कश्मीरी मन

अफजल गुरू की फांसी के बाद कश्मीर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं उनमें काफी विरोधाभास है। राजनेता कुछ कह रहे हैं और वास्तविक परिस्थिति कुछ और है। इस लेख के माध्यम से हमने वहां की परिस्थतियों को आपके सामने रखा है। इस लेख पर हमें आपकी प्रतिक्रियाएं अपेक्षित हैं। 

चुनिंदा पाठकों के प्रतिक्रियाएं हम अप्रैल माह के अंक में एक परिसंवाद के रूप में प्रकाशित करेंगे।

पणजी (गोवा) में अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र की ओर से साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस केन्द्र की ओर से ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन सुव्यवस्थित ढंग से किया जाता है। इनमें आमंत्रित मेहमानों में देश-विदेश के उभरते कलाकारों, लेखकों और कुछ नया करने के इच्छुक लोगों का समावेश होता है। इन सब के लिये केन्द्र की संचालिका नंदिनी सहाय और उनके साथियों की प्रशंसा की जानी चाहिये।
इस बार का सम्मेलन गोवा और कश्मीर दोनों राज्यों ने मिलकर आयोजित किया था। अत: गोवा के साहित्यकार, कश्मीर के प्रमुख पत्रकार और नये विद्युत माध्यमों के द्वारा अपने मत प्रकट करने वाले और सामाजिक काम करने वाले युवा यहां आये थे।

मैं हमेशा से ही मुसलमानों के मनों को टटोलने का प्रयास करता रहता हूं। मैंने उन कश्मीरी लोगों से व्यक्तिगत रूप से चर्चा की। इनमें से अधिकांश मुसलमान और कुछ हिंदू थे। इन कार्यक्रमों एवं व्यक्तिगत चर्चा से कश्मीरियों के मन में मची हुई खलबली सामने आयी।

कश्मीर की वर्तमान परिस्थिति

पत्रकार इफ्तेखार गिलानी के साथ कश्मीर की वर्तमान परिस्थिति पर मेरा काफी देर तक वार्तालाप हुआ। वे स्वयं कश्मीरी हैं और दिल्ली में ‘डीएनए’ अखबार के लिये कार्य करते हैं। कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान के लिये जासूसी करने के आरोप में उन्होंने सात महीने तिहाड़ जेल में बिताए। इस्लामाबाद से प्रकाशित होने वाले भारत संबंधी समाचारों को उनके कम्प्यूटर से पाया गया था। न्यायालय में इफ्तेखार और उनके वकील ने दलील पेश की कि सारे समाचार सार्वजनिक हैं और इनके समाचार उनके कम्प्यूटर में पाये जाने में कुछ गलत नहीं है। इस पर विदेश मंत्रालय ने यह साबित करने की कोशिश की कि वह समाचार चुराया हुआ है और इफ्तेखार ने उसे पाकिस्तान भेजने की कोशिश की। विदेश मंत्रालय की इस रपट और इस्लामाबाद की रपट में अंतर था। अत: इफ्तेखार पर लगाये गए आरोपों को खारिज कर दिया गया। इस बात को सामने लाना आवश्यक है कि इस घटना को लेकर इफ्तेखार के मन में किसी भी प्रकार की जलन या द्वेष भावना नहीं है। उन्होंने आगे हुए परिसंवाद में भी अत्यंत तटस्थ भाव से यह अनुभव बताया।

इफ्तेखार ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि कश्मीर की आम जनता भी समझ चुकी है कि किसी बड़े हिंसाचार के बाद भी कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। उनके ही शब्दों में कहा जाये तो ‘गन रनिंग डिड नॉट यील्ड रिजल्ट’ (अर्थात बंदूकें चलाकर परिणाम प्राप्त नहीं हुआ)। हिंसाचार के कारण काम नहीं होता वरन निरीह हत्याएं ही होती हैं। अत: पिछले कुछ वर्षों में शस्त्रों के बिना संघर्ष करने की पद्धति वहां शुरू हो गयी है।

