तेजस्वी हिन्दू राष्ट्र का पुनर्निर्माण

 राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना कब हुई,किसने की और इसका उद्देश्य क्या था?

राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना सन् 1936 में विजयादशमी के दिन वंदनीया लक्ष्मीबाई केलकर ने वर्धा में की। इन्हे वंदनीया मौसीजी के नाम से जाना जाता है। उन्होंने देखा कि गुलाम भारत में लोगों की स्थिति क्या है। इतनी दुर्दशा होने के बावजूद भी महिलाएं जागृत नहीं है और जो हैं उनमें इन परिस्थितियों के विरुद्ध ख़ड़े होने का आत्मविश्वास नहीं है। अपना घर-परिवार संभालने के साथ-साथ समाज और देश के प्रति जो दायित्व है, उसे निभाने की प्रेरणा देने और सामाजिक और राष्ट्रीय जागृति लाने के उद्देश्य से समिति की स्थापना की गई।
समिति की स्थापना के समय ही उन्होंने सभी महिलाओं के सामने एक उद्देश्य रखा वह था- ‘तेजस्वी हिन्दू राष्ट्र का पुनर्निर्माण।’

वं. मौसीजी का स्थापना के समय का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है, फिर आज इसकी क्या आवश्यकता है?

आज हम चारों ओर नैतिकता का पतन हो रहा है। हिन्दू संस्कृति को अधोगति की ओर धकेलने के प्रयत्न चल रहे हैं। सभी ओर भ्रष्टाचार व्याप्त हैं। केवल परिवार और घर ही नहीं हैं, बल्कि देश की और समाज की समस्या भी महिलाओं की ही है। अभी भी महिलाएं इस रूप में नहीं सोचतीं। महिलाओं में सामाजिक और राष्ट्रीय जागृति लाने की जो आवश्यकता तब थी, वह आज भी है।

 महिलाओं में सामाजिक और राष्ट्रीय जागृति लाने के लिये राष्ट्र सेविका समिति क्या कार्य कर रही है?

प्रत्येक घर में जाकर महिलाओं को जागृत करना मुश्किल है। अत: विभिन्न स्थानों पर उनका एकत्रीकरण किया जाता है और उनका मार्गदर्शन किया जाता है। इस एकत्रीकरण को ही शाखा कहते हैं। विभिन्न स्थानों पर उम्र के अनुसार बाल शाखा, तरुणियों की शाखा और प्रौढ़ महिलाओं की शाखा चलाई जाती है। दैनिक और साप्ताहिक शाखाएं पूरे देश में कई स्थानों पर चलाई जा रहीं है।

शाखाओं के अलावा विविध क्षेत्रों में भजन मंड़ल, कीर्तन मंड़ल, पौरोहित्य वर्ग, प्रवचन वर्ग, योगासन वर्ग आदि में महिलाओं की रुचि होती है। अत: इन माध्यमों के द्वारा भी उनमें जागरुकता लाने का प्रयत्न किया जाता है।

 जागृतिकरण ही यह शृंखला आगे कैसे बढ़ती है?

एक शाखा में जब कोई सेविका आती है तो उसे वहां प्रशिक्षित किया जाता है। जब उसका यथोचित सर्वांगीण विकास हो जाता है तो वह अपने स्थान पर जाकर नई शाखा शुरू करती है। इस तरह एक सेविका से एक नई शाखा शुरू होती है। आज केवल भारत के प्रत्येक प्रांत में ही नहीं वरन् 16 विदेशों मे भी शाखाएं चलाई जा रही हैं।

 विदेशों में शाखा शुरू करने का आधार क्या होता है?

विदेशों में हिन्दू सेविका समिति के नाम से कार्य किया जाता है। वहां हम राष्ट्र की बात नहीं कर सकते। उनका राष्ट्र अलग होता है। अत: वहां हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति का संरक्षण करने के उद्देश्य से शाखा चलाई जाती है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही मूल हिन्दू चिंतन है। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति जीवित रही, तो पूरे विश्व में शांति बनी रहेगी। अत: हिन्दू चिंतन हिन्दू विचारों को जीवित रखने के लिये विदेशों में कार्य किया जा रहा है। वहां पर मुख्यत: परिवार शाखाएं होती हैं। महिलाओं की शाखाएं भी कुछ प्रांतों में चलाई जाती हैं। परंतु परिवार शाखाओं की संख्या अधिक है।

 समिति का अब तक कितना विकास और विस्तार हुआ है?

