युवा सिनेमा- युवा भारत की बडी आशा

भारतीय सिनेमा के बहुरंगी-बहुढंगी यात्रा का एक महत्वपूर्ण अंग है ‘युवा सिनेमा’।
‘युवा’ अर्थात जवानी। मनुष्य के जीवन का सबसे बडा और महत्वपूर्ण दौर। पन्द्रह-सोलह से लेकर पैंतालीस वर्ष की आयु तक के काल को ‘युवा’ माना जाता है। इतने बडे कालखण्ड में मनुष्य के जीवन में कई घटनाएं होती हैं। इन सभी का हिंदी सिनेमा पर प्रभाव होना लाजमी है।
‘युवा’ अर्थात अध्ययन, पढ़ाई का दौर। परंतु हिंदी सिनेमा केवल इस बंधन तक ही सीमित नहीं रहा। ‘धूल का फूल’, ‘दिल’, ‘दिल का क्या कसूर’, ‘फूल और कांटे’ जैसी फिल्मों में इस विद्यार्थी अवस्था में होनेवाले प्रेम को दर्शाया गया है। ‘इम्तिहान’, ‘अंजान राहें,’ ‘दिल्लगी’ आदि कुछ फिल्मों में तो प्राध्यापकों के प्रेम संबंधों की चर्चा रही। शशिलाल नायर द्वारा निर्देशित ‘एक छोटी सी लव स्टोरी’ में एक विद्यार्थी अपने सामनेवाले घर में रहने वाली युवती (मनीषा कोईराला) को अलग नजर से देखता है। जवनी में कदम रखते ही विपरीत लिंग की ओर का आकर्षण फिल्म का मुख्य विषय था। मनीषा कोईराला ने इस फिल्म में दिखाये गये कुछ बोल्ड दृश्यों पर आपत्ती उठायी थी और आरोप लगाया था कि ये दृश्य उनकी हमशकल पर फिल्माये गये थे, जिसकी जानकारी उन्हे नहीं थी। इन आरोपों के कारण फिल्म की ओर देखने का ‘फोकस’ ही बदल गया। हालांकि यह विषय बहुत उपयुक्त था। शेखर सुमन और पद्मिनी कोल्हापुरे का ‘अनुभव’ इस विषय पर प्रकाश डालता है। मराठी में रवि जाधव द्वारा निर्देशित ‘बालक पालक’ में भी झसका चित्रण किया गया है। हमारी देश की किसी भाषा में इस महत्वपूर्ण नैसर्गिक विषय पर कोई अच्छी फिल्म नहीं बनी। वास्तविक ‘युवा’ के स्थन पर काल्पनिक ‘युवा’ को ही दर्शाया गया है। इसी कल्पना ने ही सिनेमा की ‘गल्लापेटी’ भरने में मदद की है।

राज कपूर की ‘बॉबी’ से लेकर राकेश रोशन की ‘कहो ना प्यार है। तक ऐसे कई फिल्में हैं। जो पारंपरिक फिल्मों की लीक पर फिट बैठती हैं। युवाओं की फिल्म अर्थात प्रेम का अचार-मुख्य इस सोच फिल्म बनाने में हमारे यहां धन्यता मान ली गई। राज कपूर की ‘बॉबी’ को उस जमाने की हिम्मतवाली फिल्म कहा जा सकता है। चालीस साल पहले एक नायिका का ‘हम तुम एक कमरे मे बंद हो’ कहना उत्सुकता का विषय था। तात्कालिक ‘युवा’ दर्शकों के लिये वह एक प्रकार का ‘सांस्कृतिक झटका’ था। हालांकि इससे उनकी मानसिकता उजागर हुई।
‘युवा’ का एक अर्थ बेकारी और बेरोजगारी भी है। कुछ लोगों को उत्तम शिक्षा के बावजूद भी नौकरी नहीं मिलती और कुछ लोग घर की खराब आर्थिक स्थिति के कारण अच्छी शिक्षा नहीं ले पाते। इन परिस्थितियों के कारण कोई इस ‘सिस्टम’ के विरोध में लडना चाहता है तो कोई गुनहगार बन जाता है। चालीस वर्ष पहले गुलजार ने ‘मेरे अपने’ में ऐसे ही ‘युवा’ वर्ग की परिस्थिति को दर्शाया गया है। वही सही मायनों में ‘युवा’ फिल्म थी। इसके पन्द्रह साल बाद एन.चन्द्रा. ने ‘अंकुश’ पर ‘मेरे अपने’ का प्रभाव था परंतु एम. चन्द्रा को यह श्रेय दिया जाना चाहिये कि ‘अंकुश’ स्वत: की पहचान बनो में सफल हुआ।

