माउंट एवरेस्ट- बेस कैम्प ट्रेक

एवरेस्ट दुनिया का सर्वोच्च शिखर है। नेपाल या तिब्बत से एवरेस्ट पर चढ़ाई के मार्ग हैं। पिछले वर्ष गिरीप्रेमी की टीम ने दुनिया के इस सर्वोच्च शिखर पर विजय हासिल की। नेपाल के मार्ग से उन्होंने यह साहस किया। उनसे मेरा कोई परिचय या रिश्ता नहीं था। फिर भी मन खिल उठा। सीना गर्व से फूल गया। ऐसा लगा मानो मैंने ही एवरेस्ट को फतह कर लिया है। इस टीम से मिलने की इच्छा जागी। शीघ्र ही गिरीप्रेमी के उमेश झिरपे, प्रसाद जोशी, आशीष माने, भूषण हर्षे आदि से पुणे में मुलाकात का संयोग बना। एवरेस्ट की जानकारी पाकर बदन के रोएं खड़े हो गए। ऐसा लगा कि मानो एवरेस्ट शिखर पर पहुंचने वाले साहसी वीरों के साथ हमारा साहस भी बढ़ गया है। मैं और मेरा पुत्र अमित दोनों एवरेस्ट की चर्चा से भावविभोर हो गए। एवरेस्ट की चढ़ाई में लगने वाली विशेष सामग्री अर्थात बर्फीले इलाके के लिए उपयोगी कील लगे जूतें, ॠण चालीस अंश सेल्शियस में उपयुक्त कपड़े, प्राणवायु के सिलेंडर्स आदि हम पहली बार इतने करीब से देख रहे थे।
गिरीप्रेमी की 8 लोगों का प्रथम व सबसे बड़ा नागरी अभियान था। बातचीत के दौरान उमेश झिरपेे ने 2013 के एवरेस्ट-ल्होसे अभियान का सहज ही उल्लेख किया। एडमंड हिलेरी व तेनजिंग नोरगे ने 29 मई 1953 को सब से पहले एवरेस्ट फतह किया था। इस तरह यह वर्ष उनकी विजय का हीरक वर्ष था। गिरीप्रेमी के इस वर्ष के अभियान की विशेषता यही थी। इस अभियान के साथ सपोर्ट टीम के लिए एवरेस्ट बेस कैम्प तक ट्रेक की योजना थी। प्रयोजन यह था कि कुछ लोग ट्रेक कर एवरेस्ट के बेस कैम्प तक पहुंचे और शिखर पर जाने वाले टीम का मनोबल बढ़ाएं। इस ट्रेक में एवरेस्ट का निकट से दर्शन होने वाला था। साहस का ‘फर्स्ट हैण्ड’ अनुभव लेने का यह अवसर था। ट्रेक की योजना मुझे बहुत अच्छी लगी और मन ही मन मैंने उसमें जाने का निर्णय कर लिया। मन तो तेजी से निर्णय कर सकता है, लेकिन भोगना शरीर को ही पड़ता है। ऐसे भोगने में मन को ही अधिक कष्ट और तनाव झेलना होता है। लेकिन इस भोगने में भी एक अनोखा आनंद होता है। मेरे साथ धीरे-धीरे अमित भी तैयार हो गया।

पूर्व तैयारी

निर्णय तो हो चुका था, लेकिन अब क्या होगा? मैंने इसके पहले कभी ट्रेकिंग या हायकिंग नहीं की थी। लिहाजा, रायगड़ दो-तीन बार चढ़ चुका था। हां, याद आया- 1990 में मुझे इससे अलग थ्रिलिंग ट्रेक करना पड़ा था अयोध्या आंदोलन के कारण। हम हजारों कारसेवकों को लखनऊ से अयोध्या तक कोई 75 किमी का अंतर पैदल काटना पड़ा। मुलायम सिंह के अडियल व अमानवीय रुख के कारण हमें खेतों से, जंगलों से, ग्रामों से, गढ़मार्ग छोड़कर, पगडंडियों से गांव वालों का स्वागत स्वीकार करते हुए पांच दिन पैदल चलना पड़ा। वह रोमांच आज भी मुझ में शौर्य और आनंद का उत्साह भर देता है।

गिरीप्रेमी ने अभ्यास ट्रेक की घोषणा की। पहला ट्रेक था राजगड़ का। राजगड़ का ट्रेक कठिन ही है और तिस पर गर्मी के दिन। मेरे साथ मेरा पुत्र अमित, भतीजे अनिकेत, साले डॉ. विजय शेंडे ने भी एवरेस्ट बेस कैम्प ट्रेक के लिए अपने नाम दर्ज कराए। राजगड़ शिवाजी महाराज की पहली राजधानी थी। राजगड़ जाने वाले अनेक मार्ग हैं। उनमें से एक है गुंजवणे गांव से जाने वाला। पुणे-सातारा मार्ग पर मार्गसनी-साखर रास्ते से हम गुंजवण्े गांव में पहुंच सकते हैं। यह गांव राजगड़ की तलहटी में है। यहां हम सभी ट्रेकर्स जमा हुए। रास्ता कठिन और चुनौतीभरा है। कुछ जगह सीधी चढ़ाई है। चढ़ते-चढ़ते थक जाते थे। पसीने की धाराएं निकल आती थीं। फिर भी, जिद कायम थीं। धूप, थकान, पसीना झेलते हुए हम राजगड़ चढ़ गए। शाम को उतर आए, लेकिन थकान उतरने में और 7 दिन लगे।

शीघ्र ही सिंहगड़ के दूसरे अभ्यास ट्रेक की गिरीप्रेमी ने घोषणा की। अब पीछे लौटना नहीं था। निकले सिंहगड़ के लिए। सिंहगड़ पुणे जिले में समुद्री सतह से 1317 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। पूर्व की अपेक्षा इस बार कम कष्ट हुए। कड़ी धूप, गर्म हवा, कठिन रास्ता और चढ़ाई के कारण सांस जरूर फूलती थी। इसे हम सफलता से पूरा कर पाए। तीसरा अभ्यास ट्रेक था रायगड़ का। आसानी से उस पर भी चढ़ गए। रायगड़ प्रेरणादायी किला है। प्रत्यक्ष महाराज शिवाजी की यादें जगाने वाला। हिंदवी स्वराज्य की यह राजधानी था। किले के प्रचंड विस्तार, बाजार, मंदिर, आवास, तालाब, गोदाम देखकर विशालता और भव्यता की कल्पना सहज ही कर सकते हैं। रायगड़ चढ़ने की स्पर्धाएं इस इलाके में खूब लोकप्रिय हैं। कहते हैं कि रायगड़ चढ़ने का 28 मिनट का रिकार्ड है! हम किला आसानी से चढ़ गए।