समिति ने बहुत विकास किया है। समय की आवश्यकता के अनुसार हमने अपने शारीरिक अभ्यासक्रमों में विकास किया है। आत्मरक्षा की दृष्टि से पहले महिलाओं को जिन शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता था उनके साथ-साथ अब कराटे का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। कुछ प्रांतों में जहां परिस्थिति गंभीर है और बंदूक प्रशिक्षण की आवश्यकता है, वहां बंदूकों का भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
बौद्धिक स्तर पर भी समिति ने बहुत विकास किया है। समस्याएं बदली हैं, अत: उन्हे सुलझाने का दृष्टिकोण भी बदला है। पहले संचार माध्यमों की आवश्यकता इतनी महसूस नहीं होती थी। परंतु आज मीड़िया के सामने जाना होता है। अत: हमने पत्रकारिता शिविरों का आयोजन किया था। अपने कार्य का और कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार कैसे हो, उसकी रिपोर्ट कैसे तैयार की जाये, किन प्रमुख बातों का उल्लेख किया जाये, इलेक्ट्रानिक मीड़िया जब बाइट्स के लिये बुलाते हैं, तब उनके सामने कैसे बात करनी है, इत्यादि का प्रशिक्षण दिया जाता है। सेवाकार्यों के माध्यम से भी समिति का कार्य बढ़ा है। आज लगभग 800 सेवा प्रकल्प समिति के द्वारा चलाये जा रहे हैं। आज लगभग सभी स्थानों में समिति का कार्य शुरू है। यहां तक कि पूर्वांचल के सातों राज्यों में भी समिति का कार्य चल रहा है। मिजोरम केवल एक ऐसा प्रदेश है जहां समिति ने सेवा कार्यों के द्वारा प्रवेश किया है। वहां शाखाएं नहीं हैं।

 यह विस्तार कैसे किया जा रहा है?

सर्वप्रथम कोई तरुणी या महिला सेविका के रूप में शाखा में आती है। शाखाओं,वर्गों और शिविरों के माध्यम से हम कार्यकर्ताओं को तैयार करते हैं और ये कार्यकर्ता विभिन्न क्षेत्रों में जाकर समिति कार्य का विस्तार करते हैं। समिति का एक पूरा कार्यकारिणी गण है। उसमें कार्यवाहिका, शारीरिक प्रमुख, बौद्धिक प्रमुख, संपर्क प्रमुख आदि दायित्व होते हैं। अपने-अपने स्थानों पर सभी इन दायित्वों का निर्वाह करते हैं, जिससे कार्य का विस्तार होता हैं।

कुछ समय बाद ऐसा महसूस होने लगा कि अब पूर्णकालिक सेविकाओं की अर्थात प्रचारिकाओं की आवश्यकता है। अत: सन् 1984 से पूर्णकालिक सेविकाओं की अर्थात प्रचारिकाओं की शुरूवात हुई। आज पूरे भारत में 45 प्रचारिकायें हैं जो विभिन्न प्रांतों में कार्यरत है। इनके साथ-साथ समिति में विस्तारिकायें भी हैं। जो नियतकाल के लिये अपने परिवार से निकलकर समाज में कार्य करती हैं। और एक निश्चित काल के पश्चात अपने परिवार में लौट जाती हैं। आज भारत में 23 विस्तारिकाएं कार्य कर रही हैं।

1984 में प्रचारिकाओं के लिये समाज का क्या दृष्टिकोण क्या था? क्या अब उसमें परिवर्तन आया है?

