अध्यात्म का वरदान भारतीय परिधान

जो बात या गरिमा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाली साड़ी से झलकती है वह समाज की महिला के प्रति दृष्टि भी बदल देती है। भारत में स्त्रियों द्वारा साड़ी का पहनना एक जीवन पद्धति भी है और परंपरा भी, जो वैदिक काल से अब तक निरंतर प्रवाहमान है। साड़ी न केवल भारत को बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए स्त्री की स्त्रीत्व और मातृत्व की पहचान है।

किस भी समाज की जीवन पद्धति, परंपरा और उसकी पहचान उस समाज के लोगों की भाषा, भूषा, भोजन और भावना से होती है। इसको और यदि विस्तार से कहा जाए तो इसमें रीती-रिवाज, वेशभूषा, खानपान, आस्थायें, मेले, त्यौहार, मनोरंजन के साधन, नृत्य संगीत आदि सभी शामिल हो जाते है। इन सब तत्वों में जो सबसे अधिक सशक्त और प्रभावी पहचान व्यक्ति और समाज को देता है, वह है उस समाज का परिधान, वस्त्र परंपरा और वस्त्र को पहनने का तरीका।

यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि यदि किसी समाज को जानना है तो वह उसकी वस्त्र परंपरा से जाना जाता है और उसी से उसकी पहचान भी होती है। विभिन्न समाजों और समुदायों को उनकी वस्त्र पहनावे से ही जाना जाता है, उसका कारण है कि वस्त्र की सामग्री (मटेरियल), उसको सिलने का तरीका, उसको पहनने का सलीका, उसका अभिकल्पन (डिजाइन) आदि यह उस समाज की सोच, प्रकृति, वातावरण तथा आवश्यकता पर निर्भर करती है। जैसे भारत में महिलाओं द्वारा पूरब से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक साड़ी पहनने की बड़ी शालीन परंपरा है, किंतु साड़ी की डिजाइन, उसके लिए प्राप्त होने वाली सामग्री, पहनने का तरीका अलग-अलग प्रांतों राज्यों में अलग-अलग है। इसी प्रकार पुरुष वर्ग में पहले धोती, कुर्ता, गंजी, कमीज पहनने का चलन था किंतु धोती को बांधने का तरीका अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग अपनाया गया है। कालांतर में इसमें बहुत परिवर्तन हुआ है। अब पश्चिमी संस्कृति और संस्कार के प्रभाव से अब समूचे विश्व में एक ही प्रकार के वस्त्र परिधान का प्रचलन अधिक है। लगभग सभी देशों में पेंट, कोट, टीशर्ट, शर्ट (कमीज) शॉर्ट आदि का प्रयोग-उपयोग किया जा रहा है और सबसे बड़ा परिवर्तन आया है कि जहां पहले पुरुष और महिलाओं के पहनावे में अंतर होता था, वह भी अब समाप्त प्राय हैं। अब लगभग सभी देशों यहां तक कि भारत में भी स्त्री और पुरुष दोनों ही विशेषकर कॉरपोरेट वर्ल्ड, उद्योग जगत में पेंट-कोट, कमीज पहनने लगे है। वस्त्र परिधान में आए इस बदलाव से यह बात स्पष्ट होती है कि प्रारंभ से लेकर आज तक मानव ने स्वयं को अधिक आकर्षक और प्रभावी तरीके से समाज के सामने प्रस्तुत करने के लिए परिधान-वस्त्र का सहारा लिया है। अतएव कोई भी त्यौहार, पर्व, उत्सव या तो संस्कार हो उसमें पहने जाने वाले वस्त्रों/परिधानों की बड़ी शोभा होती है और उस त्यौहार, पर्व, उत्सव का महत्व भी प्रतिपादित होता है।

