पुरस्कार का चुभन

पुरस्कार खुशी ही नहीं लाते, अवसाद भी लाते हैं। खुशी पुरस्कार देने वालों को होती है, बोझ पाने वालों को आजन्म ढोना होता है। जितना बड़ा पुरस्कार उतना बड़ा बोझ- कर्तव्यबोध का, सच बोलने का, सामाजिक सरोकारों का और मौका पड़ने पर खरी-खोटी सुनाने का। तिस पर भी लोग गूंगे-बहरे हो जाए तो अलंकरण लौटा देने की नौबत आती है। अधिकतर तो अलंकरण की चौंधियाती दुनिया में ही खो जाते हैं। फिर उनके नाम भी किसी को याद नहीं रहते? याद रहते हैं वे जो सच की तूरही फूंकते हैं। ऐसे बिरले ही होते हैं। ऐसे लोग सिद्धांत के कड़े अनुगामी होते हैं और बड़े से बड़े अलंकरण को ठोकर मार देते हैं! अलंकरण पाने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता, अलंकरण का कद बढ़ जाता है!

ये कोई नई बातें नहीं हैं; लेकिन दुहराना इसलिए पड़ रहा है कि नवम्बर में ऐसी तीन घटनाएं हो चुकी हैं। दो घटनाएं ‘भारत रत्न’ अलंकरण से जुड़ी हैं और एक साहित्य अकादमी के पुरस्कार से। राजनीतिक धमाचौकड़ी में ये घटनाएं दबकर रह गईं। सचिन लहर पर सवार होकर सरकार ने सचिन को ‘भारत रत्न’ दे दिया। उन्हें अकेले देने के बजाय साथ में एक वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रो. सी.एन.आर.राव को भी देश का यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान दे दिया। दोनों के अपने-अपने क्षेत्र में शिखर कार्य हैं। सचिन ने इस सम्मान को देश की माताओं को समर्पित कर दिया, लेकिन प्रो. राव ने सम्मान पाते ही राजनीतिक नेतृत्व को ‘बददिमागी’ (इडियट) कह दिया। सम्मान पाने पर सचिन भावुक हो गए, जबकि प्रो. राव आक्रामक। सचिन का भावुक होना व्यक्तिगत स्तर पर है और उनके चहेतों को रुलाने के लिए काफी है। लेकिन, प्रो. राव का आक्रामक होना व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक हित में है। प्रो. राव का यह कहना गलत नहीं है कि मात्र सेंसेक्स बढ़ना या व्यापार बढ़ जाना ही सबकुछ नहीं है। यदि विज्ञान में प्रगति नहीं हुई तो सब बेकार है। चीन जैसी प्रगति हम इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि चीनियों जैसी कठोर देशभक्ति व कड़े परिश्रम की हमारी तैयारी नहीं है। प्रो. राव की टिप्पणी कड़वी जरूर लगती है, लेकिन बीमारी की दवा भी है। यथार्थ के प्रति आक्रोश है और देश के वर्तमान नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न लगाती है।

इस आपाधापी में एक अन्य पुरस्कार से सम्बंधित बात आई-गई रह गई। यह साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार से सम्बंधित है। माना कि भारत रत्न के मुकाबले साहित्य अकादमी का यह पुरस्कार कोई विशेष स्थान नहीं रखता। फिर भी, जिस आधार पर सिंधी अनुवादक प्रा. लछमन हर्दवाणी ने यह पुरस्कार लौटा दिया वह आधार माने रखता है। मुद्दा है सिंधी भाषा की लिपि कौनसी हो? प्रा. हर्दवाणी सिंधी भाषा के लिए देवनागरी लिपि के समर्थक हैं। एक दूसरा वर्ग है जो सिंधी के लिए फारसी अथवा अरबी लिपि का समर्थक है। स्वाधीनता के समय भारत सरकार ने सिंधी के लिए देवनागरी लिपि ही मान्य की थी। लेकिन, राजनीति के चलते बाद में सिंधी की अरबी लिपि को भी मान्यता दी गई। साहित्य अकादमी की स्थापना के बाद पहला सिंधी पुरस्कार तीर्थ बसंत की पुस्तक ‘कंवर’ को दिया गया। वह पुस्तक देवनागरी में ही थी। 1992 में स्वयं प्रा. हर्दवाणी को इरावती कर्वे के मराठी उपन्यास ‘युगांत’ के देवनागरी सिंधी में अनुवाद के लिए पुरस्कार दिया गया। लेकिन अब अरबी सिंधी पुस्तकों को ही दिया जाता रहा है। देवनागरी की इस उपेक्षा के प्रति प्रा. हर्दवाणी ने अपना पुरस्कार लौटा दिया है। प्रा. हर्दवाणी ने दो बातों की ओर ध्यान दिलाया है- एक यह कि संस्कृत- प्राकृत से निर्मित सिंधी की स्वाभाविक लिपि देवनागरी ही है। 1853 में अंग्रेजों ने हमारी सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस करने के लिए अरबी लिपि को लागू किया। अंग्रेजों की साजिश को एक बार समझ भी सकते हैं, लेकिन स्वाधीनता के बाद हमारी सरकार इस कुचक्र में फंस जाए यह दुखद है। दूसरी बात उन्होंने यह उजागर की है कि अरबी लिपि समर्थक इतने लामबंद हो गए हैं कि अब देवनागरी वालों को कोई पूछता ही नहीं है, न पुरस्कार दिया जाता है। कभी हिंदी के लिए भी रोमन लिपि अपनाने या अरबी लिपि को हिंदुस्तानी कहकर लादने के प्रयास भी होते रहे हैं। लेकिन ये प्रयास मदन मोहन मालवीय और सेठ गोविंददास जैसे महानुभावों के प्रयत्नों के कारण सफल नहीं हो सके।

पुरस्कारों के लिए ‘गिरोहबाजी’ की संस्कृति तेजी से फैल रही है। हर गली-कुचे में पुरस्कार देने वाली छोटी-बड़ी कई संस्थाएं खड़ी हो गई हैं। उनके नाम तक गिनाना मुश्किल है। ऐसी संस्थाएं इसलिए पुरस्कार देती हैं कि उस व्यक्ति की महत्ता का निहित स्वार्थ के लिए लाभ उठाया जा सके और ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो पुरस्कार पाने का ‘जुगाड़’ कर लें और ऐसे पुरस्कारों का अपनी महत्ता साबित करने के लिए लाभ उठाए। दोनों स्थितियां अनुचित हैं, जिस पर गौर करने, आत्मचिंतन करने का समय आ गया है।
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