इण रो जश नर नारी गावे धरती धोरां री

राजस्थान का नाम आते ही शौर्य और वीर रस का भाव हृदय में हिलोरे लेने लगता है। यहां की देशभक्ति और बलिदानी परम्परा से राजस्थान ही नहीं, देश के हर नागरिक का सिर गर्व से ऊंचा उठ जाता है।

राजस्थान को स्वतन्त्रता पूर्व राजपूताना अथवा रजवाड़ा नाम से जाना जाता था। पुराने समय में राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों की भौगोलिक विशेषताओं अथवा जातियों के नाम से विभिन्न नामों से जाना जाता था। सर्वाधिक प्राचीन नामों में मरु, धन्व, जांगल, मत्स्य, शूरसेन, साल्व हैं। मरु और धन्व शब्द जोधपुर सम्भाग के लिए प्रयुक्त होता था। आधुनिक बीकानेर का क्षेत्र ‘जांगल’ नाम से जाना जाता था। यहां ‘जांगलू’ नाम का प्रसिद्ध नगर है जहां के शासकों को ‘जांगलधर बादशाह’ कहा जाता था। मत्स्य की राजधानी महाभारत कालीन विराट नगर थी। राजा विराट इसके शासक थे। इसका क्षेत्र आधुनिक जयपुर, अलवर तथा भरतपुर के भागों में था। अलवर तथा भरतपुर के बृज से सटे क्षेत्र में शूर सेन रहते थे। साल्वों की अनेक शाखाएं अम्बाला के पास जगाधरी और गंगानगर में भादरा तक थी। बाद में राजस्थान को मारवाड़, मेवाड़, हाड़ौती, मेवात आदि नाम से जाना जाने लगा।

1647 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात जब राजपूताना की देशी रियासतों के विलय के फलस्वरूप इस प्रदेश का पुनर्गठन हुआ तो इस नव गठित राज्य का कर्नल टॉड द्वारा प्रयुक्त नाम ‘राजस्थान’ स्वीकार किया गया।

देश का सबसे बड़ा राज्य

विद्वानों के मत से राजस्थान का प्राकृतिक स्वरूप जैसा आज दृष्टिगोचर होता है, वैसा अतीत में नहीं था। राजस्थान का पश्चिमी भाग वर्तमान में अपार बालुका (रेत) राशि से आच्छादित है। किन्तु एक समय था, जब यहां सागर की विशाल तरंगें क्रीड़ा किया करती थीं। इस सागर के धीरे‡धीरे सूख जाने के बाद उस स्थान पर रेतीले टीलोंने अपना प्रसार किया। उस विशाल सागर का अवशेष आज भी हमें कच्छ के रण के रूप में देखने को मिलता है।

वर्तमान अरावली पर्वत श्रंखला (सिरोही से अलवर की ओर जाती हुई लगभग 480 कि. मी.) प्राकृतिक दृष्टि से राजस्थान को दो भागों में विभाजित करती है। यह पर्वत न केवल भारत के अपितु विश्व के सबसे पुराने पर्वतों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि किसी समय जब हिमालय का अता‡पता नहीं था, उन दिनों में भी अरावली पर्वत गर्व से सीना ताने खड़ा था तथा इसकी ऊंची चोटियां बर्फ से ढकी रहती थी। बड़े‡बड़े ग्लेशियर नीचे गिरते थे। जैसलमेर तक इन ग्लेशियरों के साथ बहकर गये हुए विशाल शिलाखण्ड आज भी देखे जा सकते हैं।
राजस्थान के उत्तर में पंजाब व हरियाणा, पूर्व में उत्तर प्रदेश पश्चिम में गुजरात तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश है। इसकी उत्तर से दक्षिण में लम्बाई लगभग 820 कि. मी. तथा पूर्व से पश्चिम में 870 कि. मी. है। राजस्थान का पूरा घेरा लगभग 5620 कि. मी. है। पाकिस्तान से सटी इसकी सीमा 1070 कि. मी. है।

