भारतीय कपड़ा बाजार देशी से ग्लोबल

भारत में आज भी जब कोई किसी दूसरे राज्य में पर्यटन के लिए जाता है तो उस यात्रा के स्मरण के रूप में वहां का कोई विशिष्ट व्यंजन और विशिष्ट कपड़ा जरूर लाता है। आप कश्मीर जाकर पश्मीना शॉल लिए बिना वापस नहीं आ सकते। इसलिए पर्यटन स्थलों पर भी बाजारों को विशिष्ट पद्धति से बसाया जाने लगा।

भारत के कई ऐसे उद्योग हैं, जिन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों में भी अपनी पहचान बनाई। उन्हीं में से एक है वस्त्रोद्योग। भारतीय वस्त्रों ने अपनी बुनाई, कढ़ाई, रंगाई सभी में इतनी श्रेष्ठता हासिल कर ली थी कि प्रगत देश भी हमारे कलाकारों की कला देखकर दातों तले उंगली दबा देते थे। भारत में प्राचीन काल में जितना महीन सूत काता जाता था उतना तो आज के ‘कम्प्यूटराइज्ड’ जमाने में भी संभव नहीं है। यह सही है कि भारत की कई कलाओं को अंग्रेजों ने मार दिया था, परंतु दुख इस बात का है कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हम अभी तक वही रोना रो रहे हैं। इतने वर्षों में अगर हमने उन्हीं प्राचीन कलाओं को उद्योगों का स्वरूप देकर आगे बढ़ाया होता तो आज भारत को केवल कृषि प्रधान देश कहलाने की आवश्यकता न होती।

भारत में वस्त्रों की मांग और आपूर्ति में समय-समय पर परिवर्तन देखने को मिले। जैसे-जैसे भारतीय बाजारों ने अपना स्वरूप बदला है, वैसे-वैसे वस्त्रोद्योग ने भी अपना रूप बदला और वस्त्रों के खरीदने-बेचने के तरीकों ने भी अपना रूप बदला। मानवीय सभ्यता में जब शरीर ढ़ंकने के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता को महसूस किया गया तब उस आवश्यकता की पूर्ति पेड के पत्तों, छालों या मृत जानवरों की खाल ने की। इन सब के लिए मनुष्य को आदान-प्रदान की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि ये सभी प्रकृति प्रदत्त थे। व्यापार की शुरुआत तब हुई जब मनुष्य समाज के रूप में रहने लगा और उसे अपनी मेहनत का मूल्य समझा। साथ ही हर काम हर कोई नहीं कर सकता यह बात भी ध्यान में आई। इसलिए किसी एक काम के बदले दूसरा काम या किसी एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तू लेने का चलन बना। यहीं से बाजार की शुरुआत हुई।

जनसंख्या की कमी और परिवहन के साधनों की कमी के कारण पहले मनुष्य छोटे-छोटे गांवों में रहता था। ये गांव स्वयंपूर्ण थे। यहां के वस्त्र व्यवसायी गांव के लिए वस्त्र बनाते और गांव के अन्य व्यापारियों से उनके द्वारा बनाई गई वस्तुओं के बदले वस्त्र देते थे। उस समय बाजार जैसी कोई संकल्पना अस्तित्व में नहीं आई थी। केवल लेन-देन ही होता था।

जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, जीवनयापन की आवश्यकताएं बढ़ीं वैसे-वैसे बाजार अस्तित्व में आने लगे। अब लोगों को क्रय-विक्रय के लिए मुद्रा की आवश्यकता महसूस होने लगी क्योंकि सारे उत्पादों की समय सीमा एक जैसी नहीं हो सकती थी। उदाहरणार्थ अनाज, फल, सब्जियां तो रोज की आवश्यकताओं की वस्तुएं थीं। परंतु वस्त्र, बर्तन आदि वस्तुएं रोज नहीं खरीदी जाती थीं। ऐसे में एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु यह प्रक्रिया कालबाह्य हो गई।

मंडियां, साप्ताहिक बाजार यह बाजारों के प्रारंभिक स्वरूप रहे। किसी एक निश्चित दिन, निश्चित जगह पर लोग अपने-अपने उत्पादों को लेकर आते थे और तय मुद्रा देकर आवश्यकता का सामान एक-दूसरे से खरीदकर ले जाते थे। वस्तुत: यहीं से कपडों के वास्तविक बाजार की शुरुआत हुई। इस मंडी में कपडा व्यापारी अपने कपडों के थान लेकर आते थे और लोगों को उनकी आवश्यकता अनुरूप कपडा काटकर देते थे।