मेरे इस प्रश्न को कि क्या कश्मीरी धर्म के आधार पर पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं, उन लोगों ने सिरे से नकार दिया। कश्मीर की आम जनता के मन से यह भावना कब की निकल चुकी है, परंतु अब्दुल्ला सरकार से वे नाखुश हैं। उन्हें अब्दुल्ला दिल्ली की कठपुतली लगते हैं। वे कहते हैं कि कश्मीर को कश्मीरियों का शासन चाहिये। तो क्या अब्दुल्ला कश्मीरी नहीं हैं? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि हैं तो; परंतु, वे दिल्ली के इशारोें पर ही चलते हैं। प्रशासन जनताभिमुख न होने के कारण जनता उन्हें अपना नहीं मानती।

बातों ही बातों में उन्होंने कहा कि पिछले 462 वर्षों सें कश्मीर में कश्मीरियों की सत्ता नहीं है। सन 1550 से यह सत्ता शुरू हुई थी। परंतु जिस वर्ष में मुगलों ने उन पर कब्जा किया तब से कश्मीर पराधीन हो गया। सर्वसामान्य कश्मीरी लोग मुगल शासनकर्ताओं को विदेशी ही मानते हैं। मुगल साम्राज्य के अस्त होने के बाद जो हिन्दू शासक वहां आये उनसे लेकर करण सिंह तक किसी को भी वे अपना नहीं मानते। क्या वे उन मुगल शासकों को अपना मानते हैं, जो इन सबसे पहले ही कश्मीर में आ चुके थे? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने हां में दिया। वे अपनी इस्लामियत को तुगलक यूसुफशाह चक जो ईरान से कश्मीर में आया था, से जोड़ते हैं। वह ईरानी होने के बावजूद सुन्नी था। आज के कश्मीरी मुसलमानों को उनके पंथ का कहा जा सकता है। क्या इस अस्तित्व में कश्मीरी पंडित आते हैं? मेरे इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने हां में दिया। उन्होंने यह भी बताया कि उनके पूर्वज भारतीय नहीं थे, परंतु दादी, नानी हिन्दू ब्राह्मण परिवारों से थीं।

अभी के कश्मीरी युवक अपनी परिस्थिति से समझौता करने के लिये तैयार हैं। वे आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों से वे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। केवल इतना ही नहीं प्रशासन में सहभागी होने के लिये अनेक प्रशासकीय स्पर्धाओं को उत्तीर्ण करते रहे हैं। इतना सब होने के बावजूद वे अपने आस-पास तैनात भारतीय सुरक्षा बलों के सैनिकों को अपना शत्रु मानते हैं।

मैंने जब उनसे पूछा कि क्या वे मेरे जैसे मूर्तिपूजक को काफिर समझते हैं तो उन्होंने उत्तर टाल दिया और प्रश्न किया कि क्या आप हमें मुस्लिम नहीं मानते? मुझे हिन्दू मानने और काफिर मानने में अंतर है; ऐसा दर्शाते हुए मैंने उनसे प्रश्न किया कि क्या सुन्नी होने के कारण कश्मीर में बड़े पैमाने पर फैली सूफी संस्कृति को वे गैर मुसलमान मानते हैं? क्या वे शियाओं को भी काफिर समझते हैं? उनके द्वारा दिये गए उत्तर से मुसलमानों के मध्य का वैमनस्य सामने आता है।

भोजन के समय अन्य एक व्यक्ति से मैंने यही प्रश्न किया। शायद वह एक संवाद लेखक था। कश्मीरी फिल्म बनाने वाले एक हिन्दू के साथ पिछले कुछ वर्षों से वह काम कर रहा था। उसने बताया कि यह एक धार्मिक मुद्दा है। उसे धर्म का विशेष ज्ञान नहीं है और न ही उसने कुरान पढ़ी है। उसका कहना है कि कुरान सभी धर्मों और मतों को मानती है। कुरान में इस अर्थ वाली आयत भी है।

मैंने उनको कुरान की 2.190-1920 आयत का संदर्भ देते हुए पूछा कि उसमें अश्रद्धावानों को मृत्युदंड की सजा दी गयी है, तो क्या इस हिसाब से मूर्तिपूजक काफिर नहीं हैं? इस पर उन्होंने कुरान के विषय में अपना अज्ञान दर्शाया।