समिति की स्थापना से लगभग 50 वर्ष बाद प्रचारिका बनने की शुरूवात हुई। समिति मे यह चिंतन पहले भी था, परंतु समाज में उसे स्वीकार नहीं किया जा रहा था। कुछ प्रचारिकाओं का तो घर के लोगों ने ही विरोध किया था। हमारे कुछ ज्येष्ठ कार्यकर्ता उनके परिवारों को समझाने गये थे, परंतु फिर भी उनका विरोध कायम रहा। प्रचारिकाओं ने इस विरोध को सहन किया और अपना संपूर्ण जीवन समिति कार्य को समर्पित कर दिया।

श्रीमती सिंधुताई पाठक को हम पहली प्रचारिका मानते हैं।

शुरू में प्रचारिकाओं को किसी परिवार में ही रखा जाता था, क्योंकि तरुणियों की जिम्मेदारी, उनकी सुरक्षा की भावना आदि कई प्रश्न थे। किसी के भी घर में भोजन, आवास आदि करना भी उन परिस्थितियों में आसान नहीं था। अत: शुरूवात में प्रचारिकाओं को कई मुश्किलों का सामना करना प़ड़ा। उनके मन में दृढ संकल्प था अत: इन सभी विपरीत परिस्थितियों का उन्होंने सामना किया। अब इन्ही प्रचारिकाओं को उनके परिवार और समाज में सम्मान प्राप्त हो रहा है।

 संघ और समिति में क्या समानताएं और विभिन्नताएं है?

संघ और समिति का ध्येय एक ही है। संघ कहता है ‘भारत को परम वैभव स्थिति में वापस लाना है’ और समिति कहती है ‘तेजस्वी हिन्दूराष्ट्र का पुनर्निर्माण’ दोनों का ही उद्देश्य एक ही है। इस राष्ट्र के प्रति श्रद्धानिष्ठ सेवा करने का संकल्प दोनों ने ही लिया है। संघ और समिति की पद्धतियां समान है। हम समांतर चल रहे हैं। किसी परिवार में भाई-बहन के बीच जो रिश्ता होता है वही हमारे और संघ के बीच में है। हम एक-दूसरे के पूरक हैं। हमें जब भी कभी आवश्यकता हुई संघ ने सदैव हमारा सहयोग किया है। समिति एक स्वतंत्र संगठन है संघ की ‘महिला विंग’ नहीं है।

क्या संघ ने कभी समिति के कार्यों में हस्तक्षेप किया?

नहीं, संघ ने कभी भी समिति के कार्यो में हस्तक्षेप नहीं किया। हमें अपने निर्णय लेने की पूर्ण स्वतंत्रता है। वं. मौसी जी ने जब समिति की शुरूवात की तो प.पू.ड़ा. हेड़गेवार जी ने उनका सहयोग किया था। तब से लेकर अभी तक संघ का सहयोग हमें नियमित मिल रहा है।

 जो महिलाएं शाखा या समिति नाम सुनकर आपसे जुड़ना नहीं चाहतीं, उन्हे आप कैसे जोड़ते हैं?

शाखा के अलावा भी समिति के विविध आयाम हैं। समाज की प्रबुद्ध महिलाओं के लिये हमने ‘मेधाविनी मंड़ल’ शुरू किया है। महीने के एक निश्चित दिन हम मिलते हैं। आज की समस्याओं, ज्वलंत घटनाओं पर विचार-विमर्श किया जाता है। विभिन्न स्थानों पर हम योगासन वर्ग चलाते हैं। कराटे क्लास चलाये जा रहे हैं। इनमें प्रत्यक्ष रूप से समिति नहीं है, परंतु ये हमारे ही आयाम हैं।

कालेज जानेवाली तरुणियों के लिये ‘दिशा’ नामक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। विभिन्न महाविद्यालयों में जाकर हम वहां पांच सत्र चलाते है। पहला सत्र है- स्वयं को पहचानो। दूसरा सत्र है- अपने देश को पहचानो। तीसरा सत्र है- अपने धर्म को पहचानो। अंतिम दो सत्रों में उन्हें यह बताया जाता है कि अपने समाज और देश के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है।

नये लोगों को जोड़ने के लिये समिति और क्या प्रयत्न कर रही है?

