कांग्रेस की मुस्लिमों के साथ धोखेबाजी

स्वाधीनता के पहले मुस्लिमों के सहयोग के बिना स्वाधीनता मिल नहीं सकती, इस धारणा का भूत कांग्रेस पर सवार था। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस मुस्लिमों और बै. जिन्ना की लगातार की जा रही मांगों के पीछे मानो घसीटते चली गई और आखिर देश का विभाजन मजबूरन स्वीकार किया। स्वाधीनता पाने के बाद वही कांग्रेस इस देश के मुसलमानों की अपने को अकेली रहनुमा मानने लगी और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का रवैया अपनाने लगी। वोटों की लालच में मुस्लिमों का अनुनय करने के साथ ही कांग्रेस ने समूचे मुस्लिम समुदाय को भय से आतंकित रखने के भरसक प्रयास किये।

मुस्लिमों के बहुतेरे नेताओं को लगा कि विभाजन की पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यक समुदाय का भविष्य आशादायी नहीं होगा और इसीलिए उन्होंने सत्तारूढ़ दल अर्थात कांग्रेस का सहारा लेना पसंद किया। स्वाधीनता पूर्व काल में कांग्रेस का बड़ी मुस्तैदी से विरोध करनेवाले मुस्लिम लीग के कितने ही नेताओं ने, पाकिस्तान में स्थलांतरित मोहाजिरों की हालत को देखते हुए भारत में ही बने रहना और कांग्रेसवासी बनना पसंद किया। कांग्रेस को हिंदुओं का एक राजनीतिक संगठन करार देते हुए हिंदुओं से नफरत करनेवाले इन लीगी भेड़ियों ने कांग्रेस के खादी के सफेद कपड़े झट पहन लिये। उनके बालबच्चे तब से आज तक कांग्रेस में लगातार बिलबिला रहे हैं। उसका बिल्कुल ताजा नमूना कांग्रेस के विद्यमान प्रवक्ता शकील अहमद में देखा जा सकता है। इस्लामी जिहाद से सारी दुनिया परेशान है, ऐसी हालत में जनाब अहमद ने अजीब दिमाग लड़ाया कि, सन 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों की प्रतिक्रिया के रूप में ‘इंडियन मुजाहिदिन’ नामक आतंकवादी संगठन का उदय हुआ। शकील अहमद के वक्तव्य पर काफी शोरगुल होने पर कांग्रेस ने चाहे अपनी असहमति प्रकट की हो, फिर भी अल्पसंख्यक विभाग के केंद्रीय मंत्री रहमान खान तथा केवल मुस्लिमों को ही इस देश के सच्चे नागरिक मानने वाले दिग्विजय सिंह ने उनका समर्थन ही किया। यह हल्लागुल्ला शांत हुआ भी न था कि कांग्रेस के दूसरे प्रवक्ता मीम अफजल बोले, “भाजपा ही आतंकवादियों की पक्षधर है, उनकी प्रतीक है। भाजपा ने सन 2002 में जो कुछ भी किया उसकी गिनती आतंकवादी गतिविधियों में हो सकती है।” सारी जनता में उनके इस वक्तव्य की भी प्रतिक्रिया उमड़ी। भाजपा के प्रवक्ता शहानवाज हुसैन ने इस संदर्भ में कहा, “ मुस्लिम वोटों की घटती संख्या और उनका साथ न मिलने के भय से कांग्रेस ने अब आतंकवादी गतिविधियों का उदात्तीकरण करने की नीति अपनाई है।” भाजपा के और एक प्रवक्ता राजीव प्रसाद रूडी ने आरोप लगाया है कि, इस तरह के बयान देकर कांग्रेस इंडियन मुजाहिदिन जैसे प्रतिबंधित संगठन और उसकी आतंकवादी गतिविधियों को कानूनी तौर पर स्वीकृति दे रही है।” कांग्रेस ने मीम अफजल के कथन से खुद को चाहे अलग किया हो, फिर भी कांग्रेस के ये प्रवक्ता कांग्रेसी लबादा ओढ़े मुस्लिम लीगी अथवा आतंकवादी संगठनों के छुपे एजेंट तो नहीं यह संदेह पैदा होता है। मुस्लिम मतों के सपा, बसपा और कुछ हद तक भाजपा की दिशा में बहते प्रवाह को, किसी भी तरह अपनी ओर मोड़ने का यह प्रयत्न है। इसके मूल में वोटों की पिटारी की राजनीति है।