एक तरफा चित्रांकन

इस साहित्य सम्मेलन में किसी कश्मीरी महिला के दुख से व्यथित मैक कैश नामक एक रैप संगीतकार पर आधारित एक फिल्म दिखायी गई। इस फिल्म को राणा घोष नामक नवोदित निर्देशक ने निर्देशित किया है। राणा बचपन में ही कैनडा चला गया था। उसका परिवार वहीं बस गया है। अत: वह भी कनेडियन नागरिक बन गया है।

कार्यक्रम की प्रस्तावना पढ़ने वाले विवेक मेनेझीस ने यह कबूल किया कि उसे मैक कैश की रचनाएं पसंद नहीं आयीं और उसने प्रश्न भी किया कि राणा को उसमें क्या पसंद आया? राणा ने उत्तर दिया कि जब मैक कैश से मेरा संपर्क हुआ तो वह परवीन अहगानी के सामाजिक कार्य से प्रभावित था। इसी बीच सुरक्षा बलों के द्वारा उसके एक मित्र की हत्या की गयी। दुख के इस आवेश में ही उसने ‘मेरा निषेध’ नामक पहला रैप गीत लिखा। इसके बाद वह रैप गीत ही लिखने लगा।

यह फिल्म परवीन अहगानी और उसके जैसी अन्य महिलाओं जिन्होंने अपने बच्चे अपना परिवार आदि खोया है, पर बनायी गई है। परवीन साठ वर्ष की महिला हैं। उनके 20 वर्षीय पुत्र को एक रात कोई उठा ले गया। इस शंका के आधार पर कि एक आतंकवादी ने किसी घर में आश्रय लिया है, आजूबाजू के 3-4 घरों में पुलिस ने तलाशी ली। इस घटना से घबरा कर परवीन के बेटे ने खिड़की से छलांग लगायी। सुरक्षा बलों ने उसे पकड़ा और फिर वह कभी वापस नहीं आया। परवीन ने पुलिस स्टेशन, सुरक्षा बल के कार्यालय, शासन के दफ्तर सभी जगह गुहार लगायी, परंतु बेटे का पता नहीं चला। अब परवीन ने उन्हीं के जैसी अन्य महिलाओंं को साथ लेकर अपने अपनों को ढूंढ़ना शुरू किया है। कई तरह के दबावों को नजरअंदाज करके अपना काम करते रहने के कारण और आतंकवाद के कम होने कारण ऐसी घटनाएं भी कम हो गयी हैं।

मैंने प्रश्नोत्तरों के दौरान राणा से प्रश्न किया कि बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों की तैनाती के पहले आतंकवादियों ने भी घर के बेटों को अगवा किया था और वे उन्हें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में ले गये। वहां उनके साथ मारपीट की, उनकी मां-बहनों पर अत्याचार किया। क्या ये सारे दुख-दर्द कैश को दिखाई नहीं दिये? परवीना के कथन में भी उन महिलाओ के दर्द का उल्लेख नहीं था। परवीना को सुरक्षा सैनिक शत्रु लगते हैं। वे आमने-सामने उनसे झगड़ सकती हैं, परंतु उनके जिन धर्म-बंधुओं ने महिलाओं को अपनी वासना का शिकार बनाया है वे अपनी कहानी किसे सुनाएंगी।

मेरे इस प्रश्न से एक अन्य व्यक्ति का खून खौल गया। उनका नाम हुसैन था। उनका कहना था कि आतंकवादियों ने भले ही ऐसा किया हो पर सुरक्षा बलों के द्वारा मारे हुए युवकों की संख्या कई गुना अधिक है। अत: फिल्म का चित्रीकरण बिलकुल सही है।
मेरी बात को आगे बढ़ाने वाले एक और पत्रकार थे यूसुफ जमील। उन्हें आतंकवादियों और सुरक्षा बलों दोनों ने ही परेशान किया था। जान से मारने की धमकी, भगाकर ले जाना और मारपीट करना आदि घटनाएं हुई थीं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि राणा के द्वारा किया गया चित्रांकन एकतरफा है। उसे दूसरा पहलू भी दिखाना चाहिये था। मेरी बात को बल मिलने के कारण अन्य लोगों को भी यह बात ध्यान आयी कि चित्रीकरण एकतरफा हुआ है। हुसैन की तरह ही फाहदशाह ने भी कहा सुरक्षा बलों ने अधिक नुकसान पहुंचाया है, परंतु उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