अब कांफिडेंस बढ़ गया था। लेकिन इतना ही काफी नहीं था। फिर ट्रेड मिल पर प्रतिदिन 10 किमी चलने का अभ्यास आरंभ हुआ। लेकिन चलना और चढ़ना इसमें बहुत अंतर है। हमें तो चढ़ाई करनी थी। इसलिए घर के सौ सीढ़ियों वाले सोपान पर प्रतिदिन चढ़ना शुरू किया। आरंभ में पांच बार, फिर दस बार और अंत में 25 से 30 बार सोपान चढ़ना- उतरना शुरू हुआ। शरीर थकान महसूस करता था, लेकिन मन उत्साह से सराबोर हो जाता था।

बेस कैम्प के लिए निकलने का 8 मई 2013 का दिन निकट आया। जरूरी सामग्री को इकट्ठा किया। अभ्यास ट्रेक के दौरान ध्यान में आया कि ट्रेकिंग के उचित साधन पास में हो तो समझिए कि आधा काम हो गया। शेष आधा काम शरीर व मन को करना होता है।

ट्रेक आरंभ

मुंबई से विमान से हम 9 मई को काठमांडु पहुंचे। वहां ‘पीक प्रमोशन’ नामक संस्था ने हमें बौद्धिक दिया। पानी लगातार पीते रहें, भरपूर खायें, थकने पर रुकें, धीरे-धीरे चलें या चढ़ें, आसपास के मौसम से सहज होने में समय लगता है इत्यादि सूचनाएं पीक प्रमोशन के प्रमुख श्री वांगछू ने दीं। फिर जैकेट्स, ट्रेक सूट, स्लीपिंग बैग- ॠण बीस तापमान के लिए, टोपियां, हाथमोजे, ऊनी पैरमोजे, लाठी इत्यादि सामग्री की खरीदी हुई। काठमांडु में ट्रेकर्स के लिए अनेक दुकानें हैं। सभी सामग्री एक ही स्थान पर मिलने की सुविधा भी है। ट्रेक के दौरान एक दिन सामग्री के लिए, एक दिन काठमांडु देखने और पशुपतिनाथ के दर्शन के लिए रखा जाता है। कुछ समय देने से मौसम से सहजता प्राप्त करने में शरीर को सुविधा होती है। काठमांडु से लुक्ला की यात्रा 20 सीटर के एक छोटे विमान से करनी होती है। उसमें केवल 10 किलो सामान ले जाने की अनुमति होने से सामान कम करने की दौड़भाग शुरू हुई। कपड़े, खाने-पीने की चीजें, क्या कम करें कुछ सूझ नहीं रहा था। अगले दस दिन ट्रेक पूरा होना महत्वपूर्ण था। रास्ते में क्या नहीं मिलता इसकी जानकारी नहीं थी। किसी तरह 10 किलो सामान ठूंसा व दूसरे दिन काठमांडु के हवाई-अड्डे पर पहुंचा। यहां का मौसम लहरी होता है। वहां पहुंचने पर पता चला कि दो दिन से लुक्ला मार्ग पर विमान गया ही नहीं। भीड़ इकट्ठा हो गई थी। सौभाग्य से उस दिन मौसम अच्छा था। हमारा विमान जल्द ही तैयार हो गया। लुक्ला की यात्रा आरंभ हुई। सुहावनी प्रकृति में चला यह प्रवास अत्यंत सुखद व आनंददायक था। बाई ओर सुंदर पर्वत कतार में खड़े हैं। हिमालय के शिखरों में से एवरेस्ट का भी दूर से दर्शन हुआ। अंत में ट्रेक के शुभारंभ के स्थल लुक्ला पहुंचे। लुक्ला छोटा-सा हवाई-अड्डा है। यह एवरेस्ट की ओर जाने वाले पर्यटकों के लिए बनाया गया है। 1966 में एडमंड हिलेरी के प्रयासों से यह बना। यहां शेरपा पोर्टर्स का जमावड़ा होता है। आने वाले पर्यटकों को गाईड, पोर्टर, सहायक की जरूरत हो तो वे तत्पर रहते हैं। गर्मागर्म चाय लेकर सुबह ही हमारा ट्रेक आरंभ हुआ- लुक्ला से फाकडिंग नामक पहले पड़ाव के लिए।

मनोरम निसर्ग के बीच पगडंडी से चलना आरंभ हुआ। आगे क्या होगा, कैसे होगा, चढ़ाई के कितने कष्ट होंगे आदि शंकाएं थीं ही। कुछ देर चलने पर बाईं ओर कलकल बहती दूधकोसी नदी दिखाई दी। यहां से बेस कैम्प तक जाने के लिए पैदल चलने का ही एकमात्र मार्ग है। न सड़क, न वाहन, यहां तक कि साइकिल भी नहीं है। छीपे गड्ढों से भरे चढ़ाई-उतराई के रास्ते। बीच में ही नदी लांघने के लिए लोहे के रस्सों से बने पुलिया। माहौल की नीरव शांति के कारण नदी के कलरव की आवाज, पक्षियों का कोलाहल, हवा के चलने की आवाज साफ सुनाई दे रही थी। यहां सारे खाद्य पदार्थ काठमांडु से लाने होते हैं। माल परिवहन का साधन है याक, खच्चर अथवा पोर्टर। यह खर्चीला है। प्रति किलो सामान के लिए 300 रु. परिवहन का खर्च होता है। अतः चीजें महंगी होंगी ही। यहां पैदा होता है केवल आलू। वही एकमात्र सस्ती वस्तु है।
लुक्ला से जैसे जैसे बेस कैम्प की ओर चलें वैसे वैसे हमारे ध्यान में आता है कि हरेभरे पेड़-पौधें कम होते जा रहे हैं और अंत में खत्म ही होते हैं। इसी तरह खेत, गांव, मनुष्य, प्राणी, पंछी, हवा, प्राणवायु, पानी यह सब कम होते जाता है। एक निर्मनुष्य प्रदेश की ओर हम बढ़ते चलते हैं। शीत बढ़ती जाती है। पानी का बर्फ हो जाता है। हवा विरल हो जाती है। रास्ते में फूलों की, प्रकृति की बारिश देखने पर मन खिल उठता है। हिमालय के शिखर धीरे-धीरे दिखाई देने लगते हैं। कुछ तो सतत हमारे साथ होते हैं। थामसेरकू शिखर इनमें से ही एक है। हिमालय की सब से बड़ी विशेषता यह है कि दुनिया के सर्वोच्च चार शिखर हैं एवरेस्ट, व्होत्से, मकालू व च्योयो नेपाल में आते हैं। अबा दबलम, कुसुमकांगडा, आइलैण्ड पीक, नुप्से, लिंगट्रन, प्युमोरी, कांगटेगा, मेरा नामक अनेक शिखर रास्ते में हमारी संगत करते हैं। हरेक को देखकर अपनी ऊंचाई बढ़ने का आभास होता है। कदम-दर-कदम चलते, चढ़ते-उतरते 4-5 घंटे में पहले दिन का पड़ाव फाकडिंग आ गया। कितना आनंद हुुआ कह नहीं सकते! वहां छोटे-छोटे लॉज थे। उनमें 6 फुट बाय 6 फुट के कमरे थे। उसमें दो पलंग, दो लोगों के लिए। मामूली रेस्तरां, कॉमन टायलेट। लेकिन ठण्ड इतनी भीषण होती है कि यहां की असुविधाएं ही सुविधाएं महसूस होती हैं।

