राजधर्म

महाभारत के शांति पर्व में राजधर्मानुशासन का एक उपपर्व है। भारत में जब जब ‘राजधर्म’ की चर्चा होती है तब तब महाभारत के शांति पर्व का उल्लेख किया जाता है।

शांति पर्व की पार्श्वभूमि इस तरह हैः महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका है। कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह शरपंजर पर पड़े हैं। पांडवों की विजय हुई है। सभी कौरव मारे गए हैं। युधिष्ठिर अपने भाइयों, रिश्तेदारों, गुरू के संहार पर अत्यंत दुःखी हैं। उनके मन में वैराग्य निर्माण हुआ है। वे राज संन्यास लेने की बात कर रहे हैं। उन्हें समझाने का काम (अर्थात रास्ते पर लाने का काम) श्रीकृष्ण और महर्षि व्यास कर रहे हैं, लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अंत में श्रीकृष्ण शरपंजर पर पड़े भीष्म के पास युधिष्ठिर को ले जाते हैं। भीष्म पितामह युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश देते हैं। यह उपदेश केवल युधिष्ठिर के लिए नहीं; अपितु विश्व के सभी राजकर्ताओं के लिए है।

यथा राजन् हस्तिपदे पदानि
संलीयन्ते सर्वसत्त्वोदभवानि।
एवं धर्मान् राजधर्मेषु सर्वान्
सर्वावस्थान् सम्प्रलीनान् निबोध ॥25॥

(नरेश्वर! जैसे हाथी के पदचिह्न में सभी प्राणियों के पदचिह्न विलीन जाते हैं, उसी प्रकार सब धर्मों को सभी अवस्थाओं में राजधर्म के भीतर ही समाविष्ट हुआ समझो।)

अल्पाश्रयानल्पफलान् वृदन्ति
धर्मानन्यान् धर्मविदोे मनुष्याः।
महाश्रयं बहुकल्याणरूपं
क्षात्रं धर्म नेतरं प्राहुरार्याः ॥26॥

(धर्म के ज्ञाता आर्य पुरुषों का कथन है कि अन्य समस्त धर्मों का आश्रय तो अल्प ही है, फल भी अल्प ही है। परंतु क्षात्र धर्म का आश्रय भी महान है और उसके फल भी बहुसंख्यक एवं परमकल्याणरूप हैं, अतः इसके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।)

सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधानाः
सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति।
सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजं-
स्त्यागं धर्मं चाहुरग्य्रं पुराणम् ॥27॥

(सभी धर्मों में राजधर्म ही प्रधान है; क्योंकि उसके द्वारा सभी वर्णों का पालन होता है। राजन्! राजधर्मों में सभी प्रकार के त्याग का समावेश है और ॠषिगण त्याग को सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन धर्म बताते हैं।)

मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हत्यायां
सर्वे धर्माः प्रक्षयेयुर्विबुद्धाः।
सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हतः स्युः
क्षात्रे त्यत्त्के राजधर्मे पुराणे ॥28॥

(यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातल को चले जाय और वेदों के नष्ट होने से समाज में प्रचलित हुए सारे धर्मों का नाश हो जाय। पुरातन राजधर्म जिसे क्षात्र धर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमों के सम्पूर्ण धर्मों का ही लोप हो जायेगा)
प्रजापालन करना राजा का प्राथमिक कर्तव्य है। यदि वह ऐसा न करें तो क्या होता है इसे भीष्म पितामह इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-

यदि राजा प्रजा की रक्षा न करे तो बलवान मनुष्य दुर्बलों की बहु-बेटियों को हर ले जायं और अपने घरबार की रक्षा के लिए प्रयत्न करने वालों को मार डालें। ॥14॥

यदि राजा रक्षा न करे, तो इस जगत् में स्त्री, पुत्र, धन अथवा घरबार कोई भी ऐसा संग्रह सम्भव नहीं हो सकता, जिसके लिए कोई कह सके कि यह मेरा है, सब ओर सब की सारी सम्पत्ति का लोप हो जाय। ॥15॥

यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो पापचारी लुटेरे सहसा आक्रमण करके वाहन, वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकार के रत्न लूट ले जायं। ॥16॥

यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषों पर बारंबार नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की मार पड़े और विवश होकर लोगों को अधर्म का मार्ग ग्रहण करना पड़े। ॥17॥

यदि राजा रक्षा न करे तो धनवानों को प्रतिदिन वध या बन्धन का क्लेश उठाना पड़े और किसी भी वस्तु को वे अपनी न कह सकें। ॥19॥
युधिष्ठिर! तुम माली के समान बनो, कोयला बनाने वाले के समान न बनो (माली वृक्ष की जड़ को सींचता और उसकी रक्षा करता है, तब उससे फल और फूल ग्रहण करता है, परंतु कोयला बनाने वाला वृक्ष को समूल नष्ट कर देता है; उसी प्रकार तुम भी माली बनकर राज्यरूपी उद्यान को सींच कर सुरक्षित रखो और फल-फूल की तरह प्रजा से न्यायोचित कर लेते रहना, कोयला बनाने वाले की तरह सारे राज्य को जलाकर भस्म न करो), ऐसा करके प्रजा पालन में तत्पर रहकर तुम दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग कर सकोगे। ॥20॥

भीषाचार्य का यह उपदेश बहुत महत्वपूर्ण है। यह मात्र वैचारिक उपदेश नहीं; बल्कि उन्होंने कई उदाहरणों से इसे स्पष्ट किया है। यह सारा उपदेश गहराई से पढ़ने पर दो-तीन बातें ध्यान में आती हैं। पहली बात यह कि यह सारा उपदेश क्षत्रिय वर्ण के लिए है अर्थात क्षत्रिय लोगों के लिए है। दूसरी बात यह कि यह उपदेश राजा के लिए है। राजा वंश परम्परा से गद्दी पर आता है। तीसरी बात यह कि राजधर्म का अर्थ ही है क्षत्रिय धर्म।

यह सारा उपदेश पढ़ने पर मेरे मन में प्रश्न उपस्थित हुआ। मानिए कि शरपंजर पर पड़े भीष्म आज भी जीवित हों और उनके पास क्षात्र धर्म का उपदेश लेने के लिए आज का जनमान्य नेता, जो कल प्रधान मंत्री होने की संभावना है, यदि गया तो भीष्माचार्य उन्हें कौनसा उपदेश देंगे? यह निश्चित है कि धर्मराज को दिया गया सारा का सारा उपदेश उन्हें नहीं देंगे, लेकिन राजधर्म के शाश्वत तत्व उन्हें अवश्य बताएंगे। समय बदल गया है इसलिए मुझे लगता है कि थोड़ा-सा अलग उपदेश देंगे। यह कैसा होगा इसकी कल्पना की तो निम्न दृश्य मेरे समक्ष उपस्थित हुआ-

भीष्म उनसे कहेंगे, “हे पुत्र! हाथी के पदचिह्न में जिस तरह सभी प्राणियों के पदचिह्न समा जाते हैं उसी तरह एकलौते राजधर्म में अन्य सभी धर्म आ जाते हैं। इसलिए तू राजधर्म को ठीक से समझ लें और उसका अनुपालन कर।”

समय बदल गया है। मेरे समय में, महाभारत काल में केवल क्षत्रिय वर्ण के लोगों को ही राज्य चलाने का अधिकार था। अब वैसी स्थिति नहीं रही है। अब राजा नहीं रहे, राजघराने खत्म हो गए, उसके बदले जनप्रतिनिधियों का राज्य आ गया। राज्य किसके हाथ में हो यह तय करने का अधिकार अब लोगों के हाथ में है। इसलिए मेरे समय का वर्णाश्रम धर्म अब कालबाह्य हो चुका है। मेरे समय में क्षात्रधर्म ही राजधर्म था। अब वेैसी स्थिति नहीं रही।

अब राज्यकर्ता जमात के अर्थ में क्षात्रधर्म का विचार करना हो तो पूरी प्रजा का विचार करना होगा। आज की परिभाषा में राजधर्म का अर्थ सरकार के चयन करने वाली प्रजा का राजधर्म कौनसा, इसे समझना पड़ेगा।