इस फिल्म के कारण एक बात ध्यान में आयी कि वहां के 8-12-15 वर्ष के उम्र के बच्चों, युवकों में ‘स्वतंत्रता’ एक निंदनीय और घृणास्पद शब्द बन चुका है। कश्मीर के वातावरण का इन कोमल मन के बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इससे साफ जाहिर होता है। डर की परछाइयों में रहने वाली यह पीढ़ी क्या सामान्य जीवन जी सकेगी? इनके मानस-पटल पर अंकित जख्म और खरोंचें भरने में कितना समय लगेगा? इन जख्मों के निशान जिंदगी भर उनके साथ रहेंगे और शायद मृदु भावनाओं से वंचित जीवन ही उन्हें जीना पड़ेगा।

मुझे देवबंद और बरेली में अहसास हुआ कि मुसलमान अपने लिये एक अलग इतिहास लिख रहे हैं। फाहद शाह ने इसकी पुष्टि की। उनके शब्दों में कहें तो आतंकवादियों ने अगर 5000 मुसलमानों को मारा है तो सुरक्षा बलों ने 1,00,000 लोगों को मारा है। अत: सुरक्षा बलों को ही निशाना बनाना चाहिये। फिल्म में मुख्य मुद्दा दुख और करुणा था। इसे समझने के बजाय फाहद शाह और साहुत हुसैन ने अपने मन के कप्पे बंद कर लिये थे। हुसैन के साथ के शाब्दिक युद्ध में मैंने मुद्दा उठाया कि अपने ही धर्म-बंधुओं की ओर से भारत सरकार की गुलामी से मुक्त करने के लिये पाकिस्तान और अन्य इस्लामी देशों से आये हुए मुजाहिदीन आतंकवादियों द्वारा दिये गए घावों के कारण महिलाओं का क्या हाल होता है, इसका उन्हे अंदाजा नहीं है। एक बात और ध्यान में आयी कि अपने आंकड़े कम करके विरोधियों, सुरक्षा बलों के आंकड़े बढ़ा चढ़ाकर बताने पर जोर दिया गया।

अखबारों का मुंह बंद करना

इस चर्चा सत्र में इफ्तेखार गिलानी, यूसुफ जमील, अफसाना रशीद और फाहद शाह इत्यादि ने अपने विचार व्यक्त किये। इनमें से हरेक को समाचार पत्रों पर लगी पाबंदियों का सामना करना पड़ा था।

यूसुफ जमील उनमें सबसे ज्येष्ठ पत्रकार थे। वे बी.बी.सी. और अन्य समाचार पत्रों के लिये काम करते थे। उन्होंने बताया कि शासन ने भले ही न कहा हो, परंतु एक प्रकार की अघोषित बंदी समाचार पत्रों पर लगायी गई थी। पहले घटना स्थल पर पहुंचने के लिये श्रीनगर से अनुमति पत्र प्राप्त होते थे, परंतु प्रत्यक्ष घटना स्थल पर पहुंचने के बाद स्थानीय सुरक्षा अधिकारी या पुलिस उन्हें रोक देते थे। 1990-92 में भ्रमण ध्वनि (मोबाइल फोन) नहीं थे। अत: श्रीनगर से संपर्क करना मुश्किल था। घटना का सत्य समाचार देने पर आतंकवादी और प्रशासन दोनों ओर से नाराजगी दर्शायी जाती थी। शासन के हाथों में सरकारी विज्ञापनों की भरमार होती है और बड़े अखबारों को छोड़कर मध्यम स्तर के सभी अखबारों को उनकी आवश्यकता होती है। जिन संपादकों को अखबार बंद नहीं करने हैं वे खुद ही कुछ बंधन स्वीकार कर लेते हैं। जमील के शब्दों में कहा जाये तो अखबारों के मालिकों और संपादकों ने एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी है जिसके बाहर वे आना ही नहीं चाहते।

