दर्द-ए-मलिका मीना कुमारी

इत्तेफाकन् मैं आपके कंपार्टमेंट में चला आया;
आपके पांव देखे; बहुत हसीन हैं
इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे..

पाकीजा फिल्म में राजकुमार का यह संवाद याद आता है? पाकीजा याने शुद्ध, पवित्र! एक नर्तकी के जीवन में एक ऐसा गबरू जवान आता है, जो उससे ‘रूहानी’ मुहब्बत करता है। इसका कड़ा विरोध करते हैं पारम्पारिक चौखट में बंधे और सामाजिक प्रतिष्ठा की झूठी कल्पना में उलझे अपने ही करीबी लोग; लेकिन अंत में जीत प्यार की ही होती है। संक्षेप में इस तरह की कहानी वाली यह फिल्म एक काव्यमय आविष्कार ही थी। मीना कुमारी की अनेक फिल्में उसके अभिनय के कारण चर्चित रहीं। उसके समक्ष कोई भी धाकड़ नायक हो परंतु सिरआंखों पर वही होती थी; उसी की प्रशंसा होती थी। ताकतवर अभिनय, चेहरे और आंखों का बोलता उपयोग इसमें उसके युग में वही पहले स्थान पर थी। पूरी फिल्म में दर्द ही दर्द हुआ करता था। कुछेक बार अंत सुखमय भी होता था। लेकिन उस समय का 35 एमएम का परदा मीना कुमारी की आंसुओं से सदा भीगा होता था। भावुक दर्शकों को थिएटर से बाहर आते समय अपनी सुर्ख आंखें पोंछते हुए अथवा छिपाते हुए ही बाहर आना होता था। ‘दर्द-ए-मलिका’ (ढीरसशवू र्टीशशप) का खिताब कभी किसी ने उसे नहीं दिया था। उसके चहेतों ने ही उसके अभिनय की प्रशंसा में उसे अपने आप बहाल कर दिया था!

‘बैजू बावरा’ (1952) के लिए उसे उसी साल आरंभ पहला ‘फिल्मफेअर अवार्ड’ मिला। उस समय वह मात्र बीस साल की युवती थी। इस पुरस्कार को पाने वाली वह पहली अभिनेत्री थी। इस फिल्म के निर्देशक थे विजय भट्ट। इसी अवधि में कमाल अमरोही से उसकाप्यार परवान चढ़ा और दोनों ने निकाह भी कर लिया। कुछ वर्ष सुखमय रहे। कहते हैं कि 1953 में आई ‘दायरा’ फिल्म उनकी प्रेम कहानी पर ही आधारित थी। लेकिन वह कहां जानती थी कि नायिका के रूप में पहली फिल्म में उसकी भूमिका जैसे थी वैसा ही उसका जीवन भी एक शोकांतिका बन कर रह जाएगा? उस भूमिका में उसने बैजू की कला की प्रगति और उसकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए उसे दुःख की अनुभूति दिलाने के उदात्त उद्देश्य से, स्वयं को होम करने वाली नायिका उसने खड़ी की थी। वास्तविक जीवन में भी उसने अपना ध्वंस ही करा लिया! इसका कारण था अगल-बगल के लोग और परिस्थितियां। लेकिन इसके पीछे वास्तव में कोई था तो वह उसका संवेदनशील मन था। प्यार के लिए भूखा मन! जीवन में कई लोग करीब आए; लेकिन मुहब्बत दूर ही रही… उसके साथ रह गई केवल ‘तनहाई’… और फिर इस संवदेशनशील मन को व्यक्त करने के लिए सुंदर शब्द आए… और कागज पर ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ में उतरे पलकों में छिपे आसुओं के पंछी! उनके रंग सुंदर, मनोहारी थे… अपने रंगों से वे रसिकों का ध्यान आकर्षित न करें तो ही आश्चर्य होता!

