सामाजिक समरसता के पुरोधा स्वामी विवेकानंद

भारत की दुरावस्था का कारण और निदान स्वामी जी की दृष्टि में-
स्वामी विवेकानंद जी की मान्यता थी की भारतीय जीवन दर्शन दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। इतने श्रेष्ठ जीवन दर्शन के बाद भी सामाजिक विषमता की खाई देखकर उन्हें गहन वेदना होती थी। उन्होंने अपनी पीड़ा कुछ इस प्रकार व्यक्त की- ‘‘किन्तु इस सबसे ऊपर, मैं आप को पुन: स्मरण दिलाता हूं कि, प्रत्यक्ष कार्य की महती आवश्यकता है और उस कार्य का पहला चरण है, हमें भारत के लाखों दलित लोगों के पास जाना होगा, हाथ दे कर उन्हें उठाना होगा।’’

एक गुरुभाई को लिखे पत्र में स्वामी जी ने मार्गदर्शन दिया-‘‘यदि भलाई चाहते हो तो घण्टा इत्यादि को गंगाजी में सौंपकर साक्षात भगवान नारायण की ‘विराट और स्वराट की’ मानव देहधारी प्रत्येक मनुष्य की सेवा में तत्पर होओ। यह जगत विराट रूप है प्रभु की पूजा का अर्थ है, उसके जन की सेवा इसी को कर्म कहते हैं। चुपचाप पड़े रहकर घण्टा हिलाना, यह तो एक प्रकार का रोग ही है।

ईश्वर को हम प्रतिदिन दीनबन्धु दीनानाथ कहकर उनकी प्रार्थना तो करते हैं, किन्तु जिनके वे प्रभु बन्धु हैं, स्वामी हैं, उनके प्रति हमारा व्यवहार क्या है? प्राध्यापक सुन्दर राम अय्यर के सुपुत्र श्री के. एस. रामस्वामी शास्त्री महाविद्यालय के छात्र ही थे, जब स्वामी विवेकानन्द त्रिवेन्द्रम में उनके घर रुके थे। श्री के. एस. रामस्वामी शास्त्री लिखते हैं- ‘‘नियत ही था कि मैं सन 1892 के अन्तिम दिनों में त्रिवेन्द्रम में स्वामी विवेकानन्द से मिलूं और कई दिनों तक उनके साथ रहूं। स्वामी जी हमारे घर में 9 दिन रहे। (एक दिन) उन्होंने मुझे एवं मेरे पिताजी से कहा- मातृभूमि के प्रति केवल लगाव या प्रेम भावना मात्र नहीं, तो व्यावहारिक देशभक्ति का अर्थ है, देशबान्धवों की सेवा करने का तीव्र भावावेग। मैंने पूरे देश में पैदल यात्रा की है और मैंने अपनी आंखों से अपने लोगों की अज्ञान, दु:ख और अस्वच्छता की स्थिति देखी है। मेरी आत्मा में आग लगी है और इस दुर्दशा को बदलने की ज्वलन्त इच्छा से मैं जल रहा हूं। यदि ईश्वर को पाना है, तो मानव की सेवा करें। नारायण तक पहुंचने के लिए सेवा करें- दरिद्र-नारायणों की अर्थात भारत के लाखों क्षुधापीड़ितों की!’’

अस्पृश्यता से आहत-

स्वामी जी चेन्नई में 10-15 दिन रहे। रोज सायंकाल घूमने जाते तो देखते 20-25 लोग हटो, बचो पुकारने लगते। सब स्वामी जी से दूर हो जाते। इन्हें कुछ समझ नहीं आता कि यह क्या हो रहा है। दो दिन देखने के बाद तीसरे दिन एक का हाथ पकड़ लिया और पूछा यह क्या चल रहा है। उसने जो बताया सुनकर स्वामी जी अचम्भित रह गये। सूर्यास्त के समय शाम को परछाइयां लम्बी हो जाती हैं, हम लोगों की परछाई आपको स्पर्श ना कर ले, इसलिए सब दूर हो जाते हैं। बाद में स्वामी जी ने लिखा-आत्मवत सर्व भूतानां मानने वाले देश में दीवानों का यह कैसा पागलपन? तुम्हारे सामने एक भयानक दलदल है उससे सावधान रहना। सब कोई उस दलदल में फंसकर खतम हो जाते हैं। वर्तमान हिन्दुओं का धर्म न वेद में है न पुराण में, न भक्ति में है और न मुक्ति में, धर्म तो भोजन पात्र में समा चुका है; यही वह दलदल है। वर्तमान हिन्दू धर्म न तो विचार प्रधान ही है और न ज्ञान प्रधान, ‘मुझे न छूना, मुझे न छूना’ इस प्रकार की अस्पृश्यता ही उसका एकमात्र अवलम्बन है। इस घोर वामाचार रूपी अस्पृश्यता में फंसकर तुम अपने प्राणों से हाथ न धो लेना, जो लोग गरीबों को रोटी का एक टुकड़ा नहीं दे सकते, वे फिर मुक्ति क्या दे सकते हैं? दूसरों के श्वास-प्रश्वास से जो अपवित्र बन जाते हैं, वे फिर दूसरों को क्या पवित्र बना सकते हैं? अस्पृश्यता एक प्रकार की मानसिक व्याधि हैं, उससे सावधान रहना।

