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राजग की बगिया में फिर  बहार

काट और शह का खेल

by अमोल पेडणेकर
in जुलाई -२०१३, संपादकीय
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ग्ाुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र हो गए लगता है। इसमें गलत कुछ नहीं है। जिसमें राष्ट्रहित की संभावना भरसक दिखाई दे रही हो वह हमेशा चर्चा का केंद्र अवश्य बनेगा। लेकिन, यह चर्चा सकारात्मक हो, वैचारिक हो, विधायक हो तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परंतु, जब वैचारिक विरोध के अलावा किसी को साजिश से घेरने बू आती हो तो प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। मोदी को चुनाव प्रचार प्रमुख बनाने का भाजपा का निर्णय, इसके खिलाफ लालकृष्ण आडवाणी का इस्तीफा मामला, इशरत जहां मुठभेड़ काण्ड का खुलासा और सीबीआई तथा आईबी का आमने-सामने आना, नीतिश कुमार का भाजपा से रिश्ता तोड़ना और एनडीए के घटक दलों में सुगबुगाहट आदि घटनाएं ऐसी हैं जिनमें किसी न किसी तरह मोदी को घेरने की चाल दिखाई देती है। राजनीति के खेल बड़े विचित्र होते हैं। इसलिए मीडिया में जो कुछ आ रहा है उस पर ही राय बनाकर चलना खतरनाक साबित हो सकता है। हमारी द़ृष्टि केवल राष्ट्रहित की हो तो फिर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता, यह बात गांठ बांधकर रखनी चाहिए। इससे विवेकप्ाूर्ण राय बनाना आसान होता है और ग्ाुमराह होने से बचा जा सकता है।

पहले मोदी को प्रचार प्रमुख बनाने का निर्णय लें। भाजपा ने उन्हें अभी केवल प्रचार प्रमुख बनाया है, प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार नहीं। इस बात को लेकर एनडीए के घटक दलों में नाराजी का कोई कारण नहीं होना चाहिए। यह भाजपा यानी पार्टी का निर्णय है कि कौन सा काम किस व्यक्ति के जिम्मे सौंपा जाए। किस पार्टी का कार्य उसका कौनसा नेता या कार्यकर्ता करें इसमें दूसरी पार्टी का कोई दखल नहीं होना चाहिए यह बात स्वाभाविक है। यह उस पार्टी का आंतरिक मामला है। भाजपा ने एनडीए के घटक दलों से कभी नहीं कहा कि उनका नेतृत्व कौन सम्हाले। फिर भाजपा को यह निर्देश देने वाले घटक दल कौन होते हैं? एनडीए का नेता चुनना हो अथवा सत्ता में आने पर प्रधान मंत्री चुनना हो तो यह बात समझ में आ सकती है, अन्यथा यह बात किसी राजनीतिक साजिश के अलावा कुछ नहीं लगती।

खैर, बात यहां आकर थम जाती तो कुछ नहीं होता। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे को भी एनडीए के कुछ घटक दलों, कांग्रेस, सपा आदि ने भुनाने की कोशिश की। कुछ नेताओं के अनर्गल बयान तक आए और कुछ मामलों में तो कांग्रेस को अपने ही नेताओं के बयानों से अपने को दूर रखना पड़ा। भाजपा और संघ के रिश्तों को ठीक से न जानने वालों ने क्या कुछ नहीं कहा। आडवाणीजी ने अपने स्वयंसेवकत्व का पालन करते हुए इस्तीफा वापस ले लिया। भाजपा के इस आंतरिक मामले को भी कांग्रेस या अन्य विरोधियों ने खूब भुनाया, लेकिन जनता के मोदी को बढ़ते समर्थन के कारण यह मामला भी ठण्डा पड़ गया। फिलहाल, इस पर कोई बयान नहीं आ रहे हैं, लेकिन भविष्य में क्या होगा इसके प्रति भाजपा को भी सतर्क रहना होगा ताकि जनता का बुध्दिभेद न हो।