दंगों से उठाया लाभ

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् लगभग 16-17 वर्षों तक भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं हुए। दंगों की चिंगारी पहली बार पड़ी मध्य प्रदेश के जबलपुर में। एक हिंदू युवती के मुस्लिम व्यक्ति द्वारा किये गये अपहरण के फलस्वरूप वह दंगा हुआ। उस समय मुस्लिमों के बीच भय का जो माहौल बना उसका कांग्रेस ने काफी लाभ उठाया। उसके बाद कांग्रेस शासित राज्यों में पूर्व नियोजित ढंग से हिंदू-मुस्लिम दंगे कराने की परंपरा कांग्रेस ने अपनाई। परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय के एकगट्ठा मत कांग्रेस को मिलते चले गए। आपात्काल तक यह सिलसिला जारी रहा। आपात्काल के दरमियान संजय गांधी ने रुकसाना सुलताना नामक मुस्लिम महिला से सांठगांठ करके जामा मस्जिद के आसपास जो उधम मचाया था, उससे मुसलमानों की गलतफहमी दूर हुई। उनके वोट सन 1977 के लगभग जनता पार्टी की ओर तथा बाद में जिस ओर रुझान हो उसके अनुसार सपा, बसपा, जद और अब बंगाल में तृणमूल की ओर मुड़े दिखाई दिये। कांग्रेस हर तरह से ये वोट अपनी ओर करने की कोशीश कर रही है। इसी कारण कांग्रेस के प्रवक्ता भारतीय संविधान से विपरीत वादे मुस्लिम समुदाय के साथ कर रहे हैं।

अब आज सपा कांग्रेस के ही तंत्र का अवलंब कर रही है। आज तक उत्तर प्रदेश में 37 से 40 हिंदू-मुसलमान दंगे हुए, कितने ही मौत के घाट उतारे गये, धन हानि हुई। फिर भी किसी को भी दंगा-फसाद करने की सजा हुई नहीं। मुस्लिम गुंडों को अगर सजा हुई तो मुस्लिम वोटों का रुख दूसरे दलों की ओर जाने के भय से अखिलेश यादव के मंत्रिमंडल ने कांग्रेस जैसी ही नरमाई की नीति अपनाई है। उसीकी अगली सीढी याने मुस्लिमों में शिया-सुन्नियों के बीच के दंगों की है। रमजान के महीने में अगस्त 2013 के पहले सप्ताह में लखनऊ में शिया-सुन्नी दंगे हुए। ये दंगे भाजपा के राज्यों में होना बंद हुआ था। अटलबिहारी वाजपेयीजी ने शिया-सुन्नियों के बीच समझौता कराकर उन्हें रोका था। अब लखनऊ और सारे उत्तर प्रदेश में ही वे फिर से होने लगे हैं। सपा, बसपा जैसे दल भी मुस्लिम समाज में भय फैलाकर उनके वोटों को अपने पक्ष में खींच लाने में जुटे हैं।

