जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा…

अनूप! एक अनुपम व्यक्तित्व। प्रत्येक भारतीय जिस पर गर्व करें, प्रत्येक तरुण को जो अपना आदर्श लगें और भारत के प्रतिष्ठित लोगों को आनंदित करें ऐसा व्यक्तित्व है। अनूप ने अपनी आयु के १६वें वर्ष में स्थापित अपनी कंपनी के माध्यम से अपना अनुपम कार्य ६० देशों तक फैलाया।

उनकी सगाई हुई और वधु पक्ष पर अचानक आर्थिक संकट आ गया। दीवालिया होने की नौबत आ गई। वर पक्ष ने विचार किया कि किसी तरह दूल्हे को समझा बुझाकर किसी सधन परिवार से नाता जोड़ा जाए। परंतु यह ‘व्यावहारिक’ दृष्टिकोण उस संवेदनशील दूल्हे को अर्थात भगीरथ तापडिया को मंजूर नहीं था। ‘मेरा विवाह वधु से तय हुआ है, पैसों से नहीं।’ अपने परिवार को ऐसा तेजतर्रार जवाब देकर उन्होंने वधुपक्ष के लोगों से सम्पर्क किया। अत्यंत साधारण पद्धति से विवाह करके पूर्वजों की संपत्ति, जमीन, सोना इत्यादि सभी का त्याग करके वे पुणे आ गए। उनके साथ केवल उनकी पत्नी और आवश्यक कपड़े ही थे। दिनभर पत्नी कॉफी के बीजों को पीसकर पावडर तैयार करती थी और दूसरे दिन भगीरथ तापडिया उसे बाजार में बेचकर उदर निर्वाह का इंतजाम करते थे। एक ओर इस प्रकार के कठिन प्रसंगों में ही स्वाभिमान के बीज बोने वाले स्वतंत्रता सेनानी भगीरथ तापडिया के पुत्र थे राजेंद्र।

दूसरी ओर थे संगमनेर शहर के अग्रणी समाजसेवक जगन्नाथ शंकरशेठ सम्मानपूर्वक छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले, सरकार की ओर से ‘संस्कृत शिरोमणि‘ नामक सम्मान प्राप्त करने वाले, आधुनिक तकनीक के द्वारा पैकेजिंग इंडस्ट्री में भारत का नाम ऊंचा करने वाले, शिक्षाप्रेमी ओंकारनाथ मालपानी। उन्होंने अपनी संस्कृत में सुवर्ण पदक प्राप्त करने वाली, कला में कुशल, सुशील और सुसंस्कृत कन्या अंजली के लिए जीवनसाथी के रूप में चुना राजेन्द्र तापडिया को।

अत्यंत सुसंस्कारित व उत्तम परंपरा का आदर्श संजोने वाले दंपति के जीवन में हरसिंगार की तरह महकने वाला फूल खिला अनूप।
अनूप जब ४ साल के थे तो एक बार वे अपनी मां का निरीक्षण करने के दौरान अचानक चिल्लाए, ‘मां! ऐसे नहीं, मैं दिखाता हूं…’ इतना कह कर अनूप ने अपनी मां के सामने रखे कागज से ओरीगामी की सुंदर कलाकृति बनाकर दिखाई। इस घटना से ही संवेदनशील माता पिता को उसमें वह ‘अंकुर’ दिखाई दिया। उन दोनों ने उसे प्रोत्साहन और मार्गदर्शन दिया। विश्वासराव देवल का भी मार्गदर्शन लिया। उम्र के ६वें वर्ष में ही अनूप की ४०० कलाकृतियों की प्रदर्शनी संगमनेर के वासियों को देखने को मिलीं। इसके बाद अनूप ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। ७ वर्ष की आयु में उन्होंने ३०,००० बालकों को ओरीगामी का प्रशिक्षण दिया।

जापान! ओरीगामी का मूल स्रोत है। जापान द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में ४० देशों को सहभागी होने का अवसर मिला और भारत की ओर से अनूप ने इसमें सहभाग लिया। ९ वर्ष की उम्र में ‘द चेयरमेन ऑफ जापान ओरिगामी इंडस्ट्रियल एसोसिएशन’ पुरस्कार से अनूप का सम्मान किया गया।

