संगीतज्ञ विवेकानंद

विवेकानंद की आत्मिक ऊर्जा का स्रोत नाना धाराओं से प्रवाहित होता था। इनमें से एक प्रवाह था संगीत। अन्य कुछ भी न करके यदि उन्होंने केवल स्वरसाधना की होती, तो भी वह अमर हो जाते।जब विवेकानन्द तेईस साल के थे, तभी उनका ‘संगीत कल्पतरू’ नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ था।

दत्त घराने को संगीत का वरदान मिला था। विवेकानन्द के दादा दुर्गा प्रसाद उत्तम गायक थे। उनके पुत्र विश्वनाथ बाबू को उनकी विरासत प्राप्त थी। विवेकानन्द की मां भुवनेश्वरी देवी का कंठ भी मधुर था। विवेकानन्द पर पहले संस्कार मां के गाए लोरीगीत, लोकगीत एवं भजनों के थे। बचपन में जब विवेकानन्द गुनगुनाते थे, तभी पिता ने उसकी स्वर-क्षमता भांप ली थी।

1878 में विश्वनाथ बाबू सहपरिवार डेढ़ साल के लिए इस समय के छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में गए। वहां विश्वनाथ बाबू ने विवेकानन्द को ध्रुपद, धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, कीर्तन, श्यामा संगीत, बाऊल आदि बंगाली लोकसंगीत के पाठ रीति के अनुसार सिखाए। इसके बाद पिता ने कोलकाता आने पर उसे ज्ञान संपन्न गुरु के पास भेजने का निश्चय किया।

विवेकानन्द के पहले संगीत गुरु थे बेणीमाधव अधिकारी और दूसरे थे उस्ताद अहमद खां। दोनों रियाजी गायक थे। उनके पास जितनी गायन विद्या थी, विवेकानन्द ने उसे आत्मसात किया। इसके साथ ही शास्त्र पठन, बंदिशों का संग्रह तथा सरगम तैयार करने की शिक्षा भी जारी थी।
गायन के साथ-साथ वादन कला में विवेकानन्द ने प्राविण्य हासिल किया। उनके सगे चचेरे भाई अमृतलाला (हाबू दत्त) वादन-गुरु थे। हाबू बाबू विवेकानन्द से 5 वर्ष बड़े थे। गुरु के रूप में उन्हें प्रख्यात उस्ताद वजीर खां साहेब रामपुरवाले मिले।

नवम्बर,1881 में सुरेंद्रनाथ के यहां श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द की पहली भेंट हुई। भेंट होने पर श्रीरामकृष्ण, विवेकानन्द पर स्नेह करने लगे जिसका मुख्य कारण विवेकानन्द का गायन था। िर्िंववेकानन्द के पड़ोस की गली में शिमला स्ट्रीट पर रहने वाले सुरेंद्र बाबू ने उसे तत्काल घर बुला लिया। वहां परमहंस उपस्थित थे। सुरेंद्र बाबू ने विवेकानन्द से कहा, ‘ठाकुर जी को गायन अत्यंत प्रिय है। तुम एक-दो गीत सुनाओ।’ विवेकानन्द ने दो गीत सुनाए। पहला आयोध्यानाथ पाकडाशी रचित ‘मन चलो निज निकेतने’ और दूसरा बेचाराम चट्टोपाध्याय का, ‘जावे की हे दिन आमार बिफले चालिए।’ विवेकानन्द का ईश्वरदत्त कंठस्वर दोनों के बीच का अटूट मध्यस्थ और आत्मिक सम्मेलन का सेतु बन गया।

तानपुरा सुर में लगाए बिना विवेकानन्द कभी भी गाना शुरू नहीं करते थे। जब तक वह संतुष्ट नहीं होते, तब तक वह तार जोड़ते बैठे रहते। कभी-कभी इसमें 20-25 मिनट लग जाते। उसके गुरुबंधु बेचैन होते थे, क्योंकि वह तानपुरा सुर में लाने तक किसी को भी बोलने नहीं देते थे। परमहंस तो बहुत अधीर हो जाते। हर 2-3 मिनट बाद उसे गाना शुरू करने का आदेश देते, पर विवेकानन्द उनकी उपेक्षा करते। खास बात यह कि तानपुरा सुर में मिलाते समय उन्होंने कभी गुरु की आज्ञा का पालन नहीं किया। तानपुरा जब उसके मन मुताबिक स्वरों के साथ जुड़ जाता तब वह प्रभावशाली गायन करते थे।