जैसे-जैसे आतंकवादियों का बल बढ़ता गया, वैसे-वैसे अखबारों पर बंधन बढ़ते गये। जमील को आतंकवादियों और सुरक्षाकर्मियों दोनों का सामना करना पड़ा था। भारत के अखबारों के लिये बंधन तो थे ही, परंतु यदि बी.बी.सी. के लिये थोड़ा सा बंधन मुक्त होने का प्रयास किया तो भी दोनों में से किसी एक का दिमाग घूम जाता था। आतंकवादियों द्वारा जान से मारने की धमकियां मिलने के बाद उनके कार्यालय में एक लिफाफा आया। उसे खोलते ही बम का धमाका हुआ और जमील का एक सहकर्मी मारा गया। इसके बाद बी.बी.सी. ने ही उन्हें समाचार देने से मना कर दिया। जमील को तकलीफ न हो, इसका दबाव भारत सरकार पर बढ़ाने के लिये बी.बी.सी. के दक्षिण एशिया के वरिष्ठ सहकारी भारत में आये थे। उन्होंने दिल्ली सरकार को जमील की पत्रकारिता के संबंध में सकारात्मक आश्वासन दिया। दिल्ली में राम मोहन राव नामक सेन्सर बोर्ड के अधिकारी थे। जमील की रिपोर्ट पर सदैव उनकी निगाह होती थी। वे उस रिपोर्ट में से कई भाग उन्हें निकालने के लिये कहते थे। अंत में जमील ने उन्हें ही बी.बी.सी. के लिये रिपोर्ट लिखने को कहा।

आतंकवादियों और प्रशासन के दबाव के कारण कई अखबार बंद पड़ गये थे। कश्मीर में कहीं भी घूमना-फिरना असुरक्षित हो गया था। कब-कौन-कहां से हमला कर दे, कहा नहीं जा सकता था। सबसे बड़ी बात यह कि लोगों का एक-दूसरे पर से विश्वास ही उठ चुका था। जमील ने बताया कि उनके कार्यालय में भेजा गया पार्सल बम आतंकवादियों ने सुरक्षा बलों से सहमति प्राप्त कर भेजा था। आज भी कश्मीर में अघोषित बंधन होने के कारण अखबार उन्हीं में जकड़े दिखायी देते हैं।

इफ्तेखार गिलानी ने अखबारों पर बंधनों का दूसरा पहलू पेश किया। वे स्वयं श्रीनगर और दिल्ली अर्थात सत्ता की छाया में रहते हुए संवाददाता का काम कर रहे थे। पिछले बीस वर्षों में मृतकों की संख्या 60,000 हो चुकी है। 1990 के आस-पास कश्मीर में एक भी स्थानीय अखबार अंग्रेजी में नहीं निकलता था। कश्मीर टाइम्स बाद में शुरू हुआ। जो स्थानीय अखबार बंद हुए उनमें से कुछ शुरू भी हुए तो आतंकवादियों और प्रशासन के लिये।

अफसाना रशीद के पत्रकारिका में प्रवेश के साथ ही उसके संपादक ने उसे बताया कि उसकी खबरें नाम के साथ छापी जाएंगी। पहले यह बात उसे प्रोत्साहन देने वाली लगी, परंतु बाद में उसे समझ में आया कि उसके नाम से लोग जान जाते हैं कि वह कश्मीरी है और अपनी समझ के अनुरूप वे उसे या तो आतंकवादियों को छुपकर मदद करने वाली या केन्द्र सरकार के इशारों पर चलने वाली समझने लगे। फाहद शाह नई पीढ़ी का एक पत्रकार है। उसने ट्विटर, फेसबुक आदि माध्यमों से लिखना शुरू किया। उसे लगा कि इस पर प्रतिबंध नहीं होगा। उसने समाचार संकलन के लिये एक स्वीडिश महिला की मदद करने का निश्चय किया। उस महिला के पेपर प्रसारित होने के बाद शासन की वक्र दृष्टि फाहद पर पड़ी। उसने ध्यान दिया कि उसके फेसबुक पर भी शासन की नजर है। उसे तो नहीं, परंतु करीब 100 युवकों को फेसबुक पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के कारण जेल की हवा खानी पड़ी है।

