पर्यावरण और अविष्कार

प्रकृति सबसे बड़ी निर्माता भी है और नवनिर्माता भी। निर्माण का यह खेल प्रत्येक क्षण खेला जाता है। इस दुनिया में अभी तक लाखों लोगों ने जन्म लिया है और हर सेकंड़ में लोग जन्म ले रहे हैं। परंतु कोई भी एक दूसरे जैसा नहीं है। यहां तक कि जुड़वां लोग भी किसी न किसी रूप में चाहे वह आवाज हो, स्वभाव हो या उंगलियों के निशान हों भिन्न होते ही हैं। यह प्रतिक्षण होनेवाला नवनिर्माण ही तो है।

एक पेशीय जन्तुओं में उनकी आयु में कमी होने के कारण पीढ़ियो में परिवर्तन दिखाई देता है। ये जन्तु परिस्थितीनुसार स्वत: में परिवर्तन करते रहते हैं और नवनिर्माण भी करते हैं।

मानव भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है अत: प्रकृति के द्वारा मानव का और मानव के द्वारा प्रकृति का उपयोग किया जाना स्वाभाविक है। परंतु अगर इस उपयोग में समन्वय न हो, अगर मानव प्रकृति से आगे बढ़ना चाहे तो इसे प्रकृति कभी स्वीकार नहीं करेगी। केवल एक ही झटके में प्रकृति तबाही मचा सकती है। इसकी एक झलक पिछले दशकों में आये भूकंप और सुनामी ने दिखा दी है।

आज मानव नये-नये शोधकार्य कर रहा है। परंतु कई बार इन शोधकार्यों में पर्यावरण का विचार नहीं किया जाता। हालांकि प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल भी कुछ अविष्कार मानव ने किये हैं जैसे संकरित बीज और कम पानी में खेती करना आदि। बीज रहित अंगूर का निर्माण करने मे भी पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं है। हाइड़्रोपानिक्स से ड़्रिप इरिगेशन तक मानव ने जो भी आविष्कार किये उनसे प्रकृति को कोई नुकसान नहीं किया। बांबू के घर से बने हुए घरों से पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं है परंतु ऐसे उदाहरण अत्यल्प है। कई बार प्रकृति का ध्यान न रखते हुए ही आविष्कार किये जाते हैं। इसलिये इन सब खोजो के कारण पर्यावरण की प्रचंड़ हानि ही हुई है। सीमेंट और क्रांक्रीट के कारण प्रकृति में सीमेंट के जंगल खड़े हो रहे हैं। प्लास्टिक से लेकर मनुष्य के क्षणिक मनोरंजन के लिये उड़ाये जानेवाले फटाकों तक सभी ने पर्यावरण का विनाश ही किया है। तेज गति से आकाश में उड़कर सुंदर दृश्य प्रस्तुत करनेवाले पटाखों में तेजी से नवनिर्माण हो रहा है। इसके कारण ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण होता ही है। साथ ही उस क्षेत्र की रात का नैसर्गिक चक्र भी बिगड़ जाता है। इस बात की न कोई कल्पना करता है न ही फिक्र। निशाचर पशुपक्षियों का भी इस चक्र में महत्वपूर्ण योगदान होता हैं। बरगद, पीपल आदि अनेक वृक्षों के पुनरुत्पादन में निशाचर पक्षी (जैसे-चमगादड़) बहुत मदद करते हैं। इन पटाखों के धमाके के कारण वृक्षों के साथ पक्षियों के प्रजनन पर भी विपरीत परिणाम होता है।