राजस्थान का कुल क्षेत्रफल 3 लाख 42 हजार 236 वर्ग कि. मी. है। यह भारत के कुल क्षेत्रफल का 10.40% है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह देश का सबसे बड़ा राज्य है। राजस्थान का क्षेत्रफल ग्रेट ब्रिटेन, इटली, बेल्जियम, स्विट्जरलैण्ड, युगोस्लाविया, ईरान, इराक, श्रीलंका, आदि देशों से अधिक है।

धरती धोरां री

राजस्थान की भूमि पहाड़ी, पठारी, मैदानी एवं रेतीली में विभक्त है। राजस्थान को मुख्यतया चार प्राकृतिक भागों में विभाजित किया जा सकता है‡

1. उत्तर पश्चिम का रेतीला भाग 2. मध्य स्थित अरावली का पर्वतीय भाग 3. पूर्वी मैदानी भाग और 4. दक्षिण‡पूरब का पठारी प्रदेश। राजस्थान का एक बड़ा भाग रेगिस्तानी होने के कारण इसे ‘धरती धोरां री’ नाम से भी जाना जाता है। मोटे रूप में यह रेगिस्तानी प्रदेश अरावली पर्वत के पश्चिम ढाल से लेकर भारत‡पाक की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा तक विस्तृत है।

राज्य की जनसंख्या का 30 प्रतिशत भाग इस प्रदेश में निवास करता है। स्थान‡स्थान पर बालू के टीले जो बालू की पहाड़ियों की तरह लगते हैं, ‘धोरे’ कहलाते हैं, इसीलिए राजस्थान को धोरों की धरती कहते हैं।

उच्च परम्पराएं

राजस्थान की संस्कृति के बहुत कुछ अंग तो सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के अनुकूल है, परन्तु राजस्थान की कुछ अपनी विशेषताएं भी रही हैं। शरणागत की रक्षा करना राजस्थान की विशेषता रही है। जिस प्रकार पौराणिक नरेश ‘शिवि’ ने अपनी शरण में आये कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर का मांस तक दे दिया था, उसी प्रकार रणथम्भौर के राव हम्मीर ने दो शरणागत मुसलमानों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर दिया।

देव स्थानों की पवित्रता और अनेक अधिष्ठाता देवों की महानता को भी राजस्थान ने मान्यता दी है। अधिष्ठाता देवों को राज्य का असली स्वामी मानकर उनके दीवान की हैसियत से राज्य कार्य चलाने की एक गौरवपूर्ण मान्यता भी यहां चली आयी है। जिस प्रकार उदयपुर के महाराणा ‘एकलिंग जी’ (शिव जी) के दीवान के रूप में कार्य करते रहे हैं। इसी प्रकार कई अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार की प्रथा थी। युद्ध के समय शत्र्ाु के हाथ में पड़ने से बचने व अपना सतीत्व बचाने के लिए महिलाओं द्वारा सामूहिक जौहर कर अपना जीवन बलिदान करने की उच्च परम्परा भी यहां रही है।

कला‡संसार

राजस्थान की राजधानी जयपुर में संगमरमर की देवाकृतियों का निर्माण इन दिनों बहुतायत से होता है। देेश‡विदेश में जयपुर की इन मूर्तियों की बहुत मांग रहती है। झालावाड़ जिले के झालरापाटन में भी लाल और पीले पत्थरों की आकर्षक मूर्तियां बनायी जाती हैं। नाथद्वारवा के समीप मौलेला ग्रम के शिल्पकारों द्वारा बनायी जाने वाली विभिन्न लोक देवी‡देवताओं की मिट्टी की मूर्तियों ने भी देश-विदेश में बहुत ख्याति अर्जित की है।

