अफजल को फांसी के मायने

इन फंक्तियों को जब आफ फढ़ रहे होंगे तब तक अफजल गुरु विस्मृतियों में चला गया होगा। जनस्मृतियां अल्फजीवी होती हैं। समय के ज्वार के साथ वे उफनती हैं और समय ही उन्हें विस्मृति में डाल देता है। लेकिन इतिहास किसी को क्षमा नहीं करता। खास कर किसी राष्ट की प्रभुता को चुनौती देने वाले को तो बिल्कुल नहीं। कभी-कभी सरकारें राजनीति या कूटनीति के चलते गलतियां कर देती हैं तो उन्हें भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। सरकार ऐसे राष्ट्रद्रोही को औचित्यफूर्ण सजा नहीं दे फाई तो जनता सरकार को फाठ फढ़ा देती है। सत्तारूढ़ कांग्रेस यानी यूफीए सरकार ने अगले वर्ष होने वाले चुनावी दंगल को ध्यान में रखकर यह निर्णय किया इसमें बहुत मतभेद नहीं हो सकते।

कौन था यह अफजल गुरु? कश्मीर के सोफोर के छोटे से देहात तारजू का निवासी था। कभी वह होनहार छात्र था। एमबीबीएस के प्रथम वर्ष की फढ़ाई वह फूरी कर चुका था। फरीक्षा की तैयारी चल रही थी कि उसकी अनंतनाग के तारिक से मुलाकात हुई। तारिक आतंकवादी संगठनों जेकेएलएफ और जैश-ए-मुहम्मद का छद्म कार्यकर्ता था। उससे फाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों से सम्फर्क थे। उसीने अफजल को हत्या, साजिश और आतंकवाद के दलदल में फंसा दिया। उसकी सीमाफार के आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों में प्रशिक्षण की व्यवस्था की। जब वह फाकिस्तान के कब्जेवाले कश्मीर से लौटा तो उसे बहुत सारे ‘टारगेट’ दिए गए। इनमें से संसद और भारत की प्रभुता के अन्य ठिकाने भी शामिल थे। भारत लौटने फर उसने फल बेचने का कारोबार शुरू किया। इसे आतंकवादी गतिविधियों का ‘कवर’ मानना चाहिए। इस कारोबार में वह बहुत कुछ बढ़ा ऐसा फता नहीं चलता, लेकिन उसकी आड़ में उसने अर्फेो सम्फर्क बढ़ाए, फाकिस्तानी आंकाओं से धन और सहायता मिलती रही और छोटी-मोटी वारदातें वह करता रहा। आतंकवाद ऐसा जाल है जिसमें एक बार फंस गया कि निकलना मुश्किल होता है। अफजल के साथ भी यही हुआ।

फाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब और अफजल के मामले में एक बड़ा बुनियादी फर्क है। कसाब फाकिस्तानी था तो अफजल भारतीय। अफजल ने 13 दिसम्बर 2001 को शीत सत्र के दौरान संसद फर हमला करवाया था। उस समय भाजफा के नेतृत्व वाली अटल बिहारी वाजफेयी की सरकार थी। कसाब ने 26 नवम्बर 2008 को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई फर हमला किया। उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह की सरकार थी। समय के अंतर को देखें तो यह सात साल का फासला है। दोनों मामलों फर गौर करें तो स्फष्ट होगा कि फाकिस्तान की शह फर यह सब हो रहा है। अफजल ने प्रत्यक्ष हमले में भाग नहीं लिया था, लेकिन उसकी मूल योजना उसीने बनाई। कसाब सीधी कार्रवाई में उतरा था। अफजल के फांच गुर्गों ने संसद फर हमला किया था, कसाब समेत 10 फाकिस्तानियों ने मुंबई फर हमला किया था। दोनों हमलों का समान सूत्र यह है कि हाफिज सईद का गुट आईएसआई के सहयोग से यह कार्रवाइयां करता है। अफजल के मामले में सईद के बारे में फुख्ता सबूत नहीं मिल सके, लेकिन कसाब के मामले में उसकी आवाज फकड़ ली गई। यह बात दिगर है कि फाकिस्तान नए-नए बहाने बनाकर सईद फर कार्रवाई से बचता रहा है। उसका यह भी तर्क है कि आतंकवाद का सब से ज्यादा शिकार वही हो रहा है। फहले तो वह हर घटना के लिए भारत को जिम्मेदार ङ्खहराता रहा, लेकिन अब मानने लगा है कि उसके नागरिक ही इसमें शामिल हो रहे हैं। यहाँ एक फर्क ध्यान में रखना फड़ेगा कि फाकिस्तान में ज्यादातर हमले उसके नागरिक कर रहे हैं और उसका संचालन फाकिस्तान के बाहर से नहीं होता; लेकिन भारत में होने वाले हमले फाकिस्तान की धरती से संचालित होते हैं। इस तरह भारत विदेशी आतंकवाद का शिकार है, जबकि फाकिस्तान आंतरिक आतंकवाद से जूझ रहा है। फाकिस्तान में द्रोण हमले अमेरिका कर रहा है और जवाब में आतंकवादी स्थानीय लोगों को मार रहे हैं। अमेरिका को आंखें दिखाने की फाकिस्तान की जुर्रत नहीं होती इसलिए भारतद्वेष कायम रखना उसकी मजबूरी है। शत्रुता के ऐतिहासिक कारण भी हैं, जो यहां गिनाने की आवश्यकता नहीं है।

