फिल्मों के माध्यम से मतांतर

आपातकाल के बाद लोकसभा चुनावों के प्रचार की ‘धूम’ जब शुरू हुई तब की यह कहानी है। अर्थात 1977 की। इस प्रचार के एक भाग के रूप में नई दिल्ली में जनता पक्ष की ओर से जयप्रकाश नारायण की सभा आयोजित की गई थी। उस समय पूरे देश में सभी ओर कांग्रेस विरोधी वातावरण होने के कारण ‘जनता पक्ष’ की सभा में अभूतपूर्व भीड़ होना स्वाभाविक था। इस भीड़ को कैसे रोका जाये। तत्कालीन कांग्रेस ने एक अलग ही चाल चली। उसने उसी दिन दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र पर राज कपूर द्वारा निर्देशित रोमांटिक फिल्म ‘बॉबी’ प्रसारित करने का निर्णय लिया। घर बैठे ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया का असली रोमान्स देखने का मौका मिलने के कारण दर्शक घर से बाहर नहीं निकलेंगे, ऐसा कांग्रेस का मानना था, परंतु दर्शकों ने इसे गलत साबित कर दिया।

राजनीति के लिये फिल्मों का उपयोग और फिल्मों में राजनैतिक दांव-पेंच हमारे यहां का अद्भुत और महत्वपूर्ण रियलिटी शो है। कभी किसी पार्टी का ‘वोट बैंक’ मजबूत करने के लिये फिल्म जैसा प्रभावी और दूर तक पहुंचने वाले ‘माध्यम’ का उपयोग किया जाता है। कभी किसी फिल्म के द्वारा किसी दल का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष राजनैतिक विचार दिखाया जाता है तो कभी-कभी एक सुरक्षित और मार्गदर्शक रास्ता निकाला जाता है।

इस संदर्भ में दो हिंदी फिल्मों के उदाहरण देने चाहिये।
राकेश ओम प्रकाश मेहरा द्वारा निर्देशित ‘रंग दे बसंती’ राजनीति के संबंध में जागरुकता निर्माण करने में सफल रही। इस फिल्म में ‘आज के भारत’ और भगत सिंह की राष्ट्रनिष्ठा को फ्लैशबैक पद्धति से बहुत सुंदर तरीके से जोड़ा गया है। इसमें एक ओर अच्छी बात भी बताई गई है कि राजनीति बुरी है, सभी राजनेता भ्रष्ट हैं। ऐसे आरोप करते रहने के बजाय सुशिक्षित युवा वर्ग प्रत्यक्ष राजनीति में सहभागी हों और उस सिस्टम का एक भाग बनकर अपनी क्षमता के अनुरूप राजनीति में जितना हो सके उतना सुधार करे। निर्देशक का यह प्रजेंटेशन बुद्धि को झकझोरने वाला रहा। इतना कि इस फिल्म को देखकर कई लोग यह मानने लगे कि भले ही हम प्रत्यक्ष रूप से राजनीति का हिस्सा न बन सकें, परंतु योग्य दल और उम्मीदवार को मतदान करके सत्ता जरूर बदल सकते हैं, हमारा एक मत भी बहुत महत्वपूर्ण है। फिल्म के माध्यम से इस प्रकार का ‘समाज प्रबोधन’ भी हो सकता है। किसी एक दल का सीधे-सीधे प्रचार करने की जगह लोकतंत्र के द्वारा हमें मिले मतदान के अधिकार का उपयोग करें, यही फिल्म का संदेश था।

मणिरत्नम द्वारा निर्देशित ‘युवा’ में भी ‘मतदान करने की जागरुकता’ का ही प्रदर्शन किया गया है। सिस्टम के विरोध में शोर-शराबा न करते हुए स्वयं ही उस प्रवाह में शामिल हों और उससे समझने का प्रयत्न करें। फिल्म यही संदेश देते हुए मतदान करने का महत्व समझाती है। इतना सब करते हुए फिल्म मनोरंजन करने के कवर को नहीं छोड़ती। वरना उसे प्रचार करनेवाली या उपदेशात्मक खाका मिल जाता। क्योंकि इस प्रकार के उपदेश पर करोड़ रुपये खर्च नहीं किये जा सकते और सौ दो सौ रुपये का टिकट खरीद कर कोई आम आदमी उसे देखने भी नहीं जायेगा।

फिल्म के माध्यम से राजनैतिक जागरुकता लाने में भी मुश्किलें होती हैं। एक विशिष्ट राजनैतिक विचार प्रणाली दिखाने वाली फिल्म के लिये उसी विचार का अभिनेता होना आवश्यक है। जिस प्रकार कम्यूनिस्ट विचारवाली फिल्म ‘गरम हवा’ के लिये बलराज साहनी का चुनाव किया गया। इस तरह के किसी दल विशेष पर बनी फिल्म पर सेंसर बोर्ड भी अपनी कैंची चला सकता है। आपातकाल के दौरान रामराज नाहटा की ‘किस्सा कुर्सी का’ भी इसलिये ही अटक गई। विरोधी दल भी इस तरह की फिल्म के विरोध में आंदोलन कर सकते हैं। ‘अंगरक्षक’ फिल्म की तमिल आवृत्ति के संदर्भ में ऐसा ही हुआ।

