खुद में उलझा पाक

चुनाव के दौरान और अपनी सियासी जिंदगी में तीसरी बार सत्तारूढ़ होने के बाद मोहम्मद नवाज शरीफ ने भारत के साथ रिश्ता बेहतर बनाने की बार‡बार इच्छा जाहिर की है। अपने चुनावी घोषणा‡पत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों और लाहौर समझौते के अनुरूप जम्मू‡कश्मीर मामला हल करने की बात उन्होंने कही थी। घोषणा‡पत्र में दोनों देशों के बीच संबंधों की बेहतरी के साथ व्यापार बढ़ाने पर भी जोर दिया गया था। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद पाकिस्तान की नई विदेश नीति का खुलासा करते हुए भी उन्होंने यह प्रतिबद्धता जतायी है कि वे कश्मीर सहित सभी लंबित मुद्दों को सुलझाने की कोशिश करते हुए भारत के साथ संबंधों को बेहतर बनाने का सतत प्रयास करेंगे। मियां नवाज शरीफ ने दो टूक शब्दों में कहा है कि जब तक दक्षिण एशिया में शांति नहीं होती पाकिस्तान का विकास और समृद्धि का लक्ष्य सफल नहीं होगा। ऐसे में क्या यह मान लेना उचित होगा कि भारत‡पाक के बीच युद्धों और मुठभेड़ों के दिन लद गए तथा अब दोनों मुल्क दुश्मनी भूलकर नये एशिया के निर्माण में जुट जाएंगे?

यह सही है कि भारत के साथ बातचीत शुरू करने में जितना योगदान नवाज शरीफ का रहा उतना किसी भी दूसरे पाकिस्तान के शासक का नहीं रहा है। उनकी ही पहल पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान गये थे। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया था कि वे भारत के साथ अच्छे रिश्ते चाहते हैं, तभी दोनो देशों के बीच लाहौर समझौता भी हुआ था। पर यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि नवाज शरीफ मूल रूप से पाकिस्तान के दक्षिण पंथी और राष्ट्रवादी तत्वों के नेता समझे जाते हैं। उन्होंने ही अफगानिस्तान में तालिबान को आगे बढ़ाया था और उन्होंने ही भारत के लिए जवाबी एटमी धमाका किया था। उनके प्रधानमंत्री रहते ही करगिल युद्ध हुआ था। जनरल मुशर्रफ द्वारा उनका तख्ता पलट दिए जाने तक यही माना जाता था कि फौज के साथ यदि किसी भी पाकिस्तानी नेता के घनिष्ठ संबंध हैं तो वे मियां नवाज के हैं।

वैसे फिलहाल तो पाकिस्तान अपनी आंतरिक समस्याओं में इस कदर उलझा है कि उसे भारत से युद्ध छेड़ने की फुर्सत ही नहीं है। शरीफ की पार्टी की सरकार सिर्फ पंजाब प्रांत मेंही बनी है। अन्य प्रांतों को साथ लेकर चलना भी उनकी प्राथमिकता होगी। ऐसे में वे भारत से भिड़ेंगे या अपनी राजनीतिक गुत्थियां सुलझाएंगे? फिलहाल नवाज शरीफ के हाथों में एक जर्जर और मुश्किल राष्ट्र की बागडोर है। इस समय पाकिस्तान में जबरदस्त बेरोजगारी, गरीबी, गिरती अर्थ व्यवस्था, तालिबानी आतंक, जगह‡जगह बम विस्फोट, सरहदी इलाकों में ड्रोन हमले, बिजली का घोर संकट और आतंकवाद का सतत मंडराता साया है। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण यह देश कुव्यवस्था के कारण अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराई गई ऑक्सीजन के बल पर सांस ले रहा है। अमेरिका अपने सैनिकों को अगले साल अफगानिस्तान से हटा रहा है। ऐसे में वह भी एक शांतिपूर्ण पाकिस्तान देखना चाहता है।

