नक्सली चक्रव्यूह में भटकती राजसत्ता

25 मई 2013 को दक्षिणी छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में दरभा की जीरम घाटी में वाम चरमपंथी द्वारा विस्फोट को एक महीना हो गया है, परन्तु उसकी भयावहता यथावत बनी हुई है। इस हिंसा के तत्काल बाद कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने इसे एक आतंकवादी वारदात कहा। शायद इसलिए कि इसमें चार प्रदेश कांग्रेस नेताओं सहित 30 लोग मारे गये थे। यह पहला अवसर था, जब प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उपाध्यक्ष राहुल गांधी, और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे राज्य की राजधानी रायपुर पहुंचे थे। शायद इसलिए कि पहली बार विद्याचरण शुक्ल, महेन्द्र कर्मा, नंदकुमार पटेल जैसे प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को निशाना बनाया गया था। इससे पूर्व वाम चरमपंथी हिंसा की अनेक बड़ी घटनाएं हुई थीं, जिनमें अप्रैल 2010 में दक्षिणी बस्तर के ताड़मेटला में सी.आर.पी.एफ. के 76 जवानों की हत्या का प्रकरण भी शामिल है। जीरम घाटी की इस घटना के बाद दिल्ली में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ नौ प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में पहली बार घोषित रू प से निर्णय लिया गया कि वाम चरमपंथियों की कमर तोड़ने के लिए उनके शीर्ष नेतृत्व को खत्म करना जरू री है ।

इस निर्णय के दो-ढाई सप्ताह के बाद भी जीरम घाटी से भी बड़ी और बीहड़ खाई इसके क्रियान्वयन के बीच पसरी हुई है। 25 मई को प्रदेश कांग्रेस की जिस ‘परिवर्तन यात्रा’ पर हमला हुआ था वह चुनावी राजनीति से प्रेरित थी। छत्तीसगढ़ में दस वर्षों से सत्तारू ढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार को नवम्बर में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों में बेदखल करना इस यात्रा का मुख्य ध्येय था। 90 विधायकों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में सत्ता की चाभी बस्तर के हाथों में है। 2009 के चुनावों में बस्तर की 12 में से 11 सीटों पर भाजपा को विजय मिली थी। यह विजय सरकार बनाने में निर्णायक सिद्ध हुई। 2004 के चुनावों में भी भाजपा को सत्तारू ढ़ करने में बस्तर की प्रमुख भूमिका थी।
नक्सलियों अथवा माओवादियों के प्रति यूपीए सरकार की कोई स्थायी और द़ृढ़ नीति नहीं है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह गत एक दशक से निरन्तर कहते आ रहे हैं कि नक्सली देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। परन्तु कांग्रेस अध्यक्ष और सरकार के सर्वोच्च शक्ति केन्द्र सोनिया गांधी का नजरिया कई बार ठीक इसके विपरीत दिखता है। उनके द्वारा गठित राष्ट्रीय सलाहकार समिति में नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले लोग भी हैं। हाल ही में मीडिया में इसको लेकर उठाये गए प्रश्न के बाद अरुणा रॉय ने एक विवादास्पद बयान देकर उससे त्यागपत्र दे दिया। वाम चरमपंथियों के काफी निकट समझे जाने वाले विनायक सेन राष्ट्रीय योजना आयोग में सदस्य बने हुए हैं।

यूपीए का नक्सलियों के प्रति किसी स्थायी नीति से विचलन 25 मई की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद भी अनुभव किया जा रहा है। ताजा द़ृष्टांत है 5 जून को प्रभावित नौ राज्यों के मुख्यमन्त्रियों से प्रधानमंत्री की बैठक में पार्टी के सूत्रधार वाम चरमपंथ को आतंकवाद की संज्ञा देते रहे। उससे निपटने के लिए हर सम्भव कदम उठाने का संकल्प भी करते रहे, परन्तु यही संकल्प पांच दिन बाद ही 10 जून को डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में ही हुई सर्वदलीय बैठक तक आते-आते पिघल गया। नक्सली चुनौती आतंकवाद से फिसलकर उगवाद में ढल गयी। इसे नवम्बर में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा द्वारा कांग्रेस की एक जुगत के रूप में देखा जा रहा है। नक्सलियों ने भी इस बीच कांग्रेस के प्रति उदारता दिखायी है। अपनी ताजा विज्ञप्ति में नक्सलियों ने जीरम घाटी की घटना के प्रति खेद व्यक्त करते हुए निर्दोष लोगों की हत्या के लिए क्षमा मांगी है।