विधवा और अर्ध-विधवाओं की सहेली

अफसाना रशीद लगभग तीस वर्ष की कश्मीरी महिला है। उसके अनुसार उसे पत्रकारिता क्षेत्र के अनेक पुरस्कार मिले हैं। उसने ‘विडोज एण्ड हाफ विडोज – सागा ऑफ एक्स्ट्रा ज्युडिशियल अरेस्ट एण्ड किलिंग्स इन कश्मीर’ नामक किताब लिखी है। इस किताब के बारे में बताते हुए उसने कहा कि जो महिलाएं जानती हैं कि उनके पति की मृत्यु हो चुकी है, वे उनके लिये झगड़ती हैं। परंतु जिनके पति की मृत्यु की खबर नहीं मिलती और वे वापस भी नहीं आते, उनकी अवस्था खराब हो जाती है। एक ओर वे इस उम्मीद पर जीती हैं कि उनके पति लौटेंगे और व्यवहारिकता में ऐसा नहीं होता। ऐसी महिलाओं को वे अर्ध-विधवा कहती हैं। असल में आतंकवादी कार्रवाई की असली बलि ये महिलाएं और बच्चे ही होते हैं। अफसाना ने बताया कि इसकी प्रत्यक्ष स्थिति उसने मणिपुर में देखी है। वहां एक बार अगर पुरुष घर से बाहर निकला तो उसके मरने या गायब होने के बाद उसकी पत्नी और बच्चों की दुर्दशा हो जाती है। मैंने उनसे पूछा कि तुमने उन स्त्रियों के बारे में लिखा है; जिन पर सुरक्षा बलों ने अत्याचार किये हैं, परंतु जिन पर आतंकवादियों ने अत्याचार किया है उन एक-दो महिलाओं के बारे में भी नहीं लिखा। उसने इसे स्पष्ट शब्दों में नकार दिया। ऐसी महिलाओं के बारे में उसे पता जरूर होगा, परंतु आतंकवादियों के डर से उसने लिखा नहीं, यह बात स्पष्ट थी।

स्थानांतरितों का दुख

साहब हुसैन पत्रकार है और ब्लॉग लिखता है। उसने बोलते समय अपने अनेक ब्लाग का उल्लेख किया। उसकी बातों में आंकड़े मुखर रूप से और अधिक मात्रा में होते थे। उसके अनुसार कश्मीर से 23000 हिन्दू परिवार, 28000 मुसलमान परिवार, 4000 सिख परिवार स्थानांतरित होने की बात प्रशासन द्वारा बतायी जाती है। करीब 60000 लोग पाकिस्तान में स्थनांतरित हो गये। उन्होंने अपने धर्म-बंधुओं के प्रेम के कारण भारत से बेईमानी करते हुए स्थानांतर किया , परंतु उन्हें निराशा ही हाथ लगी। पाकिस्तान को भी उनसे प्रेम नहीं है। अमेरिका से निर्वासितों को मिलने वाली रकम में से उन्हें केवल एक डॉलर प्रति परिवार मिलता है, जिस पर गुजारा करना कठिन है। रहने के लिये घर भी नहीं है। साहब के मन में उन लोगों के प्रति करुणा दिखायी दी। मैंने हिन्दू पंडितों के विषय में चर्चा छेड़ी। मैंने कहा, ‘वे लोग भी एक जोड़ी कपड़े में दिल्ली और जम्मू में आ गये और अत्यंत बदतर जिंदगी जी रहे हैं।’ इस पर उसने कहा कि केन्द्र सरकार कश्मीर से विस्थापित हुए पंडितों को वापस लाने के लिये वे घर की मरम्मत या बांधने के लिये मदद करती है। किसी एक जाति विशेष की ऐसी मदद करना सही नहीं है। मैंने उसे बताया कि दो दशक पूर्व जाति के आधार पर ही पंडितों को कश्मीर से भगा दिया गया था। अगर जाति के आधार पर आरक्षण मिल सकता है तो मदद क्यों नहीं?