पाकिस्तान के लगभग सभी प्रमुख नेता नवाज शरीफ को आश्वस्त कर चुके हैं कि यदि वे भारत के साथ संबंध सुधार की दिशा में कोई बड़ी पहल करेंगे तो वे उसका समर्थन करेंगे। ऐसे मे उन पर भारत से संबंध बिगाड़ने का दबाव बहुत कम रहेगा। यह बात की गौरतलब है कि पाकिस्तान मे आम चुनाव के दौरान भारत विरोधी प्रचार लगभग हुआ ही नहीं, भारत विरोधी नारे भी नहीं लगे। लगभग सभी प्रमुख पार्टियों के घोषणा‡पत्रों में भारत के साथ मधुर रिश्तों की बात कही गयी की।

पर आज की तारीख मे नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच अच्छे रिश्तों की सबसे बड़ी विरोधी पाकिस्तानी फौज है। शायद पाकिस्तान की फौज को ऐसा लगता है कि यदि इस्लामाबाद और नई दिल्ली एक दूसरे के करीब आ गए तो कहीं न कहीं उसका दर्जा घटेगा। साथ ही भारत, अफगानिस्तान सहित सामरिक एवं विदेश नीति में उसकी दखल एवं रणनीति कमजोर पड़ेगी। पाकिस्तानी सेना का जो इतिहास रहा है वह उसे नागरिक सरकार के अधीन काम करने को प्रोत्साहित नहीं करता। देश में पाकिस्तान की सेना ने अपनी पहचान इस तरह गढ़ी है कि वहां के लोगों को ऐसा लगता है कि देश और नागरिकों की सुरक्षा तथा सक्षम संस्थान वही है। देश की आर्थिक बदहाली से जनता का ध्यान बंटाने के लिए पाकिस्तानी शासकों ने लगातार भारत का भूत खड़ा किया है। ऐसे माहौल में पाकिस्तानी अवाम सोचती है कि यदि भारत हमला करेगा तो फौज ही उसे बचाएगी। पाकिस्तान के लोकतंत्र पर फौज इसीलिए भारी पड़ती है। पाकिस्तान बनने के बाद से ज्यादातर समय वहां फौज का ही शासन रहा है।

एक अहम् सवाल यह उठता है कि क्या पाकिस्तानी फौज उन्हें भारत से दोस्ती की इजाजत देगी? अब तक दोनों देशों के बीच चार युद्ध हो चुके हैं; जिसमें एक बार नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री रहते हुए दोनों देश एक‡दूसरे के आमने‡सामने हुए थे। दोनों देशों के पास परमाणु बम होने के बावजूद करगिल युद्ध हो गया; क्योंकि पाकिस्तान की फौज ने सोचा था कि यह आखिरी मौका है कि कश्मीर पर कब्जा जमा लिया जाए। 1999 में प्रधानमंत्री रहते हुए नवाज शरीफ जब भारत के साथ रिश्ता बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे थे तभी उस वक्त के सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट दिया था।

फिलहाल जनरल अशफाक परवेज कयानी पाकिस्तानी फौज के मुखिया हैं। यह वही कयानी हैं जिन्होंने कि सेना की बागडोर संभालते ही जम्मू‡कश्मीर नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम तोड़ने का सिलसिला शुरू कर दिया था। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आसिफ अली जरदारी के सत्ता में आने के बावजूद जनरल कयानी ही पाकिस्तान की विदेश और रक्षा नीति का पर्दे के पीछे से संचालन करते रहे हैं। जरदारी ने जब भारत विरोधी दहशतगर्दों को तबाह करने की बातें की थीं, तब पाक सेना और लश्कर‡ए‡तैयबा ने हाथ मिलाया और रिश्ता बिगाड़ने के लिए 26/11 का सबसे भयावह आतंकवादी हमला मुंबई पर करवा दिया।