मुस्लिम समाज का भ्रम टूटा

हमेशा भय का हौवा दिखाने वाला शहाबुद्दीन, मौलाना बुखारी जैसे लोगों का नेतृत्व कुछ अवधि तक पनप सकता है, लेकिन साधारण आदमी उस आंच नें झुलसा जा रहा हो तो आखिर वह उससे परावृत्त होता है। कांग्रेस की वही हालत हुई। मुस्लिम मतदाता उससे दूर हटे। महाराष्ट्र में कांग्रेस के ही राज में धुले शहर में सन 2012 के आखिर में हुए दंगे का विश्लेषण करनेवाला प्रतिवेदन अब प्रकाशित हुआ है। धुले में मुस्लिम जनसंख्या की मात्रा 25% तक बढ़ चुकी है। उनमें से बहुत सारे कारीगर हैं। ऐसे इन दंगों में वे ही बुरी तरह घसीटे जाते हैं। उन्हीं में बेरोजगारी बड़े पैमाने पर है। उस दंगे के दरमियान राइफल की गोली से घायल हुए 14 साल के एक लड़के की मां शफीकुन्नीसा अन्सारी ने अपनी सही वेदना प्रकट की, “वह कुछ भी नहीं करता, क्योंकि उसे कोई काम मिलता ही नहीं।” इंडियन एक्स्प्रेस के दि.13-1-2013 के अंक में प्रकाशित प्रतिवेदन के अनुसार धुले में मुस्लिम आबादीवाले मुहल्लों में आज भी कोई सुविधाएं पहुंची नहीं हैं। सचिन सोनवणे नामक सामाजिक कार्यकर्ता के निष्कर्षों के अनुसार पिछले बीस बरसों में हिंदू बहुल मुहल्लों में मकानों के, अचल सम्पत्ति के दाम लगभग बीस गुना बढे हैं, तो मुस्लिम आबादी के मुहल्लों में उनके दामों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। धुले शहर में प्रौद्योगिकी और वैद्यकीय महाविद्यालयों में कुल मिलाकर लगभग 18,000 छात्र अध्ययन करते हैं। उनमें से मुस्लिम छात्रों की संख्या 915 अर्थात नगण्य है।
सन 2008 में भी धुले में दंगा हुआ था। तब से हिंदू मुस्लिम समाजों के बीच के संबंधों में दरार पड़ी और अब उनके मतों का ध्रुवीकरण हुआ है। आसिफ पटेल नामक सामाजिक कार्यकर्ता के मतानुसार ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस’ के विधायक राजवर्धन कदमबांडे केवल मुसलमानों के मतों के इच्छुक हैं। यह टिप्पणी मुस्लिम समाज में हो रहे वैचारिक आंदोलन का संकेत है।

मुस्लिम महिलाओं की दयनीय अवस्था

आज भी मध्ययुगीन मानसिकता में जिंदगी बिता रहा मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज महिलाओं के संदर्भ में बड़ा ही असंवेदनशील है। यह बड़ा दु:खदायी तथ्य है। सालों तक मेहेनत करनेवाली, अपनी ही घरगृहस्थी नेकी से चलानेवाली अपनी बीबी को महज तीन बार ‘तलाक’ का उच्चारण कर बालबच्चों के साथ घर से बाहर निकालनेवाले कितने ही आज भी मुस्लिम समाज में पाये जाते हैं। उन्हें उन्हीं जैसे मध्ययुगीन मानसिकता के गुलाम मुल्ला-मौलवियों का साथ मिलता है। ये मुल्ल-मौलवी हर एक शादी पंजीयत कराने जैसे कानून का विरोध करते हैं। वक्फ बोर्ड पर कांग्रेस के ही नेता नियुक्त होते हैं। मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में परिवर्तन करने पर उन्होंने कभी बल दिया नहीं। साधारण मुसलमानों में उस संदर्भ में अब कुछ जागृति हो रही दिखाई देती है। गोवा में से प्रकाशित होनेवाले दैनिक नवप्रभा के दि. 3 सितम्बर 2012 के अंक में लालसाहब शेख नामक एक पिता का निवेदन प्रकाशित हुआ है। उनके दामाद ने चार बेटियों के जन्म के बाद उनकी लड़की को तलाक दिया है। अपनी लड़की की शादी की रजिस्ट्री न करने से अब वे अपने दामाद के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर नहीं सकते। तब जाकर उन्होंने अपने सभी मुस्लिम भाइयों से शादी की रजिस्ट्री करने का आवाहन किया है।

