देने के लिए उठ रहा है या किसी और मकसद से। आगे की सारी बातें उसकी प्रतिक्रिया पर ही निर्भर होती हैं।

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक संदेश पढ़ा़, “बेटी को चांद की तरह न बनायें कि लोग उसे घूर-घूरकर देखें। बेटी को सूरज की तरह बनाये कि घूरने वालों की आंखें झुक जायें।” दो पंक्तियों में सचमुच बहुत बड़ा संदेश दिया गया है। आज समय की मांग भी यही है। हमें अपनी बेटियों-बहनों को सूरज की तरह ही बनाना होगा। जो समाज को ऊर्जा प्रदान कर सके और आवश्यकता पड़ने पर असामाजिक तत्वों को भस्म भी कर सके।

हाल ही में भारतीय महिला मुक्केबाज मेरी कॉम पर एक फिल्म प्रदर्शित हुई। फिल्म में उनके जीवन संघर्ष और कामयाबी पर प्रकाश डाला गया है। हालांकि कि कई लोगों का यह मानना है कि फिल्म बहुत जल्दी बन गई। अभी उन्हें बहुत कुछ करना है। परंतु फिर भी इससे उनके जीवन संघर्ष पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा।

उनके साथ कई ऐसी बातें जुडी हैं जो आमतौर पर किसी महिला को उसके सपनों से पारावृत्त करने के लिए काफी होती हैं परंतु मेरी कॉम ने इन सभी को पीछे छोड़ दिया। सब से पहला और मुख्य मुद्दा था मुक्केबाजी जैसे पुरुष प्रधान खेल को अपने कैरिअर के रूप में चुनना। अपने पिता के द्वारा न खेलने की सख्ती भी उन्हें रोक नहीं पायी और जब पिता या खेल में से किसी एक को चुनने का मौका आया तो उन्होंने खेल को चुना। मेरी को अपना सपना साकार करने के लिए समाज के दोनों अंगों अर्थात स्त्री और पुरुष दोनों की सहायता मिली।

स्त्री हैं उनकी ही तरह पक्के इरादोंवाली उनकी मां जिन्होंने अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपनी बेटी का साथ दिया और पुरुष हैं उनके पति। मेरी के पति भी उनकी तरह (फुटबाल) खिलाड़ी हैं परंतु मेरी के लिए उन्होंने अपना कैरिअर छोड़ दिया। दो बच्चों की मां बनने के बाद मेरी ने फिर अपने शरीर को मुक्केबाजी के लिए तैयार किया और भारत के लिए पदक प्राप्त किया। शारीरिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी स्तर की कठिनाइयों को दूर करते हुए मेरी ने अपना मकाम बनाया। एक स्त्री जब अपने निर्णय पर अडिग रहती है तो वह क्या कर सकती है, मेरी इसका उत्तम उदाहरण है।

समाज में स्त्री की अवस्था सुधारने के लिए न तो कोई सरकार कुछ कर सकती है, न ही कोई कानून। उसके लिए स्त्री को ही कटिबद्ध होना पड़ेगा। नजरिया बदलने के लिए जो नजर चाहिए वह अपने और समाज दोनों के भीतर जागृत करनी होगी। तभी सही मायने में दशहरा मनाया जा सकेगा।

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