जयपुर के मूल्यवान व अर्ध-मूल्यवान रत्न, मीनाकारी व नक्काशी की वस्तुएं, प्रस्तर प्रतिमाएं, मिट्टी के खिलौने, लाख की चूड़ियां, बाड़मेरी, सांगानेरी व बगरू की हाथ की छपाई, जयपुर में हाथी दांत का काम, आकर्षक लहरिये व चुनरियां, नागरा जूतियां, जोधपुर की कशीदाकारी जूतियां, बटुए, मोठड़े, बादले, बन्धेज की ओढ़नियां, उदयपुर के चन्दन व लकड़ी के खिलौने, नाथद्वारवा की फड़ चित्रकारी, सलमा‡सितारों व गोटे किनारी के काम से युक्त परिधान, सवाई माधोपुर के लकड़ी के खिलौने व खस के बने पायदान, डिब्बियां व पंखियां, कोटा की मसूरिया‡डोरिया की साड़ियां तथा प्रतापगढ़ की सोने पर थेवा कला आदि भी देश-विदेश में विख्यात हैं।

संगीतज्ञ महाराणा कुम्भा

संगीत, नृत्य कला में राजस्थान की देन अतुलनीय है। यहां अनेक शासक स्वयं महान संगीतविद् रहे हैं। इनमें मेवाड़ के महाराणा कुम्भा का नाम अग्रणी है, जो स्वयं वीणावादक भी थे। वे ‘‘आमृति वीणा’’ के आविष्कारक भी थे। उन्होंने ‘संगीत राज’ और ‘‘संगीत मीमांसा’’ नामक जिन ग्रन्थों की रचना की वे आज भी संगीत मर्मज्ञों द्वारा आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। जयपुर के कलाप्रेमी शासक प्रताप सिंह ने भी ‘संगीतसार’ व ‘राग मंजरी’ नामक दो ग्रन्थों का प्रस्तुतिकरण किया था। इसी प्रकार बीकानेर महाराजा अनूप सिंह एवं अन्य कई शासकों ने संगीत पर कई ग्रन्थ लिखे हैं। राजस्थान के देश‡विदेश में नाम कमाने वाले कलाकारों की सूची बहुत लम्बी है। आज कल जयपुर के ग्रेमी पुरस्कार प्राप्त पं. विश्व मोहन भट्ट, पं. जसराज व डागर बन्धुओं के नाम विश्व विख्यात हैं। नृत्य कला का भी राजस्थान प्रमुख केन्द्र रहा है। कत्थक शैली का जन्म राजस्थान मेंही हुआ। कत्थक की तीन प्रमुख शैलियां हैं‡ जयपुर शैली, लखनऊ शैली व बनारस शैली। जयपुर शैली के कत्थक नृत्यकार पं. दुर्गालाल ने अपनी कला से सारे विश्व को मुग्ध किया। राजस्थान का घूमर नृत्य नृत्यों का सिरमौर माना जाता है। इसके अतिरिक्त मेवाड़ और बाड़मेर का गेर, शेखावाटी का गींदड़ जोधपुर का डांडिया, जालोर का ढोल, जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य, भरतपुर का बम नृत्य, नाथद्वारा का डांग नृत्य, लूर नृत्य, झूमर भवाई, चरी, चकरी, गवरी, तेरहताली, कच्छी घोड़ी नृत्य आदि प्रमुख हैं।

भाषा-साहित्य

राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत कई बोलियां हैं जिनमें विशेष अन्तर नहीं हैं, परन्तु भिन्न‡भिन्न क्षेत्रों में बोली जाने के कारण इनके भिन्न‡भिन्न नाम पड़ गये हैं। मुख्य पांच बोलियां हैं‡मारवाड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी और वागड़ी। मारवाड़ी का प्राचीन नाम मरु भाषा है। सन्त दादू और उनके शिष्यों की रचनाएं इसी भाषा में हैं। इसी की उप भाषा हाड़ौती कोटा, बूंदी, बारां व झालावाड़ जिलों में बोली जाती है।
मेवाती अलवर‡भरतपुर के उत्तर पश्चिम भाग और दिल्ली के दक्षिण में गुड़गांव की बोली है। डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिलों में बोली जाने वाली बोली को ‘वागड़ी’ कहते हैं। यह मेवाड़ के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। राजस्थानी बोलियों में गद्य‡पद्य में प्रचुर साहित्य लिखा गया है।

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