दिव्य प्रेम सेवा मिशन

एक ऐसे समय में जब उदात्त मानवीय मूल्य धीरे‡धीरे अप्रासंगिक होने के खतरे में हों और नये समय की नयी मूल्य संरचना में करुणा, सेवा व मानव धर्म के सन्दर्भ निरन्तर क्षुद्र अथवा आवांछित होते जा रहे हों, तब आशीष गौतम जैसी कोई शख्सियत सेवा, समर्पण व मनुष्यता के प्रति एक गहरा भरोसा पैदा कर जाती है। आशीष गौतम याने अपने सपनों, संकल्पों और सरोकारों की बदौलत बिल्कुल ही एक वैचारिक ध्रुवांत पर बैठे व्यक्ति को भी वैचारिक असहमतियों के पार जाकर प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व के स्वामी। समाज में सबसे उपेक्षित व तिरस्कृत जीवन जीने को अभिशप्त कुष्ठ रोगियों की सेवा तथा उनके और उनके बच्चों के प्रति समाज के मौजूदा दृष्टिकोण में परिवर्तन के लिए संघर्षरत एक अथक योद्धा।

स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानते हुए उनके ही जन्म दिवस पर 12 जनवरी 1997 को चण्डीघाट (हरिद्वार‡उत्तराखण्ड) से शुरू हुआ श्री गौतम की सेवा का यह संकल्प तमाम बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद पिछले 13 वर्षों में एक पल के लिए भी कमजोर नहीं पड़ा है। खुद अपने हाथों से कुष्ठ रोगियों की सेवा करते हुए उनके लिए व्यवस्थित चिकित्सालय, उनके बच्चों के लिए आवासीय स्कूल और परिवार की महिला सदस्यों के लिए स्वरोजगार प्रशिक्षण का ेकेन्द्र संचालित करने वाली दिव्य प्रेमी सेवा मिशन जैसी बड़ी संस्था देने के बाद भी श्री गौतम की सेवा साधना नित नये सपने गढ़ने और पूरा करने की जद्दोजहद में जुटी रहती है। आमतौर पर ऐसा देखा जाता है कि ऐसे विशिष्ट सामाजिक‡सांस्कृतिक क्षेत्रों में काम करने वाले व्यक्तियों के भीतर एक विशिष्टताबोध और पहली बार परिचित हो रहे किसी व्यक्ति को प्रभावित करने के लिए आत्म महिमान्वयन बहुत सारे प्रकट‡प्रच्छन्न उपक्रमों के प्रति सचेष्ट होने की प्रवृत्ति होती है, लेकिन श्री गौतम इसके भी अपवाद हैं। उनके व्यक्तित्व में एक विनम्र साधुता साफ‡साफ दिखायी दे जाती है।

दिव्य प्रेम सेवा मिशन के मुखिया श्री गौतम का जन्म उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में 22 अक्टूबर 1962 को हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में परास्नातक के बाद विधि स्नातक की भी उपाधि प्राप्त कर रोजगार हासिल करने का कोई उपक्रम करने के स्थान पर वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये। संघ के प्रचारक के तौर पर वह प्रतापगढ़, हमीरपुर व गोरखपुर में रहे, लेकिन इसी बीच गंगोत्री की एक यात्रा से उनका जीवन एक नयी दिशा में मुड़ गया। स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानने वाले श्री गौतम ने संन्यासी सेवक की भूमिका में आकर वह चुनौती स्वीकार कर ली, जो उन्हें किसी साधक, संन्यासी या गृहस्थ के रूप में नहीं स्वीकार करनी पड़ती। इस भूमिका में उनके पास दास के रूप में बड़े परिवार के मुखिया की जिम्मेदारी है।