इसी दौरान ओरीगामी की डिजाइन विदेश भेजते समय अनूप की कम्प्यूटर के साथ दोस्ती हुई। सात साल की आयु में अनूप को उनके पिताजी ने कम्प्यूटर दिला दिया और उन्हें दीपक पाटे प्रशिक्षक के रूप में मिले।

१४ वर्ष की आयु में अनूप ने माइक्रोसॉफ्ट की ११ परीक्षाएं देकर ४ डिग्रियां प्राप्त कीं। सबसे कम उम्र में कम्प्यूटर चलानेवाले के रूप में अनूप की वाहवाही हुई। डॉ. अब्दुल कलाम, बिल गेट्स, अझीम प्रेमजी, डॉ. रघुनाथ माशेलकर आदि लोगों ने अनूप की बहुत प्रशंसा की थी। १६ साल की उम्र में अनूप ने स्वयं की टेक्नोकर्मा नामक कंपनी स्थापित की। ११वीं कक्षा में पढ़ते समय उन्होंने एम.एससी. के विद्यार्थियों को भी पढ़ाया। बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग किए बिना उन्हें सीधे एम.एस. के लिए चुना गया। अमेरिका की यूनिवर्सिटी का निमंत्रण और फ्री फेलोशिप भी अनूप को प्राप्त हुई। यह सभी कल्पनातीत परंतु सच है। एम.एस. करते समय ही सी.डीएम.ए. टेक्नालॉजी के जनक व कॉलमॉल कंपनी के चेयरमैन इरविन जेकब्ज के साथ उन्होंने दो पेटेन्ट भी दर्ज किए। २१ वर्ष की आयु में उन्होंने एम.एस. पूर्ण कर पीएच.डी. की शुरूआत की। उसी समय टच मैजिक्स नामक तकनीक की कल्पना मूर्त रूप ले रही थी। अमेरिका की कई कंपनियों ने अनूप को व्यवसाय शुरू करने तथा अन्य सुख सुविधाएं मुहैया कराने आश्वासन दिया परंतु अनूप के मन में ‘जहां डाल-डाल पर सोने की चिडियां करती हैं बसेरा, वह भारत देश है मेरा’ यह भाव था। साथ ही भारतीयों की क्षमता, विद्वत्ता के प्रति भी उनके मन में बहुत आदर था। परंतु सुविधाओं का अभाव और पैसों की कमी भारत में प्रमुख चुनौती थी। अनूप ने मातृभूमि की सेवा को प्रधानता दी और वे भारत लौट आए। लगन, परिश्रम, हमेशा नया कुछ करने की मानसिक तैयारी और आत्मविश्वास आदि के बल पर अनूप शिखर तक पहुंचे।

टच मेजिक्स नामक तकनीक में सफलता प्राप्त करने के दौरान उन्होंने अपनी रुचियों को भी महत्व दिया। वे उत्तम गिटार वादक हैं। मराठी, हिंदी, अंग्रजी गाने गाना, स्वरबद्ध करना भी उन्हें पसंद है। मैराथन, टेनिस आदि में भी वे निपुण हैं।

इन सभी के साथ सबसे महत्वपूर्ण बात है सामाजिक संवेदनशीलता। वे इसके लिए बहुत जागरूक हैं। अपने व्यवसाय की पहली कमाई (५लाख रुपये) उन्होंने विवेकानंद हास्पिटल (लातूर) को दान में दी।

तकनीक के क्षेत्र में वे इंटरेक्टिव फ्लोर, इंटरेक्टिव वाल, कॉफी-टेबल, मेजिक्स फोन, मल्टीटच लार्ज फॉरमेट डिस्प्ले आदि नए-नए अत्याधुनिक उत्पादन वे बाजार में ला रहे हैं। दुनिया में लगभग ६० देशों में उनके उत्पादन निर्यात होते हैं। निस्संदेह ही उनका ‘सुवर्णभूमि’ भारत बनाने का सपना उनके माता-पिता के आशीर्वाद से अवश्य पूरा होगा।

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