इस पर उसने एक अलग बात बतायी। कश्मीर में 18 जनवरी 1990 को स्थानांतरितों (विस्थापितों के नहीं) के दिवस के रूप में मनाया जाता है। उस समय जगमोहन वहां राज्यपाल थे। 18 नवम्बर की रात को शासकीय और निजी गाड़ियों से कश्मीरी पंडितों ने एक साथ स्थानांतर किया। इसके पहले मुसलमानो ने राज्यपाल से अपील की कि पंडित कश्मीर छोड़ के न जायें। उसके कहने का आशय यह था कि पंडितों ने अपनी मर्जी से कश्मीर छोड़ा है और इसकी न सिर्फ सूचना प्रशासन को थी, वरन उन्होंने बसें देकर उनकी मदद भी की।
इन बातों के बीच रैना ने विरोध जताते हुए कहा कि पंडितों ने निजी वाहनों का भी उपयोग किया था और उन्हें एक कार के लिये 1000 रुपये शुल्क भरना पड़ा था। रैना स्वयं उस रात को घर नहीं छा़ेड सके क्योंकि उनकी मां बीमार थी। उन्होंने बताया कि ठंड शुरू होते समय पंडित जम्मू चले जाते थे और गर्मियों में वापस आ जाते थे। अकेले और दिन में जाने से वे आतंकवादियों का निशाना बन सकते थे। अत: उन्होंने इकट्ठे और रात में जाना ठीक समझा। जो लोग उस रात निकल गये वे वापस नहीं लौट सके। कई वर्षों के बाद उन लोगों ने अपनी जमीन जायदाद स्थानीय लोगों को कौड़ियों के दाम बेच दी। स्थानीय मुसलमान उन्हें सुरक्षा नहीं दे सकते थे।

आतंकवादी उस भस्मासुर की तरह है, जो उनके पोषणकर्ताओं को ही खा जाते हैं। जब तक पंडितों को भगाया गया, तब तक स्थानीय मुसलमान उनकी संपत्ती लूटने में मदद कर रहे थे। अब पाकिस्तान में भी वही हो रहा है। तालिबानी, लष्कर-ए-तैयबा आदि नामों के आतंकवादियों की हिम्मत इतनी बढ़ गयी है कि वे पेशावर हवाई अड्डे पर मिसाइल से हमला कर रहे हैं।

आशा की किरण

इस सारी भारी भीड़ में एक सत्र कश्मीर के कलाकारों और वो भी हिंदू कलाकारों का था। हिन्दू होने का ठप्पा लगना उनके हित में नहीं था, परंतु उनके नाम और काम को देखते हुए लगा कि उनके काम करने का दृष्टिकोण अलग है। ज्योत्सना सिंह और निखिल चोपड़ा, दोनों ही कश्मीरी हैं। उनका संबंध पूर्व के राज घरानों से था, अत: वे स्वयं को जनता का शोषक मानते थे। उनके मन के किसी कोने में अपराधबोध था। इसी भावना को निखिल ने अपने शब्दों में व्यक्त किया। मुझे उसके शब्द हिन्दुओं द्वारा दो शतकों में किये गए एकतरफा आत्म परीक्षण और आजकल की जाति भेदों के भूत से निर्माण हुयी मनोवृत्ति के दर्पण लगे। क्या अन्य उच्च वर्णीय मुस्लिमों ने सामान्य लोगों का शोषण नहीं किया? कश्मीरी मुसलमानों से हुई बातचीत में यह भाव दिखायी नहीं दिया। उनके सत्र का शीर्षक था ‘फिर एक बार कश्मीर (बैक टू कश्मीर)’

ज्योत्स्ना बचपन में ननिहाल जाती थीं। उस समय की सुखद यादें उन्होंने जाहिर की। उन्होंने कबूल किया कि धनवान परिवार से होने के कारण उन्होंने सामान्य जनता की गरीबी को कभी महसूस नहीं किया। 15 वर्ष के बाद अब वे फिर से कश्मीर जाने लगीं हैं। वहां उन्होंने पहले अपना घर ठीक किया। अब वे वहां के स्थानीय बच्चों और कुम्हारों के लिये कला क्षेत्र में कार्यरत हैं।

इन कुछ घंटों में उच्च स्तरीय कश्मीरियों के साथ रहते हुए और उनसे हुए वार्तालाप से पता चला कि उनके मन में कैसी खलबली मची है। उनकी बातों के पीछे क्या भावना है। हालांकि यह पूर्ण सत्य नहीं है।

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