मुस्लिम महिला कानून में परिवर्तन करने की मांग पुरानी ही है। सन 2000 के दरमियान दिल्ली में ‘मुस्लिम महिला मंच’ गठित होकर उसके द्वारा एक छोटीसी पुस्तिका भी प्रकाशित हुई थी। दिल्ली में उच्चतम न्यायालय में वकालत करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता अनीस अहमद ने उस पुस्तिका का स्वयंसेवी संगठनों के जरिए प्रचार-प्रसार कर मुस्लिम महिलाओं की दुरावस्था मिटाने के संदर्भ में जागृति लाने का प्रयास किया (नवहिन्द टाइम्स दि. 26 जनवरी 2001)। असल में जो महिलाएं कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने का अंधानुकरण करती हैं, उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन करने का यह एक अच्छा सा मौका था। परंतु वह काम कब, कैसे ठंडा पड़ गया किसी को पता ही न चला। अब आज पूरे बारह बरसों बाद भी 15-16 वर्ष या उससे भी कम उम्र में मुस्लिम लड़कियों की शादियों को मंजूरी दी जाने की मांग करनेवाले मुल्ला-मौलवियों के सामने कांग्रेस ने झुककर सलाम जो किया है।

अब आज तो मुस्लिम महिलाओं ने स्वयं इस संदर्भ में उच्च न्यायालय में याचिका दर्ज की हैे। पूर्व विधायक और ज्येष्ठ विधिज्ञ श्रीमती बदर सईद ने मद्रास उच्च न्यायालय में ‘सनकी एवं एकतरफा तलाक’ के विरोध में याचिका दर्ज की है। उनकी इस याचिका के अनुसार, मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में वर्तमान कानूनों का उचित एवं निर्णायक संकलन (codification) न होने से मुस्लिम महिलाएं उचित न्याय मिलने से वंचित हैं। कांग्रेस सिर्फ उनके मतों की आशिक है। जो हाल तलाक का, वही परिवार नियोजन का है। केवल मतों की राजनीति करनेवाली कांग्रेस ने उस दृष्टि से भी कुछ कदम उठाये नहीं। आपात्काल के दौरान संजय गांधी की डण्डेबाजी और जल्दबाजी से कितने ही मुस्लिमों को नसबंदी शल्यक्रिया करने मजबूर किया गया। उसके बाद मुस्लिम समाज में उसकी जो प्रतिक्रिया उछली उससे कांग्रेस इतनी आतंकित हुई कि, उसने उसके विरोध में आज तक चूं तक नहीं की। परिणामस्वरूप अखिल भारतीय मुस्लिम व्यक्ति कानून समिति के अध्यक्ष मौलाना राबे हसन नदवी जैसे नेता परिवार नियोजन को इस्लाम विरोधी करार देते हैं (टा. ऑ. इ. 17 सितं.2004)। उसके विरोध में कांग्रेस की ओर से कभी कोई प्रतिक्रिया दी न गई, कानून में परिवर्तन तो काफी दूर रहा।

मुस्लिम कट्टर पंथियों की विकृत मानसिकता

भारत में बहुसंख्यकों को लेकर विकृत मानसिकता रखनेवाले मध्ययुगीन विचारों के बहुत से मुस्लिम धर्मगुरु कैसे और किन सपनों में बिहार करते हैं उसका उनकी बातों से पता चलता है। परिवार नियोजन पर अमल न करते मुस्लिम जनसंख्या बढ़ाकर कुछ ही दशकों में भारत को इस्लाममय करने के सपने वे देख रहे हैं। कट्टर पंथियों द्वारा प्रकाशित ‘मिल्ली गझट’ नामक पाक्षिक पत्रिका के मई 2013 के अंक में Demographic Dividend and the Indian Muslims विषय पर दो लेख प्रकाशित हुए हैं। उनमें हिंदू तथा अन्य धर्मीय जनसंख्या की अपेक्षा तेज गति से मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि होने की संभावना व्यक्त की गई है। उसके प्रमाण के रूप में सन 2050 तक का ब्यौरा आंकडों के रूप में दिया हुआ है। स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्वकाल के लीगी मनोवृत्ति के मुस्लिम नेताओं ने नई आचार संहिता का अब स्वीकार की है। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् ‘हंस के लिया पाकिस्तान, लड़के लेंगे हिंदुस्तान’ के ढोल पीटनेवाले ये लोग पाकिस्तान के भारत की ओर से तीन बार पराजित होने पर अब भारत के जनतंत्र से ही अनुचित लाभ उठाते हुए ‘पैदाईश बढ़ाके लेंगे हिंदुस्तान’ की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इसे तो मानसिक विकृति ही कहना होगा!