इस निर्जन और नीरव प्रदेश में इतनी-सी सुविधाएं क्यों न हो लेकिन सुविधाएं हैं इसीका आनंद होता है। लुक्ला से जाते समय रास्ते में एक गांव में सर एडमंड हिलेरी द्वारा स्थापित स्कूल दिखाई दी। सर एडमंड हिलेरी शेरपा तेनजिंग नोरगे के साथ एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति थे। वे न्यूजीलैण्ड के मूल निवासी थे। साहसी थे और एवरेस्ट पर विजय पाने के लिए ब्रिटिश दल में शामिल हुए थे। तब से उन्होंने स्थानीय शेरपा समाज के साथ गहरे ॠणानुबंध कायम किए। उन्होंने इस इलाके में स्कूल, अस्पताल आदि 42 सेवा प्रकल्प आरंभ किए। वे आज भी चल रहे हैं। हिलेरी के प्रति आदर भी बहुत है।

शेरपा

इस इलाके की वास्तविक जीवनरेखा शेरपा समाज ही है। ये लोग अत्यंत विनम्र, परिश्रमी, ईमानदार और किसी भी कार्य के लिए सदा तत्पर होते हैं। मगरूरी, हेकड़ी बिल्कुल नहीं है। शरीर से अत्यंत मजबूत, तेजी से दौड़ने वाले होते हैं। इनमें से कई लोग हमारे साथ साथ जाते दिखाई देते हैं। हमारी मात्र चलते हुए सांस फूलती है लेकिन शेरपा भारी बोझ पीठ पर लाद कर हमारी बगल में आराम से, बगल के पोर्टर से बातचीत करते हुए हमें दिखाई देते हैं। हमारा बोझ लाद कर ले जाना हो, हमारे आगे के पड़ाव पर जाकर भोजन की व्यवस्था करनी हो अथवा किसी की मदद करना हो तो ये काम ये लोग हंसते-खेलते करते हैं। हमारे साथ वाला ‘फूला’ नामक शेरपा रोज रात में दिनभर के घटनाक्रम पर ब्लॉग लिख कर नेट पर अपलोड़ किया करता था। दोरजी नामक दूसरा शेरपा खूब गुमसुम रहता था, लेकिन चाहे जो मदद करने वाला था। कदम-कदम पर आधार देने वाला था। नामचे बाजार के शेरपा म्यूजियम में हम लोग गए तब हम चकित रह गए। उस दोरजी का फोटो म्यूजियम में लगा पाया। एवरेस्ट फतह करने वालों के ये फोटो थे। मतलब हमारे साथ वाला दोरजी शेरपा एवरेस्ट पर सफलता से चढ़ा तो है ही, एक अमेरिकी अभियान का सारथ्य भी उसने किया है। उसकी महानता का हमें पता चला। फिर हम सभी ने दोरजी के साथ फोटो उतरवाए। उसके चेहरे पर निर्विकार भाव थे मानो कुछ घटा ही न हो। फूला शेरपा आगे, दोरजी शेरपा सब से अंत में और लाकपा शेरपा बीच में इस तरह उनकी व्यवस्था होती थी। उन्हें उनके बारे, उनके गांव के बारे में पूछने पर कहते, लुक्ला से उनका गांव दो दिन की यात्रा पर है। अर्थात, केवल पैदल चलने का ही रास्ता है। लुक्ला से बेस कैम्प तक का अंतर दो दिनों में काटने वाले अनेक शेरपा यहां हैं। बेस कैम्प से नामचे बाजार तक लगभग 60 किमी की मैराथान यहां आयोजित की जाती है। यह अंतर कुछ घंटों में ही पार करने वाले शेरपा यहां हैं। वातावरण में प्राणवायु कम होने पर भी उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। उनके फेफड़े मूलतः ही हम लोगों से बड़े होंगे। आप्पा शेरपा तो 20 बार एवरेस्ट पादाक्रांत कर चुका है।

                                बर्फ का सीधा बाष्पीकरण

पानी चक्र अर्थात थरींशी लूलश्रश से हम परिचित हैं ही। सरोवर, समुंदर इत्यादि के पानी की भांप बनती है। उसके बादल बनते हैं और बादलों से पुनः नदियों- सरोवरों- समुंदर में बारिश होती है। यह है सामान्य पानी चक्र। यहां हम पानी की भांप बनने और भांप का पानी होने के दो बदलाव देखते हैं। लेकिन बर्फ के बारे में और दो परिवर्तन होते हैं। उनका अनुभव केवल बर्फीले इलाके में ही होता है। जिसका हमें सामान्यतः अनुभव नहीं होता वह हम हिमालय में ट्रेक करते समय देख सकते हैं। वह है बर्फ का पानी होना और पानी का बर्फ होना। हिम नदियां बर्फ से पानी होने पर उगम पाती हैं। पहाड़ों का बर्फ अर्थात पानी का विशाल भंडार ही है। शीत के दिनों में यह बर्फ पहाड़ों पर गिरती है व गर्मी के दिनों में बर्फ पिघलकर उसका पानी बनकर नदियों के प्रवाह में आता है। हरिद्वार में हम ग्रीष्म में जायें तो लबालब भरी गंगा हमें दिखाई देती है। बर्फ के पानी से वह लबालब होती है। इसीलिए उसका पानी बेहद ठण्डा होता है। इसी तरह शीत के दिनों में पानी का बर्फ होता है यह भी हम देखते हैं। इसका उदाहरण श्रीनगर की डल झील है जिसके जमने पर लोग वहां आइसस्केटिंग करते हैं।