नये लोगों से संपर्क बढ़ाने के लिये विविध प्रतिष्ठान (ट्रस्ट) चलाये जा रहे हैं। आज देशभर में 52 ट्रस्ट है। इनके माध्यम से हम छात्रावास और उद्योग मंदिर चलाते हैं। इन उद्योग मंदिरों में कई प्रशिक्षण दिये जाते हैं।

प्रतिष्ठानों के माध्यम से ही कई सेवा कार्य किये जाते है। निशुल्क चिकित्सा शिविर, गृहोपयोगी वस्तु भंड़ार, वाचनालय आदि कार्य प्रमुख रूप से किये जा रहे हैं। इन वाचनालयों में वर्ष में 2-3 बार परिसंवाद और सेमीनार किये जाते हैं।

इसी प्रकार छात्रावासों में विभिन्न क्षेत्रों से तरुणियां आती हैं। कुल 22 छात्रावासों में 520 लड़कियां इस समय रह रहीं है। इन छात्रावासों में उन्हें शिक्षा, संस्कार और प्रशिक्षण दिया जाता हैं। उन्हें छात्रावासों में रसोई से लेकर संगणक तक और योगसनों से लेकर कराटे तक संपूर्ण प्रशिक्षण दिया जाता है।

कई सेविकाओं ने अपने स्थानों पर वापस जाकर स्वयं के उद्योग शुरू किये। कई तरुणियां सिलाई केन्द्र चला रही है। हमारी तस्सी नामक एक सेविका जो नागालैंड़ से है, उसने फिजिकल एज्यूकेशन में मास्टर्स ड़िग्री हासिल की। विद्याभारती द्वारा वहां चलाये जा रहे एक विद्यालय में आज वो प्रधानाचार्य है और नागा भाषा में नागालैंड़ की रानी का जीवन चरित्र लिख रही है। पिछले वर्ष ही उन्हें ओजस्विनी युवा पुरस्कार दिया गया है। समिति की दृष्टि से वे उत्तर असम प्रान्त की सह कार्यवाहिका दायित्व निभा रही है।

कामकाजी महिलाओं की परिवार और कार्यालय की दोहरी भूमिका के संबंध में आपके क्या विचार हैं?

राष्ट्र सेविका समिति को यह विश्वास है कि महिला दोनों स्थानों पर व्यवस्थित कार्य कर सकती है। वं. मौसी जी ने प्रत्येक सेविका के सामने देवी अष्टभुजा की प्रतिमा रखी है। उनका कहना था कि स्त्री एक अष्टभुजा है। उसमें इतनी क्षमता है कि वह आठ प्रकार के काम एक साथ कर सकती है। इसके लिये घर में अनुकूल वातावरण बनाना आवश्यक है। इस वातावरण को बनाने की जिम्मेदारी भी महिला की ही है। वह अपने घर के लोगों में यह भाव जागृत करें कि घर के काम सभी लोगों को मिलकर करने चाहिये। जिससे उनके मन में परस्पर पूरकता निर्माण होगी।

 समाज में आज महिलाओं की स्थिति में जो विरोधाभास है उस पर अपनी राय प्रगट करें।

पुरातन काल में महिलाओं की बहुत अच्छी थी। मध्यकाल में विभिन्न कारणों से इसकी स्थित कुछ खराब जरूर हुई थी, परंतु आज की स्थिति सभी जगह असमाधानकारक नहीं है। सभी क्षेत्र में महिलाओं को मौके और प्रोत्साहन मिल रहे हैं। चाहे वह अंतरिक्ष क्षेत्र हो या खेल। सभी जगह महिलाएं आगे आ रही हैं। परंतु वास्तविक स्थिति को भी हम अस्वीकार नहीं कर सकते कि कुछ स्थानों पर अत्याचार और शोषण भी हो रहा है। हमें इनके कारणों पर ध्यान देना आवश्यक है। इनके दो कारण हो सकते है। पहला, समाज में पुरुषों का महिलाओं को देखने का दृष्टिकोण बदल गया है। वैदिक काल में महिलाओं को पूज्य स्थान दिया जाता था। अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी महिलाओं को मां के रूप में देखा जाता था।

दूसरा कारण है, स्वयं महिलाओं की सोच में भी परिवर्तन हो रहा है। हमें सोचना चाहिये कि हम क्या करें कि हमें सम्मान की मांग न करनी पड़े बल्कि हमें सम्मान अपने आप ही मिल जाये। विज्ञापनों में महिलाओं को जिस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है उसका विरोध होना चाहिये। अत: हम शाखाओं के माध्यम से यह प्रयत्न कर रहे हैं कि ये दोनों दृष्टिकोण बदलें जिससे महिला को फिर से वही सम्मान प्राप्त हो सके।

 इस स्थिति के लिये क्या पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण जिम्मेदार है?