                                                        प्राप्त सम्मान

1. विवेकानंद सेवा सम्मान, श्री बड़ा बाजार कुमार सभा पुस्तकालय, कोलकाता : 24/01/2010
2. पंचदस भाऊराव देवरस सेवा सम्मान समारोह‡ 2009‡2010
3. पावन चिन्तन दास चैरिटेबल ट्रस्ट, गाजियाबाद उत्तर प्रदेश 25/11/2010
4. समाज रत्न सम्मान, विश्व मित्र परिवार‡ युगाब्द‡5111
5. गुरु हनुमान मानव सेवा रत्न सम्मान, गुरु हनुमान सेवा संस्थान, गोरखपुर‡ 14/03/2010
6. डॉ. यशवंतराव केलकर युवा पुरस्कार‡ 2003
7. राष्ट्रीय महात्मा गांधी सम्मान, मध्य प्रदेश शासन : 2006‡2007
8. स्वामी विवेकानंद जयन्ती समारोह, स्वामी विवेकानंद राष्ट्रीय सम्मान, झांसी‡2006
9. अइत-खखखढच ॠुरश्रळिी
10. घरश्रश्रर्लीीसळ घर्रािी-2010, इहरीरींतळज्ञरी डरसिरा-3, तळज्ञरीर झीशीरज्ञर झीरीहरीींळ.
11. भाऊराव देवरस स्मृति सेवा सम्मान, भाऊराव देवरस स्मृति न्यास लखनऊ‡ 01/02/2001
12. वन्दे मातरम राष्ट्रीय अलंकरण सम्मान, ग्वालियर 2011

 

कुष्ठ रोगियों के इलाज के लिए समिधा सेवार्थ चिकित्सालय, उनके बच्चों की शिक्षा एवं महिलाओं के स्वरोजगार प्रशिक्षण के लिए सेवाकुंज और देश के विभिन्न प्रान्तों से आये कुष्ठ रोगियों के 225 से ज्यादा बच्चों के लिए आदर्श आवासीय विद्यालय ‘वन्दे मातरम कुंज’ का संचालन उनकी जिम्मेदारी का एक छोटा सा अंश है। उनका असल मकसद तो समाज में व्याप्त उन मिथकों को तोड़ना है, जिनके कारण कुष्ठ रोगियों को कदम‡कदम पर उपेक्षा व अस्पृश्यता का दंश झेलना पड़ता है। इस मकसद में उनकी सहायक होती है कथा व्यास श्री विजय कौशलजी महाराज द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली श्रीराम कथा और मिशन द्वारा प्रकाशित आध्यात्म प्रेरित, सामाजिक‡सांस्कृतिक पत्रिका ‘सेवा ज्योति’। श्री गौतम के साथ दिव्य प्रेम सेवा मिशन में सर्वदेव, प्रशान्त, बालकृष्ण शास्त्री, जितेंद्र तिवारी जैसे कुछ उत्साही नौजवान भी हैं, जिन्होंने अपना जीवन कुष्ठ रोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया है।

हालांकि उनका यह कार्य कुछ कम महत्व का नहीं समझा जाना चाहिए। यह सच है कि इस तरह के सारे कार्य लोक कल्याणकारी राज्य की आवश्यक भूमिकाओं के साथ सम्बद्ध होते हैं और स्थूल तरीके से देखा जाये तो यह एक प्रकार से राज्य की भूमिका का स्थानापन्न होना है और इस प्रक्रिया में व्यवस्था परिवर्तन के क्रान्तिकारी तत्वों का अनिवार्य विलोपन सम्भावित है, फिर भी संघर्ष की बड़ी सामाजिक परियोजनाओं के सापेक्ष इस प्रकार के कार्यक्रमों को सामान्य मानव धर्म और पारम्परिक सेवा भाव में उपघटित नहीं किया जाना चाहिए। बड़ी सामाजिक परियोजनाओं के सहयोगी अनुषंग के रूप से मानवीय संवेदनशीलता और जीवन को कर्मशीलता के महत्व को रेखांकित करती है।

 

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