जीरम घाटी की हिंसा के बाद छत्तीसगढ़ प्रवास पर पहुंचे कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने नक्सल समस्या को त्वरित विकास और बातचीत से सुलझाने पर जोर दिया। उनकी स्पष्ट राय थी कि केवल सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई से इस समस्या को खत्म करने का तर्क अदूरदर्शी है। उनका मानना था कि नक्सलियों से संवाद द्वारा कोई समझ विकसित करने की सम्भावना समाप्त नहीं हुई है। लगभग यही राय नक्सली हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में अक्सर आते-जाते रहते केन्द्रीय गामीण विकास मंत्री जयराम रमेश भी जाहिर करते रहते हैं। आदिवासी मामलों के मंत्री वी. किशोरचंद्र देव ने इधर कहा है कि नक्सल समस्या को केवल कानून-व्यवस्था के दायरे तक सीमित नहीं रखना चाहिए। अपने ताजा वक्तव्य में उन्होंने कहा है नक्सल क्षेत्रों में अनेक ऐसे लोग हैं जो हमारे नागरिक हैं। अपनी मर्जी से वे उन कामों में नहीं गये हैं। नक्सलियों की अवज्ञा कर पाना उनके बूते के बाहर की बात है। वे नक्सलियों और सुरक्षा सैनिकों के बीच पिस रहे हैं। क्या आप उन्हें उगवादी कहेंगे?

राजनीतिक विश्लेषक और नक्सल मामलों के जानकारों ने यूपीए के इस द़ृष्टि परिवर्तन पर प्रश्न उठाया है कि क्या इसका तात्कालिक कारण छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव जीतना है ? अथवा यूपीए सरकार स्वयं को नक्सलियों के सामने असहाय पा रही है? इस बीच खबरें मिली हैं कि नक्सलियों ने अपनी युद्ध क्षमता कई ग्ाुना बढ़ा ली है। नक्सली आतंक से सर्वाधिक प्रभावित बस्तर में ही नक्सलियों ने अपनी आक्रामक क्षमता में भारी वृद्धि कर ली है। सेण्टर फॉर लैण्ड वार फेयर स्टडी ने लिखा है कि वाम चरमपंथियों की दण्डकारण्य सामरिक समिति की संख्या 5000 के पास पहुंच गयी है। चरमपंथी अपना ध्यान और शक्ति बस्तर पर केन्द्रित कर रहे हैं। जागरण समूह के हिंदी दैनिक नयी दुनिया ने एक विशेष रिपोर्ट में लिखा है कि नक्सली नेतृत्व तीन स्तरीय सुरक्षा घेरे के भीतर इतना सुरक्षित हो गया है कि सुरक्षा बलों का उन तक पहुंचना आसान नहीं।

स्पष्ट है कि नक्सली आतंक के गहरे दंश झेल रहे भाजपा और गैर कांग्रेस शासित राज्यों की राय को दरकिनार किया जा रहा है। प्रधानमंत्री से मुख्यमंत्रियों की भेंट में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने दो टूक कहा कि इसे एक जटिल राष्ट्रीय समस्या के रू प में लेकर इसके समाधान के लिए राष्ट्रीय रणनीति बननी चाहिए। गत चार दशकों में यह समस्या इतनी विकराल हो गयी है कि किसी भी प्रभावित राज्य के लिए अपने बूते पर इससे निपटना बेहद कठिन है। डॉ. रमन सिंह गत एक दशक से अपनी इस राय को प्रत्येक मंच पर दोहराते रहे हैं। उन्होंने सुरक्षा सम्बन्धी रणनीति और विकास को गतिशील करने के साथ ही नक्सलियों से संवाद की सम्भावना से इनकार नहीं किया है। परन्तु एक प्रश्न उन्होंने राष्ट्र के सामने अवश्य रखा है कि जहां नक्सली विकास की हर पहल को हिंसा के द्वारा विफल कर देते हैं, वहां क्या किया जाये ? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर देश की राजनीति को दलीय हदबन्दियों से बाहर निकलकर तलाशने की जरूरत है। नक्सली आतंक चरम पर है। वे प्राय: प्रतिदिन आदिवासियों की मुखबिरी के आरोप में हत्याएं कर रहे हैं। राजनेता और सुरक्षाकर्मी भी बेहद असुरक्षित हैं। इस घोर असुरक्षा की स्थिति में कांग्रेस द्वारा 16 जून से अपनी परिवर्तन यात्रा जीरम घाटी से फिर श्ाुरू करने हेतु लिया गया निर्णय आश्चर्यजनक है।