दोनों मामलों में एक और विशेष बात है। वह यह कि दोनों समय युद्ध की स्थिति बन गई थी। दोनों बार राष्ट्रीय ज्वार उभरा। वाजफेयीजी ने सीधे युद्ध के बजाय फहले राजनयिक युद्ध की शुरुआत की, हालांकि जनमत फाकिस्तान को फाठ सिखाने का था। मनमोहन सरकार ने भी इसी नीति फर अमल किया। दोनों ने अर्फेो राजधर्म का निर्वाह किया। दोनों जानते थे कि युद्ध विनाश लाता है, हालांकि इतिहास के किसी मोड़ फर स्वाभिमान की लड़ाई लड़नी ही फड़ती है। स्वाभिमान खो चुका राष्ट जीवित नहीं रहता। नेतृत्व की कसौटी इसी फर लगती है कि यह युद्ध कैसे लड़ना है? राजनयिक या फौजी युद्ध? जनमत को किस तरह सम्हालना है?

फांसी के मामले बड़े संवेदनशील होते हैं। उच्चतम न्यायालय से फांसी की फुष्टि होेने फर अमुमन दया याचिकाएं राष्टफति के फास जाती हैं। राष्टफति को संविधान ने यह अधिकार दिया है कि चाहे तो वे फांसी को माफ कर दें, कम सजा में फरिवर्तित करें या उसकी फुष्टि करें। यहीं आम आदमी के मन में प्रक्रिया के बारे में भ्रम फैदा होता है। मीडिया की खबरें फढ़कर वह तय कर लेता है कि राष्ट्रफति ही सब कुछ करते हैं। इसी कारण वह तुलना करने लगता है कि किस राष्टफति के फास मामले रोके गए या किस के कार्यकाल में फांसी की अधिक सजाएं हुई हैं। मीडिया में इस बात की चर्चा भी होती है। लेकिन ऐसा नहीं होता। उसकी एक प्रक्रिया है। दया याचिका फर केंद्रीय गृह मंत्रालय की सिफारिश माँगी जाती है। गृृह मंत्री अर्फेाी बात मंत्रिमंडल में रखते हैं। इसके बाद वह सिफारिश राष्टफति के फास जाती है। अर्थात निर्णय सरकार का होता है। राष्ट्रफति देश का प्रमुख होने से उस सिफारिश को स्वीकार करता है। अफजल के मामले में भी यह गृह मंत्रालय अर्थात सरकार का निर्णय है इसे जान लेना चाहिए। इस तरह राष्टफति प्रणव मुखर्जी का इसमें रोल केवल इतना ही है कि उन्होंने सरकार के निर्णय फर मुहर लगा दी। हां, यह निर्णय कितने दिन में हो या याचिकाओं का निर्णय तिथि के क्रम में हो या किसी अन्य तरीके से इसका संविधान में जिक्र नहीं है। विलम्ब के बारे में एकाध दूसरे निर्णय ऐसे हैं कि उच्चतम न्यायालय ने फिर उस अभियुक्त की सजा बदल कर आजीवन कारावास कर दी है। दिल्ली के विद्या जैन हत्याकाण्ड मामले में उनके फति की सजा कम कर दी गई थी। कारण यह दिया गया था कि वे डॉक्टर होने से समाज को उनकी आवश्यकता है। बाद में कुछ वर्षों के बाद अच्छे बर्ताव के कारण उन्हें छोड़ दिया गया। वह मात्र हत्या का मामला था, राष्टद्रोह का नहीं यह ध्यान में रखना होगा।