अब नवाज शरीफ खुलकर भारत के साथ दोस्ती की बाते करते हुए लश्कर‡ए‡तैयबा तथा अन्य आतंकवादी संगठनों को तबाह करने और पाक सेना की ताकत कम करने का बयान दे रहे हैं। ऐसी बातें पाक सेना को कतई पसंद नहीं आएगी। ऐसी सूरत में इस बात की भी संभावना बनती है कि नवाज शरीफ के भारत से दोस्ती वाले मंसूबे को पूरा न होने देने के लिए पाक सेना और आतंकवादी संगठन फिर से हाथ मिलाते हुए भारत पर कोई बड़ा आतंकी हमला करवा दें। यह एक कड़वी सचाई है कि पाक सेना और वहां के आतंकवादी संगठन भारत विरोध की बुनियाद पर ही खड़े हुए हैं और वे अपनी बुनियाद को हिलते हुए नहीं देखना चाहेंगे। भारत को हमेशा यह बात ध्यान रखनी ही होगी कि पाकिस्तान की सत्ता की बनावट ही ऐसी है कि वहां सेना को नजरअंदाज कर कोई भी सरकार विदेश और रक्षा नीति स्वतंत्र तौर पर नहीं चला सकती। भारत के साथ दोस्ती की राह पर चलने के लिए नवाज शरीफ को या तो सेना को समझाबुझाकर साथ लेना होगा या फिर सेना को इतना कमजोर बनाना होगा कि पाक जनरल सिविलियन नेताओं के कहे को फरमान मानें। यदि पाक सेना इसके लिए तैयार भी हो जाए तो भी पाक के आतंकवादी संगठन भस्मासुर की तरह इतने खौफनाक और ताकत में इतने अंधे हो चुके हैं कि उन्हें भारत के साथ दोस्ती की बात समझाना नवाज शरीफ के लिए लगभग असंभव होगा। भारत और पाकिस्तान के बीच चीन का रोल भी अहम् होगा। चीन पाकिस्तान का पारंपरिक तौर पर करीबी दोस्त है। चीन कोशिश करेगा कि भारत सिर्फ दक्षिण एशिया की शक्ति के रूप में काम करे ताकि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन के प्रभुत्व को किसी भी तरह की चुनौती न बन सके।

भारत‡पाक के बीच रिश्ते तभी अच्छे बनेंगे जब पाक सेना खुद को वार्ता प्रक्रिया से दूर रखे। इससे पूर्व दो बार प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बनाने की कोशिश की थी लेकिन दोनों बार सेना ने उनके मनसूबों पर पानी फेर दिया था।

नवाज शरीफ के इस तीसरे कार्यकाल में भी क्या फौज लोकतंत्र पर भारी पड़ेगी? शायद अब ऐसा न हो। पिछले पांच वर्षों में आसिफ अली जरदारी की सरकार इतनी कमजोर रही कि फौज चाहती तो उसे निगल जाती। पर जनरल कयानी के नेतृत्व में फौज अपनी मर्यादा में रही। इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि बलूच नेता अकबर बुगती की हत्या, लाल मस्जिद कांड, कराची नौ सैनिक अड्डे का घेराव और ओसामा बिन लादेन की हत्या आदि घटनाओं से पाकिस्तानी फौज का दबदबा कम हो गया था। पाकिस्तान के इतिहास में पहली दफा ऐसा हुआ कि पांच साल तक लगातार एक लोकतांत्रिक सरकार चलती रही। अब जबकि नवाज शरीफ ने अपने स्पष्ट बहुतम वाली सरकार बना ली है तो निश्चित तौर से यह सरकार जरदारी की गठबंधन सरकार से ज्यादा मजबूत है। ऐसे में इस बात की बहुत कम संभावना है कि फौज इस पर हाथ डालेगी। ….और फिर इसी साल नवम्बर में जनरल कयानी रिटायर हो जाएंगे। उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति भी तो नवाज शरीफ खुद करेंगे। भारत की कूटनीतिक तौर पर भरपूर कोशिश करनी चाहिए कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार मजबूत हो ।

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