नक्सली चक्रव्यूह में फंसी राजसत्ता को भटकाव से बाहर निकलना चाहिए। यदि समस्या का समाधान उसे संवाद से निकल आने की उम्मीद है तो नक्सली नेतृत्व से बातचीत की पहल करनी चाहिए। यह गम्भीर संकट का समय है। बस्तर की निर्मल और निश्छल वनवासी संस्कृति पर मर्मांतक प्रहार किये जा रहे हैं। उनकी देवग्ाुड़ियां तेजी से खत्म करके उनकी आस्था पर प्रहार किये जा रहे हैं। बस्तर के युवाओं को भरमाया और भटकाया जा रहा है। उन मनोविकृतियों का उनमें प्रवेश किया जा रहा है जो नक्सालियों में घर कर चुकी हैं। वाम चरमपंंथियों के अंतरंग जीवन के कुछ जिज्ञासा जगाने वाले गोपनीय तथ्य भी इधर सामने आने लगे हैंं। छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में आत्मसमर्पण करने वाले पूर्व नक्सली कमाण्डरों ने अनेक चौंकाने वाले तथ्य उजागर किये हैं। आतंक से मोहभंग के कारणों का उन्होंने पुलिस से पूछताछ, मीडिया से बातचीत और कुछ पुस्तकों के माध्यम से खुलासा किया है। जैसे-जैसे समर्पण करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, नक्सली नेताओं में बेचैनी भी बढ़ रही है। समर्पण करने वालों को मुक्ति सग्रम के गद्दार करार करते हुए ठिकाने लगाने की योजना पर अमल श्ाुरू हो गया है। कुछ आत्मसमर्पित पूर्व नक्सली नेताओं की हत्या कर दी गयी है। प्रमुख नक्सली नेता किशन जी उपाख्य कोटेश्वर राव की निकटस्थ सहयोगी रही सुचित्रा महतो उनकी हिट लिस्ट में काफी ऊ पर हैं। उस पर सरकार को भेद देकर किशन जी को पकड़वा कर उनकी हत्या करवाने में सहयोग देने का आरोप लगाया गया है।

 

                                                         परदे में क्यों चला गया नक्सली भेदिया?

छत्तीसग़ढ प्रदेश काग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सली हमले की आरम्भिक खबरों में यात्री दल में नक्सलियों का कम से कम एक विश्वस्त भेदिया होने की बात कही गयी थी। मीडिया के एक वर्ग ने भेदियों की संख्या चार बतायी थी। किसी ने इसका खण्डन नहीं किया। बस्तर से इकलौते काग्रेसी विधायक कवासी लखमा की भूमिका को लेकर भी कुछ प्रश्न उठाये गए। मसलन वह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्री नन्द कुमार पटेल और उनके पुत्र दिनेश पटेल को नक्सलियों के पास किस भरोसे पर लेकर गये? फिर ऐसा क्या हुआ कि वाम चरमपंथियों ने पटेल पिता-पुत्र की तो हत्या कर दी, परन्तु कवासी लखमा और उनके अंगरक्षक को छोड़ दिया? मीडिया में तत्काल जारी सूचनाओं में तो यह भी कहा गया कि नक्सली जब श्री नन्द कुमार पटेल और दिनेश पटेल को रस्सी से बांधने लगे तो कवासी लखमा ने दोनों का नाम लेते हुए नक्सली टोली से कहा कि कोई निर्णय लेने से पहले ऊपर से पूछ लो। इन तमाम चर्चाओं पर कवासी लखमा से वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं द्वारा एकांत में की गयी लम्बी पूछताछ के बाद अचानक विराम कैसे लग गया? राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा श्री लखमा से ही क्यों पूछताछ की गयी? एन.आई.ए. के अलावा छत्तीसग़ढ शासन द्वारा हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश से सारे प्रकरण की जांच का निर्णय ले लिया गया है, तो इस प्रकरण पर कोई टिप्पणी करना अनुचित होगा। इसलिए उनकी रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी चाहिए। परन्तु क्या रिपोर्ट इसी वर्ष नवम्बर में प्रस्तावित छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों से पूर्व आ जाएगी?