चांद तन्हा है, आसमां तन्हा
दिल मिला है कहां कहां तन्हा…
बुझ गई आस छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआं तन्हा…
जिंदगी क्या इसीको कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा…

ऐसा थोड़े ही है कि इस अथाह विश्व में केवल मनुष्य को ही तनहाई (अकेलापन) मिली? यह आकाश, यह चंद्र… भी तो अकेले ही हैं। वह अकेला तारा भी अब डूब चुका है; मानो उम्मीद ही डूब चुकी है… और दीया बुझ जाने से अकेला धुआं ही चक्कर काट रहा है। बस्स! मीना कुमारी में बसी शायरा पूछती है, कि देह से… मन से… इस तरह एकाकी जीना, क्या इसीका नाम जीवन है?

हमसफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहां तन्हा…

जीवन की एकाकी राह चलते समय कुछ ‘द्वैत’ पनपे भी; सहयात्री मिला। लेकिन दोनों एकाकी ही चलते रहे… समांतर! अंतिम शेर में मीना कुमारी ने ‘तन्हा’ इस अल्फाज का सुंदर उपयोग किया है।

राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा…

एक दिन हम भी इस दुनिया को ‘अकेली’ छोड़कर जाने वाले हैं; (अथवा, हम अकेले ही दुनिया से विदा होने वाले हैं; क्योंकि अकेले ही आए अब, अकेले ही जाएंगे; साथ कोई नहीं आया, न कोई आएगा…) लेकिन उस समय सालों-दर-साल दुनिया हमारी राह तकती ही रहेगी… हमारी यादों को जपती रहेगी…(लेकिन हम नहीं आएंगे)…!

तनहाई… उर्दू शायरी में गहरे रंग भरने वाली तनहाई। मीना कुमारी के हिस्से में आई तनहाई ने उसके जीवन के रंग उड़ा दिए और उसे बेरंग कर दिया… यह एक नब्ज का अंश है…

यह खिड़की; मेरी दोस्त मेरी रफीक
मेरी राजदार, मेरे दिल की सब धड़कनों की अमीं
मसर्रत के लम्हात और बेकरां गम के साये
सब उतरे मेरी जिन्दगी में, मेरी सर्द तनहाइयों में…

…यह खिड़की ही है मेरी सहेली! मेरे मन के भाव जानने वाली। मेरे दिल की धड़कनों की विश्वस्त! मेरे आनंद के क्षण; मेरे मन के दर्द के साये; सब कुछ उसे पता है…

यहां से बहुत दूर… मुस्तकबिल-ए-नारसा का धुंधलका जहां
खेमाजन है;
सजाई है माजी ने भी देखिये वहीं जुगनुओं की बरात
कभी मुझ से दिल पूछता है; कभी दिल से मैं पूछती हूं,
यह खिड़की न होती तो क्या होता; मैं कहां होती?…

…इस खिड़की से दूर तक दिखाई देता है मुझे मेरा धूमिल भविष्य! मुझे अप्राप्य होगा! उसका तम्बू मुझे दिखाई देता है, लेकिन मैं कभी नहीं पहुंच पाऊंगी वहां… इस खिड़की से मुझे दिखाई देता है मुझे अतीत (स्मृतियों) के जुगनुओं का जुलूस…! यह देखते रहती हूं मैं अपनी तनहाई के क्षणों में… मेरा मन मुझ से पूछता है अथवा कभी-कभी मैं अपने मन से पूछती हूं, ‘यह खिड़की न होती तो मेरा क्या होता? मैं कहां होती?’
बचपन से ही मीना अलग-अलग अर्थों में अकेली ही थी। मीना कुमारी का असली नाम था महजबीन बानो। खुर्शीद व मधु दो बड़ी बहनें थीं। उसका नम्बर तीसरा था। लेकिन कमाईपूत वह अकेली ही थी। 7 वर्ष उम्र से फिल्मों में काम किया। पिता थे अली बख्श और मां इकबाल बेगम। मां का मूल नाम था प्रभावती ठाकुर व स्टेज के लिए नाम लिया था कामिनी (वह नर्तकी थी)। वह बंगाल के प्रसिद्ध ठाकुर घराने से ताल्लुक रखती थी। मीना तो स्कूल जाना चाहती थी। लेकिन परिवार के लिए कमाई करने वाला और कोई नहीं था। 1939 में ‘फर्जंद-ए-वतन’ फिल्म में काम किया। यह पहली फिल्म थी। बाद में कई फिल्मों में अभिनय किया। नायिका के रूप में ‘बैजू बावरा’ ही उसकी पहली फिल्म थी।