तीसरा परिवर्तन है बर्फ का सीधे भांप में और भांप का बर्फ में रूपांतर होना। बर्फ का पानी बनने के बजाय उसका सीधे भांप में रूपांतर होता है। यह परिवर्तन हम हिमालय में ऊंचाई पर जाने व शिखरों का अवलोकन करने पर ही दिखाई देता है। पानी का फेज डायग्राम हम देखें तो तापमान और दबाव के अनुसार तीनों परिवर्तन किन परिस्थितियों में होंगे इसका पता चलता है। शिखरों के बर्फ का सुबह से ही सीधा बाष्पीभवन होता रहता है और संध्या समय भांप का बर्फ में रूपांतर होकर स्नोफॉल अथवा बर्फवृष्टि होती है। कम दबाव व कम तापमान अर्थात शून्य अंश सेल्शियस से नीचे तापमान पर यह परिवर्तन संभव होता है। यह देखने का अवसर हमें बेस कैम्प पर मिला और भारी प्रसन्नता हुई।

ये शेरपा एवरेस्ट अभियान के लिए क्रियायसेस अर्थात बर्फीली दरारों पर सीढ़ियां डालने, पहाड़ों पर रस्सी बांधने व सब से पहले एवरेस्ट शिखर पर पहुंचने पर ही मार्ग आरंभ होने की घोषणा की जाती है। इन शेरपाओं के बिना एवरेस्ट बेस कैम्प अथवा शिखर पर विजय पाना संभव नहीं है।

नामचे बाजार

दूसरे दिन सुबह ही नामचे बाजार जाना था। यहां सुबह 5 बजे ही हो जाती है। सभी कार्यों के लिए जीरो डिग्री वाला ठण्डा जल होता है। इसलिए पानी का उपयोग कम होता है। नहाने से भी छुट्टी लेनी होती है। सुबह जगना, ब्रश, चायनाश्ता हुआ कि चलना शुरू होता है। बीच में भोजन के लिए रुकना होता है। फिर चलना और 3-4 बजे तक पैदल चलकर अपने पड़ाव पर पहुंचना होता है। यह रोज का दिनक्रम है। लेकिन आज नामचे बाजार की चढ़ाई करनी थी। ट्रेक में यह सब से कठिन चरण था। लुक्ला समुद्री सतह से 10500 फुट ऊंचाई पर है। एवरेस्ट बेस कैम्प 17500 फुट ऊंचाई पर है। हमारा अनुमान था कि कुल मिलाकर 7000 फुट अंतर चढ़ना होगा। एक दिन में अधिकतर 1000 फुट चढ़ना था। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं था। यहां के ट्रेक अनोखे ही हैं। यहां कुल 7000 फुट चढ़ना था। लेकिन यहां 1000 फुट चढ़ना (कुल हाइट गेन) अर्थात कुल 3000 फुट चढ़ना था। उसी दिन 2000 फुट उतरना था। इस तरह कुल 5000 फुट चढ़ना- उतरना था। इसका ध्यान आते ही पहला आघात पहुंचा। नामचे बाजार इस इलाके का बड़ा गांव है। साप्ताहिक बाजार यहां लगता है। हर शनिवार को यहां बाजार लगता है। आसपड़ोस के गांवों के लोग यहां बाजार करने आते हैं। एक-दूसरे से मुलाकातें होती हैं। लेन-देन करते हैं। फाकडिंग से नामचे बाजार का अंतर कठिन है। यहां की चढ़ाई 50 से 60 डिग्री की हैं। प्राणवायु की मात्रा कम होने से थकान आती है। यह चढ़ाई जो पूरी करें मानिए कि वह बेस कैम्प तक पहुंच ही गया। बीच में बहती ठण्डी चुभने वाली बयार, आड़े आने वाले याक या खच्चरों के झुंड के बीच से यात्रा करनी होती है। रास्ते में सागरमाथा नेशनल पार्क पड़ता है। यहां से आगे बढ़ने के लिए नेपाल सरकार से अनुमति लेनी होती है। काठमांडु में भी वह प्राप्त की जा सकती है। वह तुरंत उपलब्ध होती है। नामचे बाजार की चढ़ाई चढ़ते और हांफते हुए हम नामचे बाजार पहुंच ही गए। बेहद थकान थी। लेकिन उतना ही आनंद भी था। लगा मानो हम बेस कैम्प तक पहुंच ही गए हैं। अगला दिन वातावरण से सहजता प्राप्त करने का था। लेकिन उस दिन सोना या विश्रांति लेने का कोई कार्यक्रम नहीं था। उस दिन एवरेस्ट ह्यू तक चढ़ने- उतरने का कार्यक्रम था। फिर आराम। यहां से पहली बार एवरेस्ट और अन्य कई शिखरों के दर्शन होते हैं।

                   ऊंचाई पर हवा ठण्डी और विरल क्यों होती है?

