किसान अपनी जमीन फिर से तलाशें

जोत घटती जा रही है। जो है, उसमें रासायनिक खाद, कीटनाशकों की मात्रा लगातार बढ़ानी पड़ रही है। इससे खेत ऊसर हो रहे हैं। खेत की मिट्टी, उसके नीचे का पानी और उसमें से पैदा होनेवाली फसल में जहरीलापन आ गया है और वह लगातार बढ़ता जा रहा है। खेती‡किसानी में आए यंत्रीकरण से खेतों की मिट्टी सख्त होती जा रही है। इन यंत्रों से निकलनेवाला डीजल का धुआं हवा में जहर घोल रहा है। जमीन, जल और हवा में घुले जहर ने और भारी भरकम यंत्रों ने मिट्टी, पानी, फसल के पोषक जीवाणुओं को मार डाला है। इससे गोवंश, पशुधन और मनुष्य की प्रतिरोधक्षमता क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है। तरह‡तरह की नई‡नई जानलेवा बीमारियां बढ़ती जा रही हैं।

लागत बढ़ने के कारण

रासायनिकीकरण और यांत्रिकीकरण ने खेती की लागत में बेतहाशा बढ़ोत्तरी कर दी है और बढ़ती कीमतों की वर्तमान अर्थव्यवस्था में यह लागत निरंतर बढ़ती ही जाती है। यांत्रिकीकरण ने खेतिहर मजदूरों की संख्यात्मक जरूरत में कमी लायी है। खेतिहर मजदूर खेती से कटकर मजदूरी के अन्य क्षेत्रों से जुड़ने के लिये मजबूर हुआ है। आरम्भिक काल में यह मजबूरी रही होगी किन्तु आज यह एक आकर्षण बन गया है; क्योंकि एक तो अन्य क्षेत्रों में मजदूरी अधिक मिलती है, दूसरे शहरी चकाचौंध आकर्षित करती है। इस प्रक्रिया में खेतिहर मजदूर की खेत में पसीना बहाने की क्षमता बहुत घट गई है। खेती में खेतिहर मजदूरों का अकाल सा पैदा हो गया है। यांत्रिकीकरण के बावजूद खेती‡किसानी में ऐसे बहुत से काम हैं जो मंत्रों के दायरे के बाहर होते हैं और उन्हें मजदूरों के जरिये ही करना पड़ता है। ऐसे कामों के लिये ‘अनाप‡शनाप’ मजदूरी देकर मजदूर रखने पड़ते हैं। इससे भी खेती की लागत बढ़ी है।

अनुदान का भ्रमजाल

‘सब्सिडी’ नामक एक शब्द बहुत चलन में है। इसके तहत आभास यह होता है कि 100 रु. की वस्तु 50 रु. में मिल रही है। लेकिन इसमें क्रूर मजाक यह होता है कि जिस वस्तु पर ‘सब्सिडी’ दी जाती है, उसकी कीमत जायज मुनाफेसमेत अगर 25 रु. है तो उसकी कीमत किसान के लिये 100 रु. तय की जाती है और फिर उस पर यह अहसान जताया जाता है कि उसे 100 रु. की वस्तु 50 रु. में दी गई है। प्रत्यक्ष में किसान से 25 रु. लूटे जाते हैं और किसान इस खुशफहमी में रहता है कि उसकी 50 रु. की बचत हो गई है।

मूल्य: दोहरे मापदण्ड

कोई नासमझ ही यह प्रतिप्रश्न करेगा कि किसान को अन्तत: उसकी फसल का मूल्य भी तो बढ़ा हुआ मिलता है? किसान को छोड़कर यह कौन नहीं जानता कि किसान की जरूरत के सभी आदानों की लागत और विक्रय मूल्यों का निर्धारण औद्योगिक मूल्यनिर्धारण के मापदण्डों के आधार पर हुआ करता है जबकि उसकी फसल के मूल्य निर्धारण के मापदण्ड सर्वथा भिन्न हुआ करते हैं।

कोई उद्योजक एक करोड़ की पूंजी लगाकर कोई उद्योग खड़ा करता है तो उसके उत्पादों का लागत मूल्य निकालते समय उसके द्वारा लगाई गई पूंजी को विचार में लिया जाता है। किसान जिन खेतों में फसल उगाता है, वह खेत और उसका मूल्य क्या किसान की पूंजीगत लागत मानी जाती है?

किसान खेती करता है तो स्वयं वह और उसका पूरा परिवार मजदूरी करता है। खेती 3 महीने की होती है किन्तु खेतखार का प्रबंधन वह साल भर करता है। क्या किसान और उसके परिवार द्वारा की जानेवाली मजदूरी, खेत‡खार का वर्षभर किया जानेवाला प्रबन्धन खेती में उसकी लागत नहीं है?