हम ऐसा नहीं सोचते कि वे ही केवल जिम्मेदार हैं। क्योंकि हमें क्या ग्रहण करना है क्या छोड़ना है यह हम पर ही निर्भर है। महिलाओं को हिंदू धर्म और हिन्दू संस्कृति की पुन: पहचान कराना और उसकी विशेषता महिलाओं को समझाने से इस स्थिति में काफी सुधार आ सकता है।

इंदिरा नूरी, अग्नि-5 का सफल परिक्षण करनेवाली टीम में शामिल टोनी थामस आदि जब भी कभी कार्यक्रम में जाती हैं, तो साड़ी पहनती हैं। उनसे पूछने पर वे कहती हैं कि मैं एक केवल इंदिरा नूरी या टोनी थामस नहीं हूं। मैं भारत का प्रतिनिधित्व कर रही हूं। इससे यह साबित होता है कि इन महिलाओं को इनके कार्यों, बुद्धि और चिंतन के कारण सम्मान प्राप्त हुआ है न कि अपने को वस्तु के रूप में पेश करके।

 समाज में आजकल स्त्री समानाधिकार और स्वतंत्रता की बातें खूब हो रही है। राष्ट्र सेविका समिति इसके बार में क्या सोचती है?

सर्वप्रथम तो राष्ट्र सेविका समिति ने अधिकार की बात कभी भी नहीं की। हम यहां कर्तव्य की बात करते है। चाहे स्त्री हो या पुरुष, अपने कर्तव्य का ज्ञान होना आवश्यक है। हम अगर अपनी क्षमताओं को बढ़ाते हं,ै तो हमें अधिकार अपने आप मिल जायेगा। अधिकार से जु़ड़ी हुई भ्रांतियों को मिटाना भी आवश्यक हैं। यह सोचना आवश्यक है कि हमें अधिकार क्यों चाहिये? पुरुषों के समान सब कुछ करने के लिये या समाज को दिशा देने के लिये।

जहां तक स्वतंत्रता की बात है स्त्री आज भी कोई गुलाम नहीं हैं। हमें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को समझना चाहिये। हिन्दू समाज ने स्वच्छंदता को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। विचारों में स्वतंत्रता होनी चाहिये। स्वच्छंदता समाज को पतन की ओर अग्रसर करती है। इससे समाज को सर्वनाश हो सकता है। इसलिये महिलाओं को ही सोचना होगा कि स्वच्छंदता और स्वतंत्रता में भेद कैसे किया जाये।

लिव इन रिलेशनशिप’ के संबंध में आपके क्या विचार हैं? भारतीय समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?

समिति लिव इन रिलेशनशिप का विरोध करती है। हम विवाह को महत्व देते हैं। इसे भारतीय समाज में बंधन के रूप में नहीं देखा जाता। यह एक पवित्र संबंध है। लिव इन रिलेशन इस पर एक आघात है। विवाह के पश्चात हम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं। यह एक ऐसा समय है जब व्यक्ति संपूर्ण समाज के विषय में सोचता है। लिव इन रिलेशन का आधार ही गलत हैं। जिसके कारण पूरे समाज पर इसका प्रभाव गलत पड़ेगा। हमारे यहां कुटुंब को प्रधानता दी गई है। वही हमारा केन्द्र बिंदु है। लिव इन रिलेशन में कुटुंब का निर्माण ही नहीं होता। वे लोग बच्चों की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते। अगर बच्चा हुआ तो पुरुष हाथ झटककर चला जाता हैं फिर महिला उस बच्चे के पालन पोषण के लिये अकेले जिम्मेदार होती है। उन पर अच्छे संस्कार नहीं हो पाते जिसके कारण वे अच्छे नागरिक नहीं बन पाते।

 परिवार, समाज और देश के उत्थान में महिलाओं की क्या भूमिका है?