मौसम के प्रेशर और टेंपरेचर का एक समीकरण होता है अर्थात हवा का दबाव ईोींहिशीळल झीर्शीीीीश हवा का उस स्थान का वजन होता है। वातावरण में हवा का दबाव एक एटमॉस्फीअर होता है। अर्थात सामान्यतः 10 किमी ऊंचाई की हवा का वह दबाव होता है। यह है समुद्री सतह का हवा का दबाव। जैसे जैसे हम ऊपर की ओर जाएंगे वैसे वैसे हवा के स्तरों की ऊंचाई कम होती जाएगी। उदाहरण के लिए 3000 मीटर ऊंचाई पर हो तो वहां हवा के स्तर की ऊंचाई 7 किमी अर्थात 7000 मीटर तक होगी अर्थात वहां हवा का दबाव सात दशांश एटमॉस्फीअर होगा। और एवरेस्ट शिखर पर अर्थात 8848 मीटर ऊंचाई पर पहुंचे तो वहां हवा के स्तर की ऊंचाई केवल 1152 मीटर होगी अर्थात वहां हवा का दबाव अमुमन एक दशांश एटमॉस्फीअर होगा। अब जैसे जैसे हवा का दबाव कम होता जाएगा वैसे वैसे उसका तापमान कम होता जाएगा। वह सामान्यतः प्रत्येक किमी की ऊंचाई पर 6.5 अंश सेल्शियस कम होता जाएगा। इसका अर्थ यह कि 9 मीटर ऊंचाई पर हवा का तापमान 58.5 अंश से कम हुआ दिखाई देगा। वह बहुत कम अर्थात ॠण तापमान होगा। एवरेस्ट बेस कैम्प में भी ॠण बीस अंश सेल्शियस तापमान होता है।

दबाव और तापमान पर हवा में प्राणवायु का वजन और वह भी ऊंचाई पर कम होते जाता है। एक सांस में समुद्री सतह पर जितना प्राणवायु हम लेते हैं उसके मुकाबले केवल 15-20 प्रतिशत ही प्राणवायु बेस कैम्प पर ली सांस में होता है। इसलिए दम फूलता है। चार कदमों पर ही थकान आती है, क्योंकि हवा विरल होती है।

अगली यात्रा

इस तरह नामचे बाजार के बाद तेगंबोचे व फेरिचे के बीच ट्रेक आरंभ हुआ। इस तरफ सुबह से दोपहर तक अच्छा मौसम होता है। लेकिन दोपहर के बाद बादल घिर आते हैं। काली घटा शुरू हो जाती है। कभी बारिश तो कभी बर्फ की फुहारें आती हैं। रात पुनः शांत। फेरिचे दूधकोसी नदी के पात्र के पास बसा छोटा-सा गांव है। शाम को टहलते हुए सहज ही हम नदी के पात्र में गए। पानी कम जगह था। जहां पानी नहीं था, वहां हम जाकर खड़े हो गए। इसी बीच बादल मंडराने लगे। अंधेरा छा गया। इसी समय एक हेलिकॉप्टर भटकते हुए वहां आ गया। हमारे सिर के ऊपर से वह गुजरा। पायलट को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। सौभाग्य से हम से कुछ अंतर से ही हेलिकॉप्टर निकल गया। कुछ देर बाद उसकी आवाज आना बंद हो गया। शायद वह आगे गया होगा या नदी के पात्र में उतरा होगा। हम शीघ्रता से अपने पड़ाव पर लौट आए। यहां ऊंचाई की बीमारियों की जानकारी देने वाली व चिकित्सा करने वाली सामाजिक स्वास्थ्य संस्था है। उन्होंने हमारी क्लास ली। ऊंचाई पर होने वाली बीमारियों की जानकारी दी और बताया कि इस मामले में वे कितने गंभीर हैं। हम कुल 40 लोग थे। इनमें चार महिलाएं भी थीं। आयु थी 14 से 70 वर्ष। यश उमेश झिरपे का 14 वर्षीय पुत्र था। उसकी मां भी ट्रेक में साथ थी। अंत तक वे भी पहुंचे। 70 वर्ष के आनंद आपटे चाचा, रामभाऊ पाटणकर का बेस कैम्प का यह दसवां ट्रेक था। वे उत्साह से भरे थे। गिरीप्रेमी ने हमारे पांच समूह बनाए थे। बीच-बीच में कुछ लोग मिलते थे। देश-विदेश से आए पर्यटकों से भी मुलाकात होती थी। प्राणवायु की कमी तथा ऊंचाई के मौसम के कारण कुछ लोगों के सिर में दर्द होता था, कै होती थी, चक्कर आता था। कुछेक ने बीच में ही अपना ट्रेक छोड़ दिया। हमारे साथ डॉ. विजय शेंडे थे। उनसे काफी सहायता मिलती थी। अमित के मोबाइल में चूीींशलज्ञ नामक सॉफ्टवेयर था। प्रवास आरंभ होते ही उसे शुरू करना होता है और रुकने पर उसे बंद करना होता है। इससे कितने किमी की यात्रा हुई, कितनी चढ़ाई की, कितनी उतराई हुई, कितनी कैलरीज खत्म हुई इसका ग्राफ बन जाता है। हमें पता चला कि एक दिन में 7 हजार कैलरीज खत्म होती हैं और खाने-पीने से 2000 कैलरीज मिलती हैं। फिर चाकलेट, चाय में अधिक चीनी, दाल अधिक खाना व आलू कम खाना शुरू किया। फिर भी 7000 कैलरीज मिलना असंभव ही था। इसके बावजूद कई लोग अंत तक पहुंचे। देश-विदेश के लोग रास्ते में मिलते थे। विपरीत दिशा से आने वाले ट्रेकर्स मिलते थे। उस समय सभी एक ही तरह का अभिवादन करते थे- नमस्ते! यह शब्द बोलना हरेक को आता था और समझता भी था। अमेरिका से जापान, चीन, न्यूजीलैण्ड, यूरोप, अफ्रीका, एशिया इस तरह दूर-दूर के ट्रेकर्स से रास्ते में भेंट होती थी। कई लोग जीपीएस लेकर, नक्शा लेकर पूछते-पाछते जाते होते हैं। महिला ट्रेकर्स की भी काफी संख्या थी। एक यूरोपीयन युगल से भी मुलाकात हुई। उनके विवाह को 25 वर्ष पूरे हुए थे। इस प्रसंग को मनाने के लिए वे दोनों एवरेस्ट बेस कैम्प के ट्रेक पर आए थे।

शिवराय

इसके बाद लोबुचे से गोरक्षेप की यात्रा शुरू हुई। गोरक्षेप स्थित हिमालयन लॉज के परिसर में गिरीप्रेमी ने छत्रपति शिवाजी महाराज की सिंहासन पर आरूढ़ प्रतिमा स्थापित की है। उसके करीब भगवा ध्वज लहराता है। इसे देखकर मन में अनोखी चेतना का संचार होता है और गिरीप्रेमी संस्था के प्रति आदर और बढ़ता है। हम प्रतिमा के चारों ओर खड़े हो गए। जयभवानी, जय शिवाजी के नारों से परिसर गूंज उठा और शरीर में अनोखे बल का संचार हुआ। मन को इतनी शक्ति मिली कि लगा अब हम एवरेस्ट शिखर पर भी पहुंच जाएंगे।