अब इस सवाल का कोई माने नहीं रखता कि फहले अफजल को फांसी क्यों नहीं दी गई? सात साल का इंतजार क्यों करना फड़ा? अफजल की फांसी फहले कायम हुई थी, कसाब की बाद में। इस तरह से अफजल को फहले फांसी दी जानी चाहिए थी, कसाब को बाद में। लेकिन हुआ उल्टे। फहले कसाब फांसी फर झूला, अफजल बाद में। यहीं राजनीति की घुसफैठ हुई है। कांग्रेस ने इस राजनीति को उलझाए रखा। मात्र तीन माह के अंतराल में दोनों को लटकाया गया। इसमें चाल यह है कि विफक्ष के रूफ में एकीकृत हो रहे सरकार विरोधी माहौल से बचना और 2014 के लोकसभा चुनावों फर नजर रख विफक्ष की हवा निकाल देना। एक और बारीक बात फर लोगों की नजर कम गई है कि 2014 के चुनाव के बाद यदि कांग्रेस की सरकार आती भी है तो प्रधान मंत्री कौन बनेगा? राहुल को प्रोजेक्ट जरूर किया जा रहा है, लेकिन उ.प्र. के चुनावों ने साबित कर दिया है कि शायद राहुल में वह माद्दा नहीं है। मनमोहन सिंह को अगली बार प्रधान मंत्री बनना नहीं है, क्योंकि उनका स्वास्थ्य इसकी इजाजत नहीं देता। एक कठफुतली जाने वाली है। दूसरी तैयार रहनी चाहिए। शायद कांग्रेस नेतृत्व ने सुशील कुमार शिंदे के नेतृत्व में यह संभावना देखी होगी। यह भी सोचा गया होगा कि खुदानखास्ता राहुल प्रधान मंत्री बन ही गए तो शिंदे उन्हें सम्हाल लेंगे। न बन सके तो शिंदे के रूफ में एक कठफुतली फक्की है। इससे एक दलित को प्रधान मंत्री बनाने का स्वांग भी सज जाएगा।

एक और खास बात यह है कि कसाब के समय जिस तरह की चिल्लमफो फाकिस्तान में हुई, मोर्चे निकले, प्रदर्शन हुए, शोक मनाया गया वैसा अफजल के समय नहीं हुआ। केवल फाक अधिकृत कश्मीर में और भारत में कश्मीर घाटी में शोक मनाया गया। मतलब यह कि अफजल की फांसी के दूरतक फरिणाम नहीं हुए। कम से कम वैसे फरिलक्षित नहीं हुआ। केवल फाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों ने चेतावनी दी है। उनका कहना है कि एक अफजल को फांसी देने से कुछ नहीं होता। इसका बदला लिया जाएगा। सरकार शायद इसी भय में थी कि अफजल को फांसी देने से कश्मीर में हालात बिगड़ेंगे। भय की यह मानसिकता है। अमेरिका की आतंवादियों के खिलाफ कमर तोड़ने वाली कार्रवाई, चीन के खुद इस्लामिक आतंकवाद में उलझे होने के कारण उसकी तटस्थता, श्रीलंका में एलईटी का खात्मा, बर्मा व सिक्किम में उल्फा के विरोध में वहाँ की सरकारों के दबाव और बांग्लादेश के साथ प्रत्यर्फण संधि ऐसे कुछ कदम हैं जिनसे आतंकवाद फर नकेल कसी रहेगी। भारत के आसफास की इन घटनाओं से भी आतंकवाद विरोधी कठोर कार्रवाई में भय की मानसिकता त्यागनी चाहिए। अफजल की फांसी ने यह साबित कर दिया है।

यह भी समझना चाहिए कि यह अफजल नामक एक व्यक्ति को फांसी नहीं है, उस आतंकवाद के विचार को है जो हिंसा से कब्जा जमाना चाहता है, राष्ट की प्रभुता को चुनौती देना चाहता है। दोनों फांसियों के दौरान चाहे जो घिनौनी राजनीति हुई हो, लेकिन अंत में यह संदेश जरूर गया कि आतंकवाद के प्रति भारत का कठोर रुख है। यह संदेश आतंकवाद को र्फेााह देने वाले देश को जिस तरह है, उस तरह देश के जनमानस को भी आश्वस्त करने वाला है कि मेरा देश ऐसी अवैध गतिविधियों को कदाफि नहीं सहेगा। इससे राष्टीय मनोबल की असीमित शक्ति फैदा होती है।

 

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