भीष्म पितामह आगे कहेंगे, “सम्पूर्ण प्रजा को यह स्मरण दिलाना होगा कि वह राजा हो गई है। महाभारत काल में सभी जिम्मेदारियां राजा पर डाल कर मुक्त हो सकते थे। उस समय यह कहावत भी थी कि ‘यथा राजा तथा प्रजा।’ अब स्थिति विपरीत हो गई है। जैसी प्रजा वैसी उसकी सरकार होती है। इसलिए हे पुत्र! तू प्रजा को शिक्षित कर। प्रजा भ्रष्ट हो तो राज्य भ्रष्ट ही होगा। प्रजा शराबी हो तो राज्य भी शराबी होगा। प्रजा उपभोग के पीछे पड़ी हो तो सरकार भी वैसी ही होगी। इसलिए लोगों को संयम सिखाना होगा। हम ही हमारे जीवन के शिल्पकार हैं यह बात उनके मन में बसानी होगी।”

प्रश्नः यह काम मुझे किस तरह करना चाहिए?

भीष्माचार्य कहेंगे, “यह काम सरल नहीं है। लोगों की प्रवृत्तियां सहज मिलने वाले सुख की ओर दौड़ने की होती हैं। कम श्रम में अधिक पैसा पाने के मार्ग खोजने के पीछे सामान्य लोग होते हैं। इसलिए उन्हें आलसी बनाकर मुफ्त में खिलाने के आश्वासन के पीछे लोग पागलों की तरह भागते हैं। हमारे भारत में ही मुफ्त टीवी, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त मोबाइल, मुफ्त अनाज वितरण करने वाले उपक्रमों के पीछे लोग पागलों की तरह चले जाते हैं। हे पुत्र! यह मार्ग केवल अधोगति की ओर ले जाने वाला ही नहीं, अधार्मिक भी है। धर्म व्यक्ति को उद्योगी बनने के लिए कहता है, पराक्रम करने के लिए कहता है, परिश्रम करने के लिए कहता है, प्रचंड उद्योग कर सम्पत्ति जुटाने के लिए कहता है। मुफ्त खाने की प्रवृत्ति समाज को आलसी बनाती है, निरुद्योगी बनाती है, गुलाम बनाती है। ऐसा समाज पराक्रम नहीं कर सकता, तेजस्वी नहीं बन सकता। इसलिए यह पाप तू मत करना। जिन्होंने ये पाप किए हैं, उन्हें उनके कर्म के फल भोगने होंगे। क्योंकि ‘जैसा कर्म करें वैसा भोगें’ यह कर्मफल का शाश्वत सिद्धांत है।

हे पुत्र! मुझे दिखाई देता है कि भारत की प्रजा को वास्तव में राजा बन जाने का बोध उतना नहीं हुआ है। बहुसंख्य लोग अपने वोट का मूल्य नहीं समझते। खाते-पीते सुखी लोग मतदान के लिए बाहर ही नहीं निकलते। जो गरीब हैं वे मतदान करते हैं। उनके वोट खरीदने का सौदा होता है। आज के युग का राजधर्म मतदान करना है और यह राजधर्म होने से धर्म के किसी काम में भ्रष्टाचार नहीं चल सकता। धर्म के काम में भ्रष्टाचार करना अधर्म है। इसलिए प्रजा को धार्मिक बनने के लिए अर्थात मतदान के धर्म का पालन करने के लिए बार-बार कहना होगा। धर्म न्यायनीति सिखाता है, क्या अच्छा है, क्या बुरा है इसका निर्णय करने की शिक्षा देता है। इसलिए प्रजा को क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह बताना होगा।

प्रश्नः लोग बुराई का दीघकाल तक अनुभव लेने के बाद भी बार-बार वही गलती क्यों करते हैं? अर्थात प्रजा अपने राजधर्म का पालन क्यों नहीं करती?