काला पत्थर

गोरक्षेप में ही काला पत्थर नामक शिखर है। बाकी शिखर बर्फाच्छादित सफेद दिखाई देते हैं और यह मात्र काला दिखाई देता है। इसी कारण उसका नाम काला पत्थर पड़ा। गोरक्षेप से यह 1000 फुट ऊंचाई पर है। रात दो बजे टार्च की सहायता से यह पहाड़ चढ़ना शुरू होता है। तड़के 5 बजे हम शिखर पर पहुंचते हैं। तब तक सूर्योदय हो जाता है। यहां से एवरेस्ट शिखर सुंदर दिखाई देता है। चारों ओर बर्फाच्छादित शिखरों की शृंखला दिखाई देती है। यहां से एवरेस्ट 8-10 किमी दूर है। सुबह सूर्य की किरणें जैसे जैसे शिखरों पर पड़ती हैं शिखर दमक उठते हैं। शिखरों में स्वर्णीम रंग उभर जाता है। एवरेस्ट पर ये किरणें पड़ते ही वह और चमक उठता है। स्वर्णीम रंग का यह दृश्य मन में समाकर, कैमरे में कैद कर उतराई शुरू होती है। पुत्र अमित हावरे ने तो कमाल कर दी। वह एक ही दिन में काला पत्थर चढ़ा और पड़ाव पर भी लौट आया। काला पत्थर से आने के बाद वह शांत दिखाई दिया। यात्रा सफल होने, जीवन कृतार्थ होने के भाव उसके चेहरे पर थे। अमित हावरे अच्छा फोटोग्राफर है। उसने वहां अपनी फोटोग्राफी की मुराद पूरी कर ली। बीच रास्ते में उसने थकान अनुभव की, लेकिन वह रुका नहीं। टाइम लैप्स फोटोग्राफी के सुंदर नमूने उसके कैमरे में कैद हैं। एक बेहतर वीडियो फिल्म भी उसने बनाई है। इस लेख में छपे फोटो भी उसीने उतारे हैं।

सुबह का नाश्ता कर अंतिम लक्ष्य एवरेस्ट बेस कैम्प की ओर हम निकले। यह चार घंटे का ट्रेक है। यह इलाका निर्मनुष्य है, पेड़-पौधे खत्म हो जाते हैं, देहात पीछे रह जाते हैं, नदियों में बर्फ जमा हो जाता है। यह दृश्य हमें अनोखी दुनिया में ले जाता है। हम अनोखे आनंद की दुनिया में होते हैं। बेस कैम्प पूर्णतः बर्फ की नदी पर ही है। वहां के ग्लेशियर को खुंबु ग्लेशियर कहते हैं। नदी बर्फ से जम चुकी है। वह बहती है लेकिन उसका प्रवाह ह हमारी आंखें देख नहीं सकती। यहां पहुंचने पर हमारा स्वागत हुआ ‘पीक प्रमोशन’ की गर्मागर्म चाय से और गिरीप्रेमी के रसोइये द्वारा बनाए गए तीखे आलू बड़े से।

बेस कैम्प की रात

18 मई को हम बेस कैम्प में पहुंचे। उसी रात एवरेस्ट शिखर फतह करने वाले भूषण हर्षे, गणेश मोरे, आनंद माली और ल्होत्से शिखर पर चढ़ने में सफल रहे आशीष माने ऊपर से नीचे उतर कर बेस कैम्प में पहुंचे। भारी उत्साह से उनका स्वागत किया गया। छत्रपति शिवाजी महाराज की जय, गणपति बाप्पा मोरया के जयघोष हुए। इन सभी वीरों से फिर गपशप हुई, फर्स्ट हैण्ड अनुभवों का लेना-देना हुआ। गणेश मोरे एवरेस्ट शिखर से एक छोटा-सा पत्थर ले आया। एक यादगार के रूप में। यह पत्थर उसने मुझे भेंट किया। उस पत्थर को मैंने एक सुंदर फ्रेम में जड़ा और मेरे ऑफिस के टेबल पर सजाकर सुरक्षित रखा है। कई देखने वालों को यह पत्थर गणेश के आकार का लगा। इससे ‘जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि’ कहावत चरितार्थ होती है। यह पत्थर मेरे लिए अनमोल विरासत है।

                               हिमालय की निर्मिति

हमारी पृथ्वी का विभाजन सात टेक्टॉनिक प्लेट्स में किया गया है। ये प्लेटें खिसकती रहती हैं और एक दूसरे से टकराती रहती हैं। इसे ही भूकम्प कहते हैं। यह पृथ्वी के भीतर होता है लेकिन उसके दृश्य परिणाम पृथ्वी की सतह पर दिखाई देते हैं। इसी तरह की दो प्लेटें हैं- एक ओर से इंडियन प्लेट और दूसरी तिब्बत की ओर वाली यूरेशियन प्लेट। एक दूसरी से टकराकर जहां वे मिलती हैं वहां जमीन का हिस्सा ऊपर उठ गया है और इसीसे हिमालय की निर्मिति हुई है। दुनियाभर के पहाड़ इसी तरह से बने हैं। इसमें से कुछ प्रदेश छोटे हिमालय, कुछ बड़े हिमालय तो कुछ ट्रांस हिमालय के रूप में जाने जाते हैं। एवरेस्ट व अन्य बड़े शिखर बड़े हिमालय में हैं। हिमालय की यह निर्मिति लगभग 5.6 करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुई मानी जाती है। एवरेस्ट इस प्रक्रिया में युवा है। उसकी निर्मिति 10 लाख वर्ष पूर्व हुई। इन दोनों प्लेटों का एक-दूसरे पर दबाव डालना जारी है। फलस्वरूप हिमालय की ऊंचाई आज भी बढ़ रही है। लेकिन यह इतने सूक्ष्म स्तर पर होता है कि दैनंदिन जीवन में हमें इसका पता ही नहीं चलता। एवरेस्ट की ऊंचाई इस प्रक्रिया से प्रति वर्ष 3 से 5 मिमी तक बढ़ रही है।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि एवरेस्ट की आज की ऊंचाई लगभग 40 हजार मीटर होनी चाहिए थी। लेकिन लगातार होते क्षरण, बारिश व बर्फ के साथ बहने वाले स्तरों के कारण एवरेस्ट की ऊंचाई आज केवल 8848 मीटर ही है। इसमें भी नापने वालों के आंकड़े भिन्न हैं। अमेरिकी एवरेस्ट एक्सीपीडिशन के अनुसार यह ऊंचाई 8850 मीटर है तो चीन के ब्यूरो ऑफ सर्वे के अनुसार एवरेस्ट की ऊंचाई 8884 मीटर है। सर्वे ऑफ इंडिया ने 1954 में एवरेस्ट की ऊंचाई 8848 मीटर दर्ज की और इसे ही मानक माना जाता है।