सभ्यता के विकास के साथ वस्त्र निर्माण और वस्त्रोद्योग ने भी प्रगति की। भारत की विविधता उसके क्षेत्र विशेष में बनाए जाने वाले कपडों से भी प्रकट होने लगी। किसी एक क्षेत्र के बुनकर जब अपनी विशिष्ट शैली में कपडे बनाने लगे और उनकी मांग देश के अन्य क्षेत्रों में होने लगी तो वह क्षेत्र ही उस विशिष्ट कपडे के निर्माण का गढ़ बन गया। बंगाल का कॉटन, ढ़ाका की मलमल, दक्षिण भारत का सिल्क आदि इसी तरह से अस्तित्व में आए और प्रसिद्ध हुए। वस्त्रोद्योग पर हमेशा ही राजा-महाराजाओं का वरदहस्त रहा। सबसे सुंदर, महंगे और आकर्षक वस्त्र रजवाडों की शोभा बढ़ाने लगे। ये राजा-महाराजा और उनके घरों की कुलीन स्त्रियां कभी भी बाजारों में नहीं जाती थीं वरन बाजार ही महलों में हाजिर होता था। बुनकरों-कारीगरों को भी राजाश्रय की इच्छा होना स्वाभाविक ही था, इसलिए अपनी सर्वोत्कृष्ट कला को प्रदर्शित करने के लिए वे स्वयं राजाओं के सामने हाजिर होते थे। किसी दूसरे राज्य से विवाह सम्बंध तय हुआ हो या युद्ध करके उस राज्य पर जीत हासिल की हो, उपहार में उस राज्य की विशिष्टता वाले वस्त्र भेंट करना लाजमी होता था। इस तरह वस्त्र की कला एक राज्य से दूसरे राज्य पहुंचती थी।

भारत पर जिन आक्रांताओं ने आक्रमण किया था, वे भी अपने साथ अपने वस्त्र की कुछ शैलियां लेकर आए थे। भारतीय वस्त्र परंपरा में उनकी भी छाप दिखाई पडती है। अंग्रेजों ने जब यहां के बुनकरों की कला देखी और भारतीय वस्त्रोद्योग का विश्व व्यापार पर प्रभाव देखा तो उनके लिए यह अचंभित होने के साथ ही ईर्ष्या का भी विषय बना। पारंपरिक कला जो पीढ़ी दर पीढ़ी बुनकरों को उत्तराधिकार में मिलती थी, उसे साम-दम-दंड-भेद हर प्रकार से अंग्रेजों ने हासिल किया और ब्रिटेन तक पहुंचाया। इस तरह भारतीय वस्त्रोद्योग लंबे समय से ही देसी भी रहा और ग्लोबल भी।

भारत में आज भी जब कोई किसी दूसरे राज्य में पर्यटन के लिए जाता है तो उस यात्रा के स्मरण के रूप में वहां का कोई विशिष्ट व्यंजन और विशिष्ट कपडा जरूर लाता है। आप कश्मीर जाकर पश्मीना शॉल लिए बिना वापस नहीं आ सकते। इसलिए पर्यटन स्थलों पर भी बाजारों को विशिष्ट पद्धति बसाया जाने लगा। किसी एक किस्म के कपडों की दूकानें एक साथ बनाई जाने लगीं। जिससे जब पर्यटक यहां आए तो उन्हें एक ही जगह पर वहां का हर तरह का कपडा प्राप्त हो।

धीरे-धीरे लोग सिले हुए कपडों की ओर अधिक आकर्षित होने लगे। दुकानदार के द्वारा कपडे दिखाना, उसमें से एक पसंद करना, वह अपने फबेगा या नहीं यह देखने के लिए शीशे के सामने खडे होना, इन सारी बातों के लिए अब दूकानदार के पास समय नहीं बचा था। इसलिए ऐसी दुकानों की शुरुआत हुई, जहां दुकानदार अपने पास के सारे कपडे अलग-अलग खानों में जमा देता, लोग उसमें से अपनी पसंद के अनुरूप स्वयं ही कपडे ले लेते थे। इसी समय में विदेशों में बने हुए कपडे भी तेजी के साथ भारतीय बाजारों में दाखिल हुए और देखते ही देखते भारतीयों की पसंद बन गए। ‘ब्रांडेड’, ‘इम्पोटे्रड’ जैसे शब्द में इन्हीं की देन है।