वस्त्र परिधान का यदि इतिहास खोजने जाए तो पता लगता है कि जब से मनुष्य ने होश संभाला, तब उसका भोजन के बाद सबसे अधिक ध्यान अपने वस्त्र परिधान पर गया. भारत में सभ्यता के विकास के साथ-साथ वस्त्र परिधानों तथा उसके पहनने के सलीकों में परिवर्तन आया। ऐसा कहा जाता है कि भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में हमें अनेक कलापूर्ण वस्त्रों और परिधानों के चिन्ह मिलते हैं। यह भी कहा जाता है कि जब भारत में वस्त्र परिधान काफी विकसित अवस्था में थे उस समय यूरोप अमेरिका में लोग अपने शरीर को नीले रंग से रंग कर अपनी नग्नता को छुपाते थे। भारत में कपास से वस्त्रों को बुनने और बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। इसके साथ ही रेशम, वनस्पति के रेशों से बनाए गए वस्त्रों का उल्लेख मिलता है, तथापि भारत में सामान्य रूप से वैदिक काल से ही महिलाओं द्वारा साड़ी तथा पुरुषों द्वारा धोती, (वेष्टि) पहनी जाती है, जिसका प्रचलन आज तक है। पुरुषों के द्वारा पहनी जाने वाली धोती कमर से बांधी जाती है और जो पैरों तक के अंगों को ढकती है और कमर से ऊपर पहले लोग अंगवस्त्रम रखते थे, जिसका स्थान अब कुर्ता, कमीज आदि ने ले लिया है। स्वतंत्रता के बाद भारत में पुरुषों द्वारा धोती पहनने का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है किंतु अभी भी हमें ग्रामीण भारत में चाहे वह कोई भी प्रदेश हो, उनमें धोती पहने लोग अभी भी बड़ी संख्या में मिल जाते हैं। वास्तव में धोती यह पहनावा सात्विकता, सरलता और उदारता का प्रतीक है किंतु जो बात या गरिमा महिलाओं द्वारा पहने जाने वाली साड़ी से झलकती है वह समाज की महिला के प्रति दृष्टि भी बदल देती है। भारत में स्त्रियों द्वारा साड़ी का पहनना एक जीवन पद्धति भी है और परंपरा भी, जो वैदिक काल से अब तक निरंतर प्रवाहमान है। साड़ी न केवल भारत को बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए स्त्री की स्त्रीत्व और मातृत्व की पहचान है।

सुप्रसिद्ध विचारक और लेखक श्री संदीप सिंह का मानना है कि साड़ी का केंद्र बिंदु नाभि है, यह शरीर का मध्य भाग होता है और आधारभूत संवेदना का मूल केंद्र है, इसके चारों ओर साड़ी बांधी होती है और यह एक मेखला (करधनी) का रूप लेता है। एक लंबा 5 गज से 9 गज तक का वस्त्र स्त्री शरीर के चारों ओर इस तरह से लपेटा या पहना जाता है, जिससे संपूर्ण स्त्री शरीर ढका भी रहता है और उसका सौष्ठव (स्त्रीत्व) भी प्रकट होता है, जो देखने वाले को यथोचित आदर और सम्मान से भर देता है। साड़ी के संबंध में कहा जाता है कि यह शरीर के सभी पंचकोषों का स्पर्श करती है और उसे स्त्रीत्व से मातृत्व तक पूर्णता प्रदान करने में सहायक भूमिका का निर्वाह करती है। इसमें स्त्री का सौंदर्य भी झलकता है, शरीर का सौष्ठव भी निखरता है और मातृत्व का वात्सल्य भी प्रकट होता है।

एक ही लंबी सामग्री से बनी साड़ी सबसे विविधतापूर्ण और विशेषताओं से संपन्न वस्त्र है। इस वस्त्र के कई हिस्से या भाग होते हैं, पल्लू या आंचल साड़ी का सबसे महत्वपूर्ण और शोभा प्रदान करने वाला भाग है। साड़ी के इस भाग को विभिन्न बेल बूटों, कलाकृतियों, रेखाचित्रों से सजाया गया होता है। साड़ी के डिजाईन के जो कारीगर होते हैं वह सबसे अधिक साड़ी के इसी भाग को सजाने में मेहनत करते हैं। साड़ी पहनने वाली महिला भी साड़ी खरीदते समय साड़ी के पल्लू पर अधिक ध्यान देती है क्योंकि देखने वालों का ध्यान भी सबसे अधिक साड़ी के पल्लू पर अधिक होता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि वस्त्र परिधान मानव के सभी पंचोंकोषों को अर्थात अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष व आनंदमय को प्रभावित करता है और प्रचोदित एवं प्रदर्शित भी करता है।

हम सभी जानते हैं कि मानव शरीर का अन्नमय कोष व्यक्ति का बाह्य शरीर एवं उसकी आकृति है। दूसरा प्राणमय कोष उस व्यक्ति की अंतर्निहित ऊर्जा है, जो व्यक्ति के अंदर नैसर्गिक रूप से पैदा होती है। तीसरा मनोमय कोष व्यक्ति की मानसिकता, विचार तंत्र और समझ को दर्शाता है, बाद में यही व्यक्ति के व्यवहार में भी प्रकट होता है। चौथा विज्ञानमय कोष – व्यक्ति के स्वभाव, गुण तथा जीवनमूल्यों के प्रति उसकी निष्ठा आदि का प्रकटन करता है और अंतिम आनंदमय कोष व्यक्तित्व को शांत, प्रसन्न और संतुष्टि प्रदान करता है। ऐसा कहा जाता है कि हर प्राणी में पांच लक्षण होते हैं अर्थात अस्तित्व, बोधगम्यता, आकर्षकता, स्वरूप और नाम, इनमें से पहले तीन तत्वों का संबंध अध्यात्मिकता अर्थात शरीर के अंत:करण से है। शेष दो तत्वों का संबंध भौतिकता या सांसारिकता से है। इन सभी भावों को उत्प्रेरित कर के प्रभावी ढंग से प्रस्तुति करने वाला तत्व परिधान होता है। आइए, स्त्री द्वारा पहने जाने वाली साड़ी किस प्रकार उपर्युक्त पांचो तत्वों के प्रभाव का विश्लेषण करते हैं।