सत्तर के दशक के युवाओं की मानसिकता को पटकथा-संवाद लेखक सलीम जावेद ने बखूबी पहचाना। महंगाई, बेरोजगारी, स्मगलिंग, राजनैतिक दबाव, इमरजेन्सी आदि के कारण इस दशक में अस्वस्थता बहुत थी। ऐसे समय में तत्कालीन युवा पिढी को स्वयं से कनेक्ट होनेवाली या उनके मन में उठने वाले भयंकर असंतोष को किसी ‘माध्यम’ से व्यक्त करनेवाले सुपर हीरो की तलाश थी। यह एक प्रकार की सामाजिक, सामूहिक अपेक्षा थी। सलीम-जावेद की दमदार पटकथा वाली जंजीर (निर्देशक-प्रकाश मेहरा) दीवार और त्रिशूल (निर्देशक यश चोपडा) आदि ने यह मांग पूरी कर दी। इसी कारण इन फिल्मों का एंग्री यंग मेन नायक अमिताभ बच्चन युवाओं को अपना लगने लगा। इस बात से यह समझ में आता है कि सिनेमा और समाज का गहरा रिश्ता है। प्रत्येक काल में पन्द्रह से पैतालीस वर्ष का युवा व्यक्ति ही फिल्मों का असली दर्शक होता है। परंतु क्या प्रत्येक पीढ़ी की ‘युवा’ फिल्म होती है? एक युवा पीढी ने बांबे टाकीज की ‘किस्मत’ को अपनी पीढ़ी की ‘युवा’ फिल्म माना। इस फिल्म का नायक (अशोक कुमार) एक जेब कतरा था। हिंदी फिल्म का नायक सर्वगुण संपन्न, आदर्शवादी, सपने देखनेवाला होता है। इस प्रचलित व्याख्या को छोडकर नायक का जेबकतरा होना कौतुहल का विषय बना। दर्शकों की एक पीढ़ी को मेहबूब खान की ‘अंदाज’ अपनी पीढ़ी की फिल्म लगी। दिलीप कुमार- राजकपूर- नर्गिस के बीच घटित होने वाला प्रेमे त्रिकोण उन्हे अपने आसपास घटने वाली घटना ही लगी। उस समय के दर्शकों ने इत तीनों के अभिनय को एक समान ऊंचाई का बताया। इसके बाद की पीढ़ी ने के आसिफ निर्देशित ‘मुगल-ए-आजम’ को अपनी पीढ़ी की फिल्म चुनी। सलीम-अनारकली की यह भावनात्मक दास्तान उन्हें प्रभावित कर गई। इन सब से यह ध्यान आ ही गया होगा कि प्रत्येक ‘युवा’ पीढ़ी की अपनी एक फिल्म होती है। शक्ति सामंत की ‘आराधना’ के वालचंदर का ‘एक दूजे के लिये’, आदित्य चोपडा की ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ आदि इस मार्ग के कुछ महत्वपूर्ण पडाव हैं। परंतु जिन फिल्मों को असली और परिपूर्ण ‘युवा’ फिल्में कहा जा सकता है उनमें रवि टंडन की ‘खेल खेल में,’ के. वालचंद की ‘जरा सी जिंदगी’, मणि रत्नम की ‘युवा’ अब्बास टायरवाला की ‘न तुम जानो न हम’ आदि का उल्लेख आवश्यक है। ‘युवा’ में आज के पीढ़ी के युवाओं की मानसिकता, आवश्यकताएं, इच्छाएं आवश्यकता है। क्या युवाओं को राजनीति में जाना चाहिये? अपनी प्रतिभा का अमेरिका-इंग्लैंड के लिये उपयोग करना चाहिये या फिर आशुतोष गोवारीकर की स्वदेस के अनुसार उसे भारत में उपयोग करना चाहिये? युवाओं के लिये रोजगार के क्या अवसर