दर्शकों को राजनैतिक पार्श्वभूमिवाली प्रेमकथा जरूर पसंद आती है। (उदाहरण ‘आंधी’) किसी सत्य घटना की जांच करनेवाली फिल्म भी लोग पसंद करते हैं। ‘मद्रास कैफे’ इसका उत्तम उदाहरण है। पर उनको यह सुनना नहीं सुहाता कि जब आप यह सब देख रहे हैं तो मतदान भी कीजिये। मतदाता अपनी पद्धति से, क्षमता से और अपेक्षा के अनुरूप राजनीति और चुनावों के दांव -पेंचों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विश्लेषण करते हैं। उसकी उस समझ का पूर्णता देनेवाली फिल्में देखना उसे पसंद आता है।
दक्षिण भारत की कन्नड़, तमिल, तेलगू या मलयालम फिल्मों के माध्यम से कई बार ‘राजनैतिक संदेश’ दिया जाता है। चिरंजीवी ने कुछ ऐसी ही चाल चलकर अपनी पार्टी का प्रचार किया। फिल्में एक सशक्त माध्यम हैं और उनका उपयोग करना गलत नहीं है, ऐसा दक्षिण में माना जाता है। शायद एक कारण यह भी हो सकता है कि जयललिता और अन्य कई राजनेता मूलत: फिल्मों की पृष्ठभूमि वाले हैं।

कभी-कभी किसी राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं की भावनाएं भी फिल्मों में दिखाई जाती हैं। अवधूत गुप्ते द्वारा निर्मित मराठी फिल्म ‘झेंडा’ इसका उत्तम उदाहरण है।

डी. नारायण राव द्वारा निर्देशित ‘आज का एम.एल.ए., राम अवतार’ फिल्म भी मतदान करने का संदेश देनेवाली और सत्ता की राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है, इसका अनुभव करानेवाली थी। इसमें एक नाई (राजेश खन्ना) चंपी करते-करते उन लोगों के आग्रह पर ही राजनीति में प्रवेश करता है और राजनीति एक ऐसा मोड़ लेती है कि वह उस राज्य का मुख्यमंत्री बन जाता है। अत्यंत उपहासात्मक और मार्मिक पद्धति से यह सब घटित होता है।

टीनू आनंद निर्देशित ‘मैं आजाद हूं’ भी एक अलग प्रकार की फिल्म थी। इसमें पत्रकारिता के माध्यम से भ्रष्ट सत्ता के विरोध में जनता को जागरुक किया गया था। इसमें ‘खादीधारी’ अमिताभ नजर आये। किसी ऊंचे मकाम पर पहुंच चुके अभिनेता के द्वारा जनता के सामने कोई प्रश्न या सामाजिक समस्याएं रखना एक अलग प्रभाव निर्माण करता है। अमिताभ अगर कुछ बता रहा है तो उसमें जरूर कोई बात होगी, यह आशा फिल्म के लिये महत्वपूर्ण होती है।

राहुल खेर द्वारा निर्देशित ‘अर्जुन’ में अर्जुन मालवणकर (सनी देओल) एक भ्रष्ट राजनेता (प्रेम चोपड़ा) के विरुद्ध कई सबूत इकट्ठा करते हैं जिसमें उसकी पत्रकार दोस्त (डिंपल कपाड़िया) बहुत मदत करती है, परंतु यह दूसरा नेता उन सारे सबूतों का उपयोग पहले राजनेता के विरोध में राजनीति खेलने में करता है। इस अनुभव से व्यथित होकर अर्जुन दोनों के विरोध में जंग छेड़ देता है।

मधुर भंडारकर की ‘सत्ता’ में सत्ता प्राप्त करने के पूरे खेल-खेल को दिखाया गया है। यह फिल्म वास्तविकता के करीब हो इसलिये मधुर ने कई राजनेताओं से चर्चा की थी। इससे फिल्म की विश्वसनीयता बढ़ती है।

शंकर की ‘नायक’ फिल्म एकदिन के मुख्यमंत्री की कहानी सुनाती है। यह भी दक्षिण की फिल्म का रीमेक था। इसमे भी जनसामान्यों की भावना तथा संवेदना का भरपूर उपयोग किया गया। इसलिये दर्शकों को इस तरह की फिल्में पसंद आती हैं।
राम गोपाल वर्मा ने ‘सरकार’ बनाते समय यह फिल्म शिवसेना प्रमुख के जीवन से मिलता-जुलता है, ऐसा वातावरण निर्माण किया। इससे दर्शकों और प्रसार माध्यमों दोनों की उत्सुकता बढ़ने लगी थी। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं था, परंतु इस तरह की फिल्में पसंद करनेवाला भी एक वर्ग है और वह बढ़ रहा है, यह मानना पडेगा।

सतीश कौशिक की ‘लोफर’, एन. चन्द्रा की ‘प्रतिघात’, प्रकाश झा की ‘राजनीति’ इत्यादि कई फिल्मों में राजनीति दिखाई दी। इससे आम आदमी की राजनीति के विषय में जानकारी लगभग पूर्ण हुई और यही सबसे महत्वपूर्ण है।

बड़े परदे की यह राजनीति क्या मतदाताओं में जागरुकता निर्माण करेगी? इसका जवाब हां या नहीं देने की जगह तटस्थ रहना उत्तम होगा। क्योंकि फिल्मों का दर्शक अपनी आकलन शक्ति के अनुसार समय-समय पर फिल्मों से जो चाहिये वो प्राप्त करता रहता है।

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