हमारे देश में ऋषि मुनियों की परंपरा रही है। महलों में रहनेवाले और सभी सुख सुविधाएं भोगनेवाले राजा भी इन ऋषियों के सामने अपना शीश झुकाते थे, परंतु ये ऋषि मुनि जंगलों में, प्रकृति के समीप रहते थे। उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को मर्यादित रखा था। उनके आसपास असंख्य प्राणी और पक्षी रहते थे। ये ऋषि भी बहुत बड़े संशोधक थे। उनके पास अस्त्र-शस्त्र विद्या का भंड़ार था जिसमें उनके संशोधन सतत चलते रहते थे। उन्होने कई शस्त्रों की खोज की थी। उन्हें ड़र था स्वार्थी मानवों से, दानवों से। मानव ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अत: इन्हे ही दानव कहा जाता था। इन दानवों से प्रकृति का रक्षण करने का बीड़ा उन्होंने स्वत: ही उठाया था। जंगल की शेरनी का दूध वे सहज प्राप्त करते थे और उन्हे कई पक्षियों की भाषा भी ज्ञात थी। अकाल के निदान के रूप में उन्होंने पजर्न्ययज्ञ और पर्जन्यशास्त्र के शोध किये। आणिमा गरिमा जैसी सिद्धियां भी उन्हें प्राप्त थी परंतु उन्होंने प्रकृति के विरुद्ध कभी भी इसका उपयोग नहीं किया। उन्होंने प्रकृति के महत्व को समझ लिया था अत: अन्य कोई भी भौतिक सुख देने वाली वस्तुओं की जगह प्रकृति का अंग माने जानेवाले मानव देह और मन पर ऋषियों ने ध्यान दिया। मन का शोध ही सबसे बड़ा शोध है।

सूर्य संपूर्ण संसार को शक्ति प्रदान करता है। सूर्य से प्राप्त होने वाले फोटोन्स पर पूरा संसार जीवित रहता हैं परंतु हम सूर्य का आभार तक नहीं मानते। सूर्य नमस्कार तो दूर की बात है परंतु अगर मानव के हाथ में होता तो उसने सूर्य का एक टुकड़ा तोड़कर ही अपने पास रख लिया होता, जिससे प्रकृति को जय किया जा सके। हमारे देश की परंपरा में इसे प्रमुख ऊर्जा स्त्रोत के रूप में मानकर उसकी भक्ति और उपासना की जाती थी और आज भी की जाती है। विदेशों में विभिन्न प्रकार के त्वचा रोगों से पीड़ित लोग ‘सन बाथ’ लेते हैं, परंतु अपनी ही अर्घ्य देने की परंपरा को निरुद्देशीय क्रिया समझकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। शरीर का मुख्य आधार माना जानेवाला अस्थितंत्र कैल्शियम पर निर्भर करता है। आज का आधुनिक विज्ञान कहता है कि इस कैल्शियअ के लिये विटामिन ड़ी आवश्यक है । यह विटामिन ड़ी मानव शरीर मुख्य रूप से सूर्य प्रकाश से ही निर्माण करता है। सूर्य को अर्घ्य देने की प्रक्रिया में विटामिन ड़ी आदर्श निर्माण होता है। इस विटामिन ड़ी की खोज करनेवाले संशोधक को शायद नोबेल पुरस्कार भी मिला हो परंतु उस सूर्य देवताको जिसने इसका निर्माण किया हम भूल गये। अत: किसी भी आधुनिक वैज्ञानिक और संशोधक की तुलना में ये ऋषि ही श्रेष्ठ है।

आज के सभी वैज्ञानिकों, संशोधकों और नवनिर्माताओं को एक बात स्मरण रखनी चाहिये कि कोई भी खोज या निर्माण करते समय प्रकृति का ध्यान रखना चाहिये। ‘इको फ्रेंड़ली’ केवल चिन्ह के रूप में न रखकर उसे अनुसंधानों की आत्मा बनाना होगा। नवनिर्माण करना तब बहुत आसान हो जाता है जब वह प्रकृति के विरुद्ध किया जाये। मनुष्य को मारने की सैकड़ों पद्धतियां हैं और इजाद भी की जा सकती हैं। परंतु आज भी अप्राकृतिक रूप से जन्म देने की पद्धति का अस्तित्व नहीं है। ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ जैसी कुछ बाते हैं परंतु गांव में और अत्यंत गरीब व्यक्ति भी कर सके ऐसी कोई तकनीक नहीं हैं। जी तकनीक हैं उसके भी सफल होने के प्रमाण कम ही है। निसर्गोपचार की पद्धतियों को अब लोग अपनाने लगे हैं। परंतु इसमें कुछ लोगों का स्वार्थ निहित हैं।