विवेकानन्द का कंठ मानो गंधर्व का निवासस्थान था। उसके स्वर छेड़ते ही ठाकुर तल्लीन हो जाते और अल्प समय में समाधि लग जाती। उस स्वर का उनकी समाधि से कुछ ऐसा अतींद्रीय संबंध जुड़ गया था कि इधर विवेकानन्द का गायन शुरू होता और उधर ठाकुर समाधि में लीन हो जाते। समाधि के महानंद के निमित्त के रूप में उन्हें विवेकानन्द का गायन विशेष प्रिय था।
27 अक्तूबर, 1885 की घटना है। ठाकुर के भक्त बने डा. सरकार जब उनको देखने के लिए आए, तब विवेकानन्द गा रहे थे। ठाकुर को पता न लगे इसलिए डाक्टर अंग्रेजी में बोले, ‘इट इज डेन्जरस फार हिम।’ ठाकुर ने तुरंत जानना चाहा कि डाक्टर क्या बोले? झूठ बोलना सम्भव ही नहीं था। कहा, ‘डाक्टर कहते हैं कि विवेकानन्द के गायन से आप भावसमाधि में रहते हैं और इससे आपके स्वास्थ्य को खतरा है।’ ठाकुर डाक्टर की ओर देखकर बोलने लगे, ‘नहीं, नहीं मुझे कहां समाधि का अनुभव होता है?’ और आगे कुछ कहने से पहले ही समाधिस्थ हो गए।
मरहूम उस्ताद अल्लादिया खाँ साहेब ने तत्कालीन विख्यात तबला वादक खाप्रूजी को समारोह में ‘लयभास्कर’ पदवी से सम्मानित किया। ऐसे लयभास्कर का तबला सुनकर स्वामीजी ने उनकी खूब प्रशंसा की और कहा, ‘लकड़ी पर उंगलियों को चलाकर जैसा नाद पैदा होता है, वैसा ही नाद ऊपर की खाल (चमड़ी) पर से भी पैदा हो सकता है। है न?’ खाप्रूजी इस विचार से सहमत नहीं थे। वह मृदु स्वर में बोले, ‘स्वामीजी आप मजाक तो नहीं कर रहे हैं?’ बिना उत्तर दिए स्वामीजी ने तबला सामने खींचा और तबले की खाल (निर्वात भाग) में से वैसी ही आवाज निकाल कर दिखाई जैसी कि सिरे के लकड़ी के हिस्से पर मढ़े चमड़े से उत्पन्न होती है। श्रोतागण स्तब्ध हुए। क्षमा मांगकर खाप्रूजी ने स्वामी को साष्टांग नमस्कार किया।

स्वामीजी का गायन सुनकर मामा वरेरकर लिखते हैं, ‘स्वामीजी की आवाज असामान्य थी। नटश्री मोरराव कोल्हटकर जैसा मेघमंद्र था ही, इसके अलावा मंद्र सप्तक में से षड्ष तक सहज पहुंचने वाला भी था। भारत के कई महान गायकों को मैंने सुना है, पर खर्जा में षड्ज से तार सप्तक तक आसानी से विचरण करने की स्वामीजी की करामात किसी भी गायक में मुझे दिखाई नहीं दी। स्वामीजी की संगीत साधना की एक अजीब विशेषता यह कि गायन जितनी ही कुशलता से वह तबला बजाया करते थे।’

स्वामीजी ने प्रतिपादन किया है कि श्रोताओं के अंत:करण में रससंचार करना ही गायक का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा रससंचार करनेवाला देवदुर्लभ कंठस्वर उन्हें मिला था। उनके गले का गांभीर्य माधुर्य, उसकी उदात्तता श्रोताओं में ऐसी रससृष्टि निर्माण करती कि श्रोता अपना भान भूल जाते।

ऐसे महान संगीतकार के बारे में उनके निस्सीम भक्तों ने भी कुछ लेखन नहीं किया, जिसका अचरज होता है। ध्रुपद-धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, कीर्तन लोकगीत, रवींद्र संगीत आदि सभी प्रकार गानेवाले, तबलाबाज, अन्य कई वाद्य बजानेवाले, एक शास्त्रीय ग्रंथ अपनी आयु के तेईसवें वर्ष में लिखनेवाले और अपनी गायकी से श्रोताओं को समाधि का अनुभव कुछ मात्रा में करानेवाले स्वामी विवेकानंद संगीतज्ञ थे, यही बात बहुत से लोग नहीं जानते।

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