भीष्म पितामहः पुत्र! यह सनातन दोष है। धर्म क्या है, अधर्म क्या है यह हरेक को पता होता है, लेकिन समझ नहीं रखते। दुर्योधन ने नहीं कहा था कि धर्म क्या है यह मैं जानता हूं; लेकिन धर्म के प्रति मेरी प्रवृत्ति नहीं है, उसका मैं क्या करूं? सौभाग्य से समाज के सभी लोग दुर्योधन नहीं होते। प्रभुतासम्पन्न प्रजा द्वारा धर्म पर चलना कठिन मार्ग पर चलने जैसा है। यह कठिन है, लेकिन करना आवश्यक है। प्रजा को अपने राज्यकर्ता चुनने हैं। राज्यकर्ता का चयन करते समय उसे राजनीति की कितनी समझ है, आधुनिक राज्य की जटिल समस्याओं का उसे कितना ज्ञान है, उसका चरित्र कैसा है, वह अपराधी प्रवृत्ति का तो नहीं- इन बातों पर गौर करने के लिए उसे शिक्षित करना चाहिए। निरंतर जागरूकता सुशासन की गारंटी है। इसलिए लोकशिक्षण का कोई विकल्प नहीं है। पहले इसकी बहुत आवश्यकता नहीं थी। राजघराने का कोई राज करने वाला है और वह भगवान का अंश है यह भावना थी। अब हम ही जनता जनार्दन हैं इस बात का सामान्य प्रजा को बोध होना चाहिए। गलतियां अज्ञान के कारण होती हैं और अज्ञान सारे संकटों की जननी होती है। अतः ज्ञान का कोई विकल्प नहीं है। यह ज्ञान है हम प्रभुतासम्पन्न हैं और हमें सुशासन निर्माण करना है। आप लोगों ने धर्म का बड़ा गलत अर्थ किया है। अलग-अलग उपासना पंथों को आप धर्म कहते हैं और इन उपासना पंथों के आधार पर आप लोगों की भावनाएं भड़काते हैं, उन्हें अंधे बनाते हैं तथा उन्हें उनके मूलभूत कर्तव्य का विस्मरण करवाते हैं। यह सब अधर्म है। वही-वही गलतियां लोग न करें इसकी जिम्मेदारी समाज के सभी सयाने वर्गों पर है। जो धर्म अर्थात कर्तव्य के आचरण समझते हैं उन्हें अपना कर्तव्य बेहतर तरीके से पूरा करना चाहिए और सामान्य लोगों को उनके कर्तव्यों का पालन करने के लिए मदद करनी चाहिए। मेरे महाभारत काल में अधर्म क्यों बढ़ा? उसका उत्तर यह है कि धर्माचरण करने वाले शांत बैठे थे, वे अधर्म को देखते रहे, उसका विरोध नहीं किया। अधर्म को मूक सम्मति देना भी अधर्म ही है, चाहे वह धार्मिक लोगों द्वारा किया गया ही क्यों न हो। ऐसा न होने दें। धर्म अर्थात अपने कर्तव्य के आचरण के लिए तू धर्माग्नि प्रज्ज्वलित कर।

प्रश्नः लेागों को मैं अपना लगूं और वे मुझे अपना मानकर चुनें इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए?

भीष्म पितामहः पहले राजशाही के जमाने में युवराज को बचपन से ही शिक्षित किया जाता था। उसे राज्यशास्त्र, युद्धशास्त्र, व्यवहार शास्त्र, अर्थशास्त्र, विदेश नीति की शिक्षा दी जाती थी। अब राजशाही चली गई, युवराज पद भी चला गया। इसलिए इन सभी विषयों का अध्ययन स्वयं ही करना होगा। अज्ञानी बनकर राजकाज न करें। राज चलाना परचून की दुकान चलाने जैसा नहीं है। वैसे तो परचून की दुकान चलाना भी कठिन होता है। लोगों को ऐसा लगना चाहिए कि उनका नेता राजकाज में कुशल है, अर्थशास्त्र में उसकी गति है। अर्थशास्त्र का किताबी ज्ञान किसी काम का नहीं होता। उसका उपयोग नोबेल पुरस्कार पाने के लिए होता है। पुत्र! मेरे इस भारत खंड में 30 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, शरपंजर के तीरों से मुझे जितनी वेदना नहीं हुई उससे ज्यादा वेदना इन भूखे जीवों की है। इस मेरे भारत खंड में डेढ़ करोड़ बच्चे कुपोषण से मरते हैं। तुम्हारा अर्थशास्त्र उनकी भूख शांत करने में समर्थ होना चाहिए।

