भारत और धर्मनिरपेक्षता

राजनैतिक क्षेत्र में जिधर देखो उधर धर्मनिरपेक्षता शब्द चर्चा में है। हर बड़ा नेता अपने को दूसरे से बड़ा धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने में लगा है। संसद में अनेक तरह के कानून बनते हैं, अनेक विषयों पर चर्चाएं हुई हैं, किन्तु अभी तक धर्मनिरपेक्षता शब्द पर व्यापक चर्चा नहीं हुई। कई बार कुछ शब्द रूढ़ हो जाते हैं, और उनके अर्थ भी रूढ़ हो जाते हैं, और वे चलते रहते हैं, जबकि वास्तविक अर्थ उनका वह होता नहीं है। ऐसा ही शब्द भारत की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का है।

साम्प्रदायिकता‡ दुनिया ने भारत के कुछ शब्दों को लिया किन्तु उनके सांस्कृतिक परिवेश में वे शब्द थे ही नहीं, अत: अपने यहां के कुछ समानार्थी शब्द उन भारतीय शब्दों को चिपका दिये। इसी प्रकार का शब्द है ‘धर्म’। भारत में धर्म की जो कल्पना है, वह वहां न होने के कारण उसका सामानार्थी रिलीजन से लिया गया। धर्म की अंग्रेजी रिलीजन कर दी। रिलीजन का अर्थ पूजा पद्धति है, जिसे अपने यहां धर्म का एक अंश मात्र माना गया है तथा उसके लिए शब्द प्रयोग मत, पंथ, सम्प्रदाय किया गया है। उर्दू में शब्द मजहब है। पंथ, मत, सम्प्रदाय का आशय है‡ एक पुस्तक, एक पूजा पद्धति, एक आस्था पुरुष। भारत में भी अनेक मत, पंथ, सम्प्रदाय उत्पन्न हुए जैसे शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिख, सनातनी, आर्य समाजी, कबीर पंथी…आदि। इन सभी का जन्म भारत में हुआ इसलिए ये भारतीय मत, पंथ, सम्प्रदाय, धर्म कहलाते हैं।

अपनी‡अपनी आस्था के अनुसार ऐसे सम्प्रदाय निर्माण होना समाज की विकासमान अवस्था का ही एक हिस्सा है। अत: किसी भी अर्थ में इनको त्र्ाुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सभी सम्प्रदाय अपने‡अपने अनुसार चलें तो कुछ कठिनाई भी नहीं है, किन्तु जब कोई सम्प्रदाय दूसरे को सहन न करे, झगड़ा करके दूसरे को समाप्त करने की सोचे, यही सोच ‘साम्प्रदायिक’ कहलाती है। भारत में जन्मे सभी मत‡पंथ‡सम्प्रदाय दूसरे के कार्य में दखल देते भी नहीं, दखल देने के लिए अपने अनुयायियों से कहते भी नहीं। इसलिए यहां शास्त्रार्थ तो हुए हैं, शस्त्र संघर्ष नहीं। अत: ये सभी सम्प्रदाय होते हुए भी साम्प्रदायिक नहीं हैं। कई मत दूसरे सम्प्रदायों को अपने अनुसार चलाने का प्रयास करते हैं, अपने अनुयायियों को आदेश देते हैं कि जो हम पर ईमान ना लाये उसे जीने का अधिकार नहीं है, कहीं बताया जाता है कि जो हमारे अनुसार नहीं चलेगा, उसे नरक मिलेगा। हम ‘ही’ ठीक हैं की भावना की प्रचुरता तथा दूसरों की सम्पूर्ण अवहेलना ही साम्प्रदायिकता है।

भारत में जन्मे सभी मत‡पंथों में ‘ही’ के स्थान पर ‘भी’ का समावेश है। हम भी ठीक हैं, तुम भी ठीक हो। जो कुछ हममें या तुममें गलत है, उसके संशोधन की गुंजाइश है। भारत में जन्मे ऐसे सभी मत‡पंथों के अनुयायियों को विश्व के लोग ‘हिंदू समाज’ का नाम देते हैं।

