प्रकृति का कोई राग ही है रंजना पोहनकर की कला

वह संगीतकारों के परिवार में पैदा हुईं। उनके पिता श्री कृष्णराव मजुमदार देवास दरबार के प्रसिद्ध गायक उस्ताद रजब अली साहब के शिष्य थे। घर में शास्त्रीय संगीत का वातावरण बचपन से ही मिला और विवाह भी अजय पोहनकर परिवार में हुआ जो आज भी शास्त्रीय गायन में प्रमुख स्थान रखता है। इस प्रकार रंजना पोहनकर निरंतर सांस्कृतिक परिवेश में रची-बसी हैं। स्वयं भी उस्ताद अमीर खां साहब उनके प्रिय वोकलिस्ट हैं। विख्यात गज़ल गायक मेहंदी हसन और अपनी ठुमरियों के लिए जानी जाती बेगम अख्तर रंजना पोहनकर की खास पसंद हैं।

देवास महान गायक कुमार गंधर्व की नगरी रही है और अपनी रसमयी कविताओं के लिए प्रसिद्ध नईम की भी। प्रकृति ने भी देवास का शृंगार जी खोल कर किया है। दूर-दूर तक फैले खेतों की हरीतिमा जैसे ग्राम्य प्रांतर पर हरी चादर ही बिछा रही हो, ऐसा लगता है ।

यही वजह रही कि संगीत ही नहीं, साहित्य और कला के संस्कार भी रंजना को जन्मघुट्टी में मिले। परिणाम यह हुआ कि वे स्वयं भी गाने लगीं और कविताएं स्वत: ही प्रवाहित होने लगीं। साथ ही देवास की नैसर्गिक सुषमा भी मन में प्रवेश करती गई। बाद मेें बड़ोदा के विख्यात महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के फाइन आर्टस् विभाग में प्रवेश ले लिया और 1973 में स्नातक बनीं। वहां प्रसिद्ध चित्रकार गुलाम मोहम्मद शेख का सान्निध्य मिला और के.जी.सुब्रह्ममणन जैसे गुरु मिले जिनका प्रभाव उनकी कला पर पड़ना ही था। उधर साहित्य के कई महारथियों ने भी प्रेरित किया जैसे डॉ. प्रभाकर माचवे, श्री नरेश मेहता, डॉ. जगदीश गुपत और भवानीप्रसाद मिश्र।

रंजना यों कोई एक्टिविस्ट नहीं हैं किंतु उनके चित्र किसी-न-किसी ज्वलंत समस्या पर प्रहार करते लगते हैं। यह मुहिम सोद्देश्य तो नहीं होती, पर अनजाने ही यह किसी सामाजिक या मौजूदा स्थितियों या प्रथाओं पर चोट करती होती है। जैसे एक बार उनकी चित्र-शृंखला महानगर की चकाचौंध के व्यामोह में ग्रसित किसी छोटे शहर से आई नारी की पीड़ा को ध्वनित करती थी। इन चित्रों में वह टूट-फूट की दुनिया से दूर रहने की कोशिश में है। वह अपने मायके के सपनेे देखती है और उसे याद आता है बीता हुआ बचपन और पीहर के घर की दीवारें। या वह महानगर के स्वप्निल परिवेश में अपने को इतना हताश पाती है कि उसका डूब जाने का मन करता है। कभी उसे लगता है कि वह घर की चहारदिवारी में ही घुट कर रह जायेगी। वह तय नहीं कर पाती कि वह घर से बाहर जाकर रंगीन दुनिया में अपनेे को रम जाने दे अथवा घर में ही घुटी रह जाये। इन चित्रों ने साबित कर दिया था कि रंजना पोहणकर सच में नारी-वेदना की चितेरी हैं, किंतु पिछले दिनों जब वे केरल के प्राकृतिक रम्य वैभव से साक्षात करके लौटीं तो उन्हें प्रकृति की अटूट संपदा ने अभिभूत कर दिया। वहां के वन-प्रांतर और नीले समुद्र की उत्ताल लहरियों तथा केरल के जगविख्यात बैकबाटर ने इस कदर मोह लिया कि अपने आकार बहुल चित्र-शैली छोड़ कर अमूर्त्त रचना करने लगीं। इस बार बने चित्रों के ज़रिये अनायास ही उन्होंने जैसे पर्यावरण की रक्षा का संदेश भी दे डाला, जो प्रकट में उनका उद्देश्य नहीं था। पर जिस तरह विकास के बहाने हम रमणीक प्रकृति पर जुल्म करते जा रहे हैं, ये चित्र सहज ही ऐसा कह जाते हैंं। केरल की निसर्ग-सुषमा ने ही नहीं, देहरादून और मसूरी की यात्राओं ने भी उन्हें मोहाविष्ट किया है और देवास की दूर तक फैली हरीतिमा तो उनके मन में पहले से घर किये हुए थी। ‘शाखा-प्रशाखा’ शीर्षक इस शृंखला के कई चित्रों की प्रेरणा इन स्थानों से भी मिली है। किंतु फिर भी ये लैंंडस्केप नहीं हैं और न किसी पेड़ या फूल विशेष की पेंटिंग हैं, नेचर की इस अपार संपदा ने चित्रकार की अनभूति को किस रूप में प्रभावित किया, यह उस पल का अमूर्त्त चित्रण हैं ।

रंजना पोहनकर मुंबई के अलावा कोलकाता और इंदौर में भी प्रदर्शनियां लगा चुकी हैं। एक शो ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न नगर में भी हो चुका है।

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