लोगों को भरमाना बहुत सरल होता है रे! मेरे महाभारत काल में जातियां थीं और वे धीरे-धीरे भेदों में रूपांतरित हो रही थीं। अब कलियुग में मजबूत हो गईं। तू जाति-भावना उभाड़कर एकगट्ठा वोट पाने का उपक्रम न करना, उससे इस सनातन समाज में अधर्म का राज्य निर्माण होगा। तू धर्म रक्षण के लिए खड़ा होना! इन सभी को याद दिला दें कि हम सभी आर्य हैं। आर्य याने श्रेष्ठ मानव हैं। हम सभी भारत माता की संतान हैं, कोई ऊंच-नीच नहीं, ज्ञान का अधिकार सभी को है। उपासना की स्वतंत्रता सभी को है। आजीविका के मार्ग का चयन करने का अधिकार सभी को है।

पुत्र! मेरे समय में पांचाल, कुरू, मगध, वैशाली, कंबोज इत्यादि प्रदेश थे। उन प्रदेशों में रहने वाले लोगों को उन प्रदेशों के नाम से जाना जाता था। लेकिन, अब मैं देख रहा हूं कि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में विचार किया जाता है। मेरे समय में यह भावना नहीं थी। उस समय यह भावना थी कि हम जम्बूद्वीप के निवासी हैं, भारतवर्षीय हैं। प्रजा में पहले भेद पैदा करना और फिर उन्हें एक होने का उपदेश करना। यह तो ऐसा हुआ कि पहले मकानों में आग लगाना और फिर उसे बुझाने के लिए प्रयास करना। तू ऐसे काम मत करना। सारी मानव-जाति एक ही चैतन्य का आविष्कार है यही भाव मन में रखना और सभी के प्रति समत्वबुद्धि से देखना। जहां समत्व है वहां ऐक्यत्व अपने-आप निर्माण हो जाता है।

प्रश्नः मैं अपने सहयोगियों का किस तरह चयन करूं और उनका विश्वास कैसे प्राप्त करूं?

भीष्म पितामहः सब से पहले यह ध्यान में रख कि देश चलाने जैसा बड़ा और कठिन कार्य एक व्यक्ति नहीं कर सकता। जैसे-जैसे ऊपर चढ़े वैसे-वैसे मन बड़ा करना होता है। सृष्टि का नियम है कि जैसे जैसे ऊपर जायें वैसे वैसे हवा विरल होती है और कान हलके होते हैं। तुम्हारे कान हलके न होने देना। सोपान की एक-एक सीढ़ियां चढ़कर ही सोपान के अंतिम सिरे तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन ध्यान में रखना होता है कि उसी सोपान से फिर कभी न कभी नीचे आना होता है। इसलिए सोपान की सीढ़ियां मजबूत रहे इसका ध्यान रखना। उन्हें तोड़ देने का अविचार न करना। जीवन में एक बार ही शिखर पर जा सकते हैं। एवरेस्ट शिखर पर सदा के लिए नहीं रहा जा सकता। इस शाश्वत सत्य का स्मरण रखना।

यश मिलते ही स्वार्थी, बेईमान लोगों और चाटुकारों का घेरा बढ़ने लगता है। हितकारी सलाह देने वाले दूर जाने लगते हैं। पसंदीदा सलाह देने वाले करीब आते हैं। दुर्योधन को हितकारी सलाह देने वाला मैं, विदुर, श्रीकृष्ण थे, लेकिन उसके आसपास कर्ण, शकुनी, दुष्यासन और उनके मित्र मंडलियों का घेरा होता था। सुनने में सुखदायी लेकिन अनिष्ट परिणाम दिलाने वाले बहुत मिलते हैं। लेकिन सुनने में अप्रिय किंतु परिणामी हितवर्धक सलाह देने वाले अत्यंत कम होते हैं। तू उन्हें खोज, उनसे दोस्ती रख। जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है ऐसे लोगों को ही पास आने दें और उनकी बात सुनने की मन को आदत डाल।

प्रश्नः पहले की राजशाही और आज के लोकतंत्र इन दोनों में बुनियादी फर्क कैसा करें?