उसी ‘मिल्ली गझट’ के दि. 16-31 मई के अंक में परिवार नियोजन न करने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर होनेवाले विपरीत परिणाम बताए हुए हैं। उनमें तपेदिक (टी. बी.), खून में लोह की मात्रा घटना, गर्भाशय का कर्करोग आदि कितनी ही बीमारियों के नाम गिने हैं। बढ़ती जनसंख्या को बेरोजगारी का मुकाबला करना होगा, ऐसा होते हुए भी परिवार नियोजन का विरोध करनेवाले मुल्ला मौलवियों का वेतन वक्फ बोर्ड के माध्यम से रु. 6202/- से बढ़ाकर रु. 10,000/- प्रतिमाह करने का निर्णय दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने करने का समाचार मिल्ली गझट के दि. 1-15 जून के अंक में प्रकाशित हुआ है। इससे कांग्रेस का मुस्लिम अनुनय करने का रुख किस कोटि का है, इसका अनुमान हो सकता है। इसीके माध्यम से कांग्रेस कट्टरपंथियों की ताकत बढा रही है।

असम में बांग्लादेशियों ने घुसपैठ की है, इसे कांग्रेस स्वीकार ही नहीं कर रही। पिछले बरस-सन 2012 में बोडोलैण्ड इलाके में जो दंगे और आगजनी हुई उसमें गरीब मुस्लिम जनता ही बुरी तरह झुलस उठी। पिछले 11 वर्ष असम के मुख्यमंत्री पद पर आसीन तरुण गोगोई ने वहां फैले हुए सामाजिक तनाव का विश्लेषण करते हुए यह स्वीकार किया कि, आज की हालत में असम में मुस्लिम बहुसंख्यक बनने के मूल में बांग्लादेशियों की घुसपैठ नहीं, अपितु मुस्लिम जनता में शिक्षा का अभाव होने से उनमें बच्चे पैदा करने की भावना है। यह समाचार इंडिया टुडे के दि. 24 सितम्बर 2012 के अंक में प्रकाशित हुआ था। मुस्लिम मतदाता जब तक तरुण गोगोई को चुनकर भेज रहे हैं, तब तक उन्हें परिवार नियोजन जैसा कुछ करने की तनिक भी जरूरत नहीं। फिर भी गोगोई यह सोचना ही नहीं चाहते कि, आगामी चुनाव में मुस्लिम विधायक बहुसंख्या में चुने जाने पर, सिर्फ उनके ही नहीं, लेकिन सभी हिंदुओं के मूलभूत मानवी अधिकारों पर आक्रमण होगा और कश्मीरी पंडितों के समान अपना सभी कुछ पीछे छोड़ते हुए सिर्फ पहने हुए कपडों में ही अपनी भूमि छोड़ने तथा अपने ही देश में बिखरने की नौबत उन पर आनेवाली है।