स्वाभाविक ही हिंदू कोई एक मत‡पंथ‡सम्प्रदाय नहीं है, वरन यह एक सांस्कृतिक अधिष्ठान रखने वाले विभिन्न मतों का समुच्चय है। विविधता में एकता की धारणा को पुष्ट करता हुआ यह हिंदू समाज न तो सम्प्रदाय है और न ही यह साम्प्रदायिक है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिंदुत्व को जीवन पद्धति कहा है। हिंदुत्व केवल भौगोलिक अवधारणा मात्र न होकर सांस्कृतिक अवधारणा है।
धर्मनिरपेक्षता क्या है? धर्मनिरपेक्षता का शाब्दिक अर्थ है धर्म से निरपेक्ष याने धर्म से अलग…। किसी भी शब्द का अर्थ समझने के लिए जिस क्षेत्र विशेष में वह शब्द प्रयोग हो रहा है, वहां के परिवेश का समझना आवश्यक है।

धर्म शब्द की उत्पत्ति भारत की धरती पर हुई है। अत: किसी समानार्थी शब्द से उसे नहीं समझा जा सकता। जलेबी भारत में होती है, अत: उसको भारत से बाहर समझना कठिन है। एक विदेशी द्वारा जलेबी की परिभाषा से इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। ‘ींहशीश ळी र लळीलश्रश ुळींहळि र लळीलश्रश रसळि र लळीलश्रश । र्ीीसरी ळक्षिशलींशव ळिीिं ळीं’ (जलेबी याने एक गोला, उसमें एक गोला, पुन: एक गोला उसमें चीनी सुई से भर दी गयी।)

पूजा-पाठ अपनी आस्था को व्यक्त करने के लिए एक माध्यम है। यहां तो अपने‡अपने कर्तव्य के पालन को धर्म कहा है। जैसे पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, शिक्षक का धर्म, विद्यार्थी का धर्म आदि। इन सबकी एक पूजा पद्धति होने पर फिर भी हर एक का अपना‡अपना धर्म है। यहां धर्म हर एक व्यक्ति के कर्तव्यों को ही इंगित करता है। सभी अपने‡अपने (धर्म कर्तव्य) का ठीक से पालन करें तो अराजकता व अव्यवस्था निर्माण ही नहीं होगी। एक- दूसरे के धर्म पालन में एक‡दूसरे की सुरक्षा है।

दूसरों की सेवा को भी यहां धर्म से परिभाषित किया गया है। संत तुलसीदास जी ने बड़े ही सरल शब्दों में धर्म की परीभाषा की है‡‘परहित सरसि धरम नहिं भाई’ दूसरों के हित की चिन्ता सबसे बड़ा धर्म है। इसीलिए भारत में अपने रहने या अपने कमाने के लिए मकान बनाया जाता है तो उसे अपना घर, होटल आदि कहते हैं। किन्तु जब कोई दूसरे की सुविधा के लिए बिना कमाने की इच्छा के घर बनाता है तो उसे ‘धर्मशाला’ कहा जाता है। धर्मार्थ औषधालय, धर्म कांटा आदि शब्दों से भी यही बोध होता है, जहां दूसरों की सेवा है, सत्यता है, वह धर्म है।
और ऊचांइयों पर जाते हुए यहां अच्छी बातों को धारण करना, अपने को दोषमुक्त करते हुए विकास करते जाने को भी धर्म कहा है। धर्म के दस लक्षण बताये हैं‡ धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधी दषकं धर्म लक्षणम्॥ भारत में धर्म कितना ऊंचा शब्द है, उपर्युक्त बातों में समझा जा सकता है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है‡ ‘धर्म भारत का प्राण है, धर्म के बिना भारत का कोई अर्थ नहीं है। यहां से धर्म निकाल दें तो भारत मर जायेगा।’ धर्म के इन लक्षणों का किसी भी व्यक्ति, वर्ग, मत‡पंथ द्वारा विमत व्यक्त करने का कोई कारण नहीं समझ आता।

भारत का व्यक्ति धर्म से ही संचालित होता है तथा डरता भी धर्म से ही है। जब उसे कहा जाता है तुम्हारा धर्म नष्ट हो गया तो उसे लगता है मानो मेरा प्राण ही नष्ट हो गया। जीवन जीने का आधार ही समाप्त हो गया। धर्म के इन लक्षणों के पालन से संस्कारों का निर्माण हुआ। इस संस्कारों को ही संस्कृति के नाते व्यक्त किया गया। संस्कृति रक्षित रहने से ही परकीयों के आक्रमण और उनका लम्बे समय शासन रहने पर भी यह राष्ट्र सुरक्षित बना रहा। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’‡इकबाल। यह ‘बात’ ही संस्कृति है।