डॉ. शेंडे के पास खून में प्राणवायु की मात्रा नापने का एक यंत्र था। वह उंगली में लगाने पर पता चलता था कि हमारे रक्त में प्राणवायु की मात्रा कम होती जा रही है। क्योंकि हवा ही विरल थी। फेफड़े हमेशा की तरह काम करेंगे। लेकिन कम प्राणवायु के कारण बेहद थकान होती थी। फिर कुछ देर रुकते। फेफड़ों को राहत देते, खून में प्राणवायु की मात्रा बढ़ने पर फिर चल पड़ते। 90 प्रतिशत तक प्राणवायु की मात्रा कम होने की बात ध्यान में आई। यह मात्रा और घट जाए तो चक्कर आने शुरू होंगे।

उस रात हमारा पड़ाव बेस कैम्प में था। यह रात अविस्मरणीय थी। तापमान ॠण 20 डिग्री सेल्शियस था। सायं-सायं से बहती हवाएं थीं। हमारा तम्बू बर्फ जमे नदी के पात्र में ही था। नीच बर्फ, उस पर लकड़े के तख्ते और उस पर छोटे गद्दे थे। हम स्लीपिंग बैग में घुस गए। सर्वत्र अंधियारा था। कुछ तम्बुओं में सौर ऊर्जा पर चलने वाले टिमटिमाते दीये थे। एक अद्भुत अनुभव हम ले रहे थे। नींद कम ही आई। रात अनुभव के पलने में ही झूलते रहे। तड़के 4 बजे गर्मागर्म चाय व पोहे मिले। सर्वत्र नीरव शांति, ठण्डी बयारें थीं। बाद में लौटती यात्रा आरंभ हुई। हममें से कई लोग पैदल ही लौटती यात्रा पर रवाना हुए। हममें से कुछ लोगों ने लौटती यात्रा में लुक्ला तक हेलिकॉप्टर से जाने का निर्णय किया। वहां हेलिकॉप्टर चार लोगों को लेकर उड़ नहीं पा रहा था। हवा विरल होने से पंखा चाहे जितनी गति से घूमे लेकिन हेलिकॉप्टर को ‘थ्रस्ट’ नहीं मिलता था। फिर एक को उतारा और हेलिकॉप्टर भी उड़ गया। एक घंटे में सीधे लुक्ला पहुंचे। वहां खड़े एक छोटे विमान में हम बैठे और काठमांडु पहुंच गए। यहां का हवाई अड्डा अपने एसटी के स्टैण्ड जैसा ही था। वहां रखा सामान उठाया और तुरंत विमान पकड़कर मुंबई पहुंच गया। इस तरह मुंबई से बेस कैम्प तक की यात्रा दस दिनों में और बेस कैम्प से मुंबई तक की यात्रा केवल दस घंटे में पूरी हुई। मौसम सर्वत्र अच्छा होने से यह संभव हुआ। हम से कुछ पीछे रहे लोगों को मौसम खराब होने से लुक्ला में चार दिन अटक जाना पड़ा। एक अनोखा आनंद, एक अनोखी दुनिया देखने का अनुभव, एवरेस्ट का रोमांच और विश्व में सब से अधिक ऊंचाई, सब से कठिन, सब से अधिक चुनौतीभरे ट्रेक हमने पूरा किया। इसकी खुशी में मन उफन रहा था। कई दिनों तक मन से हम बेस कैम्प पर ही थे।

                        टेलिफोन कनेक्टिविटी

आज का युग कनेक्टिविटी का है। सौभाग्य की बात यह है कि हिमालय में सर्वत्र बेहतर कनेक्टिविटी है। एवरेस्ट बेस कैम्प से भी आप अपने घर फोन कर सकते हैं। काठमांडु में ही लोकल मोबाइल कार्ड उपलब्ध है। उसके साथ रिचार्ज कार्ड लेकर रखें तो कोई चिंता नहीं होती। नेपाल की मुद्रा भी रुपया ही है। लेकिन अपने दस रुपये में सोलह नेपाली रुपये मिलते हैं। कनेक्टिविटी तो ठीक है लेकिन समस्या होती है मोबाइल के चार्जिंग की। क्योंकि इलेक्ट्रिसिटी का संजाल बहुत कम है। गांवों के बीच अंतर भी बहुत है। दो गांवों के बीच पहाड़ और खाइयां भी होती हैं। कुछ स्थानों पर जलविद्युत केंद्र हैं। लेकिन बहुत से स्थानों पर सौर ऊर्जा का ही इस्तेमाल किया गया है। अधिकांश लॉजों पर सोलर चार्जिंग की सुविधा होती है। उसे खरीदना पड़ता है। फाकडिंग में मोबाइल चार्जिंग को 100 रु. लगेंगे तो गोरक्षेप में छह सौ रुपये देने पड़ेंगे। स्थान के अनुसार दर बदलते हैं। सुविधा है, यह क्या कम है?