मुस्लिम समाज में अंतर्विरोध

क्या संसार में इस्लाम यही एक धर्म है? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत लेखक के अनुसार ‘नहीं’ ऐसा ही है। पै. मुहमद को अपना देवदूत एवं कुरान शरीफ को अपना धर्मग्रंथ माननेवाला यह विशाल समाज बहुत से पंथों, उपधर्मों मे विभाजित है। उनमें शिया, सुन्नी, वहाबी, सलाफी, सूफी, यही नहीं तो भारत में निर्माण हुए बरेलवी और देवबंदी जैसे बहुत से उपधर्म और कुछ अलग ही धर्मों की गिनती है। ये सर्वधर्मीय लोग आपस में एक दूसरे के कट्टर शत्रू हैं। वे उनमें से दूसरों को काफिर मानते हैं, दूसरों के प्रार्थनास्थल ध्वस्त करते हैं। कभी तो आगे बढ़ कर आपस में हजारों की संख्या में बड़ी क्रूरता से मौत के घाट उतारते हैं। आखिर उन्हें एक धर्मीय क्यों माना जाए? मिस्र, लीबिया, सीरिया, खाड़ी देश, पाकिस्तान और बांग्लादेश आदि सभी मुस्लिम देशों में चल रही घमासान मारकाट एक ही बात की गवाह है कि, एक देवदूत, एक धर्मग्रंथ होने के बावजूद ये भिन्न धर्मीय लोग आपस में मिलजुलकर सामाजिक सहजीवन जी नहीं सकते। जनता दल की सरकार बनने के पहले, उनके सामाजिक भेदों का इस्तेमाल कांग्रेस ने शिया-सुन्नी दंगे करवाने के लिए अपने यहां किया।

भारत में उसी के साथ अब और ही दूसरा आंतरिक संघर्ष उभरता दिखाई दे रहा है। भारत में अमीर और गरीब मुस्लिम तथा दलित-पिछड़े और कारीगर वर्ग के मुस्लिमों के बीच पिछले दो दशकों से संघर्ष जारी है। दि. 20 जुलाई 1994 के टाइम्स ऑफ इंडिया के अंक में प्रकाशित गया के निवासी डॉ. एजाज अली का पत्र बड़ा ही आघात पहुंचाने वाला है। उन्होंने उच्चवर्णीय (मुस्लिमों में ऐसी जातियां?) मुस्लिमों को धमकाया था कि, वे निम्न जाति के मुस्लिमों को आगे बढ़ने का मौका अगर न देंगे, तो वे लोग मुल्ला-मौलवियों के फतवे मानने से इनकार करेंगे और धर्मत्याग करेंगे। उनके इस अनुमान का कुल मिलाकर मुस्लिम समाज पर कुछ खास असर हुआ नहीं। मुस्लिमों में से पिछड़ा वर्ग आज भी यातनाएं भुगत रहा है। उसका जीना ही बड़ी लाचारी भरा है। असम के दंगे और अभी पास में धुले में हुए दंगों ने इस तथ्य को साफ-साफ उजागर कराया है। कभी सामाजिक स्वास्थ्य, आर्थिक कसौटियों, गरिबी रेखा आदि बातों पर माथापच्ची करनेवाली कांग्रेस की मानसिकता मुस्लिम समाज के आंतरिक विरोध को लेकर उसका समाधान खोजने की कहीं दिखाई नहीं दी। इसके विपरीत गोध्रा दंगों पर मोदी की बदनामी की गई, उसी मोदी के राज्य में साधारण मुस्लिम जनता की प्रगति हुई है, इसे दारुल उलम के पूर्व उपकुलपति मौलाना गुलाम मुहंमद वस्तान्वी ने जनवरी 2011 में स्वीकार किया। ऐसी स्वीकृति देना उन्हें महंगा भी पड़ा। कांग्रेसी नेताओं ने एकजुट होकर उनें उलम के उपकुलपति पद हटाया।

‘सपा’ भी कांग्रेस के रास्ते पर आगे बढ़ रही है। देवबंद के छात्र (जो कट्टर मुस्लिम माने जाते हैं) मावीया अली के वस्तान्वी को समर्थन देते ही मुलायम सिंह ने उन्हें तुरन्त सपा से बाहर कर दिया और दिखा दिया कि वे भी कैसे दिखावटी मुस्लिम हितैषी हैं।