परिवार का केन्द्र बिंदु महिला है। त्याग, मातृत्व और सहनशीलता महिलाओं के सहज गुण हैं। इन्हीं माध्यम से वह परिवार के सदस्यों को अच्छे संस्कार दे सकती हैं। परिवारों से ही समाज का निर्माण होता है। परिवार में अच्छे लोग होंगे तो समाज में अच्छे नागरिक होंगे। समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। अत: महिला अपने स्वभाव से अच्छे नागरिकों का निर्माण कर सकती है प्रत्येक महिला को थोड़ा विशाल मातृत्व भाव लेकर सोचना चाहिये कि केवल अपने परिवार ही नहीं समाज के जो अन्य परिवार हैं जो दुखी, है जिन्हे कष्ट है उनके लिये भी कुछ भी करना चाहिये। एक महिला ही अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकती है।

 आधुनिकता के दौर में नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। इनकी पुनर्स्थापना के लिये महिलाओं को क्या करना चाहिये?

महिलाओं को स्वयं सोचना चाहिये कि हमारे समाज में शील और चरित्र को अधिक महत्व क्यों दिया जाता था। इन दोनों गुणों की कमी के कारण आज समाज का नैतिक पतन हो रहा है। वे स्वयं अगर इस बारे में नहीं सोचेंगी तो आनेवाली पीढ़ी को क्या संस्कार देंगी। जीवन मूल्यों को अधिक महत्व देने के कारण यह स्थिति आई है। जहां महिलाओं का नैतिक पतन हुआ वहां साम्राज्य भी ध्वस्त हो गया है।

 8 मार्च को पूरे विश्व में महिला दिवस के रूप में मनाते हैं। परंतु वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में नहीं हैं। क्या समिति इस ओर प्रयत्नशील है कि किसी भारतीय महिला से जुड़ी कोई तिथि सुनिश्चित करके महिला दिवस मनाया जाये?

हां, समिति प्रयत्नशील है कि शारदा मां के जन्म दिन को भारत में महिला दिवस के रूप में मनाया जाये। राष्ट्र सेविका समिति की ओर से रामकृष्ण मठ और अन्यान्य महिला समितियों के समक्ष प्रस्ताव रखा गया है। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी पत्नी शारदा मां को देवी रूप में पूजन किया था। शारदा मां ने गृहस्थाश्रम में रहकर भी संन्यासी के रूप में जीवन व्यतीत किया। उनका जीवन एक आदर्श है। स्वयं रामकृष्ण परमहंस मानते हैं कि शारदा मां ने समय-समय पर उन्हें मार्गदर्शन दिया।

 समाज में प्रत्यक्ष रूप से शस्त्र चलाने का अवसर कम ही आता है। फिर शाओं और वर्गों में महिलाओं को शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण क्यों दिया जाता है?

शस्त्र चलाने से महिलाओं में आत्मविश्वास जागृत होता है। विपरीत परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति पैदा होती है। समस्या सामने आने पर घबराने की जगह उनका सामना करने का मार्ग वे खोज सकती है अत: शारीरिक प्रशिक्षण दिया जाता है।

 भगवा आतंकवाद के संदर्भ में आपकी क्या राय है?

कुछ लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये यह शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं। वे लोग ‘हिन्दू’ का विरोध कर रहे है। समिति का यह प्रयास है कि इनके सामने सकारात्मक सोच रखी जाये। हिन्दू का अर्थ क्या है?

कुछ राजनैतिक लोग अपने लाभ और स्वार्थ के लिये भगवा आतंकवाद जैसी बातें फैला रहे हैं।

समय-समय पर सभी जगह कुछ बदलाव अपेक्षित होते हैं। क्या राष्ट्र सेविका समिति में भी भविष्य में कुछ बदलाव होंगे?

हम अपने ध्येय, नीति और जीवन मूल्यों में बदलाव नहीं करेंगे। ध्येय को प्राप्त करने के लिये अगर उपक्रमों में बदलावों की आवश्यकता हुई तो वह अवश्य किये जायेंगे। आज शाखा के साथ-साथ धार्मिक उपक्रम और अन्य संस्थाएं चलाई जा रही हैं। यह एक सात्विक परिवर्तन है। पहले समिति का गणवेश नौ गज (कच्छ) की साड़ी थी। समय की मांग पर इसे सामान्य साड़ी और फिर सलवार कुर्ता में परिवर्तित किया गया।

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