कमाल अमरोही पहले से ही शादीशुदा थे। उनके बच्चे भी थे। लेकिन सच है कि प्यार अंधा होता है। कुछ सालों बाद गृहस्थी के रंग फीके पड़ने लगे। लेकिन मीना की कमाल के प्रति मुहब्बत कभी (बाद में तलाक के बाद भी) कम नहीं हुई। मुहब्बत के बारे में मीना कुमारी लिखती हैं-

मुहब्बत! कौसे-कुजह की तरह
कायनात के एक किनारे से
दूसरे किनारे तक तनी हुई है
और इस के दोनों सिरे
दर्द के अथाह समुंदर में डूबे हुए हैं

… किसी पूर्ण अर्धचक्र इंद्रधनुष्य जैसी होती है मुहब्बत! जो एक विश्व के किनारे से दूसरे किनारे तक फैला होता है। लेकिन उसके दोनों सिरे दर्द के अथाह सागर में डूबे होते हैं! मुहब्बत की भावना से ही पूरी दुनिया भरी है, यह अनुभूति उसके मन में कहीं गहरी पैठ लगा चुकी होगी।
एक शायरी का अंश…

दरो-दीवार कहां रूह की आवारगी के
नूर की वादी तलक लम्स का इक सफरे-तवील
हर एक मोड़ पे बस दो ही नाम मिलते हैं
मौत कह लो- जो मुहब्बत नहीं कह पाओ…!

यहां रूह (यहां दिल) के भटकने की सीमाएं हैं? गिरि-कंदराओं से प्रकाश की न खत्म होने वाली राह पर, मार्ग पर दो ही नाम होते हैं। मुहब्बत न कह सको तो आप उसे मौत कह लो! (दोनों की परिणिती एक ही है!)
मुहब्बत में आस होती है स्पर्श की। मुहब्बत का लम्बा रास्ता इसीलिए फिसलन और गड्ढों से भरा होता है। स्पर्श का मोह प्रेमी को (प्रेयसी को भी) किस मोड़ पर ले जाएगा इसका कोई अंदाजा नहीं होता। मीना कुमारी भी इसी खिंचाव में बहती चली गई। मुहब्बत… मुहब्बत कितना भी खोजें तो मिलती थोड़ी ही है? मुहब्बत मिलना किस्मत की बात होती है। और यह उसकी किस्मत में ही नहीं था…

प्यार का एक खूबसूरत ख्वाब
जो मेरी सुलगती हुई आंखों में ठंडक भर दे
मुहब्बत का एक पुरतपाक लम्हा
जो मेरी बेचैन रूह को पुरसुकूं कर दे
बस इन्हीं एक-दो चीजों की मैं खरीदार थी
और वक्त की दुकान इन चीजों से खाली थी…

कमाल अमरोही से शादी हो गई लेकिन वह उससे 15 वर्ष बड़ा था। उसे कोई संतान नहीं हुई। क्योंकि कमाल उससे बच्चा नहीं चाहता था! कमाल के ताजदार नामक पुत्र को उसने बहुत स्नेह दिया, उसका संवर्धन किया। आरंभ के कुछ सुखद काल के बाद कमाल व मीना के बीच अनबन शुरू हुई। दोनों के स्वतंत्र व दृढ़ व्यक्तित्व के कारण संघर्ष की परिणति अंत में तलाक में हुई। वह साल था 1964।