आत्मोन्नति का पर्याय है सेवा-

उनके भाषणों और लेखों में यही भाव झलकता था कि सेवा का कोई गुप्त उद्देश्य नहीं होना चाहिए, सेवा कोई वाणिज्य कर्म नहीं है कि तुम कुछ प्राप्त करने के लिए अपने धर्म को अपनी सेवाएं दे रहे हो उन्होंने लिखा- ‘‘मत भूलो कि राष्ट्र झोपड़ियों में निवास करता है…राष्ट्र का प्रारब्ध अधिकांश लोगों की स्थिति पर निर्भर करता है; क्या तुम उन्हें ऊपर उठा सकते हो? उनकी जन्मजात धार्मिक पहचान को बनाये रखते हुए क्या तुम उनकी खोई पहचान वापस दिला सकते हो? यही उद्देश्य अपने सामने रखो…बिना धार्मिक आस्थाओं को क्षति पहुंचाये उनकी उन्नति’’

मैं उन महापुरुष का शिष्य हूं, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी एक पेरिया (चांडाल) के घर को साफ करने की अपनी इच्छा को प्रकट किया था। अवश्य, वह इस पर सहमत नहीं हुआ और होता भी कैसे? एक तो ब्राह्मण ऊपर से संन्यासी, वे आकर घर साफ करेंगे, इस पर क्या वह कभी राजी हो सकता था? निदान, आधी रात को उसके घर में घुस जाते और अपने बड़े-बड़े बालों से ही घर को बुहार आते और कहते- हे जगन्माता मुझे यह अनुभव करने दो कि मैं दासानुदास हूं, मेरे अहम को पूर्णत: समाप्त कर दो मां। और यह काम वे कई दिनों तक करते रहे। मैं उन्हीं महापुरुष के श्रीचरण अपने मस्तक पर धारण किये हुए हूं। वे ही मेरे आदर्श हैं, मैं उन्ही आदर्श पुरुष के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूंगा।

समाज की निस्वार्थ सेवा ही उच्चतम आध्यात्मिक साधना है, हममें से हरेक को अपना कुछ समय, शक्ति और धन समाज हित में वंचितों और दुखीजनों की सेवा में देना चाहिए। ‘नर सेवा-नारायण सेवा’ इस आध्यात्मिक विशेषता से युक्त आह्वान पर भारत को जगना होगा।

आस्थावान विवेकानंद-

जैसे लकड़ी को उसके रेशे की दिशा में ही चीरना आसान होता है वैसे ही पुराने हिन्दू धर्म का संस्कार हिन्दू धर्म से ही हो सकता है। हमारे गरीब हिन्दू लोग किसी भी पाश्चात्यवासी से अधिक नीति परायण हैं। उन्होंने दरिद्र नारायण और दलित नारायण की सेवा का आह्वान किया। उन्होंने सभी प्रकार के भेदभाव को दूर करने, सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानने, समाज में प्रेम, शान्ति, भाई चारा, सौहार्द्रता का वातावरण निर्माण करने का सन्देश दिया। स्वामी विवेकानंद ने अटूट आत्मविश्वास और अपूर्व साहस के साथ कहा- ‘‘हमें आज तक सिखाया गया है कि मातृ देवो भाव, पितृ देवो भाव, आचार्य देवो भव, किन्तु अब में कहता हूं कि-चांडाल देवो भव, दरिद्र नारायण देवो भव, शूद्र देवो भव। अर्थात अभावों में जीवन जी रहे दरिद्र, चांडाल और शूद्र लोग ईश्वर के समान हैं।’’

धर्म के आधारभूत तत्व त्याग, सत्य, परोपकार तथा सेवा की भावनाएं हैं। इनसे ही मनुष्य का जीवन धार्मिक तथा मानवीय बनता है। स्वामी जी की बतायी हुई धर्म कल्पना रूढ़िवाद नहीं है। धर्माधारित आचरण करने वाली जन शक्ति ही राष्ट्र की शक्ति होती है। वस्तुत: स्वामी विवेकानंद सामाजिक समरसता के सच्चे पुरोधा थे। स्वामी जी के संदेश आज की परिस्थितियों में और अधिक प्रासंगिक और प्रेरणास्पद हैं। वे पाश्चात्य संस्कृति एवं भौतिकवादी काल में भारतीय समाज को चिर सनातन आध्यात्म का संबल प्रदान करते हैं। ऐसे युग पुरुष, कर्मवीर, सच्चे मानवतावादी सन्त और समाज सुधारक की एक सौ पचासवीं जयन्ती के अवसर पर हम उनकी शिक्षा के अनुरूप स्वयं को ढालने का शुभ संकल्प लें, जिससे भारतवर्ष पुन: अपने पूर्व गौरवशाली स्वरूप के साथ विश्व में स्थापित हो सके।

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