भीष्म पितामहः पुत्र! पहले की राजव्यवस्था अनेक बार अनियंत्रित होती थी। सभी राजा सार्वभौम राजधर्म का पालन नहीं करते थे, वे अनाचार करते थे। कंस, जरासंध, दुर्योधन ये कुछ उदाहरण हैं। प्रजातंत्र में राजसत्ता पर प्रजा का नियंत्रण होता है। नियंत्रण रखने वाली विविध संस्थाएं होती हैं। आज के युगधर्म के अनुसार तू प्रजातंत्रधर्मी हो। प्रजातंत्र के सभी अंग बलवान, कार्यक्षम और प्रामाणिक किस तरह हो इसका ध्यान रखना। उनके अच्छे कार्य पर ही प्रजातंत्र का भविष्य निर्भर है। प्रजातंत्र के अंग ढह जाए तो भारत वर्ष में, जम्बूद्वीप में अराजकता पैदा होगी अथवा उसका पाकिस्तान होगा।

राज्यकर्ता को निर्णय करने होते हैं, कठोर निर्णय करने होते हैं, वे तेजी से लेने होते हैं लेकिन इस बात को न भूलना कि प्रजातंत्र अगर ठीक से चलाना हो तो निर्णय की प्रक्रिया सामूहिक रखनी होती है। “लोकतांत्रिक तानाशाह” बनने का श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रयास किया था। वह प्रजातंत्र के लिए अत्यंत घातक है। किसी भी तरह का निर्णय न करने की डॉ. मनमोहन सिंह की शैली भी प्रजातंत्र के लिए घातक है। अटल बिहारी वाजपेयी की शैली उत्तम कार्यशैली थी। इस कार्यशैली का तू अनुपालन करना।

और एक महत्वपूर्ण अंतर को ध्यान में रखना। पहले राजा सार्वभौम हुआ करते थे। राजा से भी बड़ा राजधर्म हुआ करता था। इसलिए धर्मदंड सब में सार्वभौम हुआ करता था। यह धर्मदंड प्रजा के पास होता है। धर्मदंड का प्रतिनिधित्व समाज का निस्वार्थी, त्यागी, तपस्वी, समर्पित समूह का करता है। यह समाज के सभी क्षेत्रों में होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, साहित्य, साधु-संन्यासी, धर्माचार्य, कलाकार उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके प्रति तू सदा विनम्र रहना। तू जानता ही है कि फलों से लदा वृक्ष झुकता है, विनम्र बन जाता है। सब को देकर वह रिक्त होता है। तू पथ पर चलने वालों की छाया बनना। उन्हें मधुर फल देना, उनकी प्यास बुझाना, उनकी क्षुधा शांत करना।

एक बात ध्यान में रखना कि, हमारा यह भारतवर्ष अत्यंत प्राचीन है। हजारों राजा यहां हुए। उनके नाम भी लोगों के ध्यान में नहीं रहे, लेकिन राजा न बने कृष्ण को लोग सम्राट मानते हैं। राजा राम हरेक के हृदय में हैं। हर्षवर्धन, कृष्णदेव राय, राजा शिवाजी जनसाधारण के मन में हैं। क्योंकि ये सभी राजा राज्य के उपभोगशून्य स्वामी थे। तू भी उनकी कतार में जा बैठे ऐसा मुझे हृदय से लगता है। मेरा भारतवर्ष, मेरा आर्यावर्त, मेरा जम्बूद्वीप पहले जैसा ही धर्मभूमि हो, विश्व के सभी मानवों का आश्रयस्थल हो यही मेरी इच्छा है। और मेरी यह इच्छा पूरी हो इसलिए मैं तुम्हें मेरी सभी दिव्य शक्तियों का आशीर्वाद देता हूं।
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This Post Has 2 Comments

  1. Dadubhai tripathi

    उत्तमालेखः

  2. Anonymous

    🙏🏻

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