और एक कारण हुआ। 1958 में आरंभ पाकीजा फिल्म में फारेस्ट ऑफिसर की भूमिका उस समय के नये अभिनेता धर्मेंद्र को दी गई थी (जो बाद में राज कुमार ने की)। मीना के धर्मेंद्र के साथ अफेअर के कारण संघर्ष और बढ़ गया था। दूसरा यह कि तनहाई के कारण उसे शराब की लत लग गई थी। शराब और शायरी ये दो ही उसे आधार थे।

दिन गुजरता नजर नहीं आता
रात काटे से भी नहीं कटती
रात और दिन के इस तसल्सुल में
उम्र बांटे से भी नहीं बंटती…

दिन और रात की अखंड व न खत्म होने वाली मालिका किसी तरह जीते हुए समय आगे बढ़ रहा था… पाकिजा का शूटिंग बंद हो गया… और जैसा कि पहले उसने लिखा था, आत्मीयतापूर्ण मुहब्बत का एक भी लम्हा उसके हिस्से में नहीं आया था। कहते हैं कि धर्मेंद्र ने उसके सहयोग का केवल अपना करियर बनाने के लिए उपयोग किया! उससे उसे सच्ची मुहब्बत कभी मिली ही नहीं। आगे उसकी बीमारी बढ़ने पर वह उसका फोन भी नहीं लेता था। लेकिन वह उसकी आतुरता से बांट जोहती रही।

बैठे हैं रास्ते में बयाबान-ए-दिल सजाकर
शायद इसी तरफ से इक दिन बहार गुजरे…

रेगिस्तान जैसा वीरान दिल लेकर मैं जीवन की राह पर मैं बैठी हूं; इस उम्मीद में कि न जाने एक दिन शायद वसंत ॠतु इसी राह से गुजरे! लेकिन बांट जोहने का कोई उपयोग नहीं हुआ। जीवन में आए हर व्यक्ति से वह यही अनुभव लेती रही…

दोराहा है या चौराहा; मैं कैसे मोड़ पर बैठी हूं
इस घोर अंधेरे में मुझ को; वह कौन जो रास्ता दिखलाए
वह कौन जो मेरा दुख ले ले; वह कौन जो मेरा गम ले ले
तकदीर ने मारा वह पत्थर; मेरी कांच की दुनिया टूट गई…

किस किस के रूप में आकर किस्मत ने उसका जीवन ध्वस्त कर दिया… संवदेनशील मन के कांच के सपने टूट कर बिखर गए… मौत का इशारा उसे पता चल गया होगा। क्या उसे लगने लगा था कि मृत्यु ही जीवन की शुभ घटना है? इसलिए उसने अल्फाज को चुना, मौत की शहनाई… लेकिन, फिर भी उम्मीद नहीं मर रही थी…

यह रात यह तनहाई; ये दिल के धड़कने की आवाज… यह सन्नाटा…
जज्बाते-मुहब्बत की यह आखरी अंगडाई
बजती हुई हर जानिब यह मौत की शहनाई…
सब तुम को बुलाते हैं
पलभर को तुम आ जाओ
बंद होती हुई मेरी आंखों में
मुहब्बत का इक ख्वाब सजा जाओ…

इस करुण आवाज पर भी कोई नहीं आया… कितनी व्याकुल हो गई होगी उसकी जान… वह आवाज लगा रही है; लेकिन किसकी उसे परवाह है? कोई नहीं आया… तब वह कहती है-

टूट गए सब रिश्ते आखिर; दिल अब अकेला रोये
नाहक जान यह खोये;
इस दुनिया में कौन किसी का; झूठे सारे नाते…
इस दुनिया में मुहब्बत करना गुनाह ही है, तो अब क्या करें?
प्यार इक ख्वाब था, इस ख्वाब की ता’बीर न पूछ
क्या मिली जुर्मे-वफा की हमें ता’जीर न पूछ…