भारत को भारत रखना है तो उसे धर्म से जोड़कर रखना होगा। धर्मनिरपेक्षता से नहीं। यहां के शासक, प्रजा, धर्म (कर्तव्य) निरपेक्ष हो गये, याने धर्म से अलग हो गये तो अराजकता, अव्यवस्था व आपाधापी का बोलबाला हो जाएगा। अंग्रेजी के जिस शब्द का अनुवाद धर्मनिरपेक्षता किया गया वह है डशर्लीश्ररी इस शब्द का शाब्दिक अर्थ शब्दकोष में कहा गया है ‘ऐहिक व भौतिक’। पूजा पद्धति को वहां ठशश्रळसळिि कहा गया है। ीशश्रळसळिि से अलग जो कुछ है वह सेकुलर है। डशर्लीश्ररी डींरींश की कल्पना भी विदेश में चर्च (पंथ) के अतिरिक्त दखल के कारण उभरी। चर्च की दखल रोकने हेतु पंथ निरपेक्ष राज्य की कल्पना की गयी। भारत में यह दखल कभी रही नहीं वरन यहां तो शिवाजी महाराज ने अपना पूरा राज्य ही समर्थ गुरु रामदास की झोली में डाल दिया। समर्थ ने भी कहा धर्म (कर्तव्य व परहित) के अनुसार राज्य चलाओ।

भारत में यहां की संस्कृति के कारण स्वभावत: ही पंथ निरपेक्ष राज्य व्यवस्था रही। अत: अलग से डशर्लीश्ररी डींरींश जैसे सिद्धांत की आवश्यकता ही नहीं। यदि डशर्लीश्ररी डींरींश कहना भी हो तो भी उसे पंथ निरपेक्ष तो कहा जा सकता है, धर्म निरपेक्ष कतई नहीं। संविधान में भी सेकुलर स्टेट का हिंदी अनुवाद पंथ निरपेक्ष राज्य ही किया गया है। फिर भी हमारे नेता जाने‡अनजाने धर्मनिरपेक्षता का प्रयोग लगातार कर रहे हैं। हमारे कम्युनिस्ट मित्रों की पुरानी आदत है पहले किसी शब्द को महिमा मण्डित करेंगे और फिर इसका अपने ढंग से प्रयोग करेंगे। धर्मनिरपेक्षता को भी प्रगतिशीलता, उदारता आदि का जामा पहना दिया गया है इसलिए सभी अपने को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने में लगे हैं। जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, वास्तव में उनकी कथनी‡करनी में जमीन आसमान का अन्तर है। आज तो धर्मनिरपेक्षता सीधे‡सीधे हिंदुत्व की विरोधी हो गयी है । कहीं सरकारी उद्घाटन में नारियल तोड़ दिया जाता है तो शोर शुरू हो जाता है, यह धर्मनिरपेक्षता विरोधी (साम्प्रदायिक) कार्य है। इसका परिणाम कहां तक जा रहा है, रेल में भजन‡कीर्तन पर पाबंदी, सेना में धार्मिक प्रतीक चिन्हों पर पांबदी का प्रयास। जय बजरंगबली, जय शिवाजी‡जय भवानी का नारा सैनिकों में प्राण फूंकता था, उसे साम्प्रदायिक कहा जा रहा है। डर लगता है कि कहीं कल को सार्वजनिक स्थान पर तिलक‡चंदन लगाना भी बन्द न कर दिया जाये। ये केवल धार्मिक प्रतीक ही नहीं, विज्ञान सम्मत व सांस्कृतिक कार्य हैं। आश्चर्य है कि सम्प्रदाय विशेष का मुख्यमंत्री बनाने का दुराग्रह आदि बातों में साम्प्रदायिकता नहीं दिखती।
भारत में विभिन्न मत‡पंथों से बने हिंदू समाज के हर व्यक्ति को गलत अर्थों में प्रयुक्त होने वाले शब्द धर्मनिरपेक्षता का प्रयोग करने वालों को बताना चाहिए कि यदि उन्हें करना ही है तो पंथ निरपेक्ष शब्द प्रयोग करें। विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता भी संसद में बहस निर्धारित कर इस शब्द की भारत के संदर्भों में व्याख्या करें अन्यथा गलत प्रयोग के आधार पर भारत में ही भावी पीढ़ी को भारतीय संस्कृति से काटने का कारण यह शब्द बनेगा। वोट के लालच में भारतीय संस्कृति को न मिटने दें।

धर्म व संस्कृति से ओत‡प्रोत राष्ट्रभाव (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) ही हमारी एकता, सुरक्षा, समरसता, समृद्धि की गारंटी है। ऐसा भारत राष्ट्र ही सम्मानित राष्ट्र रहते हुए दुनिया को दिशा देने में सक्षम हो सकता है।

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