प्रकृति को किसी भी प्रकार का नुकसान न पहुंचा कर पर्यावरण की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए कार्य करने वाले कई लोग हमारे देश में है। इन्हे न लोकप्रियता मिली न पैसा। आइये ऐसे कुछ शोधकर्ताओं के विषय में जानते हैं।

मुंबई जैसे पर्यावरण शत्रु शहर में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो पर्यावरण का ध्यान रखकर नवनिर्माण कर रहे हैं। अंधेरी में रहनेवाले और सरकारी नौकरी में कार्यरत आनंद भावे भी ऐसे ही ऋषितुल्य व्यक्ति है। आनंद भावे सदैव पर्यावरण का ही विचार करते हैं। हम घर में लकड़ी से बने अलग-अलग फर्निचर का उपयोग करते हैं। इनके कारण भले ही हमारा घर सुशोभित हो रहा हो परंतु पर्यावरण की हानि ही होती है। फिर इसका क्या उपयोग? इस प्रश्न पर चिंतन करते-करते आनंद भावे को रद्दी पेपर और उसका पुनर्निर्माण की कल्पना आई। नैसर्गिक गोंद का उपयोग करते हुए उन्होंने इस रद्दी से बच्चों के खिलौने विद्यालय के बेंच से लेकर ड़ायनिंग टेबल, आराम कुर्सी आदि कई वस्तुएं बनाई। इस कार्य में उनकी पत्नी का भी भरपूर साथ मिला। इन फर्नीचर को उन्होंने प्राकृतिक रंग भी दिया। इनमें भी उन्होंने नई-नई संकल्पनाये खोजीं। ऊंचाई में कग ज्यादा की जा सकने वाली कुर्सी, बच्चे भी उठा सकें और उन्हे चोट भी न लगे ऐसे सी-सॉ आदि आनंद भावे ने बनाये हैं। रद्दी कागजों से मजबूत रस्सियां भी बना सकते है। आज ऐसे व्यक्ति को सरकारी मान्यता मिलने की आवश्यकता है। क्योंकि उन्हे लोकप्रियत और पैसे की आवश्यकता भले ही नहो परंतु अपने समाज को उनकी और उनके कार्यों की आवश्यकता है।
गुजरात के मनसुख भाई प्रजापति भी ऐसे ही एक व्यक्ति हैं। जाति से कुम्हार कहलाने वाले मनसुखभाई ने मिट्टी से फिज बनाया हैं। सभी दृष्टि से पर्यावरण प्रिय यह फ्रिज सभी जगह उपलब्ध होने चाहिये।

अंधेरी के ही सुहास जोशी के अनुसार अगर रद्दी कागज और कपड़ों से शवदाहिनी चिता और शव पेटी बनाई जायें तो वृक्ष तोड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। केवल मुंबई में हर साल हजारों लोग मृत्यू के मुख में जाते हैं। एक शव को जलाने के लिये लगभग 360 किलो लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ यह कि हजारों किलो लकड़ी जलाई जाती है। और इससे कई गुना आधि कचला जमा कियाा जाता है। इनसे भी चिता और शव पेटियां बनायी जाती है जो अधिक प्रकृति प्रेमी हैं।

ऐसी अनेक कल्पनाओं को समाज ने सहायता करनी चाहिये। इसके लिये हमारा, आपका और सरकार की मदद की जरुरत है।

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