इसी क्रम में एक और बात सामने आई और कांग्रेस का मोदी पर वार खाली गया लगता है। ग्ाुजरात दंगों के सारे मामलों में मोदी निष्कलंक साबित होते रहे, लेकिन इशरत जहां मुठभेड़ काण्ड में सीबीआई का पिशाच सिर पर सवार था। यह भूत भी अब उतर जाना चाहिए। इशरत जहां मुठभेड़2004 में हुई थी। इस मुठभेड़ को फर्जी बताकर सीबीआई को मोदी के पीछे लगा दिया गया। इतने सालों में सीबीआई कोई ठोस सबूत या वास्तविक रिपोर्ट तो दे नहीं पाई, उल्टे आईबी के एक अफसर राजेंद्र कुमार को ही जांच के काम से हटा दिया गया। सीबीआई और आईबी दोनों के कार्यक्षेत्र को समझना जरूरी है। सीबीआई जहां देश के भीतर आपराधिक मामलों की जांच-पड़ताल करती है, वहीं आईबी खुफिया एजेंसी है। इसी एजेंसी की सूचना पर यह मुठभेड़हुई थी। उसकी सूचना सही होने की बात 26/11 के मुंबई हमलों के सिलसिले में अमेरिका में पकड़े गए हेड़ली ने अपने बयान में कही है। हेड़ली ने कहा है कि इशरत जहां और उसके साथी लष्कर -ए-तैयबा के प्रशिक्षित आतंकवादी थे। ये लोग प्रशिक्षण पाने के लिए पाकिस्तान भी गए थे। इशरत मानवी बन कर उत्पात मचाने वाली थी। आईबी ने ऐसा एक पत्र भी सीबीआई को दे दिया। इस तरह सीबीआई को नरेंद्र मोदी के पीछे लगाने की पोल खुल गई है। सब से खतरनाक बात यह कि दो प्रशासनिक संस्थाएं आमने-सामने आ गई। साम्प्रदायिकता का हौवा खड़ा कर राजनीति करने की कांग्रेस की साजिश भी इससे साफ हो गई, जिसे जनता अवश्य समझती है।

मोदी के खिलाफ ये सारे तीर फिलहाल निष्प्रभ होते दिखाई दे रहे हैं। इसलिए नीतिश कुमार ने भाजपा से 17 साल प्ाुराना नाता तोड़ दिया। राजनीति में ये खेल चलते ही रहते हैं। इसका भाजपा पर कोई असर पड़ेगा ऐसा नहीं लगता। चुनाव के प्ाूर्व हुए नाते-रिश्ते बाद में बदल जाते हैं। जो आज टूट गए वे कल मिल भी सकते हैं। लेकिन, कांग्रेस की शह पर भाजपा को नीतिश कुमार ने जो तिलांजलि दी है वह उन्हें आने वाले भविष्य में संकट में डाल सकती है। नीतिश कुमार कोई नए खिलाड़ी नहीं है, न भाजपा को अपरिपक्व समझना चाहिए। यह तो अच्छा हुआ कि दोनों पक्ष अपनी ताकत को समन्वित कर पाएंगे। फिलहाल जो दिखाई देता है वह यह है कि नीतिश कुमार की राजनीतिक छवि अगले चुनाव तक शायद उनका साथ न दे। अब वहां दो तरह का धुवीकरण संभव है। मोदी के कारण हिंदुत्ववादी वोट ध्रुवीकृत होंगे और नीतिश कुमार मुसलमानों के वोटों पर दांव लगाएंगे।

नीतिश कुमार की राष्ट्रीय स्तर पर कोई क्षमता नहीं है। इसलिए इसका राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभाव नहीं होगा और नीतिश कुमार रहते तो वे देशभर से वोटों से एनडीए की झोली भर देते ऐसा भी नहीं है। इसलिए चिंतित होने की बात नहीं है- कहावत है जो हुआ सो हुआ आगे की सुधि लेय। काट और शह का खेल राजनीति का अंग ही है, इसलिए भमित होने की नहीं, सतर्क रहने की आवश्यकता है।
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Tags: hindi vivekhindi vivek magazinepolitical equationspolitical pressurepoliticianpoliticsreality of indian politics

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