हैं और उनमें कितनी मुश्किले हैं? ‘अच्छा आदमी’ बनने के लिये उच्च शिक्षा के साथ अन्य बातों जैसे वाचन, चिंतन, मनन की भी आवश्यकता होती है। ऐसी अनेक बाते, अनेक मुद्दे हैं जो फिल्मों के विषय हो सकते हैं। फिल्में केवल मनोरंजन का विषय नहीं है। उसके साथ ही वे जानकारी देते और प्रबोधन का कार्य भी करता है। दो दोस्तों की कथा (दोस्ती), दोस्तों के बीच एक प्रेमिका का आना और प्रेम त्रिकोण बनना (साजन), समलिंगी संबंध, विवाह पूर्व संबंध, एक से अधिक पार्टनर, कालेज विश्व, आदि तरह से ‘युवा’ फिल्मों की यात्रा शुरु है। इन सभी के साथ तीन फिल्मों का उल्लेख करना भी यहां आवश्यक है। पहली फरहान अख्तर निर्देशित ‘दिल चाहता है’ जिसमें तीन विभिन्न स्वभाव के व्यक्तियों की कथा-प्रेमकथा दर्शायी गई है। दूसरी राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित ‘रंग दे बसंती’ जिसमें आज की युवा पीढ़ी की इतिहास से मिलनेवाली प्रेरणा और उनका उस युवा पीढ़ी से तादात्म्य दिखाया है। तथा तीसरी ‘दिल्ली-बेली’ जिसमें आज की युवा पीढ़ी की भाषा, बोली, उनके बेधडक स्वभाव का दर्शन होता है। किसी भी समय की युवा पीढ़ी को ‘अपनी भाषा’ बोलनेवाली फिल्में बहुत भाती हैं। आज की जीवन शैली में भाषाओं का मिश्रण बहुत बढ़ गया है। इसमें कई नये और अपभ्रंश शब्द मिल गये है। प्रत्येक युवा पीढ़ी में पिछली पीढी के विषय में कौतुहल रहता ही है। परंतु वे इतिहास में बंधकर नहीं रहना चाहते। वे उसमें से प्रेरणा लेना चाहता है। विशेषज्ञ कई बार यह बात भूल जाते है। युवा पीढ़ी को एक ही समय में स्वप्न और चिंता, महत्वाकांक्षा और आशावाद, दबाव और संधी, आदि परिस्थितियों का सामना करता पडता है। इस प्रकार के वास्तविक फिल्मों की आवश्यकता है। पारंपरिक लोकप्रिय फिल्मों में बदलाव हो रहा है। ऐसे में इन महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान जाना भी आवश्यक है। आज का युवा भ्रमित है। उन्हें इन विषयों पर आधारित फिल्में देने के बजाय फिल्मकार दबंग, दबंग-2, खिलाडी 786, रावडी राठौड, आदि फिल्में परोस रहे हैं।

‘युवा’ फिल्में अपनी गति, शैली और आवश्यकता के अनुरुप निर्मित होती हैं। उसका दर्जा और प्रभाव बढ़ाने की आवश्यकता है। हिंदी सिनेमा की 100 वर्षों की यात्रा में अनेक मुद्दों पर ध्यान दिया जा रहा है। इसमें ‘युवा’ फिल्मों को सहभाग्तिा होना आवश्यक है। विशेषत: तब जब नई जनगणना के अनुसार भारत युवाओं के देश के रूप में अपनी पहचान बनाने जा रहा है। यह वातावरण भी ‘युवा’ फिल्मों के लिये पूरक सिद्ध होगा।

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