किसान की उपज का लागत मूल्य तक ठीक से नहीं निकलता। वह उपज के उप‡उत्पाद भी नहीं बना सकता। जमीन की दरें आसमान छू रही हैं। इस कारण वह नई खेती भी नहीं खरीद सकता। इससे खेती का रकबा घटता जा रहा है। यह किसान, देश, समाज की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए नुकसान देह है।

रास्ता कौन सा?

इसमें से रास्ता कौन सा है? रास्ता तो है लेकिन उसे पकडना अब इतना आसान नहीं है। पिछले साठ सालों में देश की सरकारें चलानेवालों ने ‘कर्ज लेकर घी पीने’ की सतही तौर पर आसान प्रतीत होनेवाली कर्ज की अर्थव्यवस्था अपने लिये तो अपनाई ही, देश की शहरी और ग्रामीण जनता को भी इस दलदल में फंसा दिया। घर बनाना हो तो कर्ज, उद्योग लगाना हो तो कर्ज, वाहन खरीदना हो तो कर्ज, पढ़ाई करता हो तो कर्ज। भविष्य निधि हो या बीमा हो, आदमी अपने भविष्य की सुरक्षा के लिये एक तरह से अनिवार्यता के नियमों के अन्तर्गत पेट काटकर पैसे बचाता है।

यह हवा ग्रामीणों में भी पहुंच गई है। लड़की का ब्याह रचाना है, पैसे कम पड़ रहे हैं तो कर्ज लेना मुनासिब समझा जा सकता है लेकिन नौजवान है, सायकल चलाने की ताकत है, गर्मी‡ सर्दी‡ बरसात सहने की भगवान ने क्षमता दे रखी है, फिर भी पास‡पड़ोस के चक्कर में, सुविधाओं की जीवनशैली के मोह में आज कर्ज लेकर सुविधाएं जुटाई जा रही हैं और ये सुविधाएं हमारी श्रमशीलता का, पसीना बहाने की क्षमता का, हमारी प्रतिरोधक क्षमता का हरण कर रही हैं और हम हैं जो इसमें मूछों पर ताव देनेवाला गर्व महसूस कर रहे हैं।

भारत में खेती की प्रकृति‡

रास्ता कौन सा है? दर‡असल भारत में खेती की प्रकृति अन्य देशों से सर्वथा भिन्न है। भारत में खेती के स्वरूप का वर्णन संक्षेप में करना हो तो कहा जा सकता है कि वह मूलत: शून्य लागत आधारित रही है। यहां कृषि का एक नैसर्गिक चक्र रहा है जो देशी गोवंश की विभिन्न प्रजातियों (कामधेनु) से आरंभ होता है। गाय से गोबर, गोबर से खेतों का उवर्रापन, बैलों से जुताई-गुड़ाई, मिंजाई-पिराई, अनाजों-दलहनों तिलहनों के कोंढे-भूसे-खली से गोवंश का पोषण-संवर्धन।

हम सभी जानते हैं कि ‘कामधेनु’ की शारीरिक रचना अन्य देशों की गोवंशीय प्रजातियों से भिन्न है। कामधेनु डील और गलकम्बलयुक्त हुआ करती है जबकि अन्य देशों की गायों में ये अंग नहीं हुआ करते। कामधेनु का स्वभाव विचरण करके चरने का है। कामधेनु 45-46 डिग्री तापमान में भी आनन्दपूर्वक विचरण करती है जबकि अन्य देशों के ऐसे कई गोवंश हैं जिन्हें गर्मी बर्दाश्त ही नहीं होती। उन्हें शीत का कृत्रिम वातावरण प्रदान करना पड़ता है।

अनुसंधानों के निष्कर्ष

अब जो वैज्ञानिक अनुसंधान हुए हैं, उन्होंने सहस्त्राब्दियों पूर्व किये गए भारतीय मनीषियों के इस शोध-निष्कर्ष की पुष्टि कर दी है कि कामधेनु अपने डील के माध्यम से सूर्य की किरणों को और पर्याय से सूर्य की शक्तियों को अपने शरीर में समाहित करती है। कामधेनु के दूध में स्वर्ण की मात्रा रहा करती है, इसका कारण भी यही है। कामधेनु के दूध में पायी जानेवाली दैवीय सम्पदा को एक ओर रख दें और केवल उसके गोमूत्र का ही विचार करें तब भी आज दुनिया के वैज्ञानिक दांतों तले उंगलियां दबा रहे हैं, उनकी यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि चराचर सृष्टि को जिन तत्त्वों ने अस्तित्व में रखा है, वे सभी के सभी तत्त्व अकेले कामधेनु के गोमूत्र में विद्यमान रहते हैं।