अन्नमय कोष: भारत में तो व्यक्तियों को अपने जन्म और शैशव काल से ही होता है क्योंकि माताएं अपने शिशु को दुग्धपान अपनी साड़ी के आंचल से ढक कर करती है तो शिशु को प्रारंभ से ही अपनी मां के द्वारा अपने आंचल से जो सुरक्षा प्राप्त होती है एवं जो प्रेम तथा वात्सल्य मिलता है वह शिशु-माँ में एक अलौकिक संबंध स्थापित करता है और शिशु को शारारिक पुष्पिता प्राप्त होती है और मां को भी आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। अतएव आंचल स्त्रीत्व का बहुत ही प्रभावी प्रतिनिधित्व करता है।

प्राणमय कोष: यदि महिला ने साड़ी पहनी है और वह रसोई में है तो बहुत सारे काम उसके साड़ी के पल्लू से ही होते हैं। लेखक संदीप सिंह बताते हैं यह पल्लू स्त्री की दो भुजाओं के साथ एक और भुजा प्रदान कर देता है। रसोई घर में गर्म बर्तन को अंगीठी से उतारते समय, अपना चेहरा धुएं से बचाते समय, चाबी का गुच्छा सदैव अपने पास रखने के लिए पल्लू ही काम आता है। साड़ी ऐसा परिधान है जो हर समय स्त्री की सहायता के लिए उपलब्ध रहता है और काम में हाथ बटाता है।

मनोमय कोष: स्त्री का मन उसके आंचल के साथ रहता है, वह उसकी अस्मिता और गरिमा का प्रतीक है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक पेड़ की पत्ती का स्पर्श करके पूरे पेड़ के साथ निक

टता-आत्मीयता प्रतीत होती है, आंचल का स्पर्श भी वही अनुभूति देता है। अतः संदीप सिंह बताते हैं कि देह व्यापार करने वाली महिलाएं अपने ग्राहकों को अपनी साड़ी का आंचल नहीं छूने देती, उनका मानना है कि यह अधिकार सिर्फ उस पुरुष को ही है जिसे वह प्रेम करती है।  विज्ञानमय कोष: साड़ी की डिजाइन, रंग, कलाकृतियां, रेखाचित्र स्त्री के गुण, स्वभाव तथा उसके जीवन के प्रति दृष्टिबोध को प्रदर्शित करता है और स्त्री की समाज में छवि का निर्माण करती है, जो देखने वाले की दृष्टि में सम्मान पैदा करता है।

आनंदमय कोष: साड़ी की विशेषता यह है कि स्त्री को सिर से पैर तक पूरे शरीर को ढकती है, जिसमें स्त्री के आतंरिक स्वरूप की मनोहरता, रमणीयता और लावण्यता प्रकट होती है। साड़ी पहने स्त्री को देखकर सामान्य रूप से वासना नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार का वंदना का भाव प्रकट होता है। साड़ी के आंचल का भाग सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत की परिधान परंपरा में स्त्रियों की साड़ी और पुरुषों की धोती, (वेष्टि) का विशेष स्थान है। धोती व्यक्ति को, पुरुष को एक विशेष गरिमा प्रदान करती है। भारत के उष्ण कटिबंध प्रदेशों में उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पहले धोती का खूब प्रचलन था किंतु समय के अनुसार अब इसमें व्यापक परिवर्तन आया है। तथापि आज भी धोती सम्मान, गरिमा और प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करने वाला परिधान है, जिसका संरक्षण आवश्यक है।

दूसरी ओर संदीप सिंह का मानना है कि भारतीयता का प्रतिनिधित्व करने वाली साड़ी परिधान महिलाओं की आचरणगत निष्ठा को प्रखर करती है। दृष्टिकोण से जुड़ाव, समुदाय की भावना और सक्रियता का बोध मिलता है। साड़ी में सांसारिक और आध्यात्मिक समावेश होता है। सुख और अध्यात्म का समन्वय होता है। रूपांतकारी और पारलौकिक आनंद होता है। अपनी डिजाइन के साथ साड़ी यह आनंद प्रदान करती है। अतएव आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि साड़ी परिधान के संबंध में विशेष जागरूकता अभियान चलाया जाए ताकि महालक्ष्मी की कृपा मिलें और भारत आत्मनिर्भर बनकर विश्व गुरु का स्थान प्राप्त करें।

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