लगभग हर समय पिछड़े-दलित मुस्लिम ही सामाजिक संघर्ष के शिकार बनते हैं। मुस्लिम समाज में से सुधारवादी और विचारशील उस पर गौर करते हैं। उनमें से एक हैं वडोदरा के डॉ. बंदूकवाला। टाइम्स ऑफ इंडिया में दि. 26 अगस्त 1995 को प्रकाशित अपने पत्र में उन्होंने साफ शब्दों में मुस्लिम नेताओं को सुनाया था’Mr. Shahabuddin and Mr. Bukhari must be told in no uncertain terms that their policies have brought ruin to millions of homes, whether in Surat, Bombay or Kanpur’.
इसके विपरीत कुछ गुजरात में देखा जा सकता है। राजकोट नगर परिषद के चुनाव में भाजपा की प्रत्याशी बनी बिब्बेन सामा वहां के कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों से निर्वाचित हुईं। उन्होंने स्वीकार किया कि (टाइम्स ऑफ इंडिया दि. 14 अक्तूबर 2010) वे पिछले 15 बरस से भाजपा के लिए काम कर रही हैं तथा सभी धार्मिक समुदायों के साथ उनके सौहार्दपूर्ण संबंध बने हुए हैं। किसी समय कांग्रेस का गढ़ कहलाने वाली राजकोट नगर परिषद में अपने सर्वांगीण विकास के कामों के माध्यम से सफलता पाकर भाजपा ने कांग्रेस को अच्छा-खासा सबक सिखाया है।

धार्मिक फूट को बढ़ावा

मुस्लिमों ने इस देश में मानो अलग गृहस्थी बसाने की कार्रवाई शुरू की है। जून 2013 में राजस्थान के जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, कोटा आदि मुख्य शहरों से निर्वाचित कांग्रेसी सांसदों ने मिलकर एक दिवसीय राजस्थान मुस्लिम सम्मेलन आयोजित किया और उसमें आगामी चुनावों में कम से कम 25 मुस्लिम प्रत्याशी धर्म के आधार पर खड़े करने की मांग की। मुस्लिमों को जो प्राथमिकता देंगे, उनके ही ेपक्ष में मुस्लिम मतदान करेंगे ऐसी चेतावनी भी उन्होंने सोनियाजी और राहुल गांधी के नाम दी। विभाजनपूर्व भारत की मुस्लिम लीग की ऐसी ही यह चाल कांग्रेस का पहनावा धारण कर रहे लीगी मनोवृत्ति के ये जन प्रतिनिधि अब चल रहे हैं। उन्हें मानो साथ देते हुए, मुस्लिमों को धर्म के आधार पर आरक्षण मिलना ही चाहिए इस मांग को लेकर मई 2012 मे मालेगांव से मुंबई तक मोर्चा निकाला गया था। उसे समर्थन देनेवाले मुस्लिम वक्ताओं में विशेष रूप से कांग्रेस के मुस्लिम कार्यकर्ता थे ही, पर उनके साथ नासिक शहर कांग्रेस के अध्यक्ष एड. आकाश छाजेड़ भी थे। उनके जैसे विधिज्ञ व जानकार लोगों ने महज सत्ता के लिऐ अपनी बुद्धि को गिरवी रखा है, ऐसा ही कहा जा सकता है।

मुस्लिमों में आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को शिक्षा प्राप्त हो ऐसा चाहने वालों में 48% हिंदू थे यह गौर करने लायक तथ्य है। सरकार ऐसी शिक्षा उपलब्ध कराने अब विभिन्न केंद्रों में मदरसे खोलने जा रही है। उनमें काफिरों का कत्लेआम करने का मार्गदर्शन करनेवाले, सरकारी नौकरी में अनायास ही प्रविष्ट हुए हजारों देवबंदी मुल्ला-मौलवी होंगे। उन मदरसों में जानेवाले सभी पिछड़े कहलाने वाले मुस्लिम युवक कहीं भी नौकरी करने की क्षमता वाले न होकर कट्टर तालिबानी विचारों की ओर झुकाव वाले ही होंगे। क्षीण होती जा रही कांग्रेस की इस देश को दी जा रही यह आखिरी सौगात होगी। क्या हम इसे स्वीकार करेंगे?
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