बागवानी नही; फिर भी विपुलता

भारत की ग्रमीण जीवनरचना को यदि हम पैनी निगाहों से देखें तो समझ में आता है कि भारत में सब्जियों-फलों की हमेशा विपुलता रही। लेकिन यह विपुलता इसलिये नहीं थी कि किसान सब्जियों-फलों की बागवानी करता था। इक्के-दुक्के शौकिया बागवानी करनेवाले किसानों को छोड़ दें तो तरह-तरह की सब्जियां और बीही, केले, पपीते वगैरह फल घर के पिछवाड़े की बाड़ी में उगाने की चीजें हुआ करती थीं। जो चीजें घर के पिछवाड़े की बाड़ी में उगती थीं, उनकी खासियत यह हुआ करती थी कि वे इतने कम नहीं होते कि उनसे केवल परिवार की जरूरतें ही पूरी हों और इतने अधिक भी नहीं होते कि उनकी हाट-बाजारी की व्यवस्था कर कुछ पैसा जोड़ लिया जाए। इसी कारण अपने आप स्वयंभू रूप में यह रीत बन गई कि बाड़ी में उगे सब्जी-फलों को पास-पड़ोस में देकर शेष घर-परिवार के उपयोग में आए।

इसे जब हम एक रचना के रूप में देखते हैं तो समझ में आता है कि बाड़ी में उगनेवाले सब्जी-फल में कोई लागत नहीं आती और दूसरे पास-पडोस में देने की रीत के कारण बिना किसी अतिरिक्त लागत के गांव के लगभग हर ग्रामीण की पौष्टिक आवश्यकताएं बिना किसी अतिरिक्त खर्च के पूरी हो जाया करती हैं। क्या दुनियां में और कहीं विकसित हो सकी है इस प्रकार की संधारणीय ‘शून्य लागत’ की जीवनरचना? भारत में न केवल यह रचना विकसित हुई अपितु वह सहस्राद्बियों तक सभी प्रकार के उतार-चढावों के बीच स्वस्थ-सुघड़ रूप में चली भी। तात्पर्य यही कि किसान को अपनी जमीन फिर से तलाशने की मानसिकता में आना होगा। जमीन तलाशें तो क्या दिखाई देता है?

किसान की जमीन कौन सी?

जो किसान है, उसके पास आज भी गाय है। ठीक है कि उसके पास जो गाय है, उसकी नस्ल शुद्ध न हो। शायद वह कृत्रिम गर्भाधान की उत्पत्ति हो। यह भी ठीक है कि वह आधा लीटर ही दूध देती हो, शायद वह दूध देती ही न हो। इस सबके बावजूद उसमें इतनी सम्पदा है कि वह किसान की तकदीर पूरी तरह बदल सकती है। वैज्ञानिक शोध के निष्कर्ष चीख-चीख कह रहे हैं कि एक गाय इतना गोबर देती है कि उसे 11 हेक्टेयर भूमि के लिये पर्याप्त मात्रा में खाद पैदा की जा सकती है। तिकड़मबाजियों से अनापशनाप दरों पर जैविक खाद बेचनेवालों को छोड दें और आम तौर पर जैविक खाद की बाजार दर का ही विचार करें तो वह सामान्यत: दस रु. प्रति किलो है। यह खाद बनाने में लागत कुछ भी नहीं आती। गाय दिन भर में कोई से 10 लीटर गोमूत्र छोड़ती है। इसमें से लगभग 3 लीटर गोमूत्र सहजतापूर्वक संग्रहित किया जा सकता है। मिट्टी के पात्र में इसकी आसवानी करने पर 1.50 लीटर अर्क बनता है। किसान को शायद पता होगा कि इसकी कीमत बाजार में 250 रु. प्रति लीटर है। गंगाजल जैसे कभी खराब नहीं होता, ठीक उसी प्रकार से गोमूत्र का अर्क भी कभी खराब नहीं होता।

किसान अपनी गाय के गोमूत्र की आसवानी आसानी से कर सकता है और इसमें पूंजीगत लागत के नाम पर सौ-दो सौ रु. से ज्यादा खर्च नहीं आता। सामान्य चूल्हे में झींटी-झांटी से आग पैदा कर आसवानी की जा सकती है।

अभी तक हमारी देशी गाय का जो गोमूत्र हमने यूं ही बह जाने दिया, उसे बीती ताहि बिसार दें लेकिन अब गुणों के लिहाज से भी और पैसों के लिहाज से भी गोमूत्र का मूल्य जानने के बाद भी अगर हम अपनी देशी गाय का गोमूत्र यूं ही बह जाने देंगे तो यह निश्चित ही हमारी मूर्खता होगी।