…प्यार मेरा सपना था। उस सपने का क्या फल मिला यह न पूछिए। प्यार में मेरी वफा मानो कोई गुनाह था! उसकी सजा भी मिली; केवल कौनसी यह न पूछिए।

कमाल से वह सच्ची मुहब्बत करती थी। क्योंकि उसने फिर से एक बार उससे शादी रचाई परम्परा के अनुसार। इसके पहले उसने बाकर नामक व्यक्ति से निकाह कर उससे तलाक पाने के बाद ही यह शादी की। वह लिखती है-

अभी तक तुम्हें ढूंढती हैं निगाहें
अभी तक तुम्हारी जरूरत है मुझ को…
कहां अब मैं इस गम से घबराकर जाऊं
कि यह गम तुम्हारी वदीयत है मुझ को…

…गम से घबराकर मैं कहां जाऊं? यह गम तुम से ही तो विरासत में मिली मेरी ‘इस्टेट’ है।
फिर से शादी करके भी वह सुखी नहीं हो सकी। तब तक शराब ने उस पर कब्जा कर लिया था। उसका सौंदर्य घटता जा रहा था। नायिका की भूमिकाएं मिलना मुश्किल हो गया। सब कुछ ढलान पर था।

खाली है मेरा हाथ, मेरे पास कुछ भी नहीं
दामानेदिल में तल्खी-ए-एहसास के सिवा…
मेरा ही ख्वाब मेरे लिए जहर बन गया
मेरे तसव्वुरात ने डस लिया मुझे…

…सपने पर जिया नहीं जा सकता यह उसे पता चल गया था। प्यार का अधूरा सपना! संवेदनशील मन का प्यार के बारे में सपना; व्यवहार की दुनिया में उसकी कीमत शून्य होती है।

देखे ये ख्वाबे-तरब, किस तरह कहूं
जब कुछ न मिल सका अलमो-यास के सिवा…

…कितने सुखद सपने देखे थे, क्या कहूं? लेकिन दर्द और निराशा के सिवा कुछ हाथ नहीं लगा…
फिर शब्द हाजिर हुए-

होके तन्हा ओ मजबूर चली जाऊंगी
तुम्हारी दुनिया से मैं दूर चली जाऊंगी…

जिस रास्ते अकेले चलना होता है, वह रास्ता खुद उसने चुना था… पाकीजा का वह प्रसंग… राजकुमार से निकाह के समय उसे पूछा जाता है- ‘कुबूल है’ और वह ‘नहीं’ कहते हुए ढलान पर चिल्लाते हुए भागती जाती है… इस दुनिया से दूर-दूर जाना होता है उसे…

निकाह फिल्म का एक संवाद यहां याद आता है- सलमा आगा (नायिका), नायक राज बब्बर से कहती है, ‘तुम क्या छोड़ोगे मुझ को! मैं ही तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं…’ दुनिया से विदा लेते समय क्या मीना कुमारी ने अपने झूठे प्रेमियों से यही कहा होगा?

अंत में दुनिया से दूर जाना चाहे जितना तय करें फिर भी लीवर के सोरायसीस ने उसे अपनी गिरफ्त में ले ही लिया। अगला तीर सामने दिखने लगा… चालीस क्या जाने की उम्र होती है?

जीवन के अंतिम चरण पर एक अच्छा सुहृद मिला! शायर गुलजार। अपनी शायरी की 25 कॉपियां मीना कुमारी ‘नाज’ ने उन्हें सौंप दी… इसके पूर्व खय्याम ने उसकी आवाज में ही उसकी शायरी की एक सीडी जारी की थी… गुलजार ने शायरी का सम्पादन कर उसे प्रकाशित किया, लेकिन वह भी उसकी मौत के बाद ही…

मौत उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकी… पाकीजा के उसके स्वगत संवाद की तरह। वह जीते हुए भी एक ‘चलती-फिरती लाश’ ही थी। सौंदर्य को मिला कहीं यह शाप तो नहीं था?
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