 

किशन जी का देश के सबसे बड़े नक्सलगढ़ दक्षिण बस्तर में अक्सर आना-जाना लगा रहता था। जब कभी आंध्र, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के विदर्भ और ओडिशा में किशन जी पर पुलिस का दबाव बढ़ता था, वह बस्तर के अबूझमाड़ में सर्वाधिक सुरक्षित ठिकाने पर पहुंच जाते थे। पूर्व नक्सली कमाण्डरों से मिली जानकारी के अनुसार किशन जी पश्चिम बंगाल में पुलिस के हाथों मारे जाने से पूर्व कुछ महीने अबूझमाड़ को अपना मुख्यालय बनाकर नक्सल ऑपरेशनों का संचालन कर रहे थे। उपलब्ध तथ्यों के अनुसार सुचित्रा महतो के आगह पर ही वह जंगलमहाल गये थे। स्वयं भी अनेक हत्याओं और पुलिस थानों पर हमलों तथा सिलदा में अर्द्ध सैनिक बल के 25 जवानों की हत्या सहित अनके ऑपरेशनों में सक्रिय रही सुचित्रा सम्भवत: किशन जी के नवम्बर 2011 में मारे जाने के समय उनके साथ थी। किशन जी की मृत्यु के चार महीने बाद सुचित्रा ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के समक्ष समर्पण कर दिया था। तब से सुश्री बनर्जी और सुचित्रा दोनों नक्सली हिट लिस्ट में हैं। 25 मई को बस्तर की जीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या के एक दिन बाद ही सुश्री बनर्जी ने नक्सलियों से संघर्ष जारी रखने की घोषणा करते हुए कहा था, यदि मैं मारी जाती हूं तो भी तृणमूल कांग्रेस के लक्ष्य को आगे ले जाने के लिए बहुत सारे लोग तैयार हो चुके हैं।

चरम वामपंथियों की हिंसा का महिमा मण्डन करने वाली कुछ पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं, जिनकी मीडिया के एक वर्ग में खूब चर्चा भी हुई है। चरमपंथी हिंसा को जंगल के रू मान के रूप में प्रस्तुत करने वाली इन पुस्तकों के अलावा हिंदी तथा कुछ भारतीय भाषाओं में ऐसी पुस्तकें भी खूब पढ़ी जा रही हैं जिनमें नक्सली आतंक की अनेक अंतरकथाएं उजागर की गयी हैं। पूर्व नक्सली कमाण्डर शोभा उर्फ शिखा उर्फ उमा की पुस्तक ‘एक माओवादी की डायरी’ में नक्सली नेताओं और कमाण्डरों द्वारा महिला साथियों के देह शोषण की भयभीत करने वाला वृत्तांत प्रकाशित हुआ है। नक्सलियों के मुक्त यौन सम्बन्धों तथा पत्नियों की अदला-बदली के चलन का वर्णन इस डायरी में किया गया है। बस्तर में वाम चरमपंथ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वर्तमान स्थिति और भावी सम्भावनाओं पर बस्तर में जन्में और पले राजीव रंजन प्रसाद की औपन्यासिक कृति ‘आमचो बस्तर’ इस कदर लोकप्रिय हुई है कि सवा साल में ही उसके चार संस्करण निकल गये। वस्तुत: बस्तर में वाम चरमपंथ को जानने और बूझने की देश में व्यापक उत्सुकता है।

 

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