दुर्दिनों के अन्त का शुभारंभ

प्रारंभ में कहा जाता था कि रासायनिक खाद और कीटनाशकों को त्यागकर जैविक खाद अपनाने से उत्पादन में गिरावट आती है। किन्तु अब अमृतपानी के आविष्कार ने इस आशंका को दूर कर दिया है। इसलिये हिचकिचाहट छोड़कर किसान को जैविक कृषि में जाने में कोई एतराज नहीं होना चाहिये।

इससे रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर होनेवाला खर्च बचेगा, रोग-राई पर होनेवाला खर्च बचेगा। इस बचत को अगर किसान खेतिहर मजदूर की मजदूरी बढ़ाने में लगाएगा तो खेतिहर मजदूर के अभाव की समस्या पूरी तरह न सही, बहुत अंशों में अवश्य ही दूर होगी। साल भर बाद किसान देखेगा कि खेती से उसकी जेब में पैसा आया हो, न आया हो; गोमूत्र और गोबर ने पैसों से उसकी झोली भरना आरंभ कर दिया है। इसके बाद उसे पीछे मुड़कर देखने की जरूरत ही महसूस नहीं होगी। वह स्वयं आगे बढकर अपनी गाय की नस्ल सुधारने के, उसका दूध बढाने के, सांडों से सीधे गर्भाधान कराने के प्रयासों में जुट जाएगा। उसके वर्तमान दुर्दिनों के अन्त का यही शुभारंभ होगा। बाद में उस पर किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत आने से रही। वह फिर से अन्नदाता बनकर ऊंची गर्दन के साथ दोनों हाथों से जरूरतमंदों की जरूरतें पूरी करने लगेगा। आज अगर मह मुंगेरीलाल का सुहाना सपना लगता भी हो तब भी उसे एक बार देखने और उसे साकार करने की कोशिश करने में क्या हर्ज है?

इसमें हमारी खाली जेब से कुछ जाना तो है नहीं और कोई चाहे जो कहे, आप विश्वास कीजिये कि जिस दिन किसान अपनी गाय को धारण करना आरंभ करेगा, उसी दिन से शून्य लागत की संधारणीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना आरंभ हो जाएगा। हमारी कामधेनु हमें और हमारी सृष्टि को पुन: धारण कर लेगी।

यह सुनिश्चित है कि आज हो या कल, देर से हो या अबेर से किसान का पुन: समृद्धि हासिल करना, खेतों का फिर से ऊर्वरा बनना और गांवों का पुन: आत्मनिर्भर बनना आवश्यक है। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने में शासन यदि पूरकता की भूमिका अदा करेगा तो प्रक्रिया जल्दी पूरी हो जाएगी।

शासन इस प्रक्रिया को कैसे आगे बढा सकता है? यह तय है कि गो‡आधारित जीवन, विशेषत: ग्रामीण जीवन की रचना और विकेन्द्रीकरणह एक-दूसरे से अभिन्न हैं। केन्द्रीकरण को अपनाकर खेत, किसान ग्रम को समृद्ध नहीं किया जा सकता। विकेन्द्रीकरण की दिशा में शासन निम्न कदम उठाकर गो-आधारित ग्रामीण समृद्धि की गति को तेज कर सकता है; शासन यह संकल्प घोषित कर सकता है कि;

(क) अगले वर्षों में सभी खेतों को क्रमिक रूप में पूर्णत: जैविक बनाया जाएगा।

(ख) गो एवं पंचगव्य आधारित उत्पादों के जरिये सभी गो-पालक किसानों की दैनिक आय में नेत्रदीपक वृद्धि लाने के लिये आवश्यक प्रशिक्षण, अधोसंरचना एवं विपणन की रचना खड़ी की जाएगी।

(ग) गांवों की गोबर गैस, सौर ऊर्जा और पंचगव्य औषधियों के माध्यम से आत्मनिर्भरता की दिशा प्रदान की जाएगी।
अनाज खरीद और संग्रह की वर्तमान केन्द्रीकृत व्यवस्था का विकेन्द्रीकरण कर;

(क) शासकीय अनाज‡ खरीद का दायित्व पंचायतों के सुपुर्द किया जाएगा।

(ख) पंचायतें खरीदे गए अनाज का संग्रह विकेन्द्रित रूप में किसानों के स्वामित्व की कोठियों में मुहरबंद रूप में करेंगी।

(ग) शासन इच्छुक किसानों को मानकीकृत कोठियों के निर्माण के लिये तकनीकी एवं वित्तीय सहायतानुदान प्रदान करेगा।
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