फिर भारत में मॉल संस्कृति का आगमन हुआ। यहां तो विदेशी ब्रांड की कम्पनियों ने अपनी पूरी की दुकान ही डाल रखी थी। इस संस्कृति की चकाचौंध में भारतीय वस्त्र व्यापारी अपना स्थान नहीं बना पाए। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि विभिन्न कारणों से भारतीय कपडा इन कपडों से महंगा होता था। लोग कुछ तो विदेशी नामों के आकर्षण के कारण और कुछ कीमत कम होने के कारण इन विदेशी ब्रांड्स की ओर आकर्षित होने लगे।

आज की आभासी अर्थात वर्चुअल दुनिया में रहने वाले लोग तो इन मॉल या दूकानों तक जाने का भी कष्ट नहीं करते। मोबाइल, लैपटॉप या कम्पूटर की स्क्रीन पर पूरा बाजार खुल जाता है और एक क्लिक पर ही खरीदी हुई सभी पसंदीदा चीजें घर तक आ जाती हैं। कपडा बाजार भी इससे अछूता नहीं है। आज ऑनलाइन शॉपिंग की दुनिया में कपडे सबसे अधिक बिकने वाली वस्तु है।

एक बात और गौर करने लायक यह है कि अब फिर एक बार ब्रांड्स ‘कस्टमाइज्ड ड्रेस’ की ओर मुड रहे हैं। सिले हुए कपडों के साथ आने वाली ‘साइज’ की समस्या का समाधान करने के लिए खोजा गया यह विकल्प है। आपको उस साइट पर कपडा चुनना है, आप किस पैटर्न में सिलना चाहते हैं, वह चुनना होता है और अपना मेजरमेंट देना होता है। आपके मनपसंद कपडे आपकी साइज के अनुरूप घर तक पहुंच जाते हैं। आपके कपडे में प्लास्टिक की बटन होगी या लकडी यह तक चुनने का अधिकार आपको दिया जाता है। निश्चित ही कोरोना ने इस प्रकार के कपडा बाजार को और महत्वपूर्ण बना दिया है।

मंडी, साप्ताहिक बाजार से ऑनलाइन शॉपिंग तक का सफर भारतीय कपडा बाजार ने तय किया है। इस सफर में भारतीय कपडा बाजार का सूर्य कई बार उदय और अस्त होता रहा। परंतु अब जबकि बांगलादेश जैसा छोटा सा देश भी वस्त्र निर्यात के क्षेत्र में भारत को पछाड रहा है तो निश्चित ही यह चिंता का विषय है। भारत जैसे इतने बडे देश में न सिर्फ इतना कपडा उत्पन्न हो कि वह भारतीयों की आवश्यकता की पूर्ति कर सके बल्कि उसका निर्यात भी किया जा सके, इसके लिए जितनी जिम्मेदारी सरकार की है, उतनी ही आम लोगों की भी है। भारतीय कपडा उद्योग विभिन्न आयामों में विस्तारित है। आजकल तो टेक्निकल टेक्सटाइल में भी कई अवसर हैं। इस क्षेत्र की मांगों को अगर भारत पूरी कर सका तो वैश्विक व्यापार में पुन: भारत का नाम उच्च श्रेणी में आ सकेगा।

व्यापार के लिए निर्यात बढ़ाना जितना आवश्यक है, उतना ही आयात घटाना भी आवश्यक होता है। भारतीय बुनकरों द्वारा तैयार वस्त्रों को अधिक से अधिक मात्रा में खरीदना भी भारतीय कपडा उद्योग को ऊपर ले जाने में बहुत कारगर सिद्ध होगी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए ‘वोकल फॉर लोकल’ के मंत्र का प्रभाव निश्चित ही कपडा उद्योग पर पडेगा, अगर हम किसी भी तरह से कपडों की खरीददारी करते समय यह ध्यान रखें कि वे भारत में बने हैं या विदेश से आयातित हैं।

 

 

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