दूसरा उपाय यह है कि अपने साथ सोलर चार्जर रखें। उसका भी उपयोग होता है। कैमरों को भी चार्ज करना होता है। अतः दोनों सुविधाएं साथ रखे तो अच्छा है।

लेकिन गिरीप्रेमी के प्रति स्नेह में हम बंध गए। हमारे देश में माउंटेनीयरिंग को खेल का दर्जा प्राप्त न होने को क्या कहें? विश्व के कितने पीछे हैं हम। महाराष्ट्र सरकार को जल्द से जल्द एडवेंचर स्पोर्ट्स की नीति बनानी चाहिए और माउंटेनीयरिंग को खेल का दर्जा दिया जाना चाहिए। इसी तरह ग्लायडिंग, पैरासेलिंग, रैपलिंग, रिवर राफ्टिंग, स्नॉर्केलिंग, स्कूबा डायविंग, वैली क्रासिंग, रॉक क्लायबिंग के साथ-साथ जन्माष्टमी को होने वाले गोविंदा को भी साहसी खेल का दर्जा दिया जाना चाहिए। ऐसा होने पर सभी गिरिप्रेमी महाराष्ट्र सरकार के ॠणी होंगे। महाराष्ट्र में गिर्यारोहण के लिए विश्व स्तरीय इंस्टीट्यूट की भी स्थापना की जानी चाहिए। ट्रेक सफलता से पूरा करने पर ध्यान में आया कि यह हम कर सकते हैं। इसका आनंद बहुत है। एक रहस्य का मुझे पता चला जो बताना जरूरी है। वह यह कि हमारी क्षमता‘क्ष’ है या ‘य’ है इस तरह तय नहीं होती, हम जो चुनौतियां स्वीकार करते हैं उसके अनुसार बदलती रहती है। र्जीी लररिलळीूं र्ींरीळशी रललेीवळपस ीें ींहश लहरश्रश्रशपसशी ुश रललशिीं. मैंने अनुभव किया कि मेरी क्षमता में बहुत वृद्धि हुई है। दूसरा यह अनुभव रहा कि ‘सब कुछ मन का खेल है।’ शरीर मन की आज्ञा व इच्छा के अनुरूप काम करता है। ‘आपका शरीर क्या मन को नियंत्रित करता है?’ या ‘क्या आपका मन शरीर को नियंत्रित करता है?’ इससे मन और फलस्वरूप शरीर की क्षमता कम-अधिक तय होती है। दिल से केवल इतना ही कहना चाहता हं कि हरेक को थोड़ा-बहुत साहसी तो होना ही चाहिए। इससे जीवन में अनेक चुनौतियां सहन करने की शक्ति हममें आती है। मर्यादित साहस हमारा स्वभाव बनना चाहिए। थोड़ा रोमांच तो जीवन में होना चाहिए या नहीं?

                               एवरेस्ट का पहला सफल अभियान

सर जॉर्ज एवरेस्ट सर्वेक्षण करने वाला अंग्रेज अधिकारी था व उसके नाम से ही इस शिखर का नाम एवरेस्ट प्रचलन में आ गया। एवरेस्ट की मानक ऊंचाई नापने का काम उसकी टीम ने किया इसलिए इ.स. 1865 में लंदन की रॉयल जिओग्राफिकल सोसायटी ने शिखर का यह अधिकृत नामकरण किया। कहते हैं कि इस नामकरण को स्वयं एवरेस्ट का विरोध था और इसी तरह के नामकरण के 1857 में हुए प्रयास का उसने विरोध किया था। एवरेस्ट का कहना था कि स्थानीय नाम देना ही बेहतर होगा। लेकिन यह बात स्वीकार नहीं की गई और दुनियाभर में आज इस शिखर को एवरेस्ट के नाम से जाना जाता है।

पहले उसे झशरज्ञ-दत अर्थात शिखर-15 कहा जाता था। इस झशरज्ञ-दत को आज नेपाल सरकार ने अधिकृत नाम सागरमाथा दिया है। चीन ने उसका ‘चोमोलुंगमा’ नामकरण किया है।

एवरेस्ट पर अभियानों की शुरुआत 1921 से हुई। ब्रिटिश सेना ने यह साहसिक अभियान बनाया था। इसके बाद अनेक देशों ने प्रयास किए। इनमें से ‘मैलरी’ नामक साहसी गिर्यारोहक ब्रिटिशों की तीसरी साहस यात्रा में 1924 में शामिल हुआ था। वह एवरेस्ट तक पहुंचा या नहीं यह आज भी कोई नहीं बता सकता क्योंकि इस साहस यात्रा में क्या हुआ यह बताने वाला कोई बचा ही नहीं। उसकी मृत देह भी नहीं मिली। अनेक यात्राओं के बाद 1953 का अभियान सफल हुआ। इसमें भी पहली टीम में हिलेरी नहीं था। उसके पहले चार्ल्स इवान व टॉम बोर्डीलॉन के युगल ने एवरेस्ट फतह करने की कोशिश की, लेकिन यह अधूरी ही रही। दो दिन बाद जान हंट नामक टीम लीडर ने एडमंड हिलेरी व शेरपा तेनजिंग नोरगे का चयन किया और वे सफल रहे। ब्रिटिश टीम को यह अभियान प्रतिष्ठा का लगता था। क्योंकि वर्ष 1954 फ्रांस की टीम के लिए और वर्ष 1955 स्विट्जरलैण्ड की टीम के लिए आरक्षित था। एडमंड हिलेरी न्यूजीलैण्ड का मूल निवासी था लेकिन शामिल हुआ ब्रिटिश अभियान में। सच है कि सफलता जैसा और कुछ नहीं होता। क्योंकि एवरेस्ट की चढ़ाई के साथ उसका दुनियाभर में नाम फैल गया इसलिए कि वह सफल हुआ। उसके पूर्व अनेक लोगों ने प्रयास किए, लेकिन दुनिया ने उन्हें याद नहीं रखा। 350 पोर्टर हिलेरी की सहायता के लिए थे। 26 मई 1953 का इवान्स व बोर्डीलॉन्स का अभियान विफल होने के बाद 28 मई 1953 को हिलेरी व नोरगे ने चढ़ाई आरंभ की व 29 मई 1953 को सुबह 11.30 बजे वे शिखर पर सफलता से पहुंचे। दोनों एक-दूसरे के गले मिले। फोटो उतारी व उतरते समय मैलरी व इवान्स के मृत शरीरों को खोजने की कोशिश की। दोनों के पास 27 किलो वजन था। हिलेरी पहले पहुंचा कि नोरगे इस पर विवाद है। हिलेरी पहले पहुंचा यह सही है। परंतु हिलेरी व नोरगे दोनों ने इस विवाद में न पड़ना ही बेहतर समझा। इस विषय पर न बोलने का मानो दोनों में एक अलिखित करार ही था।

इस सफलता के बाद आज तक लगभग 3500 लोग एवरेस्ट पर सफलता से चढ़ चुके हैं। लगभग 200 लोग इस प्रयास में मर भी चुके हैं।
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